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साध्य-साधना के विविध पहलू : ७६
भगवान् महावीर ने कहा - " सब जीवों को आत्मतुल्य समझो।""
महात्मा बुद्ध ने कहा - " दण्ड से सब डरते हैं, हैं। दूसरों के अपनी तरह जानकर, मनुष्य किसी मरवाए । २
योगीराज कृष्ण ने कहा था- " जो योगयुक्त आत्मा है, जो सर्वत्र समदर्शी है, वह सब जीवों में अपनी आत्मा को और अपनी आत्मा में सब जीवों को देखता है ।"३
यह आदर्श वाणी है । साधना के पहले सोपान में आदर्श और व्यवहार का पूर्ण सामंजस्य नहीं होता, वह सिद्धि काल में होता है। मान्यता और आचरण में विरोध नहीं होता, ऐसा नहीं मानना चाहिए । मनुष्य जो कुछ मानता है वही करता है, यह एकान्त सत्य नहीं है। मान्यता यथार्थ होने पर भी कुछ ऐसी अनिवार्यताएं या दुर्बलताएं होती हैं कि मनुष्य मान्यता के अनुरूप आचरण नहीं कर पाता । वीतराग आत्मा के सिद्धान्त और आचरण में कोई विसंगति नहीं होती । अवीतराग की पहचान - सात बातों से होती है * - ( १ ) वह हिंसा करता है; (२) असत्य बोलता है; (३) अदत्त
थारो हाथ बाले तिने पाप लागे तो, ओरां नें मार्यां धर्म नांहीं जी । थे सर्व जीव सरीषा जाणो, थे सोच देखो मन जी ॥ जे जीव मार्यां में धर्म कहे ते, रूले काल सूयगडा अंग अधेन अठारमे, तिहां भाष गया १. दशवैकालिक, १०/१५ :
अत्तसमे मनिज्ज छप्पिकाए ।
२. धम्मपद दण्ड वर्ग-१:
सव्वे तसंति दंडस सव्वे भायन्ति मच्चुनो । अत्तानं उपमं कत्वा न हनेय्य न घातये ॥
३. गीता, ६ / २६ :
मृत्यु से सब भय करते दूसरे को न मारे, न
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि । ईक्षते योगयुक्तात्मा, सर्वत्र समदर्शनः॥
४. ठाणं ७/२८
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सत्तहिं ठाणेहिं छउमत्थं जाणेज्जा, तंगहा-पाणे अइवा एत्ता भवति । मुसं वइत्ता भवति अदिन्नमादित्ता भवति । सद्दफरिसरसरूवगंधे आसादेत्ता भवति । पूजासक्कारमणुवूहेत्ता भवति । इमं सावज्जन्ति पण्णवेत्ता पडिसेवेत्ता भवति । णो जहावादी तहाकारी यावि भवति ।
मांहीं
अनंतो जी । भगवंतो जी ॥
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