Book Title: Bauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Author(s): Dharmchand Jain, Shweta Jain
Publisher: Bauddh Adhyayan Kendra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्धधर्म-दर्शन संस्कृति और कला MO सम्पादक डॉ. धर्मचन्द जैन डॉ. श्वेता जैन Hoi Personal & Prive Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ बौद्ध धर्म-दर्शन ने भारतीय चिन्तन परम्परा, कला एवं संस्कृति को शताब्दियों तक सतत प्रभावित किया है। इस परम्परा के अध्ययन के बिना भारतीय संस्कृति का ज्ञान अपूर्ण ही रहता है। सम्प्रति अनेक भाषाओं में हो रहे वैश्विक लेखन में भी बौद्ध-चिन्तन का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। ____बौद्ध धर्म-दर्शन आधुनिक युग में भी उतना ही उपयोगी है, जितना प्राचीन काल में रहा । दुःख-मुक्ति, तनाव-विमुक्ति, चित्तशुद्धि एवं विश्वशान्ति की दृष्टि से यह व्यक्ति, समाज एवं विश्व सबके लिए आज भी पूर्णतः उपादेय है। प्रस्तुत पुस्तक में बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला से सम्बद्ध विभिन्न पक्षों पर विद्वानों के आलेख प्रकाशित हैं । त्रिपिटकों के अध्ययन की उपयोगिता, अनात्मवाद, शून्यवाद, प्रतीत्यसमुत्पाद, क्षणिकवाद, निर्विकल्पता, शमथ, विपश्यना, मानव-मनोविज्ञान, बाह्यार्थ अस्तित्ववाद, पंचशील, कर्म की अवधारणा, ब्रह्मविहार आदि दार्शनिक विषयों के साथ इस पुस्तक में सामाजिक न्याय, दलित-उत्थान, साम्प्रदायिक सद्भाव, सामाजिक सामरस्य, नारी-अभ्युदय आदि सामाजिक विषय भी चर्चित हुए हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से प्रजातान्त्रिक मूल्यों पर भी विचार हुआ है। बुद्धघोष, अश्वघोष आदि की रचनाओं के आधार पर शान्ति एवं जीवन मूल्य के सूत्र खोजे गए हैं। बौद्ध धर्म एवं कला का घनिष्ठ सम्बन्ध भी उजागर हुआ है। स्थापत्यकला, चित्रकला, मूर्तिकला आदि के विकास में बौद्धधर्म का योगदान रहा है। जयशंकर प्रसाद जैसे हिन्दी साहित्यकार भी बौद्ध धर्म से प्रभावित हैं, यह इस पुस्तक के आलेखों से पुष्टि होती है। For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध धर्म-दर्शन संस्कृति और कला सम्पादक डॉ. धर्मचन्द जैन डॉ. श्वेता जैन बौद्ध अध्ययन केन्द्र, जोधपुर राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 प्रकाशक: बौद्ध अध्ययन केन्द्र नया परिसर, जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर (राज.), दूरभाष – 0291-2720897 0 वितरक: राजस्थानी ग्रन्थागार प्रकाशक एवं पुस्तक विक्रेता प्रथम तल, गणेश मन्दिर के पास सोजती गेट के बाहर, जोधपुर (राज.) फोन : 0291-2657531,2623933 (O) E-mail : info@rgbooks.net website : www.rgbooks.net © बौद्ध अध्ययन केन्द्र, जोधपुर O ISBN : 978-81-907988-7-7 0 प्रथम संस्करण : 2013 0 मूल्य : ₹ 300.00 (तीन सौ रुपये मात्र) राजस्थानी ग्रन्थागार के लिए एम.एस. कम्प्यूटर्स द्वारा टाइपसेटिंग एवं मुद्रण भारत प्रिण्टर्स प्रेस, जोधपुर Bauddha Dharma-Darśana, Samskệti Aura Kalā by Prof. Dharmchand Jain, Dr Shweta Jain Publisher : Buddhist Studies Centre J. N. Vyas University, Jodhpur ( 2720897 Distributor : Rajasthani Granthagar, Sojati Gate, JODHPUR (Rai.) First Edition 2013 • Price Rupees : ₹ 300.00 For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरोवाक् उट्ठानवतो सतिमतो सुचिकम्मस्स निसम्मकारिनो। सञतस्स च धम्मजीविनो अप्पमत्तस्स यसोभिवड्ढति।। - धम्मपद, अप्रमाद वर्ग, 4 (उद्योगी, सजग, शुचिकर्मवान्, सोचकर कार्य करने वाले संयमी तथा पवित्र आजीविका से जीवन यापन करने वाले अप्रमत्त व्यक्ति का यश बढ़ता है।) बौद्ध ग्रन्थ खुद्दकनिकाय के अन्तर्गत परिगणित 'धम्मपद' की उपर्युक्त गाथा हमारे व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन को एक दृष्टि प्रदान करती है कि हमें सदैव श्रमशील रहना चाहिए, मात्र भाग्य पर भरोसा करके बैठे नहीं रहना चाहिए। दूसरी बात यह है कि व्यक्ति को सदैव सजग रहना चाहिए। आध्यात्मिक साधना में भी सजगता से ही व्यक्ति आगे बढ़ता है, तो व्यावहारिक जीवन में भी सजगता से ही उन्नति सम्भव है। सजगता किसमें हो, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि व्यक्ति मन, वचन एवं शरीर से शुचि कर्म करे। जो व्यक्ति एवं समाज के लिए अकरणीय या अहितकर कार्य है, उसे नहीं करने के प्रति सजगता हो तथा जो इन दोनों के लिए उपयोगी एवं हितकर कार्य हों, उन्हें करने के लिए सजगता हो। क्योंकि किसी भी प्रकार के अपवित्र कार्य को न करना, कुशल या पवित्र कार्य को करना तथा अपने चित्त को शुद्ध करना, बुद्धों की प्रमुख शिक्षा है। कोई भी कार्य करें, उसे विचारपूर्वक करना चाहिए। दूसरों की बात सुनकर स्वयं अपने विवेक का प्रयोग कर कार्य में प्रवृत्त होना चाहिए। हिंसा, झूठ, चोरी, सुरापान, कामाचार आदि पाप-कार्यों से अपने को विरत रखकर संयममय जीवन जीना चाहिए। संयम के साथ धैर्य का घनिष्ठ सम्बन्ध है। धैर्यशाली व्यक्ति वही होता है जो प्रज्ञावान् होता है। इसलिए प्रज्ञा के साथ शील या संयम का योग हो, तो जीवन श्रेयस्कर बन जाता है। धम्मपद की उपर्युक्त गाथा यह भी संकेत कर रही है कि 1. सव्वपापस्स अकरणं, कुसलस्स उपसम्पदा। सचित्तपरियोदपनं, एतं बुद्धानं सासनं।। - धम्मपद, बुद्धवग्गो,5 For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला आजीविका न्याय-नीतिपूर्वक शुद्ध होनी चाहिए, जिससे पर्यावरण एवं समाज का अहित न हो। इसे ही धर्मयुक्त जीविका या सम्यक् आजीव कहते हैं। इस प्रकार श्रमशीलता, सजगता, शुचिकर्मता, विचारशीलता, संयम, सम्यक् आजीविका आदि गुणों से युक्त अप्रमत्त व्यक्ति स्वयं के एवं समाज के लिए उपयोगी तथा आदरणीय होता है, इसलिए कहा गया है कि उसका यश बढ़ता है। 'धम्मपद की गाथा में प्रदत्त संदेश वर्तमान जीवन को तनाव रहित, किन्तु प्रगतिशील, कलहरहित किन्तु सौमनस्य युक्त, प्रदूषण रहित किन्तु समृद्धिमय बनाने हेतु प्रेरित करता है। बौद्ध साहित्य में इस प्रकार के सैकड़ों वचन हैं, जो मानव जीवन को समुन्नत बनाते हैं। जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर के बौद्ध अध्ययन केन्द्र द्वारा 5-6 . फरवरी, 2011 को एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया था, जिसका विषय था-"आधुनिक परिप्रेक्ष्य एवं बौद्ध धर्म-दर्शन।" इस संगोष्ठी में देश के विभिन्न प्रतिष्ठित विद्वानों ने आधुनिक परिप्रेक्ष्य में बौद्ध धर्म-दर्शन की उपयोगिता को लक्ष्य में रखकर अपने शोधालेख प्रस्तुत किये। यह पुस्तक उन्हीं शोधालेखों का चयनित संग्रह है। यह संग्रह समाज, संस्कृति, दर्शन, अध्यात्म, कला आदि विविध आयामों में बौद्ध धर्म-दर्शन की भूमिका पर व्यापक प्रकाश डालता है। पालि-त्रिपिटक वाङ्मय विशाल है। उसके अध्ययन की क्या उपयोगिता हो सकती है, इस पर राष्ट्रपति से सम्मानित डॉ. अंगराज चौधरी का आलेख अत्यन्त विशिष्ट है। इसमें पिटक का अर्थ धर्मग्रन्थ किया गया है तथा विनयपिटक, अभिधम्मपिटक के अध्ययन की उपयोगिता पर संक्षेप में एवं सुत्तपिटक की उपयोगिता पर विस्तार से उल्लेख किया गया है। त्रिपिटकों में ऐतिहासिक, भैषज्यपरक, समाजविषयक, मनोवैज्ञानिक, सांस्कृतिक, प्रजातान्त्रिक, आध्यात्मिक, पर्यावरण विषयक आदि विविध विषयों पर पाठ्य सामग्री उपलब्ध होती है। डॉ.चौधरी का कथन है कि पालि-साहित्य भावनामयी प्रज्ञा प्रसूत है, कल्पना प्रसूत नहीं। दार्शनिक दृष्टि से बौद्ध वाङ्मय अत्यन्त समृद्ध है। उसके कतिपय पहलुओं पर विद्वानों के आलेख इस पुस्तक में सम्मिलित हैं। वाराणसी के वरिष्ठ विद्वान् डॉ. प्रद्युम्न दुबे ने अनात्मवाद विषय पर अपने आलेख में स्पष्ट किया है कि तथागत बुद्ध ने अनात्मभूत तत्त्वों को अपना न समझने का उपदेश दिया था, सर्वथा आत्मा का तिरस्कार नहीं किया। अनत्त या अनात्म को समझने के लिए कहा जा सकता है कि यह रूप अपना नहीं है, ये वेदनाएं अपनी नहीं हैं, संस्कार और विज्ञान भी अपने नहीं हैं। अपना न होने का कारण भी है, क्योंकि ये सभी अनित्य हैं और अनित्य होने के कारण ये सभी दुःखरूप हैं। इस प्रकार अनात्मवाद से ही अहंकार और ममकार का नाश हो सकता है। डॉ. सुषमा सिंघवी ने अपने आलेख में यह सिद्ध करने का सफल प्रयत्न For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरोवाक् *5 किया है कि बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति बाह्य पदार्थ के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। डॉ. सिंघवी ने इसके लिए मूल ग्रन्थों से प्रमाण उपस्थापित किए हैं। डॉ. धर्मचन्द जैन ने बौद्ध दर्शन में प्रतिपादित निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का वैशिष्ट्य निरूपित करते हुए स्पष्ट किया है कि व्यवहार में भले ही निर्विकल्पक प्रत्यक्ष उपयोगी न हो, किन्तु प्रज्ञा के विकास, शान्ति के अनुभव, विकारों पर विजय, कार्यक्षमता में अभिवृद्धि, शारीरिक आरोग्य, व्यक्तित्व-विकास आदि अनेक लाभ निर्विकल्पकता के बोध से सम्भव होते हैं। ध्यान-साधना में निर्विकल्पकता का होना आवश्यक है। डॉ. दिलीप सक्सेना ने कतिपय बौद्ध सिद्धान्तों की नूतन व्याख्या की है। उन्होंने प्रतीत्यसमुत्पादवाद को सांख्य के सत्कार्यवाद तथा नैयायिक के असत्कार्यवाद से भिन्न निरूपित किया है। अनात्मवाद के सम्बन्ध में डॉ. सक्सेना का मन्तव्य है कि बौद्ध दर्शन में आत्मवाद का निषेध नहीं है। निर्वाण की अवस्था में सर्वथा नाश नहीं माना जा सकता। परिवर्तन के लिए कोई स्थिर आधार आवश्यक है, एवम्विध तर्क देकर वे बौद्धदर्शन में आत्मवाद की पुष्टि करते हैं। डॉ. सक्सेना ने यह भी सिद्ध किया है कि बौद्ध दर्शन में क्षणिकता की मान्यता निरपेक्ष नहीं है, यह सापेक्ष है। __ शून्यवाद एवं उसकी प्रासंगिकता को लेकर पुस्तक में दो आलेख हैं। डॉ. मंगलाराम ने शून्यवाद की अवधारणा का व्यापक विवेचन किया है, वहीं डॉ. राजकुमारी जैन ने शून्यता को प्रतीत्यसमुत्पाद के रूप में प्रस्तुत करते हुए वर्तमान जीवन में उसकी प्रासंगिकता सिद्ध की है। उन्होंने लिखा है कि शून्यवाद का सिद्धान्त मूल्यविहीन और भोगपरक दृष्टिकोण का विरोध करता है और सुखी होने के लिए सदाचार पूर्ण जीवन पर बल देता है। यह कार्य-कारणवाद के सिद्धान्त की सुन्दर प्रस्तुति है। शून्यवाद के परिप्रेक्ष्य में डॉ. राजकुमारी ने यह भी स्पष्ट किया है कि नागार्जुन के मत में सभी तत्त्वमीमांसीय मान्यताओं से पृथक् होकर सत्य का ज्ञान करना चाहिए। डॉ. हरिसिंह राजपुरोहित ने बौद्ध धर्म में मान्य कर्म की अवधारणा का निरूपण किया है। बौद्ध धर्म समाज के लिए प्रासंगिक है, इस बिन्दु को लेकर पुस्तक में अनेक लेख हैं। डॉ. विमलकीर्ति ने दलितों के उत्थान के लिए बौद्ध धर्म की प्रासंगिकता को रेखांकित किया है। उनका कथन है कि पालि तिपिटक साहित्य के अध्ययन के बिना हम प्राचीन भारतीय समाज-व्यवस्था के सही स्वरूप को नहीं समझ सकते। भारत के दलितों की समस्या जातिवाद से उत्पन्न समस्या है। जाति-भेद, अछूतपन आदि कोई दैवीय, ईश्वरीय या नैसर्गिक व्यवस्था नहीं है, बल्कि यह व्यवस्था मानव-निर्मित या समाज निर्मित है। दलितों का उत्थान मात्र आर्थिक उत्थान से सम्भव नहीं है, अपितु भारतीय समाज में उन्हें जातिगत भेद के बिना देखे जाने की आवश्यकता है। डॉ. शिवनारायण जोशी के आलेख में अनात्मवाद को ममकार के निवारण में, मानसिक For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला समता में, तृष्णा के दौर्बल्य में हेतु स्वीकार किया है तथा उसे सामाजिक समता का आधार माना है। सामाजिक समता का पौधा करुणा और मैत्री की उर्वरा भूमि में पैदा होता है। सामाजिक समरसता के लिए मैत्री अनिवार्य भावभूमि है। मैत्री और करुणा की सम्यक् क्रियान्विति से समाज में समता, प्रेम, सहयोग और शान्ति का विस्तार होता है। डॉ. कमला जैन, दिल्ली ने मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा-इन चार ब्रह्मविहारों को मानव मनोविज्ञान को सकारात्मक एवं उत्कृष्ट बनाने के लिए उपयोगी प्रतिपादित किया है। डॉ. श्वेता जैन के आलेख में साम्प्रदायिक विद्वेष के निवारण एवं सद्भाव के स्थापन की दृष्टि से बौद्ध चिन्तन का महत्त्व निरूपित हुआ है। उन्होंने साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए संवैधानिक उपायों और आन्तरिक परिवर्तन के उपायों की चर्चा की डॉ. औतारलाल मीणा ने सामाजिक न्याय के लिए तीन प्रमुख स्तम्भों स्वतंत्रता, समानता और बन्धुता की चर्चा बौद्ध धर्म-दर्शन के परिप्रेक्ष्य में करते हुए उन्हें सोदाहरण पुष्ट किया है। डॉ.