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१२८ : भिक्षु विचार दर्शन हैं। मिश्र-पक्ष में अहिंसा और हिंसा दोनों हैं। आवश्यक हिंसा का जितना संवरण किया है, वह जीवन का अहिंसा-पक्ष है और जीवन में आवश्यक हिंसा का जितना प्रयोग है, वह उसका हिंसा-पक्ष है। ये दोनों जीवन में मिश्रित हैं, क्योंकि इनका आधार एक ही जीवन है। पर ये दोनों मिश्रित नहीं हैं, क्योंकि इनका स्वरूप सर्वथा भिन्न है।
जीवन में सारी प्रवृत्तियां अहिंसक ही होती हैं-ऐसा कौन कहेगा? और सारी प्रवृत्तियां हिंसक ही होती हैं, ऐसा भी कौन कहेगा? अहिंसक और हिंसक दोनों प्रकार की प्रवृत्तियां होती हैं, उन्हें एक कोटि की कौन कहेगा? आचार्य भिक्षु ने जीवन-विभाजन की जो रेखा खींची, वह यही है। व्यापारी व्यापार करते समय आध्यात्मिक भावना को भूल जाए, चाहे जितना क्रूर व्यवहार करे, धर्म-स्थान में वह धार्मिक और कर्म-स्थान में निर्दय हो, यह आशय उस विभाजन की रेखा का नहीं है। उसका आशय है-व्यापार और दया-भाव एक नहीं हैं। दया-भाव धर्म है और व्यापार सांसारिक कर्म । दोनों को एक मानने का अर्थ होता है, धर्म और सांसारिक कर्म का मिश्रण। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-ये चार वर्ग हैं। इनमें दो साध्य हैं और दो साधन। मोक्ष साध्य है, धर्म उसका साधन। काम साध्य है, अर्थ उसका साधन। आर्थिक विकास और काम का आसेवन जीवन का एक पहलू है
और दूसरा पहलू है-धार्मिक विकास और मुक्ति की उपलब्धि। ये चारों एक ही जीवन में होते हैं, पर ये सब स्वरूप-दृष्टि से एक नहीं हैं। आचार्य भिक्षु ने जीवन के टुकड़े नहीं किए, उन्होंने जीवन की प्रवृत्तियों के मिश्रण से होने वाली क्षति से लोगों को सावधान किया। उनकी वाणी है-- 'सावद्य-दान' संसार-संवर्धन का हेतु है, और 'निरवद्य-दान' संसार-मुक्ति
१. विनोबा प्रवचन, पृ. ४४६ (मंगलवार, २६ मई, १६५६)
व्यापारी इधर भगवान् की भक्ति करता है, पूजा-पाठ करता है और उधर व्यवहार में झूठ चलता है, इस तरह वह तीर्थ-यात्रा, ध्यान, जप-जाप आदि करेगा, लेकिन सत्य व्यापार के खिलाफ है, ऐसा अवश्य कहेगा। व्यापार अलग और सत्य, प्रेम दया अलग। व्यापारी दुखियों के वास्ते दान दंगा, लेकिन व्यापार में दया नहीं रखेगा। यह नहीं सोचेगा कि व्यापार में भी दया पड़ी है। हम गलत ढंग से व्यापार करते हैं, तो समाज को दुःख पहुंचता है। इस तरह हमने व्यवहार को नीति से अलग रखा और नीति को अध्यात्म से अलग रखा।
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