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क्षीर-नीर : १३६ चला कि हमें इसका उत्तर साधुओं को देना है-सच कहें या झूठ? आखिर सोचा-साधु सत्य-मूर्ति हैं, इनके सामने झूठ बोलना ठीक नहीं! कहते संकोच. होता है, न कहें यह भी ठीक नहीं, क्योंकि इससे इनकी अवज्ञा होती है। यह सोच वे बोले-'महाराज! क्या कहें! आदत की लाचारी है। हम पापी जीव हैं, वेश्या के पास जा रहे हैं। साधु बोले-'तुम भले मानस दीखते हो, सच बोलते हो, फिर भी ऐसा अनार्य कर्म करते हो? तुम्हें यह शोभा नहीं देता। विषय-सेवन से तुम्हारी वासना नहीं मिटेगी। घी की आहुति से आग बुझती नहीं।' साधु का उपदेश हृदय तक पहुंचा और ऐसा पहुंचा कि उन्होंने तत्काल उस जघन्य वृत्ति का प्रत्याख्यान कर डाला। वह वेश्या कितनी देर तक उनकी बाट जोहती रही। आखिर वे आए ही नहीं तब वह उनकी खोज में चल पड़ी और घूमती-फिरती वहीं आ पहुंची। अपने साथ चलने का आग्रह किया, किन्तु उन्होंने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। वह व्याकुल हो रही थी। उसने कहा-'आप चलें, नहीं तो मैं कुएं में गिरकर आत्महत्या कर लूंगी।' उन्होंने कहा-'हम जिस नीच कर्म को छोड़ चुके, उसे फिर नहीं अपनाएंगे।' उसने तीनों की बात सुनी-अनसुनी कर कुएं में गिरकर आत्महत्या कर ली।
यह तीसरा व्यभिचारियों का दृष्टान्त है। दो बातें इसमें भी हुई। एक तो साधु के उपदेश से व्यभिचारियों का दुराचार छूटा और दूसरी-उनके कारण वह वेश्या कुएं में गिरकर मर गई। अब कुछ ऊपर की ओर चलें। यदि चोरी-त्याग के प्रसंग में बचने वाले धन से चोरों को, हिंसा-त्याग के प्रसंग में बचानेवाले बकरों से कसाइयों को अहिंसा हुई मानी जाए तो व्यभिचार-त्याग के प्रसंग में वेश्या के मरने के कारण उन तीनों व्यक्तियों को हिंसा हुई, यह भी मानना होगा।
१. अणुकम्पा, ५.१-१०
एक चोर चोरे धन पार को, वले दूजो हो चोरावे आगेवाण। तीजो कोई करे अनुमोदन, ए तीनां रा हो खोटा किरतब जाण॥ एक जीव हणे तसकाय ना, हणावे हो बीजो पर ना प्राण। तीजो पिण हरषे मारीयां, ए तीनूंई हो जीव हिंसक जाण! एक कुसील सेवे हरष्यो थको, सेवाडे हो ते तो दूजे करण जोय। तीजो पिण भलो जाण सेवीयां, ए तीनां रे हो कर्म तणो बंध होय॥
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