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व्यक्तित्व की झांकी : ४१
यह सही न लगे तो वे इसमें परिवर्तन कर दें।
यह बात वही लिख सकता है जिसे सत्य के नये उन्मेषों का ज्ञान हो। सत्य अनन्त है, वह शब्दों की पकड़ में नहीं आता। आग्रही मनुष्य उसे रूढ़ि बना देते हैं, किन्तु उसे पा नहीं सकते। १८. जो मन को पढ़ सके मनुष्य की आकृति जैसे भिन्न होती है, वैसे प्रतिभा भी भिन्न होती है। कोई अपने मन की बात को भी पूरा नहीं समझ पाता ओर कोई दूसरों के मन की बात को भी पकड़ लेता है। दूसरों के हृदय को अपने हृदय में उड़ेलने वाला उस दूरी को मिटा देता है जो मनुष्य-मनुष्य के बीच में है।
आचार्य भिक्षु आएं तो मैं साध्वी बनूं-एक बहिन ऐसा बार-बार कहती रही। आप केलवा में आये। उस बहिन को ज्वर हो गया। शाम को वह दर्शन करने आयी। उसकी गति और बोली में शिथिलता थी। आपने उससे पूछा- 'बहिन! क्या हुआ, यों' धीमे-धीमे कैसे बोलती हो? वह बोली-'गुरुदेव! आपका तो आना हुआ और मुझे ज्वर हो गया।' आपने कहा---'ज्वर दीक्षा से डर के तो नहीं आया है? बहिन-मन में थोड़ा डर आया तो था। आपने कहा-दीक्षा कोई ऐसा खेल नहीं है जो हर कोई खेल ले। यह यावज्जीवन का कार्य है।
एक भाई ने कहा- 'गुरुदेव! साधु बनने की इच्छा है।'
आचार्यवर ने कहा- 'तेरा हृदय कोमल है। दीक्षा के समय घरवाले रोयें तब तू भी रोने लग जाए तो?
भाई बोला-'गुरुदेव! आप सच कहते हैं, आंसू तो छलक पड़ेंगे।'
आप-दामाद ससुराल से अपने घर लौटे तब उसकी स्त्री रोये, वैसे वह भी रो पड़े तो कैसा लगे? कोई साधु बने तब उसके परिवार वाले रोयें, यह स्वार्थ हो सकता है पर परमार्थ-पथ का अनुगामी भी उनके साथ-साथ रोने लगे तो वैराग्य की रीढ़ टूट जाती है। १ मोनें तो कवाइयां रो दोष न भासे, जाणें में सुध व्यवहार। . जो निसंक दोष कवाड्यां में जाणों, ते मत वहरजो लिगार रे।।
. (श्रद्धा निर्णय री चौपी १६-५१) २. भिक्खु दृष्टान्त, ३६, पृ. १६ ३. वही, ३७, पृ. १७
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