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अनुभूतियों के महान् स्रोत : १६६
पर उसे चारा कोई नहीं खिलाता। वे सोचते हैं एक दिन नहीं खिलाएंगे तो क्या? कल जिसे दूध लेना है वह स्वयं खिलाएगा। उनकी स्वार्थ-वृत्ति का फल यह हुआ कि गाय मर गई। रहस्य खुला तो लोगों ने धिक्कारा । दूध भी अब कहां से मिले उन्हें ?
इसी प्रकार जो संघ या आचार्य से बहुत लेना चाहते हैं, परन्तु उनके प्रति अपना दायित्व नहीं निभाते, वे स्वयं नष्ट होते हैं और संघ को भी विनाश की ओर ढकेल देते हैं।'
जिस समाज, जाति और देश में निःस्वार्थभावी लोग होते हैं, उस समाज, जाति और देश का उत्कर्ष होता है। स्वार्थी लोग संगठन को अपकर्ष की ओर ले जाते हैं। स्वार्थी की दृष्टि स्वार्थ पर टिकती है, दायित्व उसके
ओट में छिप जाता है। स्वार्थ कोई बुरा नहीं है, परन्तु संघ के हितों को गौण बनाकर जो प्रमुख बन जाए, वैसा स्वार्थ अवश्य ही बुरा है। आचार्य भिक्षु ने इसी तथ्य को उक्त पंक्तियों में अंकित किया है। १३. चौधराई में खींच-तान आचार्य भिक्षु की अनुभूति की धारा कहीं तटों की सीमा में प्रवाहित हुई है तो कहीं उन्मुक्त। तटों के मध्य में बहने वाली धारा का सुखद-स्पर्श
१. विनीत-अविनीत, ४.११-१५
किण ही गाय दीधी च्यार ब्राह्मणां भणी रे, ते वारे वारे दूहे ताय रें। तिणनें चारे न नीरे लोभी थकां रे, म्हार काले न दूजे आ गाय रे॥ त्यार माहोमा लागो ईसको रे, तिण सूं दूखे मूइ गाय रे। ते फिट फिट हुवा ब्राह्मण लोक में रे, ते दिप्टंत अविनीत ने ओलखाय रे॥ गाय सारिखा आचारज मोटका रे, दूध सारिखो दे ग्यान अमोल रे। कुशिष्य मिल्या ते ब्राह्मण सारिखा रे, ते ग्यान तो लेवे दिल खोल रे॥ आहार पाणी आदि वीयावच तणी रे, ए न करे सार संभाल रे। एहवा अवनीतां रे बस गुंर पड्या रे, त्यां पिण दुखे-दुखे कियो काल रे॥ ब्राह्मण तो फिट-फिट हुवा घणां रे, ते तो एकण भव मझार रे। तो गुर रा अविनीत रो कहिवो किसूं रे, तिणरो भव भव हुसी विगाड रे॥
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