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________________ १७२ : भिक्षु विचार दर्शन १. साधु गण के साधु-साध्वियों को साधु माने। २. जो अपने आपको भी साधु माने, वह गण में रहे। ३. कपटपूर्वक गण में साधुओं के साथ न रहे। ४. साधु नाम धराकर असाधुओं के साथ रहना अनुचित है। ५. जिसका मन शुद्ध हो वह ऐसा विश्वास दिलाए। ६. वह गण के किसी भी साधु-साध्वी का अवगुण बोलने का, आपस में एक-दूसरे के मन में भेद डालने का, एक-दूसरे को असाधु मनवाने का त्याग करे। ७. मेरी इच्छा होगी तब तक गण में बैठा हूं, इच्छा नहीं होगी तब यहां से चला जाऊंगा-इस अनास्था से गण में न रहे। ८. संकोचवश गण में न रहे। इसमें गण, गणी और गण के सभी सदस्यों के प्रति और अपने प्रति भी आस्था की अभिव्यंजना है। जिसकी ऐसी आस्था होती है, वह दूसरों का प्रेम ले सकता है और अपना प्रेम दूसरों को दे सकता है। प्रेम तभी टूटता है जब एक-दूसरे में मास्था का भाव होता है। १५. गण में किसे रखा जाए? योग्यता और अयोग्यता का अंकन कई दृष्टियों से होता है। स्वस्थ व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से योग्य होता है और अस्वस्थ व्यक्ति अयोग्य। बौद्धिक योग्यता किसी में होती है, किसी में नहीं होती। कोमल प्रकृति वाला व्यक्ति स्वभाव से योग्य होता है और कठोर प्रकृति वाला अयोग्य। शारीरिक अशक्ति की स्थिति में दूसरों को कष्ट होता है। सेवा का कष्ट शारीरिक है। पर वह वस्तुत; कष्ट नहीं, श्रम है। बौद्धिक योग्यता हो तो बहुत लाभ होता है। वह न हो तो उतना लाभ नहीं होता, पर उससे किसी को क्लेश भी नहीं होता। स्वभाव की चण्डता जो है वह दूसरों में क्लेश उत्पन्न करती है। आचार्य भिक्षु ने शारीरिक अयोग्यता वाले व्यक्ति को गण में रखने योग्य बतलाया है। उन्होंने वैसे व्यक्ति को गण में रखने के अयोग्य बतलाया १. लिखित, १८५० २. वही, १८४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003095
Book TitleBhikshu Vichar Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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