मीणा ने शूद्रों और नारी के उत्थान के सन्दर्भ में भगवान् बुद्ध के विचारों से अवगत कराया है। डॉ. एस.पी. गुप्ता ने भी सामाजिक न्याय के . परिप्रेक्ष्य में बुद्ध के दृष्टिकोण पर प्रकाश डाला है, किन्तु उनका मन्तव्य है कि बुद्ध पूरी तरह से जाति-व्यवस्था एवं लिंग भेद की मान्यताओं से परे नहीं थे। उनके अनुसार बुद्ध नैतिक सुधार पर अधिक ध्यान दे रहे थे, किन्तु सामाजिक समस्याओं के सम्बन्ध में उनका चिन्तन समुचित स्वरूप ग्रहण नहीं कर पाया। डॉ. निहारिका लाभ, जम्मू ने वैदिक नारी की स्थिति का निरूपण करने के पश्चात् बौद्ध धर्म में उसके उत्थान हेतु किए गए प्रयत्नों से परिचित कराया है। बुद्ध ने भिक्षुणी संघ की स्थापना की तथा अनेक पीड़ित नारियों को थेरी के रूप में मुक्ति की राह दिखायी।। डॉ. वैद्यनाथ लाभ, जम्मू ने वर्तमान की ज्वलन्त समस्या आतंकवाद के समापन हेतु बुद्ध के विचारों का सार प्रस्तुत किया है। बुद्ध के अनुसार वैर को वैर से शान्त नहीं किया जा सकता, अपितु, मैत्री और करुणा की भावना के द्वारा आतंकवादियों के आक्रोश को शान्त कर उनके मनों को बदलना ही सही उपाय है। विश्व में शान्ति की स्थापना किस प्रकार सम्भव है, इस विषय पर डॉ. हेमलता जैन ने विसुद्धिमग्ग के आधार पर चर्चा की है। डॉ. जैन ने अपने आलेख में विश्व शान्ति हेतु नौ उपाय बताए बुद्ध के वाङ्मय में प्रजातान्त्रिक मूल्य प्राप्त होते हैं, इसका निरूपण डॉ. विजयकुमार जैन, लखनऊ के आलेख में हुआ है। "बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय" प्रसिद्ध वाक्य में प्रजातन्त्र की नींव दिखाई पड़ती है। पालि-ग्रन्थों में शाक्य, कोलिय, लिच्छवी आदि गणतन्त्रों का उल्लेख मिलता है। संघ में प्रव्रज्या देने के पूर्व भिक्षु-संघ की स्वीकृति लेना, भिक्षुओं के द्वारा अपने-अपने दोषों का वर्णन कर दण्ड प्राप्त करना, For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरोवाक् 7 संगतियों के माध्यम से बुद्ध वचनों का संग्रह आदि बौद्ध धर्म के प्रजातान्त्रिक स्वरूप को प्रकट करते हैं। दीघनिकाय के महापरिनिव्वाण सुत्त में जिन सात अपरिहानीय धर्मों का निरूपण है, वे पूर्णत: प्रजातान्त्रिक स्वरूप को प्रकट करते हैं। आधुनिक विश्वविद्यालयीय शिक्षा में बौद्ध धर्म की शिक्षा का समोवश क्यों आवश्यक है, इसका प्रतिपादन डॉ. हेमलता बोलिया, उदयपुर ने अपने चिन्तनपरक आलेख में किया है। बौद्धधर्म अपनी मानवीय विशेषताओं के कारण ही विश्व के अनेक देशों में फैला है। डॉ. सत्यप्रकाश दुबे ने "अश्वघोष के महाकाव्यों की प्रयोजनवत्ता" आलेख में बुद्धचरित एवं सौन्दरनन्द महाकाव्यों के आधार पर सांसारिक भोग-विलासों की नश्वरता तथा प्रज्ञा, शील और समाधि की उपयोगिता को स्पष्ट किया है। डॉ. यादराम मीना ने सौन्दरनन्द महाकाव्य के आधार पर जीवनोत्थान के कपितय सूत्रों का निर्देश किया है। डॉ. प्रभावती चौधरी के आलेख में प्राणातिपात - विरमण आदि पंचशीलों की प्रांसगिकता प्रतिपादित की गई है। उन्होंने जैन स्रोतों के आधार पर भी पंचशीलों के अतिचारों का निरूपण किया है। आचरण की शुद्धता, अकुशल कर्मों के त्याग और कुशल कर्मों के आधान से ही सम्भव है। डॉ. चौधरी ने पण्डित जवाहरलाल नेहरू द्वारा अपनाए गए पंचशील को शान्तिपूर्ण अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों एवं वैश्विक सद्भावना के लिए उपयोगी बताया है।. " विपश्यना एवं मानव मनोविज्ञान" विषयक आलेख में डॉ. चन्द्रशेखर ने कहा है कि कम्प्यूटर, नेनो तकनीकी एवं जीन तकनीकी के प्रयोग के साथ इन्द्रियों की शक्ति का विस्तार एक नये मानसिक एवं जैविक पर्यावरण की रचना करने में संलग्न है, जो हमारे व्यक्तिगत एवं सामूहिक चेतन को ऐसी परिस्थितियों में ला देगा, जिसके समाधान के लिए आज का मनोविज्ञान न तो सक्षम है और न ही उपयोगी सिद्ध हो सकेगा। बौद्ध दर्शन में मन एवं मनोविज्ञान पर जिस गहनता से अध्ययन किया गया है, वह भावी संकट से मानव को उबार सकता है। आज विश्वविद्यालयों एवं उच्च अध्ययन केन्द्रों में विपश्यना और बौद्ध मनोविज्ञान के अध्यापन की महती आवश्यकता है। डॉ. दीपमाला ने शमथ और विपश्यना के माध्यम से बौद्ध योग के विभिन्न पहलुओं की चर्चा की है तथा कहीं कहीं पातंजल योगसूत्र से भी उसकी तुलना की है। भारतीय कला एवं संस्कृति को भी बौद्ध धर्म-दर्शन का महान् योगदान रहा है। डॉ. रेणु शर्मा एवं ऋचा शर्मा के आलेख बौद्ध कला के महत्त्व को उद्घाटित करते हैं। डॉ. रेणु शर्मा ने आधुनिक कला के विकास में बौद्ध भित्ति चित्रों के प्रभाव का आकलन किया है। बौद्ध कला के विकास की एक रूपरेखा का भी बोध डॉ. शर्मा के आलेख से होता है। ऋचा शर्मा ने बौद्ध धर्म एवं बौद्ध कला के पारस्परिक अन्तः सम्बन्धों और उनके पारस्परिक अवदानों की बड़े व्यवस्थित रूप में चर्चा की है। इस - For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला आलेख में कला और धर्म के पारस्परिक विकास के बिन्दुओं को भली भांति प्रस्तुत किया गया है। बौद्ध धर्म-दर्शन के सिद्धान्तों का प्रभाव उत्तरकालीन विभिन्न भाषाओं के रचनाकारों पर भी पड़ा है। इसका निदर्शन है- डॉ. कैलाश कौशल का आलेख। उन्होंने हिन्दी कवि जयशंकर प्रसाद की रचनाओं पर बौद्ध सिद्धान्तों के प्रभाव को व्यवस्थित ढंग से उकेरा है। डॉ. कौशल ने दुःखवाद, क्षणिकवाद, करुणा, अहिंसा एवं विश्व मैत्री के परिप्रेक्ष्य में प्रसाद साहित्य का आलोडन किया है। शैलेन्द्र स्वामी के आलेख में संक्षेप में बौद्ध-दर्शन की प्रासंगिकता पर विचार किया गया है। डॉ. धर्मचन्द जैन डॉ. श्वेता जैन For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका 1. त्रिपिटक के अध्ययन की उपयोगिता - डॉ. अंगराज चौधरी 2. बौद्ध दर्शन में अनात्मवाद की महत्ता - डॉ. प्रद्युम्न दुबे 3. बौद्ध धर्म के सामाजिक सन्दर्भ : समता, मैत्री और करुणा - डॉ. शिवनारायण जोशी 'शिवजी ' 4. हिंसा एवं आतंकवाद के निवारण में बौद्ध धर्म की भूमिका - डॉ. वैद्यनाथ लाभ 5. दलितों का उत्थान और बौद्धधम्म-दर्शन 6. पालि - साहित्य में प्रजातान्त्रिक मूल्य 7. विपश्यना एवं मानव - मनोविज्ञान 8. बौद्धदर्शन में निर्विकल्पता का स्वरूप एवं उसका जीवन में महत्त्व - डॉ. धर्मचन्द जैन - डॉ. विमलकीर्ति - डॉ. विजयकुमार जैन - डॉ. चन्द्रशेखर - 9. समसामयिक परिप्रेक्ष्य में शून्यवाद की प्रासंगिकता - डॉ. राजकुमारी जैन 10. बौद्ध धर्म-दर्शन एवं सामाजिक न्याय - डॉ. औतारलाल मीणा 11. आधुनिक परिप्रेक्ष्य में बौद्ध धर्म-दर्शन के कतिपय सिद्धान्तों की नवीन व्याख्या - डॉ. दिलीप सक्सेना 12. बौद्ध धर्म-दर्शन में नारी का अभ्युदय - डॉ. नीहारिका लाभ 13. बौद्ध धर्म-दर्शन के अध्ययन की उच्चशिक्षा में प्रासंगिकता - डॉ. हेमलता बोलिया 14. अश्वघोष के महाकाव्यों की प्रयोजनवत्ता - डॉ. सत्यप्रकाश दुबे 15. वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पंचशील की प्रासंगिकता - डॉ. प्रभावती चौधरी For Personal & Private Use Only 11 23 31 39 45 53 58 62 69 73 83 90 99 104 110 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 16. साम्प्रदायिक सद्भाव और बौद्ध धर्म - डॉ. श्वेता जैन 17. विसुद्धिमग्ग में शान्ति के उपाय - डॉ. हेमलता जैन 18. बौद्ध दर्शन में शून्यवाद एवं उसका प्रभाव । - डॉ. मंगलाराम 19. बौद्ध योग एवं उसकी उपादेयता - डॉ. दीपमाला 20. बौद्ध धर्म एवं कला : पारस्परिक अवदान - सुश्री ऋचा शर्मा 21. सौन्दरनन्द महाकाव्य में जीवनोत्थान के सूत्र - डॉ. यादराम मीना .. 22. प्रसाद साहित्य में बौद्ध दर्शन - डॉ. कैलाश कौशल .. 23. बौद्ध धर्म-दर्शन में कर्म की अवधारणा ___ - डॉ. हरिसिंह राजपुरोहित - 24. आधुनिक काल में बौद्ध धर्म-दर्शन : विहंगावलोकन ___ - डॉ. शैलेन्द्र स्वामी 25. The Role of Buddhist Paintings in the Development of Modern Art - Dr Renu Sharma 26. Buddhism & Social Justice : Some Reflections - Dr S.P. Gupta 28. Four Brahmavihāras of Buddhists : An Excellent Portrayal of Sublime Human Psychology - Dr Kamla Jain 29. Dharmakīrti : The Advocate of Bāhayārtha-Astitva-Vāda - Dr.Sushma Singhvi For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपिटक के अध्ययन की उपयोगिता डॉ. अंगराज चौधरी इसके पूर्व कि मैं कछ तिपिटक (त्रिपिटक) के अध्ययन की उपयोगिता के बारे में कहूँ, मैं 'पिटक' शब्द के अर्थ पर कुछ कहना चाहूँगा। अनेक विद्वान् 'पिटक' शब्द का अर्थ पिटारी करते हैं। उनके अनुसार चूंकि सभी सुत्त एक पिटारी में, विनय संबंधी नियम दूसरी पिटारी में और अभिधम्म की बातें तीसरी पिटारी में थी, इसलिए ये क्रमशः तीन पिटक कहलाये - सुत्त पिटक, विनय पिटक, तथा अभिधम्म पिटक । ताड़ पत्रों पर जब बुद्ध के उपदेश लिखे गये तब तो अलग-अलग पिटारियों में रखे जाने की बात उचित लगती है और हम जानते हैं कि श्रीलंका में लिखे गये ई. पू. 29 में वट्टगामिनी अभय के समय तिपिटक लिखा गया। पर पिटक शब्द का प्रयोग तिपिटक लिखे जाने के पूर्व ही अशोक के बाद सांची और भरहुत के अभिलेखों में मिलता है।। इन स्तूपों पर लिखे अभिलेखों में भिक्षुओं को सुत्तन्तिक, पेटकी, धम्मकथिक, पंचनेकायिक आदि कहा गया है, जिनसे स्पष्ट है कि बुद्ध वचनों का पिटक, सुत्त तथा पञ्चनिकाय आदि में वर्गीकरण बुद्धवचन में लिखे जाने के पूर्व ही हो गया था। डॉ. कीथ आदि विद्वानों का कहना है कि पिटक का अर्थ पिटारी न होकर 'धर्मग्रंथ' होना चाहिए। केसमुत्ति सुत्त में ऐसा प्रयोग दिखता है - एथ तुम्हे कालामा, मा अनुस्सवेन, मा परम्पराय, मा इतिकिराय, मा पिटकसम्पदानेन, मा तक्कहेतु, मा नयहेतु, मा आकारपरिवितक्केन, मा दिट्ठिनिज्झानखन्तिया, मा भब्बरूपताय, मा समणो नो गरुति। __यदा तुम्हे कालामा, अत्तनाव जानेय्याथ-इमे धम्मा अकुसला, इमे धम्मा सावज्जा, इमे धम्मा विब्रुगरहिता, इमे धम्मा समत्ता समादिन्ना अहिताय दुक्खाय संवत्तन्ती 'ति अथ, तुम्हे कालामा पजहेय्याथ। * 5-6 फरवरी, 2011 को आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रदत्त आधार वक्तव्य For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला (हे कालामो ! आओ, तुम किसी बात को केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि यह बात अनुश्रुत है... कि यह बात परंपरागत है,... कि बात इसी प्रकार कही गयी है,. .. कि यह हमारे धर्मग्रंथ के अनुकूल है... कि यह तर्कसम्मत है,... कि यह अनुमानसम्मत है,... कि इसके कारणों की सावधानीपूर्वक परीक्षा कर ली गयी है,... कि इस पर हमने विचार कर इसका अनुमोदन किया है,.... कि कहने वाले का व्यक्तित्व भव्य (आकर्षक) है,... कि कहने वाला श्रमण हमारा पूज्य है। हे कालामो ! जब तुम स्वानुभव से अपने आप ही यह जानो कि ये बातें अकुशल हैं, ये बातें सदोष हैं, ये बातें विज्ञपुरुषों द्वारा निंदित हैं, इन बातों पर चलने से अहित होता है, दुःख होता है - तब हे कालामो ! तुम उन बातों को छोड़ दो । ) इस उद्धरण से तीन बातें रेखांकित होती हैं, पहली बात तो यह कि पिटक का अर्थ धर्मग्रंथ है। दूसरी बात कि भगवान का यह उपदेश मानव के स्वतंत्र चिंतन का महान घोषणापत्र है और तीसरी बात कि भगवान ने स्वानुभव पर अधिक जोर दिया। प्रज्ञा अर्थात् प्रत्यक्ष ज्ञान पर जोर दिया जो स्वसंतान में भावना कर पाया जा सकता है। इसे भावनामयी प्रज्ञा भी कहते हैं जो बुद्ध की विशेष देन है। यहाँ मैं विनय पिटक (आणा देसना) तथा अभिधम्म पिटक (परमत्य देसना) के अध्ययन की उपयोगिता पर विस्तार से न कह कर सुत्तपिटक (वोहार देसना) के अध्ययन की उपयोगिता पर ही ध्यान केंद्रित करना चाहूंगा। हां, संक्षेप में विनय पिटक तथा अभिधम्मपिटक के अध्ययन की उपयोगिता पर भी कुछ बातें कहूंगा ताकि इन पिटकों की महत्त्वपूर्ण बातें यहां रेखांकित हो जायें। विनयपिटक के अध्ययन की उपयोगिता के बारे में राहुल जी ने लिखा है - "विनय पिटक भिक्षुओं के आचार नियमों को जानने के लिए तो उपयोगी है ही, साथ ही वह पुराने अभिलेखों तथा फाहियान, इ-चिंग आदि के यात्रा विवरणों को समझने के लिए बहुत सहायक है। यही नहीं विनय में तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक अवस्था की सूचक बहुत सी सामग्री मिलती है। यदि चीवर स्कन्धक और भिक्षुणी विभंग में आये वस्त्र-आभूषण आदि के नामों को हम सांची की मूर्तियों से मिलाकर पढ़ें तो हम उत्तरी भारत के स्त्री-पुरुषों की तत्कालीन वेश-भूषा का बहुत सा ज्ञान पा सकते हैं। शमथ स्कन्ध में आई शलाका ग्रहण की प्रक्रिया तो वस्तुतः समकालीन लिच्छविगणतंत्र के वोट लेने आदि की प्रक्रिया की नकलमात्र है।" (विनय पिटक, राहुलजी का अनुवाद, भूमिका पृ. 