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संघ-व्यवस्था : १८३
आलोचना किए बिना वे प्रायश्चित्त कैसे दें? उन्हें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव देखकर न्याय तो करना ही है।
६. किन्तु दोष बताने वाला सावधान रहे। वह दोषों का संग्रह न करे। जो बहुत दोषों को एकत्रित कर आएगा, वह झूठा प्रामाणित होगा। वास्तव में क्या हैं वह तो सर्वज्ञ जाने, पर व्यवहार में दोषी वह है, जो दोषों का संग्रह करता है।
जिसके बारे में मन शंकाओं से भरा हो, उससे सीधा सम्पर्क स्थापित कर ले-यह मन का समाधान पाने की महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। इसके अतिरिक्त ये सूत्र भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है
१. किसी में कोई दोष देखो तो उसे एकांत में जताओ। २. गुरु या मुखिया को भी जताओ। ३. उसे शुद्ध करने की दृष्टि से जताओ, द्वेषवश दोष मत बताओ। ४. अवसर देखकर तत्काल जताओ। ५. बहुत दिनों के बाद दोष मत बताओ। ६. दोषों को इकट्ठा करके मत रखो। ७. दोषों को छिपाओ मत। ८. दोषों का प्रचार मत करो। ६. दोष बताने में हिचक मत करो।
अहिंसा की अभय-वृत्ति पर विश्वास करते हुए आचार्य भिक्षु ने लिखा है-"गुरु, शिष्य अथवा गुरु-भाई-किसी में भी दोष देखे तो उसे जता दे। किसी से भी संकोच न करे। दोष की शुद्धि का प्रयत्न करे। जो शिष्य गुरु का दोष छिपाता है, गुरु के सम्मुख कहने में संकोच करता है, वह बहुत ही भ्रम में है, वह घर छोड़कर खोटी हुआ है।"२ २०. विहार तेरापंथ आचार्य-केन्द्रित-गण है। इसके सदस्यों में एक आचार्य होते हैं और
१. लिखित, १८४१ २: आचार री चौपाई, १५.३
गुर चेला ने गुर भाई माइ, दोष देखे तो देणो बताई। त्यांसू पिण करणो नहीं टालो, तिणरो काढणो तुरत निकालो।
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