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७८ : भिक्षु विचार दर्शन
किन्तु मोह है | मोहात्मक प्रवृत्ति से जीवन की परम्परा का अन्त नहीं होता किन्तु वह बढ़ती ही है।
मोह- ह-मूढ़ मानस का साध्य जीवन बन जाता है। जो जीवन को साध्य मानकर जीता है, वह पवित्रता या संयम को प्रधान नहीं मान सकता । संयम को प्रधानता वही दे सकता है जिसका साध्य जीवन - मुक्ति हो ।
२. आत्मौपम्य
एक आदमी लोहे का लाल-लाल तपा हुआ एक गोला सड़ासी से पकड़कर लाता है और कहता है:
हे धर्म संस्थापको ! लो, इस गोले को एक क्षण के लिए अपनी हथेली में लो। यह कहकर उस आदमी ने गोले को आगे बढ़ाया, परन्तु सबने अपने हाथ पीछे खींच लिये। यह देख उसने कहाः
'ऐसा क्यों ? हाथ क्यों खींच लिये ?
'हाथ जल उठेंगे'
'क्या होगा जलेंगे तो ?.
'वेदना होगी ।'
जैसे तुम्हें वेदना होती है वैसे क्या औरों को नहीं होती ?
'सब जीवों को अपने समान समझो । सब जीवों के प्रति इसी गज और माप से काम लो ।”
१. अणुकम्पा, ३. दू. १ :
वांछे मरणो जीवणो, तो धर्म तणों नहीं अंस ।
ए अणुकम्पा कीयां थकां वधे कर्म नों वंस ॥
२. वही, ६, ६०-६५ः
अग्यानी
केइ जीव मार्यां मांहें धर्म कहे छे, ते पूरा त्यांने जाण पुरुष मिले जिण मारग रो, किण विध बोलावे लोह नों गोलो अगन तपाए, ते अगन वर्ण करे ते पकड़ संडासे आयो त्यां पासे, कह बलतो गोलो थे झालो जब पाषंडीयां हाथ पाछो खांच्यो, जाण पुरुष कहे थे हाथ पाछो खांच्यो किण कारण, थांरी सरधा म राखो जब कहे गोलो म्हें हाथे ल्यां तो, म्हारो हाथ बले लागे तापो तो थारो हाथ बाले तिणने पाप के धर्म, जब कहे उणने लागो पापो जी ॥
जी ।
छाने जी ॥
जी ।
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उंधा जी ।
सूधा जी ॥
तातो
जी ।
हाथो
त्यानें
जी ॥
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