10) महावग्ग के भैषज्य स्कंधक में रोगों तथा औषधियों की चर्चा है । आजकल जब आयुर्वेद का महत्त्व बढ़ता जा रहा है और यह लोगों के बीच लोकप्रिय हो रहा है - इसकी निस्संदेह उपयोगिता है । चीवर स्कंधक में प्रतिभावान तथा उपाय कुशल जीवक For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपिटक के अध्ययन की उपयोगिता * 13 कौमारभृत्य की जीवनी तथा उनके द्वारा कुछ कठिन रोगों की चिकित्सा किये जाने की चर्चा है, जो बहुत अर्थों में उदीयमान तथा नये डाक्टरों के लिए आज भी प्रासंगिक है। चुल्लवग्ग में प्रथम दो बौद्ध संगीतियों का वर्णन तो है ही, देवदत्त के संघ से अलग होने की बात भी वर्णित है। अतः यहां ऐतिहासिक सामग्री है। फिर, इस पिटक में कौन प्रव्रजित होने योग्य है, कौन अयोग्य है और क्यों, इसके साथ प्रव्रज्या, उपसंपदा के नियम, शिष्य एवं उपाध्याय तथा अन्तेवासी, एवं आचार्य के परस्पर कर्तव्यों का विस्तार से वर्णन है। भगवान बुद्ध के विचार कैसे उदार थे - ये यहां दिखाई पड़ते हैं। __ अभिधम्मपिटक में उच्चतर धर्मो का पुंखानुपंखी वर्णन है। नाम और रूप कैसे मिलते हैं। चित्त कितने प्रकार के हैं और विभिन्न प्रकार के चित्तों की उत्पत्ति के मूल क्या हैं - इन पर गहराई से विचार किया गया है। यहां कौन-सा धर्म हानिकारक है, कौन-सा लाभकारक है - यह भी दिखाया गया है। इसे पढ़कर, जानकर लोग वैसे धर्मो का अभ्यास करते हैं जिनसे उनका कल्याण हो सके। पालि तिपिटक बुद्ध के मुख से निःसृत वचनों का प्रामाणिकतम संकलन है। विशेष कर सुत्तपिटक तथा विनय पिटक में छठी और पांचवी शताब्दी ई.पूर्व का भारतीय जीवन प्रतिबिम्बित है। सुत्तपिटक के पांच निकायों में वैसे सुत्तों का संग्रह हैं, जिन्हें भगवान तथा उनके कुछ पंडित श्रावकों ने उपदिष्ट किया है। इसमें छठी और पांचवी शताब्दी ई.पू. के भारत का सामाजिक जीवन चित्रित है। कई सुत्तों में श्रमणों, ब्राह्मणों तथा परिव्राजों के जीवन तथा सिद्धान्तों का विवरण है। गौतम बुद्ध के विचारों का वर्णन है। गौतमबुद्ध की पारम्परिक जीवन का स्रोत भी मज्झिम निकाय में पाये जाने वाले कई सुत्त हैं जैसे अरियपरियेसना सुत्त, महासच्चक सुत्त तथा बोधिराजकुमार सुत्त। उस समय दुष्कर चर्यायें क्या थी तथा सिद्धार्थ ने बोधिप्राप्ति के लिए कौन-कौन सी दुष्कर चर्याएँ की- इनका स्पष्ट विवरण बोधिराजकुमार सुत्त में हैं। इसी सुत्त में भगवान ने अपने अनुभव की बात बोधिराजकुमार से कही और यह भी कहा कि 'न खो सुखेन सुखं अधिगन्तब्बं, और यह भी कि 'न खो दुक्खेन सुखं अधिगन्तब्बं, इस तरह उन्होंने मध्यम मार्ग का प्रतिपादन किया। सुत्तपिटक के कई सुत्तों से बुद्ध का व्यक्तित्व प्रकट होता है। अक्कोस सुत्त (अंगुत्तरनिकाय पंचकनिपात) में जब अक्कोस भारद्वाज भगवान को गाली देता है तब भगवान बुद्ध का शांत व्यक्तित्व प्रकट होता है और निम्नलिखित बातें कहकर वे भारद्वाज के हृदय में परिवर्तन लाते हैं - 'ब्राह्मण, क्या कोई मित्र या रिश्तेदार तुम्हारे यहाँ कभी आते हैं? For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला 'हाँ, आते हैं।' 'तो तुम क्या उन्हें खाना-पीना देते हो ?' 'हाँ देता हूँ।' 'यदि वे न लें तो जो तुम देते हो, वह किसका होता है ? 'वह मेरा ही होता है, वह मेरे ही पास रहता है । ' 'तो ब्राह्मण, जो तुम मुझ अक्रोध करने वाले पर क्रोध करते हो, मुझे गाली न देने वाले को गाली देते हो, वह मैं ग्रहण नहीं करता। वह तुम्हारा ही हो, तुम्हारे पास रहे।' ऐसा कहकर वे दुर्जेय संग्राम जीत लेते हैं और अक्कोस भारद्वाज बुद्ध, धर्म और संघ की शरण में जाता है। अग्गिक भारद्वाज ने भगवान को देखकर जब यह कहा कि 'वहीं रुको, मुण्डक, वहीं रुक जा श्रमणक और वहीं रुक जा वसलक, तो भगवान बुद्ध ने कुछ भी बुरा न मानकर वृषल कौन कहलाता है और वृषलकारक धर्म कौन-कौन हैं - इन पर उपदेश दिया। और अंत में अग्गिक भारद्वाज भी भगवान का उपासक हुआ। भगवान ने विस्तार से बताया कि जो क्रोध करता है, जिसकी दृष्टि विपन्न है, जो मायावी है, जो प्राणिहिंसा करता है, चोरी करता है, पथिकों को लूटता है, मारता है, जो ऋण लेकर अदा नहीं करता, जो झूठी गवाही देता है, जो परदारगमन करता है, जो बूढ़े माता-पिता की सेवा नहीं करता, जो उन पर क्रोध करता है, उन्हें गाली देता है, जो पापकर्म कर छिपाता है, जो झूठ बोलकर श्रमण, ब्राह्मण तथा अन्य भिखारियों को ठगता है वह वृषल है और के अंत में उन्होंने यह कह कर कि - न जच्चा वसलो होति, न जच्चा होति ब्राह्मणो । कम्मुना वसलो होति, कम्मुना होति ब्राह्मणो । जन्म से कोई वृषल या ब्राह्मण नहीं होता । अपितु कर्म से वृषल और ब्राह्मण होता है। इस प्रकार समाज में फैले जातिवाद के विरुद्ध सिंहनाद किया। एक विशुद्ध वैज्ञानिक की तरह उन्होंने जातिवाद के बारे में अपने विचार रखे। उन्होंने देखा कि जातिवाद के चलते समाज में बहुसंख्य लोगों का मुट्ठी भर लोग शोषण करते हैं, उन्हें उनके अधिकार से वंचित करते हैं और मनुष्य - मनुष्य में भ्रातृत्व, प्रेमभाव और सहिष्णुता होनी चाहिए वह नहीं है। उन्होंने जातिवाद पर कड़ा प्रहार किया, कई सुत्तों में उदाहरण देकर लोगों को समझाने का प्रयत्न किया कि सब मनुष्य बराबर हैं, जन्म के आधार पर ऊँच-नीच का भेद करना अवैज्ञानिक है। मनुष्य बड़ा या छोटा अपने कर्म के कारण होता है। इस तरह उन्होंने जन्म को महत्त्व न देकर कर्म को महत्त्व दिया । For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपिटक के अध्ययन की उपयोगिता * 15 भगवान ने वासेट सुत्त में एक वैज्ञानिक की तरह प्रमाणित किया कि मनुष्य जाति में वैसे भेद नहीं पाये जाते जैसे कीट-पतंग में तथा विभिन्न प्रकार के जानवरों में पाये जाते हैं। भेद करने वाले चिह्न यहाँ नहीं हैं। सभी देशों के मनुष्यों के अंगों में समानता है और सभी स्त्रियां ऋतुमती होती हैं, बच्चे पैदा करती हैं तथा स्तन का दूध पिलाती हैं इसलिए यह कहना कि ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से पैदा हुआ, अत: वह श्रेष्ठ है जैविक विज्ञान सम्मत नहीं है और बहुत हास्यास्पद है। उन्होंने प्रमाणित किया कि सभी मनुष्य एक ही जाति के हैं - All homosapiens constitute one species. अस्सलायन सुत्त में सामान्य बुद्धि का तर्क देकर उन्होंने यह प्रमाणित किया कि यदि ब्राह्मण शूद्र से सचमुच भिन्न होते तो ब्राह्मणों द्वारा काष्ठ रगड़कर पैदा की गयी आग शूद्रों द्वारा काष्ठ रगड़कर पैदा की गयी आग से प्रकाश एवं गर्मी में भिन्न होती। लेकिन देखा जाता है कि उनमें कोई अंतर नहीं होता। चाहे ब्राह्मण चन्दन की लकड़ी रगड़े और शूद्र कोई और लकड़ी, दोनों के रगड़े जाने से आग ही पैदा होती है, शीतलता नहीं। यदि ब्राह्मण और शूद्र में सचमुच कोई भेद होता तो नदी का जल और स्नानचूर्ण दोनों को एक तरह कैसे निर्मल करता? इसी सुत्त में भगवान ने कहा कि अगर चार जातियां विश्वव्यापी होती तो योन और कम्बोज में स्वामी और दास ही क्यों होते हैं। और यदि जाति की बात नित्य होती तो समय आने पर दास क्यों स्वामी बनता और स्वामी दास? मधुर-सुत्त में कहा गया है कि ब्राह्मण अन्य जातियों से श्रेष्ठ होते तो एक ब्राह्मणेतर धनी व्यक्ति द्वारा उन्हें कैसे नियुक्त किया जाता है? इस तरह के तर्क देने पर भी अस्सलायन का यह कहते रहना कि ब्राह्मण ही श्रेष्ठ हैं, शेष जातियां नीच हैं। ब्राह्मण ही गौर वर्ण के और शुद्ध हैं, वे ही ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हैं अन्य नहीं, अतः ब्राह्मण ही श्रेष्ठ हैं वैसा ही तर्क देना है जैसे जॉर्ज ऑरवेल के 'Animal Farm' में सूअरों द्वारा यह कहना कि 'सभी बराबर हैं, पर कुछ अन्यों की अपेक्षा अधिक बराबर हैं - All are equal, but some are more equal than others. . भगवान बुद्ध ने आध्यात्मिक दृष्टि से विचार कर यह दिखाया कि मेत्ता, करुणा, मुदिता तथा उपेक्षा की भावना सब कोई कर सकता है चाहे वह किसी भी जाति का हो। बाह्य रंग-रूप तथा तथाकथित उच्च जाति में जन्म लेना महत्त्व की बात नहीं है, महत्त्व की बात है उसका आंतरिक गुण, उसका कर्म। ___ दीघ निकाय के अग्गज सुत्त में भगवान ने कहा कि चारों जातियों के मनुष्यों में गुण दोष पाये जाते हैं। इसलिए वही श्रेष्ठ है जो शील का पालन कर, समाधि का अभ्यास कर प्रज्ञा की प्राप्ति करता है और सभी मानसिक दोषों को दूर कर निर्वाण की अवाप्ति करता है। For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला - दीघनिकाय के अम्बट्ट सुत्त में भगवान ने उदाहरण देकर यह प्रमाणित किया कि विद्या और आचरण से सम्पन्न व्यक्ति ही देवों तथा मनुष्यों में श्रेष्ठ है - विज्जाचरणसम्पन्नो, सो सेट्ठो देवमानुसेति। सोणदण्ड सुत्त में ब्राह्मण की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि न तो ब्राह्मण माता-पिता से जन्म लेना, न गौरवर्ण का होना, न वेद को जानना किसी को ब्राह्मण बनाता है, ब्राह्मण कारक धर्म तो शीलवान होना है। मैंने एक लेख में लिखा है कि 'Had people listened to the sane and scientific arguments against caste system put forward by the Buddha and acted accordingly our society would have been free from the violation of human rights:- ( देखें मेरा लेख - 'The Buddha and the Human Righs' Collected in Aspects of Buddha-Dhamma.) सिर्फ मानव अधिकारों का हनन करने से ही हम लोग बचे नहीं होते, बल्कि एक ऐसे कोढ़ से छुटकारा पाते जो हमारे समाज को सड़ा-गला रहा ___ भगवान ने जातिवाद तथा ऊंच-नीच के भेद को महत्त्व न देकर अपने संघ में सबको स्थान दिया। