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अनुभूतियों के महान् स्रोत : १६१ पर जुगनू के चमत्कार जैसा,
जैसे जुगनू का प्रकाश क्षण में होता है, क्षण में मिट जाता है, साधुओं की पूजा अल्प होती है, असाधु पूजे जा रहे हैं। यह सूर्य कभी उग रहा है, कभी अस्त हो रहा है। भेख-धारी बढ़ रहे हैं, वे परस्पर कलह करते हैं। उन्हें कोई उपदेश दे तो वे क्रोध कर लड़ने को प्रस्तुत हो जाते हैं। वे शिष्य-शिष्याओं के लालची हैं। सम्प्रदाय चलाने के अर्थी। बुद्धि-विकल व्यक्तियों को मूंड इकट्ठा करते हैं। गृहस्थों के पास से रुपये दिलाते हैं। शिष्यों को खरीदने के लिए, वे पूज्य की पदवी को लेंगे, शासन के नायक बन बैठेंगे; पर आचार में होंगे शिथिल, वे नहीं करेंगे आत्म-साधन का कार्य । गुणों के बिना आचार्य नाम धराएंगे, उनका परिवार पेटू होगा, वे इन्द्रियों का पोषण करने में रत रहेंगे, सरस आहार के लिए भटकते रहेंगे। वैराग्य घटा है, वेश बढ़ा है, हाथी का भार गधों पर लदा हुआ है,
धे थक गए, बोझ नीचे डाल दिया,
१. आचार री चौपाई, ३६-१४
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