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व्यक्तित्व की झांकी : ३३ प्राप्त होती है तो इतने समय तक तो मैं श्वास बन्द कर भी रह जाऊं।
सदाचार उसी के पीछे चलता है जो देश, काल और परिस्थिति के सामने नहीं झुकता। ६. स्वतन्त्र चिन्तन एक वैद्य ने आंख के रोगी की चिकित्सा शुरू की। कुछ दिन बीते। आंख ठीक हो गई। वैद्य ने बधाई मांगी। रोगी ने कहा- 'मैं पंचों से पूछंगा। वे कहेंगे-मेरी आंखें ठीक हो गई हैं, मुझे दिखाई देने लगा है, तो मैं तुम्हें बधाई दूंगा; नहीं तो नहीं।' वैद्य ने पूछा-'तुझे दीखता है या नहीं? रोगी ने कहा- मुझे भले ही दीखे, पर जब पंच कह देंगे कि तुझे दीखता है, बधाई तब ही मिलेगी।"
आचार्य भिक्षु ने इस उदाहरण के द्वारा अन्धानुकरण करने वालों और दूसरों पर ही निर्भर रहने वालों का चित्र ही नहीं खींचा, उन्होंने उनकी पूरी खबर भी ली। __ उनकी विचारधारा स्वतंत्र थी। उन्होंने अनेक धर्माचार्यों को परखा। आखिर स्थानकवासी सम्प्रदाय के आचार्य रुघनाथजी के शिष्य बने। आठ वर्ष तक उनके सम्प्रदाय में रहे। उनकी परीक्षा-पटु बुद्धि को वहां भी संतोष नहीं मिला। वे मुक्त होकर चल पड़े। ज्ञानवान् व्यक्ति केन्द्र होता है। उसके आस-पास समाज स्वयं बन जाता है। आचार्य भिक्षु की अनुभूतियों के आलोक में तेरापंथ नामक गण का प्रारम्भ हो गया। ७. मोह के उस पार बुआ ने कहा- 'भीखण! तू दीक्षा लेगा तो मैं पेट में कटारी खाकर मर जाऊंगी।'
आपने कहा-'कटारी पूनी नहीं है, जिसे पेट में खाया जाए। बुआ को मोह से उबारा, वे उसके मोह में नहीं फंसे।
भीखणजी के पिता शाह बलूजी इस संसार से चल बसे। माता दीपांबाई उन्हें दीक्षा लेने की अनुमति नहीं दे रही थीं। आचार्य रुघनाथजी ने दीपांबाई
१. भिक्खु दृष्टान्त, १०८, पृ. ४६ २. वही, ८०, पृ. ३२ ३. वही, २४०, पृ. ६६ "
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