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, शूद्रातिशूद्र यहां तक कि वेश्याओं को भी, डोम, चांडाल, भंगी, सोपाक आदि को भी प्रव्रजित किया। भगवान ने जातिवाद के विरुद्ध जिन अस्त्रों को हमें दिया है, यदि उनका सही उपयोग करना हम लोग अभी भी सीख जायें तो समाज में समता, भ्रातृत्व और स्वतंत्रता : ला सकते हैं। भगवान के ये क्रांतिकारी विचार हमें ऐसे ही एक समाज के निर्माण करने की प्रेरणा देते हैं। यह सही है कि भगवान का प्रमुख उद्देश्य दुःखों से छुटकारा पाना था, इसलिए उन्होंने चार आर्य सत्यों दुःख, दुःख-समुदय, दुःख-निरोध और दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपदा की बात कही और तृष्णा को दुःख का कारण दिखाकर उसे समूल उखाड़ फेंकने के लिए अष्टांगिक मार्ग पर चलने की बात कही। पर प्रसंगवश उन्होंने वैसी भी बातें कहीं हैं जिनके पालन करने से हमारी सामाजिक तथा राजनैतिक समस्या का या विधि-व्यवस्था की समस्या का समाधान हो सकता है। ऊंच-नीच के भेद से उत्पन्न जो सामाजिक समस्याएं हैं उनका समाधान तो हम जाति प्रथा को मिटाकर ही कर सकते हैं और जब तक यह भेद-भाव रहेगा, सामाजिक समस्याएं बनी रहेंगी और हम पूरी तरह समाज को विकसित नहीं कर सकेंगे। भगवान ने कूटदन्त सुत्त में कहा कि यज्ञ तब करना चाहिए जब समाज में शांति हो, विधि-व्यवस्था की समस्या न हो और यज्ञ हिंसक न हो अर्थात् उसमें निर्दोष For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपिटक के अध्ययन की उपयोगिता - 17 जानवरों का न मारा जाया और उन्होंने यह भी कहा कि हिंसक यज्ञ से शील यज्ञ, समाधि यज्ञ और प्रज्ञा यज्ञ श्रेष्ठतर है, श्रेष्ठतम है। प्रसंगवश समाज में शांति कैसे स्थापित हो - इस विषय पर उनका जो कथन है वह आधुनिक युग के मार्क्स को पीछे छोड़ देता है। राजा या शासक का कर्तव्य है कि वह किसान को बीज, कृषि करने के लिए हल और बैल और व्यापारी को व्यापार करने के लिए पैसे, साथ ही जो युवक और युवती राजा की सेवा करना चाहे उसे नौकरी और अच्छा वेतन भी दे। सभी लोग जब अपना-अपना काम करेंगे तो न तो कोई चोरी करेगा, न लूटपाट तथा हिंसा। समाज में शांति होगी। समाज में अव्यवस्था तब होती है जब लोगों को कुछ काम करने का नहीं होता। An empty mind is devil's workshop -खाली मन शैतान का कारखाना। अगर सभी अपने-अपने काम-धंधे में लगे रहेंगे तो उनके मन में वैसे विचार उत्पन्न ही नहीं होंगे जिनसे समाज में अशांति फैले। इस सूत्र के अर्थ में कथाकार ने यहां तक कहा कि राजा और प्रजा एक दूसरे पर विश्वास करे, क्योंकि विश्वास से ही विश्वास उत्पन्न होता है। यहां तक विश्वास करे कि राजा द्वारा दिया गया धन अगर किसान या व्यापारी वापस नहीं दे सके तो उसे फिर देकर समर्थ बनावे। उस पर कोई कानूनी कार्रवाई न करे। ऐसा विचार भगवान ने लोगों के सामने रखा। अभी हम बेरोजगारी (Unemployment) की बात करते हैं जिससे समस्या पैदा होती है। भगवान ने मार्क्स से बहुत पहले, आज से 2600 वर्ष पहले जो बात कही वह विधि व्यवस्था की समस्या के समाधान में बड़ी महत्त्वपूर्ण है, मौलिक है। अब तक हमने देखा कि जातिवाद पर बुद्ध के क्या विचार हैं। समाज में कैसे समरसता स्थापित की जाय, इस पर भी उनके उदार एवं उदात्त विचार देखे। बौद्ध संघ की स्थापना कर तथा ब्राह्मण से लेकर शूद्रातिशूद्र को अपने संघ में स्थान देकर उन्होंने एक ऐसा उदाहरण समाज के समक्ष पेश किया जो अनुकरणीय है। तिपिटिक के अध्ययन की और अनेक उपयोगिताएं हैं। इसके अध्ययन से विशेषकर सुत्त पिटक के अध्ययन से हमें उस समय के भारत की भौतिक सभ्यता का पता चलता है। इसके लिए दीघनिकाय का ब्रह्मजाल सुत्त बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। यहाँ उस समय के सामाजिक तथा धार्मिक जीवन का भी वर्णन है। उस समय मनोरंजन के साधन क्या थे, आमोद-प्रमोद तथा सौंदर्य प्रसाधन के साधन क्या थे, किस तरह की कथाएं समाज में प्रचलित थीं, कौन-कौन सी विद्याओं में लोगों का विश्वास था - ये सारी बातें यहां वर्णित हैं। दार्शनिक एवं नैतिक दृष्टि से भी यह सुत्त महत्त्वपूर्ण है। यहां शील के अतिरिक्त बासठ प्रकार की मिथ्यादृष्टियों की चर्चा है। ___ सामफल सुत्त में छः प्रकार के अन्य तैर्थिकों का मत वर्णित है। पूरणकस्सप का अक्रियावाद, मक्खलिगोशाल का अहेतुकवाद, अजित केशकम्बली For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला का उच्छेदवाद, पकुधकच्चायन का अकृततावाद, निगण्ठ नाटपुत्त का चातुर्यामसंवरवाद (सब्बवारिवारितो, सब्बवारियुतो, सब्बवारिधुतो और सब्बवारिफुटो) तथा संजय वेलट्ठपुत्त का संशयवाद यहाँ उल्लिखित है। इस सुत्त में उस समय के प्रचलित शिल्पों जैसे अस्सारोहा (Cavalry), हत्थारोहा (Elephat driving) का उल्लेख है तथा श्रामण्य के श्रेष्ठ फलों का वर्णन है - जैसे शील का पालन, इन्द्रिय संवर, स्मृति सम्प्रजन्य, संतोष, नीवरण प्रहाण तथा ध्यान की प्राप्ति, विपश्यना ज्ञान की प्राप्ति, छह अभिज्ञाओं की प्राप्ति। इस तरह के नैतिक सिद्धांतों का समाज पर क्या असर था यह हम जान सकते हैं तथा इन नैतिक सिद्धांतों के बीच बुद्ध का नैतिक सिद्धांत कितना उपयोगी प्रमाणित हुआ - इसका आकलन हम आसानी से कर सकते हैं। जहाँ और विचारकों के नैतिक सिद्धान्तों ने समाज में निविड़ अंधकार फैला रखा था, वहाँ बुद्ध का नैतिक सिद्धांत प्रकाश बनकर आया। लोगों को यह पता चला कि किसी भी अच्छे या बुरे कर्म के लिए वे ही जिम्मेवार हैं और उन कर्मों का फल उन्हें अवश्य मिलेगा। इससे लोगों में एक प्रकार की जागरूकता आई, अकुशल कर्मों से पराङ्मुख हो, अपनी जवाबदेही समझकर वे कुशल कर्म करने की ओर अभिमुख हुए। यह बुद्ध के नैतिक सिद्धांत का समाज में बड़ा योगदान कहा जा सकता है। मज्झिम निकाय के ब्रह्मायु सुत्त पढ़ने से भगवान बुद्ध की दिनचर्या का पता चलता है। वे कैसे रहते थे, कैसे चलते थे, कैसे खाते थे तथा कैसे समय बिताते थे - इसका आंखों देखा वर्णन ब्रह्मायु के शिष्य उत्तर माणवक ने किया है। एक महान् व्यक्ति की दिनचर्या से, उनके क्रिया-कलाप से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं, हम अच्छे काम करने के लिए प्रेरित हो सकते हैं। भगवान कैसे थे -इसका वर्णन मधुपिण्डिक सुत्त में है - भगवा जानं जानाति, पस्सं पस्सति, चक्खुभूतो, आणभूतो, धम्मभूतो, ब्रह्मभूतो वत्ता पवत्ता, अत्थस्स निन्नेता, अमतस्स दाता धम्मस्सामी, तथागतो। महापरिनिब्बान सुत्त में भगवान के गुणों का बखान है - इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो, विज्जाचरण सम्पन्नो, सुगतो, लोकविदू, अनुत्तरो, पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा ति। ___धम्म के बारे में यहाँ कहा गया है - स्वाक्खातो भगवता धम्मो सन्दिट्ठिको, अकालिको, एहिपस्सिको, ओपनेय्यिको पच्चत्तं वेदितब्बो विजूही ति और संघ के बारे में यह कहा गया है - सुप्पटिप्पन्नो भगवतो सावकसङ्घो, उजुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसंङ्घोजायप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो, सामीचिप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो यदिदं चत्तारि पुरिस युगानि अट्ठपुरिस पुग्गला। For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपिटक के अध्ययन की उपयोगिता 19 इस सुत्त में सात अपरिहानीय धर्मो का वर्णन है जिनमें गणतंत्र की उन्नति होती है। आज भी ये धर्म उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं जैसे पहले थे। यहाँ यह भी कहा गया है कि जिस धर्मविनय में अष्टांगिक मार्ग नहीं है, वहां श्रमण नहीं होते । अष्टांगिक मार्ग शील, समाधि तथा प्रज्ञा से समन्वित है। अतः स्पष्ट है कि श्रामण्य प्राप्ति में इस मार्ग का सर्वाधिक योगदान है। हात्ति से स्पष्ट है कि ब्रह्मचर्य का उद्देश्य दिव्य शब्द सुनना नहीं, बल्कि शील सदाचार का जीवन जीकर सत्य का साक्षात्कार करना तथा निर्वाण का अधिगम करना है । दीघनिकाय के पोट्ठपादसुत्त तथा मज्झिम निकाय के चूलमालुंकयसुत्त में भगवान ने दस प्रश्नों को अव्याकृत कहा है और कहा है कि इन प्रश्नों का उत्तर खोजना व्यर्थ का समय गंवाना है । न हेते पोट्टपाद, अत्थसंहिता, न धम्मसंहिता, न आदिब्रह्मचरियका, न निब्बिदाय, न विरागाय, न निरोधाय, न उपसमाय, न अभिज्ञाय, न सम्बोधाय, न निब्बानाय संवत्तन्ति । इन प्रश्नों का उत्तर खोजते रहना वैसी ही मूर्खता है जैसे विष- बुझे तीर से पीड़ित व्यक्ति का तब तक तीर न निकलवाना जब तक कि वह तीर तथा तीर चलाने वालों के बारे में पूरा न जान ले। वैसे तो सुत्तपिटक के सभी सुत्त महत्त्वपूर्ण हैं पर यहां मैं कुछ सुत्तों के बारे में विशेष कहना चाहूँगा । सुत्तनिपात का धनियसुत्त गार्हस्थ्य सुख और आध्यात्मिक सुख की तुलना करता है । धनिय गोप कहता है - 'पक्कोदनो दुद्धखीरोहमस्मि' तो भगवान कहते हैं 'अक्कोधनो विगतखिलोहमस्मी । ' यहां शब्दों में ध्वनि साम्य होते हुए भी अर्थसाम्य नहीं है, फिर भी इस ध्वनिसाम्य से काव्य में एक सुन्दर चमत्कार आ जाता है। धनिय गोप गार्हस्थ्य सुख का वर्णन करता है और भगवान बुद्ध आध्यात्मिक सुख का। यहां यह दिखाया गया है कि कैसे आध्यात्मिक सुख गार्हथ्य सुख के गुणात्मक रूप से बड़ा है। धनिय गोप का सुख बंधन पैदा करता है और भगवान बुद्ध मुक्ति का सुख अनुभव करते हैं। भगवान धनिय से यह कहते हैं कि 'तुम नाव बना कर मही नदी पार कर यहां आये हो, तुम्हें पुनः नाव बनाकर मही नदी पार कर दूसरी जगह जाना पड़ेगा, लेकिन मैं जहां चला गया हूँ वहां से मुझे पुनः लौटना नहीं है।' अट्ठकथा में बुद्धघोष ने एक उदात्त उपमा द्वारा यह बात समझायी है - 'धनिय, त्वं कुल्लं बन्धित्वा, महिं तरित्वा, इमं ठानमागतो, पुनपि च ते कुल्लो बन्धितब्बो एवं भविस्सति, नदी च तरितब्बा, न चेतं ठानं खेमं । मया पन एकचिते For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला मग्गंङ्गानि समोधानेत्वा आणबन्धनेन बद्धा अहोसि भिसि । सा च सत्ततिंसबोधिपक्खियधम्मपरिपुण्णताय एकरसभावूपगतत्ता अञ्ञम अनतिवत्तनेन पुन बन्धितब्बप्पयोजनाभावेन देव मनुस्सेसु केनचि मोचेतुं असक्कुणेय्यताय च सुसंघता । ताय चम्हि तिण्णो, पुब्बे पत्थितं तीरप्पदेसं गतो । गच्छन्तोपि च न सोतापन्नादयो विय कञ्चिदेव पदेसं गतो । अथ खो पारगतो, सब्बासवक्खयं सब्बधम्मपारं परमं खेमं निब्बानं गतो, तिण्णो ति वा सब्बञ्जतं पत्तो, पारगतो ति अरहत्तं पत्तो । जहां धनिय सोचता है कि विषय भोग ही मनुष्य के सुख के कारण हैं, मार के शब्दों में उपधीहि नरस्स नन्दना वहां भगवान का कहना है कि उपधी हि नरस्स सोचना, न हि सो सोचति यो निरूपधि । भरत सिंह उपाध्याय के शब्दों में दोनों आदर्शों का इससे अधिक सुन्दर निरूपण, संभवतः संपूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं मिल सकता (पालि साहित्य का इतिहास, पृ. 294) कसभारद्वाज सुत्त में भौतिक कृषि और आध्यात्मिक कृषि की तुलना की गयी है। भगवान भी अपने को कृषक बताते हैं कि श्रद्धा मेरा बीज है, तप वृष्टि और प्रज्ञा जुआ तथा हल है, ह्री हलदण्ड है तथा मन हल और जुआ को बांधने की रस्सी और स्मृति फाल तथा प्रतोद ( हांकने की छड़ी ) है आदि । अंत में भगवान का कहना है कि मैं जो कृषि करता हूँ उसका फल खाकर फिर कोई भूखा नहीं रहता, लेकिन तुम्हारी कृषि का फल खाकर, फिर भूख लगती है। अंत में क़सिभारद्वाज कहता है - मम कसिफलं भुञ्जित्वा अपरज्जु एव छातो एव होति, इमस्स पन कसि अमतप्फला, तस्सा फलं भुञ्जित्वा सब्बदुक्खा पमुच्चतीति । (देखें, सुत्तनिपात अट्ठकथा 1.119) एवमेसा कसी कट्ठा, सा होति अमतप्फला। एतं कसि कसित्वान, सब्बदुक्खा पमुच्चति ।। तिपिटक को पढ़ने से जीवन के विविध पक्षों पर भगवान द्वारा कही गयी बातें देखने को मिलती है और ऐसा स्पष्ट हो जाता है कि इस तरह के प्रज्ञा संपन्न व्यक्ति का कथन कितना सत्य है । भगवान ने कई स्थलों पर पर्यावरण के बारे में भी कहा है। मानव का पर्यावरण के साथ क्या संबंध है तथा पर्यावरण की रक्षा कैसे की जानी चाहिए, इस पर उनके बड़े ही गंभीर विचार हैं। चूंकि मानव और पर्यावरण का अन्योन्याश्रय संबंध है, इसलिए पर्यावरण की रक्षा से ही मानव की रक्षा हो सकती है। पर्यावरण की रक्षा न की गयी तो मनुष्य अरक्षित हो जायेगा । दीघनिकाय के अग्गज्ञसुत्त में भगवान ने कहा कि मनुष्य का लोभ पर्यावरण का शत्रु है। अगर हम संतुलित जीवन जीना चाहें तो प्रकृति हमारी For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपिटक के अध्ययन की उपयोगिता 21 आवश्यकता की पूर्ति कर सकती है, पर हमारे लोभ को पूरा करने में वह अक्षम है। मनुष्य के मन में जब तृष्णा जागती है तब उसके साथ सैकड़ों विकार उत्पन्न होते हैं और जीवन दुःखमय हो जाता है। तृष्णा के कारण मनुष्य चोरी, व्यभिचार, हिंसा आदि करता है और दुःख भोगता है। इसी तृष्णा के कारण प्रकृति द्वारा प्रदत्त वस्तुओं का दोहन करने लगता है। यदि मनुष्य लोभ का संवरण कर सके तो वह बड़ी विजय प्राप्त कर सकता है। भगवान बुद्ध ने कई स्थलों पर वृक्षों को काटने से मना किया है, जल को गंदा करने से मना किया है, वृक्ष की पत्तियों को तोड़ने, शाखाओं को व्यर्थ काटने से मना किया है। प्रकृति की अद्भुत देन जंगल को बुद्ध बहुत पसंद करते थे । उसके सौन्दर्य से वह आप्यायित हुआ करते थे । प्रकृति के साथ उनका प्रेम ऐसा था कि उनके जीवन के चारों महत्त्वपूर्ण घटनाएं खुली प्रकृति में हुईं, लुम्बिनी में पैदा हुए, बोधगया के पास उरुवेला में ज्ञान की प्राप्ति की, वाराणसी के पास सारनाथ के इसिपत्तन मिगदाय में धम्मचक्कपवत्तन किया और कुसीनारा के मल्लों के शालवन में महापरिनिर्वृत्त हुए । उन्होंने विशेषकर भिक्षुओं को पेड़ काटने हेतु नहीं कहा, पानी गंदा करने हेतु नहीं कहा। इस तरह उन्होंने पर्यावरण-संरक्षण पर बहुत ध्यान दिया। जिस तरह वैज्ञानिक भौतिक जगत में नियमों की खोज करते हैं उसी तरह भगवान बुद्ध ने अपनी इस साढ़े तीन हाथ की काया में प्रयोग कर आध्यात्मिक जगत् में लागू होने वाले नियमों की खोज की। • वेदनापच्चया तण्हा वेदना के प्रत्यय से तृष्णा होती है, स्पर्श के प्रत्यय से वेदना होती है - फस्सपच्चया वेदना और मन में उठने वाले सभी विचार शरीर पर वेदना उत्पन्न करते हैं - वेदना समोसरणा सब्बे धम्मा आदि । क्रोध आदि विकारों के उत्पन्न होने पर सर्वप्रथम अपनी हानि करते हैं और दूसरे की भी हानि करते हैं तो बाद में - पुब्बे हनति अत्तानं, पच्छा हनति सो परे आदि । इसी तरह हम यह भी जानते हैं कि तृष्णा कहाँ उत्पन्न होती है और कहां इसका निरोध हो सकता है - यं लोके पियरूपं एत्थेसा तण्हा उप्पज्जमाना उप्पज्जति, एत्थ निविसमाना निविसति - एत्थ निरुज्झमाना निरुज्झति । - आध्यात्मिक क्षेत्र में भगवान बुद्ध के ये आविष्कार जो उन्होंने अपने अनुभव अर्जित से किये और जो कभी झूठे नहीं हो सकते, अनमोल रत्न हैं। यदि हम इन नियमों को अनुभव के धरातल पर देखें तो हम तृष्णा दूर कर तृष्णातीत हो सकते हैं, विकारों को दूर कर विकारहीन एवं निर्विकार हो सकते हैं और राग-द्वेष मोह की आग बुझाकर शांत हो सकते हैं। प्रतीत्यसमुत्पाद की सभी बारह कड़ियां उनकी स्वानुभूति की देन हैं। 