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१६८ : भिक्षु विचार दर्शन ११. गुरु का प्रतिबिम्ब एक व्यक्ति को विनीत शिक्षक मिलता है और दूसरे को शिक्षक मिलता है अविनीत। एक जो विनीत के पास सीखा और दूसरा अविनीत के पास, उन दोनों में कितना अन्तर है? यह प्रश्न उपस्थित कर आचार्य ने स्वयं इसका समाधान किया है
एक ने विनीत से बोध पाया और एक ने पाया अविनीत से। उनमें उतना ही अन्तर है जितना धूप और छांह में। जो विनीत के द्वारा प्रतिबद्ध है वह चावल-दाल की भांति सबसे घुल जाता है। जो अविनीत के द्वारा प्रतिबद्ध है
वह 'काचर' की भांति अलग रहता है। १२. उत्तरदायित्व की अवहेलना आचार्य भिक्षु संघ-व्यवस्था के महान् प्रवर्तक थे। वे व्यवहार के क्षेत्र में पारस्परिक सहयोग को बहुत महत्त्व देते थे। जो व्यक्ति स्वार्थी होते हैं, वे केवल लेना ही जानते हैं, देना नहीं और जो सामुदायिक उत्तरदायित्व की अवहेलना करते हैं, वे संघ की जड़ों को उखाड़ने जैसा प्रयत्न करते हैं। इसे एक कथा के द्वारा समझाया है
किसी व्यक्ति ने चार याचकों को एक गाय दी। वे क्रमशः एक-एक दिन उसे दुहते हैं।
कांदा री तो वास धोयां मुधरी पड़े, निरफल छे अविनीत ने उपदेश हो।
जो छोडवे तो अविनीत अंवलो पडे घणो, उणरे दिन-दिन इधक कलेश हो। १. विनीत-अविनीत, ५.१५
समझाया विनीत अविनीत रा ए, त्यांमे फेर कितोयक होय।
ज्यूं तावडो ने छांहडी ए, इतरो अन्तर जोय।। २. वही, ५.१४ विनीत तणा समझाविया ए, साल दाल ज्यूं भेला होय जाय। अविनीत रा समझाविया ए, ते कोकला ज्यूं कानी थाय॥
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