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२०२ : भिक्षु विचार दर्शन ब्राह्मण हूं। चौथा-मैं जाट हूं।
जाट ने राजपूत से कहा-आप मेरे स्वामी हैं, इसलिए कोई बात नहीं, जो लिया सो ठीक है। साहूकार ऋण देता है, इसलिए उसने लिया, वह भी ठीक है। ब्राह्मण ने लिया, उसे मैं दक्षिणा मान लूंगा, पर यह जाट किस न्याय से लेगा? चल तुझे अपनी मां से उलाहना दिलाऊंगा। उसका हाथ पकड़ ले गया और उसी की पगड़ी से कसकर उसे एक पेड़ के तने से बांध दिया।
वह फिर आकर बोला-मेरी मां ने कहा है-राजपूत हमारा स्वामी है, साहूकार ऋण देता है सो ये लेते हैं वह न्याय; पर ब्राह्मण किस न्याय से लेगा? वह तो दिए बिना लेता नहीं। चल मेरी मां के पास। वह उसे भी ले गया और उसी प्रकार दूसरे पेड़ के तने से बांध आया। उन्हीं पैरों लौट आया और बोला-मेरी मां ने कहा है-राजपूत हमारा स्वामी है, वह ले सो न्याय है, पर साहूकार ने हमें ऋण कब दिया था? चल, मेरी मां तुझे बुलाती है। उसको भी हाथ पकड़ कर ले गया और उसी भांति बांध आया। अब राजपूत की बारी थी। उसने आते ही कहा-ठाकुर साहब! जो स्वामी होते हैं, वे रक्षा करने को होते हैं या चोरी करने को? उसे भी ले गया और उसी भांति बांध दिया। चोरों को बांध थाने में गया और चारों को गिरफ्तार करवा दिया।
बुद्धि से काम लिया तब सफल हो गया। यदि वह शरीर-बल से काम लेता तो स्वयं पिट जाता और अनाज भी चला जाता। १६. विवेक शक्ति परीक्षा-शक्ति नहीं होती तब तक सब समान होते हैं। सब समान हों, किसी के प्रति रोग-द्वेष न हो-यह अच्छा ही है, पर ज्ञान की कमी के कारण सब समान हों-यह अच्छा नहीं है। आचार्य भिक्षु 'विवेक' को बहुत महत्त्व देते थे। अविवेकी के लिए कांच और रत्न समान होते हैं। जब विवेक जागता है तब कांच कांच हो जाता है रत्न रत्न।
दो भाई रत्नों का व्यापार करते थे। एक दिन बड़ा भाई अकस्मात् संसार से चल बसा। पीछे वह पत्नी और एक पुत्र को छोड़ गया। एक १. भिक्खु दृष्टान्त : ११७, पृ. ५१
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