3 विपश्यना साधना भगवान का एक बड़ा ही महत्त्वपूर्ण आविष्कार है । इसकी साधना कर मनुष्य दुःखों से छुटकारा पाकर निर्वाण का अधिगम कर सकता है। For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला महासतिपट्ठान सुत्त, आनापानस्सति सुत्त आदि विपश्यना साधना की तकनीक जानने के बड़े ही महत्त्वपूर्ण सुत्त हैं। __ अंत में मैं कहना चाहूंगा कि पालि साहित्य का जो आगमिक (Canonical) अंश है, वह ऐसा साहित्य है जो भावनामयी प्रज्ञा-प्रसूत है, कल्पना प्रसूत नहीं। इसके अप्रतिम उदाहरण हैं भगवान बुद्ध द्वारा दिये गये उपदेश, उनके द्वारा कही गयी गाथाएं तथा थेरों और थेरियों की गाथाएं। यह ऐसा साहित्य ह जहां शांत रस की निष्पति होती हैं। इसमें पाय जाने वाल शृंगार और वीर रस अवसान शांत रस में होता है। अत: मेरा यह कहना है कि इस साहित्य में कुछ भी हेय नहीं है, सब कुछ उदात्त है, इसमें अश्रुप्रवणता नहीं है। यह मनुष्य को बुद्ध द्वारा बताये गये आर्य अष्टांगिक मार्ग पर चलने को उत्साहित, प्रेरित करता है। इसलिए मेरा कहना है कि जहां और साहित्यों का पर्यवसान होता है वहां से पालि साहित्य का प्रारंभ होता है - Pali literature takes off from where other literatures land. ___पालि साहित्य का प्रकृति वर्णन भी और सब साहित्यों के प्रकृति वर्णन से अनूठा है, भिन्न है। (देखें, मेरा लेख Nature in the Theragāthā included in Essays on Buddhism and Pali Literature) सुत्तपिटक के अध्ययन की उपयोगिताओं में से मैंने जितनों का उल्लेख किया है, वे तो सिर्फ एक गागर भर हैं, उपयोगिता तो विशालसागर की तरह है। - विपश्यना विशोधन विन्यास, इगतपुरी (महाराष्ट्र) For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध दर्शन में अनात्मवाद की महत्ता डॉ. प्रद्युम्न दुबे बौद्ध दर्शन यथार्थ पर आधृत एवं लोकमंगलकारी है। बुद्ध ने लोक-कल्याण हेतु दुःख एवं दुःख-मुक्ति का उपदेश दिया। उन्होंने उपनिषदों द्वारा अत्यधिक चिन्तन के विषय 'आत्मा' की शाश्वतता को नकार दिया। यही बुद्ध का अनात्मवाद है। भगवान् बुद्ध ने ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् पञ्चवर्गीय भिक्षुओं को 'धम्मचक्कपवत्तनसुत्त' का उपदेश दिया। उसके पश्चात् पाँचवें दिन उन्होंने उन्हें 'अनत्तपरियाय' देशना दी। वहाँ पर उन्होंने स्पष्ट किया पञ्चस्कन्धों में आत्मा की उपलब्धि नहीं होती है। पाँचों स्कन्ध अनित्य और परिणामतः दुःख हैं। अतः ये हमारे नहीं हैं।' भगवान बुद्ध के अनात्मवाद के सम्बन्ध में विद्वान एकमत नहीं हैं। अनेक विद्वानों का मानना है कि भगवान बुद्ध ने आत्मा का खण्डन करके संसारी को संसार-प्रवाह में निमग्न कर दिया। इसके विपरीत कुछ विद्वानों ने कहा कि इस प्रकार का नैरात्म्यवाद परवर्ती भिक्षुओं और आचार्यों की बुद्धि की उपज है। तथागत ने केवल अनात्मभूत तत्त्वों में आत्मा को न देखने का उपदेश दिया था, आत्मा का सर्वथा तिरस्कार नहीं किया। नागार्जुन के अनुसार विशेष अभिप्राय से तथागत ने आत्मवाद तथा अनात्मवाद दोनों का उपदेश दिया, किन्तु उनका वास्तविक अभिमत था कि न आत्मवाद तात्त्विक है, न अनात्मवाद। सत्यं तो दोनों कोटियों से परे अनिर्वचनीय रूप से प्रतिष्ठित है।' नागार्जुन ने जो यह कहा कि विशेष अभिप्राय से बुद्ध ने आत्मवाद एवं अनात्मवाद का उपदेश किया, उसकी झलक पालि-साहित्य में भी प्राप्त होती है। कुछ 1. अनत्तपरियायो, महावग्ग, नालन्दा संस्करण, पृ. 16-18 2. द्रष्टव्य - डॉ. पाण्डेय, गोविन्द चन्द्रः बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास (बौ. ध.वि.इ.), हिन्दी समिति, सूचना विभाग, उ.प्र., लखनऊ, 1976 पृ. 101, पाद टिप्पणी, (पा.टि.),118 .. 3. वही, पा. टि. 1.19 4. आत्मेत्यपि प्रज्ञपितमनात्मेत्यपि देशितम्।। बुद्धर्मात्मा न चानात्मा कश्चिदित्यपि देशितम् ।। - मध्यमकशास्त्र 18.6 For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला विद्वानों का यह मानना है कि भगवान् ने आत्मा को सर्वथा नकारा होता तो पालि-साहित्य में अत्त एवं 'अत्ता' से संयुक्त शब्दों का प्रयोग बार-बार नहीं प्राप्त होता। पालि ग्रंथों में 'अज्झत्त', पच्चत्त, अत्तभाव, पहितत्त आदि शब्दों में 'अत्ता' का विशिष्ट उपयोग प्राप्त होता है। 'अज्झत्त' शब्द परवर्ती काल में 'बाह्य' का प्रतियोगी मात्र रह गया था, किन्तु प्राचीनतर स्थलों में अज्झत्त' के साथ उपादेयता और कल्याण की भावना संबद्ध थी। पच्चत्त' एवं पच्चत्तवेदनीय प्रयोगों में लौकिक चित्त के द्वारा बाह्य वस्तुओं के ज्ञान से परे ज्ञान विवक्षित है। 'अत्तभाव' का प्रयोग व्यक्तिविशेष के रूप में उपपत्तिलाभ को सूचित करता है। इसमें पिछला कर्म भी भौतिक रूप में सम्मिलित होता है। 'अत्तभाव' आत्मा नहीं है, प्रत्युत आत्मा का योनि-विशेष में देह-परिग्रह है। संयुत्तनिकाय के कोसलसंयुत्त में आत्मा को प्रियतम कहा गया है और यह कहा गया है कि 'अत्तकाम' हिंसा नहीं करता। इस सत्त में रानी मल्लिका द्वारा आत्मा को सभी से प्रिय एवं श्रेष्ठ कहा गया है। यहाँ पर बृहदारण्यक उपनिषद् के याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी संवाद की याद आती है, जहाँ यह कहा गया है कि 'आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति' याज्ञवल्क्य का इससे यह निष्कर्ष था कि 'आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो निदिध्यासितव्यः'। तथागत ने भी भद्रवर्गीय तरुणों का उपदेश दिया था - 'अत्तानं गवेसेय्याथ'।' ___ बौद्ध दर्शन में आत्मा, पुद्गल और जीव पर्यायवाची शब्द के रूप में माने गये हैं। यहाँ पर आत्मा की परमार्थतः उपलब्धि नहीं मानी गई हैं। जिस प्रकार ईषा (दण्ड), अक्ष, चक्र ढाँचा (पञ्जर), रस्सियाँ, लगाम, चाबुक आदि में से कोई भी एक वस्तु रथ नहीं है, अपितु इन सभी अवयवों को मिलाकर व्यवहार के लिए 'रथ' शब्द का प्रयोग किया जाता है, उसी प्रकार रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान में से कोई भी आत्मा या जीव नहीं है, अपितु इनके समुदाय को व्यवहारार्थ 'जीव' या 'आत्मा' कहते हैं। भगुवान बुद्ध ने 'अनत्तसुत्त' नाम से कई सुत्तों का उपदेश कई स्थलों पर दिया है। उनमें यह उपदेश दिया गया है कि रूप, वेदना, संज्ञा और संस्कार तथा विज्ञान 5. बौ.ध.वि.इ., पृ. 101 पा.टि. 123 .. 6. सब्बा दिसा अनुपरिगम्म चेतसा, नेवज्झगा पियतरमत्तना क्वचि। एवंपियो पुथु अत्ता परेसं, तस्मा न हिंसे परमत्तकामो।। मल्लिकासुत्त, कोसलसंयुत्त, संयुत्तनिकाय (सं.नि.), पृ. 74 (नालन्दा संस्करण) 7. भद्दवग्गियवत्थु, महावग्ग, पृ. 25 (नालन्दा संस्करण) 8. यथा हि अंगसम्भारा, होति सद्दो रथो इति। एवं खन्धेसु सन्तेसु, होति सत्तो ति सम्मुति।। मिलिन्दपज्हो (मि.प.) • संपा.-शास्त्री, स्वामी द्वारिकादास, बौद्ध भारती, वाराणसी 1979 ए पृ. 21 For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध दर्शन में अनात्मवाद की महत्ता * 25 आत्मा नहीं हैं यह जो वस्तु अनात्म हैं, उन्हें दूर रखना चाहिये। अनत्त भावना के अभ्यास से महान् लाभ होता है। अनात्मवाद को समझने के लिए अत्यधिक आधिकारिक अनत्तपरियायो" को उद्धृत करना समीचीन होगा। इसका उपदेश भगवान् बुद्ध ने पंचवर्गीय भिक्षुओं को धम्मचक्कपवत्तन सुत्त के पश्चात् दिया। भगवान बुद्ध ने कहा - 'रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान- इनमें से कोई भी आत्मा नहीं है। यदि ये पंचस्कन्ध आत्मा होते तो पीड़ादायक नहीं बनते और इन पञ्चस्कन्धों में यह पाया जाता है कि 'ये मेरे रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान' ऐसे होते और ऐसे नहीं होते। चूँकि ये रूप आदि पञ्चस्कन्ध अनात्मा हैं, अतः पीड़ा-दायक हैं और इनमें पञ्चस्कन्ध ऐसे होते और ऐसे नहीं होते, यह नहीं पाया जाता है। ये पाँच स्कन्ध अनित्य हैं, अतः दुःख हैं। जो वस्तुएँ अनित्य होती हैं, वे परिवर्तनशील होती हैं और दुःखदायी होती हैं। उनके संबंध में यह नहीं कर सकते कि 'यह (अनित्य पदार्थ) मेरा है, यह मैं हूँ और यह मेरी आत्मा है। ऐसा ज्ञान होने पर विद्वान् आर्य शिष्य रूप के प्रति घृणा करता है। घृणा करने पर उनसे विराग को प्राप्त करता है। विराग के कारण मुक्त होता है। मुक्त होने पर 'मुक्त हूँ' ऐसा ज्ञान होता है और वह जानता है कि आवागमन नष्ट हो गया, ब्रह्मचर्यवास पूरा हो गया, जो करना था वह कर लिया, अब यहाँ करने को कुछ शेष नहीं है।13 ___यहाँ पर जिस बात पर बल दिया गया है और जिसे पालि सुत्तों में बार-बार दुहराया गया है, वह यह है कि रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान निरन्तर परिवर्तनशील, अनित्य और दुख हैं, अतः वे शाश्वत और नित्य आत्मा नहीं हो सकते और ऐसा कहना कि 'मैं यह हूँ', 'यह मेरा है', 'यह मैं स्वयं हूँ', मात्र अहंकार है। निर्वाण प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्ति को इन सबसे मुक्त होना होगा। यह बुद्ध-धर्म का सार है। सत्यकायदृष्टि (प्रत्येक जीव में शाश्वत आत्मा का सिद्धान्त) की निन्दा 9. 14. अनत्तसुत्त, 3 खन्धसंयुत्त, सं. नि. पृ. 258-259 (नालन्दा संस्करण) वही पृ. 409 10. 78 अनत्तसुत्त, 5, महावग्गो, सं.नि. पृ. 117 11. अनत्तपरियायो, महावग्ग, (नालन्दा संस्करण), पृ. 16-18 12. यं पनानिच्चं, दुक्खं वा तं सुखं वा ति? दुक्खं मन्ते। यं पनानिच्चंदुक्खं विपरिणामधम्म,कल्लं, नुतं __समनुपस्सितुं - एतं मम, एसो हमस्मि, एसो मे अत्ता ति? नो हेतं भन्ते। वही,पृ. 17. 13. एवं पस्सं, भिक्खवे, सुतवा अरियासावको रूपस्मिं पि निब्बिन्दति, वेदनाय पि... नापर इत्थत्ताया ति पजानाति । वही, पृ. 17-18 14. द्रष्टव्य-एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच - "सिया, भिक्खुनो तथा रूपो समाधिपटिलाभो यथा इमस्मिं च सविज्ञाणके काये अहंकारममंकारमानानुसया नास्सु, बहिट्ठा च सब्बनिमित्तेसु अहंकारममंकारमानानुसया नास्सुय यं च चेतोविमुत्तिं पाविमुत्तिं उपसम्मज्ज विहरतो - ...विहरेय्या 'ति। अन्य इसी प्रकार के आशय वाली पंक्तियाँ। अंगुत्तरनिकाय (अं.नि.) भा.1(नालन्दा संस्करण), पृ. 122-124 For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला अपसिद्धान्त के रूप में की जाती है। हम किसी व्यक्ति को नाम से पुकारते हैं। यह व्यवहार चलाने के लिये होता है, न कि परमार्थतः वह व्यक्ति या जीव होता है। आत्मा का शाश्वत मानना - यह शाश्वतवाद है। मृत्यु के पश्चात् जीव अथवा आत्मा का सर्वथा विनाश उच्छेदवाद है। ये दोनों दृष्टियाँ मिथ्यादृष्टियाँ हैं और ये तैर्थिकों की दृष्टियाँ हैं। बुद्ध ने इनका खण्डन करते हुए इन्हें त्यागने के लिये कहा है। त्रिपिटक के अनेक स्थल, जहाँ पर अनत्त सिद्धान्त का विवेचन प्राप्त होता है, उनमें से हम किसी में भी आत्मा के संबंध में सकारात्मक कथन नहीं पाते हैं।। श्रीमती रिज डेविड्स जैसी विदुषी महिला कहती है कि अनत्त संबंधी सभी उद्धरण यह व्यक्त करते हैं कि हमारे दैहिक और आत्मिक जीवन से भिन्न एक शाश्वत आत्मा है, जो उपनिषदों की आत्मा है, यही वास्तविक पुद्गल है। डॉ. विन्टरनित्ज कहते हैं कि यदि ऐसा होता तो हमारे ग्रंथ (त्रिपिटक) और स्वयं भगवान बुद्ध इसे सीधे-सीधे कहने से क्यों बचते? इसके विपरीत, आत्मा के संबंध में सभी प्रकार की मिथ्या दृष्टियाँ निर्वाण प्राप्ति में बाधक बताई गई हैं। ऐसे आत्मा के स्वभाव के संबंध में किये गये प्रश्नों का उत्तर बुद्ध ने नहीं दिया, क्योंकि ऐसे ज्ञान से दुःख-मुक्ति संभव नहीं है। दूसरी ओर सांवृतिक या व्यावहारिक अर्थ की दृष्टि से आत्मा का खण्डन नहीं किया गया है। ऐसा आत्मा है जो चिन्तन करता है, बोलता है, वेदन करता है, कार्य करता है और पुनर्जन्म की स्थिति में फल का अनुभव करता है, किन्तु यह विश्वास मात्र कि आत्म परमार्थ सत्य है, शाश्वत एवं स्थायी है, मिथ्या दृष्टि है। अतः यह कहा जा सकता है कि स्वयं को खोजो या जानो, आत्म-दमन या आत्म-संयम करो। हम यह भी कहते हैं कि मनुष्य अपने कर्मों का उत्तरदायी होता है। डॉ. विन्टरनित्ज अनात्मवाद के संबंध में श्रीमती रिज डेविड्स के द्वारा उद्धृत लघु कहानी की चर्चा करते हैं। वे प्रायः तीस भद्रवर्गीय पुरुषों में से एक, जिसकी पत्नी खो गई थी और वह तथा उसके साथी उस महिला को खोज रहे थे, की कहानी कहती थीं। महिला को खोजने वाले युवक को बुद्ध ने कहा था कि आत्म (स्वयं) को खोजो। यहाँ पर छान्दोग्योपनिषद 8.1.1 की अस्पष्ट प्रतिध्वनि हो सकती है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि बुद्ध ने 'आत्मा' का अर्थ -ईश्वर जो कि आप की आत्मा है', समझा होगा जैसा कि श्रीमती रिज डेविड्स का चिंतन है। जहाँ पर आत्म (स्वयं) को खोजो का अर्थ - 'आत्मा के संबंध में सत्य को जानो।' यही अर्थ इस प्रसंग से निकलता है और 15. ब्रह्मजालसुत्त, दीघनिकाय (दी.नि.) भा.1(नालन्दा संस्करण) पृ. 13-21 एवं पृ. 30-32. 16. द्रष्टव्य-डॉ. विन्टरनित्ज, एम. का लेख - 'सेल्फ एण्ड नान-सेल्फ अर्ली बुद्धिज्म', 'ए सम्भाषा' महाबोधि सेन्टेनरी कम्मेमोरिटिव वाल्यूम), मुख्य संपादक आदिकरी, ए. पिरिवेण एजूकेशन ऑफ दि मिनिस्ट्री ऑफ एजूकेशन एण्ड हायर एजूकेशन, श्रीलंका, 1991, पृ. 22-23 17. वही, पृ. 22 For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध दर्शन में अनात्मवाद की महत्ता • 27 'अनत्तपरियाय' तथा अन्य कई सुत्तों से भी प्राप्त होता है। अंगुत्तरनिकाय में बताया गया है कि कोई भिक्षु आत्मज्ञ (अत्तजू) तब होता है जब वह जानता है कि वह श्रद्धा में, शील में, शिक्षा में (श्रवण के द्वारा), त्याग में, प्रज्ञा में तथा स्पष्ट भाषण (प्रतिभान) में आगे हैं।18 विन्टरनित्ज कहते हैं कि यह सत्य है कि राजा प्रसेनजित और उनकी रानी मल्लिका का संवाद19 उपनिषद के याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी के प्रसिद्ध संवाद की याद दिलाता है, किन्तु हम जानते हैं कि बुद्ध प्रायः ब्राह्मण परम्परा के संस्मरणों का प्रयोग सर्वथा भिन्न अर्थ में करते थे। यहाँ गाथा में स्पष्ट कहा गया है - सभी दिशाओं में चित्त से भ्रमण करके आत्मा (स्वयं) से.प्रिय कहीं किसी को नहीं पाया। इसी प्रकार दूसरे लोगों के लिए उनका आत्मा प्रिय है, अतः जो आत्महित चाहता है, वह दूसरे की हिंसा नहीं करता। श्रीमती रिज डेविड्स का मत है कि यहाँ आत्मा एक सामान्य अर्थ (मेरी आत्मा या मैं स्वयं) में नहीं, अपितु दिव्य स्वगोत्र सर्वव्यापक रूप से प्रत्येक मनुष्य में रहने वाला, इस अर्थ में आत्मा का प्रयोग है। मल्लिकासत्त, जिसमें राजा प्रसेनजित और रानी मल्लिका का संवाद प्राप्त हैं,नैतिक शिक्षा से संबद्ध है और इसका अध्यात्म से कोई संबंध नहीं है। संयुत्तनिकाय में इस सुत्त से पूर्व 'पियसुत्त' है जिसमें राजा प्रसेनजित कहता है कि किसे आत्मा प्रिय (मित्र) है और किसे आत्मा अप्रिय (शत्रु) है और पुनः राजा चिन्तनपूर्वक विचार व्यक्त करता है कि जो शरीर से, वाणी से और मन से सदाचरण करता है, उसे आत्मा प्रिय (मित्र) है और जो शरीर, वाणी, और मन से दुराचरण करता है, उसे आत्मा अप्रिय (शत्रु) है। अत्तरक्खित सुत्त में इसी प्रकार की चर्चा है। वहां पर राजा प्रसेनजित प्रश्न करता है कि किसका आत्मा रक्षित है और किसका अरक्षित है? उत्तर में कहा गया है कि जो काया, वाणी और मन से दुराचरण करते हैं, उनका आत्मा अरक्षित है, भले ही उनकी हस्तिसेना, रथसेना ओर पेदल सेना रक्षा करे, किन्तु उनकी 18. यस्मा च, भिक्खवें, भिक्खु अत्तानं आनाति - 'एत्तकोम्हि सट्ठाय सीलेन सुतेन चागेन पटिभानेना' ति, तस्मा 'अत्तबू'ति वुच्चति। अं.नि., भा. 3 (नालन्दा संस्करण), पृ. 240 19. मल्लिकासुत्त, सं.नि. भा. 1, पृ.73-74 20. सब्बादिसा अनुपरिगम्म चेतसा, नेवज्झगा पियतरमत्तना क्वचि। ____एवं पियो पुथु अत्ता परेसं, तस्मा न हिंसे परमत्तकामो।। वही, पृ. 74 21. सम्भाषा, पृ. 23 22. ये च खो केचि कायेन सुचरितं चरन्ति, वाचाय सुचरितं चरन्ति, मनसासुचरितं चरन्ति, तेसं पियो अत्ता। सं.नि.भा. 1 पृ. 070. 23. ये च खो केंचि कायेन दुच्चरितं चरन्ति,वाचाय दुच्चरितं चरन्ति, मनसा दुच्चरितंचरन्ति, तेसं अप्पियो अत्ता - वही For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 - बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला आत्मा अरक्षित है, क्योंकि वह बाहरी रक्षा है, आन्तरिक नहीं, अतः उनकी आत्मा अरक्षित है। इसके विपरीत जो काय से, वाणी से ओर मन से सदाचरण करते हैं उनकी आत्मा रक्षित है। भले ही उनकी रक्षा हस्तिसेना, न अश्वसेना, न रथसेना और न पैदल सेना करे तो भी उनकी आत्मा रक्षित है, क्योंकि वह रक्षा आन्तरिक है, बाहरी नहीं, अतः उनकी आत्मा रक्षित है। यहाँ पर 'आत्मा' संवृति अर्थ में प्रयुक्त है, न कि परमार्थ अर्थ में। निकायों में अनेक स्थल है जहां 'अत्त' किसी जीव समग्रता हेतु सांवृतिक स्तर पर प्रयुक्त होता है। इस प्रसंग में हम धम्मपद के अत्तवग्ग को ले सकते हैं। इसमें सभी दस गाथाएँ हैं जिनमें अत्त' शब्द संवृति अर्थ (स्वयं का अपना) में प्रयुक्त है। इसकी पुष्टि के लिए एक गाथा को उद्धृत करना प्रासंगिक होगा - - अत्ता हि अत्तनो नाथो, को हि नाथे परो सिया। .... अत्तना हि सुदन्तेन, नाथो लभति दुल्लभं।। .. मनुष्य अपना स्वामी आप है, उसका दूसरा स्वामी कौन होगा? अपने को ही भली-भाँति दमन कर लेने से वह दुर्लभ स्वामित्व का लाभ करता है। अत्तवग्ग के अतिरिक्त भी धम्मपद में कई स्थलों पर 'अत्त' शब्द सांवतिक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। उदाहरणार्थ, भिक्खुवग्ग की दो गाथाएँ प्रस्तुत हैं। अत्तना चोदयत्तानं पटिमंसेथ अत्तना। सो अत्तगुत्तो सतिमा सुख भिक्खु विहाहिसि।।28 जो अपने आप को प्रेरित करेगा, अपने ही आप को संलग्न करेगा, वह आत्म-गुप्त (अपने द्वारा रक्षित) भिक्षु सुख से विहार करेगा। अत्ता हि अत्तनो नाथो, अत्ता हि अत्तनो गति। तस्मा संयमयत्तानं, अस्सं भदंव वाणिजो।29 24. ये खो केचि कायेन दुच्चरितं चरन्ति, .....मनसा दुच्चरितं चरन्ति, तेस अरक्खितो अत्ता। कि. चापि ते हत्थिकायो वारक्खेय्य..पत्तिकायो...अरक्खितो अत्ता। वही पृ.71 25. येच खो केचि कायेन सुचरितं चरन्ति,......तेसंरक्खितो अत्ता। ...अज्झत्किा हेसा रक्खादू तेस रक्खितो अत्ता। वही, पृ. 72 26. सम्भाषा, पृ. 23 पा.टि. 22 27. धम्मपद (ध.प.) 160 (नालन्दा संस्करण) 28. वही पृ. 379 29. वही पृ. 380 For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध दर्शन में अनात्मवाद की महत्ता * 29 मनुष्य अपना स्वामी आप है, अपने ही अपनी गति है, इसलिये अपने को संयमी बनाये, जैसे कि सुन्दर घोड़े को बनिया संयत करता है। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि आत्मा (अत्ता) का शाश्वत आत्मा से कोई संबंध नहीं है। अंगुत्तनिकाय के तिकनिपात में 'अत्ता' शब्द का प्रयोग हुआ है और हमारे विज्ञान के बहुत निकट है - नत्थि लोके रहो नाम, पापकम्मं पकुब्बतो। अत्ता पे पुरिस जानाति, सच्चं या यदि वा मुसा।। कल्याणं वत भो सक्खि, अत्तानं अतिमञ्जसि। यो सन्तं अत्तानि पापं, अत्तानं परिगृहसि।।30 अर्थात् पापकर्म करने वाले के लिये लोक में छिपकर काम करने की जगह नहीं है। हे पुरुष! जो कुछ तू अच्छा या बुरा करता है, यह सत्य या मृषा (मिथ्या) है, यह बात तेरी अपने आप तो जानता ही है। हे मित्र! तू सुन्दर है, पर अपने आप का ही अपमान करता है, तुम अपने पाप को अपने आप से ही छिपाता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्मों के लिये उत्तरदायी होता है। इस बात को पौराणिक ढंग से मज्झिमनिकाय के देवदत्तसुत्त में कहा गया है। यमराज दुष्कृत करने वाले व्यक्ति को उत्पीड़कों को सौंपने के पूर्व कहते हैं कि तुम्हारे कार्य तुम्हारे माता-पिता, भाइयों, बहनों, मित्रों, सगोत्रवर्ग, श्रमणों, ब्राह्मणों या देवताओं के द्वारा नहीं किये गये हैं. बल्कि तुम्हारे द्वारा ही किये गये हैं, अतः तुम्ही फल के भुगतने वाले होओगे। निकायों में अन्य अनेक स्थल है जहाँ अत्ता' शब्द का प्रयोग है, किन्तु उन सभी स्थलों पर सांवृतिक अर्थ है, न कि 'शाश्वत आत्मा'। हम इसे मोटे प्रकार से ऐसे समझ सकते हैं - 'अनत्त' अर्थात अपना नहीं। हमारा यह रूप अपना नहीं हैं, हमारे साथ स्थाई बना रहने वाला नहीं है, हमारी वेदनायें भी अपनी नहीं है, संस्कार और विज्ञान भी अपने नहीं है। संसार में कोई भी वस्तु नहीं है जो हमारी अपनी है। अपने न होने का कारण भी है, क्योंकि वे सभी अनित्य है। अनित्य होने के कारण वे सभी दुःख हैं। ___ आत्मवादियों का अनात्मवादियों से प्रश्न होता है कि यदि आत्मा नहीं है तो पुनर्जन्म किसका होता है? उत्तर है - दूसरे जन्म में प्रवेश चित्तसन्तति या विज्ञानसन्तति के कारण होता है। विज्ञान का उत्पाद और निरोध सतत चलता रहता है, एक क्षण का भी अन्तर नहीं होता। चित्तोत्पाद और चित्तलय की क्रियायें एक दूसरे के अपूर्व और 30. अ.नि.भा. 1,तिक निपात, पृ. 137 31. तं खो पन ते एतं पापकम्म नेव मातरा कतं न पितरा कतंन भातरा कतंन भगिनिया कतं न मित्तमच्चेहि कतं न जातिसालोहितेहि कतं न सामणब्राह्मणेहि कतं न देवताहि कतं, तयावेतं पापकम्मं कतं, त्वजेवेतस्स विपाकं पटिसंवेदिस्ससि। मज्झिमनिकाय (म.नि.) भा. 3 पृ. 254 For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 • बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला अपश्चात् जैसी होती हैं। एक जन्म के अन्तिम विज्ञान के लय होते ही दूसरे जन्म का प्रथम विज्ञान उठ खड़ा होता है।3।। बौद्ध मत एवं दर्शन का सही ज्ञान होने के लिये अनात्मवाद का ज्ञान होना आवश्यक है। यह त्रिलक्षण (तिलक्खण) अनित्य, दुःख और अनात्म में से एक है। अनात्मवाद का ज्ञाता अनित्यता एवं दुःख को भी जानता है। इसके ज्ञान से अहंकार और ममकार का नाश होता है। अनात्मवादी अनासक्त होता है, क्योंकि वह सम्यक् प्रकारेण जानता है कि अमुक वस्तु परमार्थतः उसकी नहीं है। वह संस्कारों के अनित्य और दुःख रूप को जानता है। त्रिलक्षण को जानने वाला सम्यक् दृष्टिवान होता है और प्रज्ञा का अधिगम करता है। - पालि एवं बौद्ध अध्ययन विभाग ___ बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी-221005 32. धम्मसन्तति सन्दहति । अञ्जो उप्पज्जति, निरुज्झति, अपुब्बं अचरिमं विय सन्दहति। मि.प. पृ. 31. 33. पुरिमाविञाणे पच्छिमाविञाणं संगहं गच्छति । वही, पृ. 32. For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध धर्म के सामाजिक सन्दर्भ : समता, मैत्री और करुणा डॉ. शिवनारायण जोशी 'शिवजी' यद्यपि बौद्धधर्म विशेषतः थेरवाद निर्वाण की व्यक्तिपरक धारणा का पक्षधर है तथापि सभी बौद्ध निकाय समता, मैत्री और करुणा सरीखे सामाजिक मूल्यों को जीवन के आधारभूत मूल्य के रूप में स्वीकार करते हैं। बौद्ध दर्शन वस्तुतः एक व्यावहारिक दर्शन है। वह निर्वाण के वैयक्तिक आदर्श को सामाजिक मूल्यों के साथ इस प्रकार सम्बन्धित करता है कि सामाजिकता निर्वाण में बाधक न होकर सहायक हो जाती है। निर्वाण दुःखों का सदा सर्वदा नाश है और सामाजिक मूल्य दुःख निवारण के सरल उपाय हैं। दुःख सभी धर्मों का प्रारम्भिक अभ्युपगम है। सभी धर्म मनुष्य जीवन में दुःख की उपस्थिति को स्वीकार करते हैं। यदि यह कहा जाए कि धर्म का प्रादुर्भाव दुःख के विरुद्ध मानवीय संघर्ष का परिणाम है तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। सभी भारतीय दर्शन दुःख को जीवन की मूलभूत समस्या मान कर उससे निवृत्ति के उपायों का अन्वेषण करते हैं। बौद्धों ने समग्र मानवीय अनुभव को ही दुःख माना है। उनका कहना है - "सर्वम् अनित्यम् सर्वं दुःखम्" अनित्यता से इष्ट का बिछोह होता है और इष्ट के बिछोह से दुःख होता है। इष्टानिष्ट तृष्णा को जन्म देते हैं, इष्ट के मूल में प्राप्ति और संरक्षा की तृष्णा है तो अनिष्ट के लिए परित्याग की तृष्णा बलवती होती है। इष्ट की अप्राप्ति तो दुःख है ही, इष्ट की प्राप्ति में आने वाली बाधाएँ भी दुःख हैं तथा इष्ट का बिछोह भी दुःख है। अनिष्ट प्रतिकूल है जिसकी उपस्थिति अवांछनीय है। अनुकूलता और प्रतिकूलता की ये दोनों स्थितियाँ दुःख हैं। आत्मभाव (Ego '' ness) नित्यता और तृष्णा का पोषक है। तृष्णा राग-द्वेषादि दोषों की पोषक है। राग-द्वेष न केवल वैयक्तिक जीवन में दुःख और अशान्ति के जनक हैं, अपितु सामाजिक जीवन में भी विषमता, घृणा और हिंसा के उत्तरदायी हैं। - बौद्धों के अनुसार अनात्मवाद व्यक्ति और समाज दोनों में समता और शान्ति का प्रसार करता है। अनात्मवाद अभिमान का प्रतिपक्षी है, आत्मा का नहीं। अनत्ता चेतना For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला का निषेध नहीं है। नित्य द्रव्य (Eternal Substance) के रूप में आत्मा का निषेध अनात्मभाव है। 'अनत्ता' का तात्पर्य यह बतलाना है कि आत्मा क्या नहीं है, संसार की सभी वस्तुएं अनात्म हैं। जिसे हम व्यक्ति कहते हैं वह भी पंच स्कन्धों का परिवर्तनशील प्रवाह है। अनात्मभाव 'ममकार' (मैं व मेरा) का निराकरण कर समता की ओर अग्रसर होने में व्यक्ति को प्रेरित करता है। अनुकूलता के प्रति आकर्षण का अभाव और प्रतिकूलता के प्रति विकर्षण का अभाव ही राग-द्वेष में सम रहना है। राग-द्वेष में सम रहना मानसिक समता है और अपने व्यवहार में लोगों के साथ वर्गगत, जातिगत और लिंगगत भेद नहीं करना सामाजिक समता है। मानसिक समता का विकास सामाजिक समता को विकसित करता है। बौद्धों की सामाजिक समता की ओर अग्रसर होने की प्रक्रिया को इस प्रकार सूत्रबद्ध किया जा सकता है - ___ अनात्मवाद →ममकार का निवारण →मानसिक समता (राग-द्वेष दौर्बल्य) → तृष्णा का दौर्बल्य →सामाजिक समता की ओर अग्रसरता। . बौद्धधर्म का उदय पुरोहित वर्ग द्वारा थोपी गई कर्मकाण्ड की जटिलता, वर्णभेद, लिंगभेद आदि सामाजिक विषमताओं के विद्रोह स्वरूप हुआ। बौद्धों के अनुसार व्यक्ति की श्रेष्ठता जातिगत या वर्गगत न होकर उसके गुण और सत्कर्मो से निर्धारित होती है। धम्मपद में किसी को जन्मना ब्राह्मण नहीं माना गया है। वहाँ कहा गया है कि 'न जटा से, न गोत्र से, न जन्म से कोई ब्राह्मण होता है, जिसमें सत्य और धर्म है जो अकिंचन और त्यागी है, वह ब्राह्मण है। सुत्तनिपात में भी वर्णभेद को अस्वीकार करते हुए कहा गया है कि न तो कोई जन्म से अछूत होता है और न कोई ब्राह्मण। अपने कर्मो से ही व्यक्ति अछूत और ब्राह्मण होता है। बौद्ध धर्म का आधारभूत सिद्धान्त है कि सब मनुष्य बिना किसी भेदभाव के एक दूसरे का सम्मान करें और लोगों के बीच घृणा की अदृश्य दीवार गिराएं। बौद्धों का यह मानना है कि सभी संस्कृतियाँ, सभी धर्म, सभी वर्ण, सभी स्त्री-पुरुष मूलतः समान हैं और प्रत्येक प्राणी में बुद्ध होने की सम्भावना विद्यमान है। अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति अपना विकास करने में समर्थ और स्वतंत्र है। मनुष्य स्वयं ही अपनी नियति निर्धारित करता है, न कि कोई पारलौकिक शक्ति। जहाँ तक लिंगगत भेद का प्रश्न है, महात्मा बुद्ध ने नारी जाति को जो मान दिया है वह ढाई हजार वर्ष पूर्व तत्कालीन रूढ़िवादी परिस्थितियों को देखते हुए अत्यन्त 1. इस सम्बन्ध में महात्मा बुद्ध और आनन्द के बीच हुआ एक वार्तालाप उल्लेखनीय है - वत्सगोत्र द्वारा आत्मा से सम्बन्धित पूछे गए प्रश्न के सन्दर्भ में बुद्ध आनन्द से कहते हैं - 'यदि मैं उसे (वत्सगौत्र को) यह कहता आत्मा है तो यह नित्यवाद होता और आत्मा का निषेध करता तो उच्छेदवाद होता।(संयक्त निकाय XLIV-10) इस वार्तालाप से यह स्पष्ट हो जाता है कि अनत्ता आत्मा का निषेध नहीं है महात्मा बुद्ध आत्मा के किसी भी प्रकार के सकारात्मक विवरण से बचते हैं। 2. धम्मपद (ब्राह्मणवग्गो) गाथा - 393,396, 400 .. 3. सुत्तनिपात (वसलसुत्त) गाथा-21 For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध धर्म के सामाजिक सन्दर्भ : समता, मैत्री और करुणा * 33 महत्त्वपूर्ण घटना मानी जा सकती है। जब कौशल नरेश प्रसेनजित कन्या के उत्पन्न होने से बहुत व्यथित हुए तो उन्हें सांत्वना देते हुए बुद्ध ने कहा कि कन्या पुत्र से भी श्रेष्ठतर हो सकती है, अतः कन्या के जन्म पर शोक करना व्यर्थ है। बुद्ध इस बात में विश्वास करते थे कि स्त्रियां भी परुषों की भाँति अपना आध्यात्मिक विकास करने में सक्षम और स्वतंत्र हैं। सामाजिक क्षेत्र में भी अन्य धर्मों की तुलना में बौद्ध धर्म में स्त्रियों की स्थिति अच्छी रही। पितरों के उद्धार के लिए पुत्र होने की अनिवार्यता को बौद्धों ने स्वीकार नहीं किया, जैसा कि मनुस्मृति में माना गया है। बौद्धों में विधवा पत्नी अपने पति का तथा पुत्री अपने पिता का अन्तिम संस्कार कर सकती थी, कन्या अपने पिता की सम्पत्ति में भी भागीदार हो सकती थी। भिक्खुनी संघ का निर्माण करना बुद्ध का, तत्कालीन परिस्थितियों की दृष्टि से, एक क्रान्तिकारी कदम माना जाता है। भिक्खुनीसंघ ने स्त्रियों की धार्मिक स्वतंत्रता और मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। भिक्षुणियाँ भी भिक्षुओं की भांति धार्मिक शिक्षा और प्रवचन करने में स्वतंत्र थीं। संयुत्त निकाय में कहा गया है कि स्त्री हुई तो क्या हुआ, यदि उसका चित्त शान्त और एकाग्र है तो वह सम्यक् धर्म और ज्ञान के मार्ग में आगे अवश्य बढ़ती है। इस संदर्भ में यह द्रष्टव्य है कि भिक्षुणियों को पूरा मान-सम्मान और समान अधिकार देते हुए भी दोनों के नियमों में भेद किया गया था, जो सम्भवतः तत्कालीन समाज की स्थिति को देखते हुए एक विवशता रही हो। महाप्रजापति गौतमी को जब भिक्षुणी की दीक्षा दी गई तब उनके लिए आठ नियमों का पालन करना अनिवार्य रखा गया। इन आठ नियमों में दो नियम इस प्रकार के हैं, जो निश्चित ही भिक्षुणियों को भिक्षुओं से कमतर आंकते हैं। ये दो नियम हैं -1. अभिवादन के सन्दर्भ में भिक्षुओं को प्रत्येक परिस्थिति में वरीयता होगी अर्थात् भिक्षु यदि.ज्ञान और आयु में कम है तो भी भिक्षुणियां भिक्षुओं का अभिवादन करेंगी। 2. भिक्षु भिक्षुणियों को सलाह अथवा निर्देश दे सकते हैं, पर भिक्षुणियों को यह अधिकार नहीं है। इस भेदभाव को स्वीकार करते हुए भी यह माना जा सकता है कि बौद्ध धर्म सामाजिक समता के सन्दर्भ में अन्य धर्मों की तुलना में अपने युग से कहीं आगे था। संयुक्त निकाय में कहा गया है कि स्त्री-पुरुष जो भी इस (बौद्ध) यान में आता है वह निर्वाण की शान्ति प्राप्त करता है।' पूर्ण सामाजिक समानता एक ऐसा आदर्श कहा जा सकता है जिसे प्राप्त करने में सम्भवतः हमें कई वर्ष और प्रतीक्षा करनी होगी। सिद्धान्त 4. K.Sri Dhammanand Maha Thera - 'Status of women in Buddhism p. 2 File://F:/ http://Egalitarianism/status of women in Buddhism.htm 5. The place of women in Buddhism by swarna de silva p. 5 file://F:/Egalitarianism/ The Place of Women in Buddhism by Swarna de Silva.htm 6. वही पृ.8 . 7. The Position of Women in Buddhism by L. S. Dewaraja p 5 Filel/F:/ ... Egalitarianism/The position of women in Buddhism byL.S. Dewaraja.htm. For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला और व्यवहार में सर्वत्र और सदैव ही भेद रहा है, जो मानव स्वभाव के अधूरेपन का द्योतक है। समता का विकास समाज के विकास की पूर्व शर्त है। जिस समाज में समता जितनी अधिक विकसित है वह समाज उसी अनुपात में विकसित और उन्नत है। असमानता आदिम युग की परिचायक है। समता और शान्ति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। समता शान्ति है तो विषमता अशान्ति। विषमता समाज में अस्थिरता, अशान्ति, पारस्परिक वैमनस्य और हिंसा को जन्म देती है। बौद्ध धर्म में संघ को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है, यहाँ तक कि बुद्ध से भी संघ को वरीयता दी गई है। इससे यह स्पष्ट होता है कि बौद्ध धर्म में समाज और सामाजिक मूल्यों को पर्याप्त महत्त्व दिया गया है। बौद्धधर्म का आविर्भाव ही सामाजिक अन्याय और शोषण के विरोध स्वरूप हुआ था। __अन्य भारतीय दार्शनिक निकायों की भाँति बौद्ध धर्म भी यह मानता है कि समाज में : अमीर-गरीब, योग्य-अयोग्य, सुखी-दुःखी आदि भेद कर्म-भेद के कारण से हैं। कर्मवाद का नियम सभी प्राणियों पर बिना भेदभाव के समान रूप से लागू होता है। कर्मजन्य इस बाहरी भेद के होते हुए भी सभी प्राणी स्वभावतः बुद्ध स्वभाव के हैं अर्थात् स्वतंत्रता प्रत्येक प्राणी का स्वभाव है और वह दुःखों से मुक्ति अर्थात् निर्वाण प्राप्ति की योग्यता रखता है। एक दृष्टान्त से इस बात को भली भांति समझा जा सकता है। खरगोश, घोड़ा और हाथो एक नदी को पार कर रहे हैं। खरगोश के लिए वह नदी बहुत गहरी है, घोड़े के लिए वह नदी इतनी अधिक गहरी नहीं जबकि हाथी के लिए बहुत कम गहरी है। परिस्थितियां तीनों के लिए भिन्न होते हुए भी नदी तीनों के लिए समान है। इसी तरह सभी. प्राणियों में कर्मजन्य परिस्थितियों के कारण भिन्नता होते हुए भी बुद्ध स्वभाव समान है यह ध्यान देने योग्य बात है कि कर्मवाद भाग्यवाद नहीं हैं। कर्मवाद अलंघनीय कारण-कार्य श्रृंखला नहीं है। तृष्णा के क्षय से कर्मजन्य अवस्थाओं का भी क्षय हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति अष्टांग मार्ग का अनुसरण करते हुए तृष्णा का क्षय करने में समर्थ हो सकता है। समता का पौधा करुणा और मैत्री की उर्वरा भावभूमि में विकसित होता है। बिना मैत्रीभाव और करुणा के समता की कल्पना भी नहीं की जा सकती। बुद्धघोष विरचित विसुद्धिमग्ग नामक पालि ग्रन्थ के नौवें अध्याय में चार ब्रह्म विहार का वर्णन किया गया है। ये ब्रह्मविहार हैं - मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा। ये समस्त सत्त्वों (प्राणियों) के प्रति सम्यक् व्यवहार का निर्देश करने वाले मार्गदर्शक तत्त्व है। ब्रह्मा अर्थात् जो मलों से रहित शुद्ध साधक है तथा विहार का अर्थ निवास है। इस प्रकार ब्रह्म विहार रागद्वेषादि मलों से रहित शुद्ध चित्त की स्थायी अवस्थाएं है।' मेत्ता या मैत्री समस्त प्राणियों के प्रति राग और क्रोध रहित प्रेमभाव है। करुणा परपीड़ा को शोक रहित होकर अपना स्वयं का दुःख अनुभव करते हुए उसके निवारण का सत्प्रयास करना है। दूसरों की सम्पन्नता और 8. Equality and Peace Keynote speech at 5th BLIA General Conference, Paris 1996 + Access to http://www.f:/Egalitarianism/Equality and Peace, htm. 9. जैसे ब्रह्मा राग-द्वेषादि मलों से रहित होकर साधना करते हैं वैसे ही साधक इन चारों की निर्दोष चित्त से साधना करता है, अतः इन्हें ब्रह्म विहार कहा गया है - 'बुद्धघोष - विसुद्धिमग्गो, अनुवादक - स्वामी द्वारिका दास, पृ. 186 For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध धर्म के सामाजिक सन्दर्भ : समता, मैत्री और करुणा 35 प्रसन्नता में स्वयं प्रसन्न होना मुदिता है । उपेक्षा चित्त की सुख-दुःख, राग-द्वेष रहित द्वन्द्वातीत अवस्था है। इन चारों ब्रह्म विहारों में मुदिता का मैत्रीभाव में अन्तर्भाव किया जा सकता है। हमारे चित्त में जब सब सत्त्वों (प्राणियों) के प्रति प्रेम और मैत्रीभाव होता है तभी उनकी प्रसन्नता में हमें भी हर्ष की अनुभूति होती है । उपेक्षा चित्त की सम अवस्था है, जो मैत्री और करुणा को संतुलित बनाए रखती है । चित्त सम अवस्था में न हो तो कर्तृत्व का अभिमान उपस्थित होकर मैत्री और करुणा के दिव्य भाव को भ्रष्ट कर सकता है। यही नहीं मैत्री और करुणा में अति उत्साह का आवेग आने पर व्यक्ति का व्यवहार असंतुलित हो सकता है। अत: उपेक्षा मैत्री और करुणा के भाव को संतुलित और नियमन करने वाली चित्त की सम अवस्था है। 10 इन ब्रह्म विहारों को समस्त प्राणियों के प्रति किया जाने वाला सम्यक् व्यवहार कहा गया है। (सत्तेसु सम्मा पतिपत्ति) ब्रह्मविहारों में मूल भाव माना जा सकता है, क्योंकि मैत्री भाव के न होने पर करुणा और मुदिता का भी उदय नहीं हो सकता । मैत्री के द्वारा अन्य व्यक्तियों के साथ सद्भाव पूर्वक व्यवहार रखने के कारण इसे हम सामाजिक मूल्य के रूप में लेते हैं जो समाज परस्पर प्रेम और सौहार्द का विस्तार करता है । ब्रह्मविहार के रूप में मैत्री भाव में योगी या साधक सभी सत्त्वों (प्राणियों) के साथ स्वार्थरहित प्रेम और सौहार्द का भाव रखता है। यह चित्त की एक दिव्य अवस्था है। मैत्री, करुणा आदि ब्रह्म विहारों को अप्पमाण (अप्रमाण) कहा गया है, क्योंकि ये भाव केवल कुछ चयनित सत्त्वों तक ही सीमित नहीं रहते, अपितु साधक समस्त प्राणियों के प्रति मैत्री भाव रखता है। मैत्री स्वभावतः अन्यों के प्रति प्रेम और सद्भाव मूलक चित्त की अवस्था होने के कारण यह हिंसा, द्वेष और घृणा का प्रतिपक्षी भाव है। यह व्यक्ति के मन में किसी के भी प्रति अहित या हिंसा के भाव को आने से रोकता है। व्यक्तियों में मैत्री भाव का विकास होने पर समाज में हिंसक प्रवृत्तियाँ निर्बल होने लगती हैं, फलस्वरूप पारस्परिक सहयोग, सौहार्द और शान्ति की वृद्धि होने लगती है । समाज में समता और संतुलन मैत्रीभाव के विकास पर ही निर्भर है। स्वार्थ रहित मित्रता ऊँच-नीच के भेद और घृणा की अदृश्य दीवार को ध्वस्त करती है । सामाजिक समरसता के लिए मैत्री अनिवार्य भावभूमि है । साधारण जन की मैत्री और ब्रह्मविहार साधक की मैत्री में अन्तर होता है । साधारण जन की मैत्री स्वार्थ पर टिकी होती है। यदि वह निःस्वार्थ भी हो, तो भी वह चयनित होती है अर्थात् उसकी मैत्री केवल उन लोगों तक ही सीमित रहती हैं जो उसको प्रिय लगते हैं, परन्तु साधक की मैत्री प्रिय-अप्रिय का भेद नहीं देखती। साधक शत्रु या अप्रिय लगने वाले व्यक्ति के प्रति भी मैत्री भाव रखता है। धम्मपद में कहा गया है कि शत्रुता कभी शत्रुता से शान्त नहीं होती, अपितु अवैर अर्थात् मित्रता से शान्त होती है। 11 सुत्तनिपात के 'मेत्तसुत' अध्याय में मैत्री के आदर्श को बहुत सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया गया है। वहाँ कहा गया है कि 'कोई किसी 10. विसुद्धिमग्ग, पृ. 180 For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला दूसरे को धोखा न दे, किसी को भी छोटा या अछूत न समझे और न क्रोध में आकर किसी का अहित करे, जैसे कोई माँ अपने जीवन की चिन्ता किए बिना अपने एकमात्र बच्चे की निरन्तर निगरानी करती है वैसे ही लोग समस्त प्राणियों के प्रति असीम प्रेम करें। हर समय अर्थात् खड़े हुए, चलते हुए, बैठे हुए, लेटे हुए प्राणियों की हित साधना में ही स्वयं को समर्पित कर दें। साथ ही साधक के लिए यह भी अनिवार्य है कि मैत्रीभाव क्रोध रहित तो हो ही, साथ ही राग रहित भी हो, क्योंकि रागात्मक मैत्री भाव होने से केवल अपने प्रिय जन के साथ ही मैत्री होगी और क्रोध की अवस्था में तो मैत्री भाव सम्भव ही नहीं है। ऐसा स्वार्थ रहित और सीमा सम्भेद से परे मैत्रीभाव विकसित करना अत्यन्त दुरूह कार्य है। अतः मैत्री भाव आदि ब्रह्म विहारों को विकसित करने के लिए ध्यान करना आवश्यक है, जिसे ब्रह्म-विहार, भावना कहा गया है। इस ब्रह्म-विहार भावना के अभ्यास में सर्वप्रथम साधक को स्वयं के प्रति मैत्री भाव को विकसित करना चाहिए, क्योंकि सभी मनुष्यों के लिए यह सहज है। सामान्यतया सभी मनुष्य स्वयं से प्रेम करते हैं और अपना हित चाहते हैं। बुद्धवचन भी है - 'सब दिशाओं में चित्त से जाकर (विचारकर) देखा, तो स्वयं से बढ़कर प्रिय किसी को भी नहीं पाया। इस प्रकार पृथक-पृथक दूसरों को अपनी-अपनी आत्मा प्रिय है, अतः स्वार्थ के लिए दूसरों की हिंसा न करे13 साथ में यह भावना भी निरन्तर करे कि जैसे मैं अपना सुख चाहता हूँ वैसे ही दूसरे भी,अपना सुख चाहते हैं। इसके पश्चात् ब्रह्म-विहार-भावना के दूसरे सोपान में जो प्रिय है, अपने कुटुम्ब के हैं या गुरु हैं, उनके लिए सुख और हित की भावना का अभ्यास करना चाहिए। ये लोग हमारे प्रियजन हैं, अत: ऐसा अभ्यास करना भी सरल ही है। तीसरे सोपान में मध्यस्थ अर्थात वे लोग जो हमें न प्रिय हैं और न अप्रिय हैं, के लिए सुख और हित की भावना का अभ्यास करना चाहिए। अन्त में जो वैरी है या जो हमें अप्रिय लगता है, उसके प्रति सुख और हित की भावना करनी चाहिए। उपर्युक्त ब्रह्म विहार, भावना का निरन्तर अभ्यास करते हुए चित्त के मैत्री में अभ्यस्त हो जाने पर सीमा सम्भेद करते हुए (अर्थात् मैत्री की कोई सीमा, कोई भेदभाव न रखते हुए) समस्त प्राणियों के प्रति सुख और हित की भावना करनी चाहिए। करुणा के लिए भी साधक को इसी प्रकार ब्रह्म-विहार भावना का अभ्यास करना चाहिए। करुणा और मैत्री में कोई मौलिक भेद नहीं। मैत्री की व्यवहार में क्रियान्विति करुणा है। मैत्री भाव के बिना की गई करुणा अहंकार और असमानता के भाव से दूषित 11. धम्मपद, गाथा 5 12. Sacred books of the East, Ed. Max Muller, MLBD, Delhi, 1973, P. 25 13. सब्बा दिसा अनुपरिगम्म चेतसा नेवज्झगा पियतरमत्तना क्वचि। एवं पियो पुथु अत्ता परेसं, तस्मा न हिंसे परमत्तकामो-संयुत्तनिकाय, 1.126 14. धम्मपद, गाथा 131 15. बुद्धघोष, विसुद्धिमग्गो, अनुवादक-स्वामी द्वारिकादास, पृ. 148-175 पा For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध धर्म के सामाजिक सन्दर्भ : समता, मैत्री और करुणा * 37 हो जाती है। मैत्री भाव का आधार समता होता है। अतः ब्रह्म-विहार रूप में करुणा सदैव मैत्री भाव से ओत-प्रोत रहती है। साधारण जन की दया और करुणा में भेद हैं। संसार के लोग नाना प्रकार के कष्टों और पीड़ा से पीड़ित रहते हैं। सामान्य व्यक्ति अपने ही दुःख से व्यथित रहने के कारण पर-पीड़ा पर विचार ही नहीं कर पाता। कुछ व्यक्ति दूसरों के कष्ट पर चिन्तित तो होते हैं, पर उनकी चिन्ता कर्म का रूप नहीं ले पाती, कुछ विचारवान लोग पीड़ित व्यक्ति के प्रति दया दिखाते हुए नाम मात्र की सहायता करके अपने कर्तव्य की इति मान लेते हैं। वस्तुतः करुणा परदुःख को दूर करने की निष्ठायुक्त प्रबल अभिलाषा होती है। इसका तात्पर्य यह है कि करुणावान व्यक्ति अपने सामर्थ्य, ज्ञान और उपलब्ध साधन का अधिकतम उपयोग करते हुए दूसरों के कष्टों को दूर करने का अथक प्रयास करता है। करुणा का उदय होने पर साधक पर-पीड़ा को स्वयं की पीड़ा की भांति अनुभव करता है। अतः जैसे हम अपनी पीड़ा को दूर करने के लिए हर सम्भव प्रयत्न करते हैं वैसे ही करुणावान व्यक्ति पर-पीडा के निवारण के लिए तत्पर रहता है। करुणा विचार तक ही सीमित नहीं रहती, वह कर्म में परिणत होकर रहती है। करुणा भाव पर-पीड़ा निवारण का सार्थक प्रयास होता है। ब्रह्म-विहार के रूप में करुणा सीमा सम्भेद करते हुए बिना भेदभाव के समस्त प्राणियों के लिए की जाती है। ऐसी करुणा लोगों की सोच और कर्म को संकचितता के दायरे से निकाल कर असीम व्यापकता देती है। करुणा समाज के सभी वर्गों के लोगों को परस्पर समीप लाती है। एक दूसरे की पीड़ा को अपनी पीड़ा अनुभव करने से आपस में सहयोग और सौमनस्य में वृद्धि होती है। प्रेम और मैत्री के सबल होने से घृणा और द्वेष निर्बल होते हैं। मैत्री और करुणा की सम्यक् क्रियान्विति के लिए यह आवश्यक है कि इनकी अनुपालना उपेक्षा भाव अर्थात् राग-द्वेष और प्रिय-अप्रिय भावों से ऊपर उठ कर होनी चाहिए, अन्यथा इनका कार्यक्षेत्र अपने प्रियजन और परिजन तक ही सीमित होकर रह जाता है। उपेक्षा मानसिक समता है और यह सामाजिक समता की पूर्वगामी है। बिना मानसिक समता के सम्यक् सामाजिक समता प्राप्त नहीं की जा सकती है। संक्षेप में मैत्री और करुणा के आदर्श उदात्त सामाजिक मूल्य हैं, ये समाज में समता, प्रेम सहयोग और शान्ति का विस्तार करते हैं। इनसे व्यक्ति और समाज दोनों का विकास होता है। ब्रह्म-विहार की पूर्णता जहाँ व्यक्ति को अर्हत् बनाती है वहीं दूसरी ओर एक स्वस्थ, समृद्ध और अहिंसक समाज का निर्माण भी करती है। व्यवहार में मैत्री और करुणा अपनी पूर्णता को न भी न पहुँचे, तब भी इन भावों का अधिकतम सम्भाव्य विकास समाज की शान्ति और समृद्धता के विकास में अपना सार्थक योगदान देता ही है। ये उदात्त सामाजिक मूल्य बौद्ध धर्म को उदात्त मानवतावाद (Sublime Humanism) की पहचान देते हैं। मनुष्य समाज की धुरी है, कोई पारलौकिक शक्ति नहीं, व्यक्ति For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला स्वयं अपनी नियति का निर्माता है, वह स्वयं ही अपने कर्म का स्वामी है, कर्मदायाद (कर्मफल का अधिकारी) कर्मयोनि व कर्मबन्धु है। तृष्णा का क्षय कर व्यक्ति स्वयं ही कर्मबन्धन से मुक्त होकर अर्हत् बनता है। प्रत्येक प्राणी बिना किसी जाति, लिंग व वर्गभेद के सम्भाव्य बुद्ध है अर्थात् बुद्ध (मुक्त) होने में समर्थ है। थेरवाद में ब्रह्म-विहार साधन है और निर्वाण साध्य। साधक-निर्वाण प्राप्ति के लिए ब्रह्म-विहारों की साधना करता है। महायान में बोधिसत्त्व का आदर्श साध्य है। बोधिसत्त्व पर-पीड़ा के शमन के लिए निर्वाण का निलम्बन कर देते हैं। थेरवाद की करुणा महायान में महाकरुणा का रूप ले लेती है। महाकरुणा का ध्येय वैयक्तिक निर्वाण न होकर सार्वभौमिक दु:ख-निवृत्ति हो जाता है। महाकरुणा का नायक बोधिसत्त्व निर्वाण के प्रवेश द्वार पर पहुंच कर निर्वाण को स्थगित कर देता है। इस स्थिति को महायान में अप्रतिष्ठित निवार्ण की संज्ञा दी गई है। परपीड़ा-निवारण के अभिलाषी साधक में बोधिप्रणिधिचित्त का उदय होता है। बोधिचित्त सार्वभौमिक दुःख की मुक्ति के उत्तरदायित्व का अकृत्रिम बोध एवं दृढ़ इच्छा शक्ति है। बोधिप्रणिधि चित्त धारक साधक यह संकल्प लेता है कि जगत कल्याण के लिए मैं बुद्धत्व प्राप्त करूंगा (बुद्धो भवेयं जगतो हिताय)"। साधक अब बोधिसत्त्व हो जाता है और वह बोधिप्रस्थान चित्त को ग्रहण कर सब जीवों के उद्धार के लिए अपने लक्ष्य की ओर प्रवृत्त होता है। बोधिसत्त्व का लक्ष्य होता है -"सभी दिशाओं में जो कोई भी शारीरिक और मानसिक व्यथाओं से पीड़ित है, वे मेरे पुण्य से सभी व्यथाओं से मुक्त होकर सुख-आनन्द का समुद्र प्राप्त करें।"18 ___मैत्री, करुणा और महाकरुणा बौद्धों के उदात्त सामाजिक मूल्य हैं, जो समाज में शान्ति और समानता के विस्तार का सत्प्रयास करते हैं। सेवानिवृत्त आचार्य एवं अध्यक्ष दर्शनशास्त्र विभाग जयनारायणव्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर 16. वही, पृ. 157 17. आचार्यशान्तिदेव कृत बोधिचर्यावतार - प्रवचनकार दलाईलामा, ___ अनुवादक कर्मामोनलम, सम्पादक प्रो. रामशंकर त्रिपाठी प.XVI 18. 'सर्वासु दिक्षु यावन्तः कायचित्तव्यथातुराः ते प्राप्नुवन्तु मत्पुण्यैः सुखप्रामोद्यसागरम् - बोधिचर्यावतार, 10.2 प्रस्तुत गाथा से यह भी स्पष्ट होता है कि महायान बोधिचर्यावतार एक व्यक्ति के पुण्य कर्मों में दूसरों की भागीदारी की सम्भावना को स्वीकार करते हैं। For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा एवं आतंकवाद के निवारण में बौद्ध धर्म की भूमिका डॉ. वैद्यनाथ लाभ भारतीय दर्शन की अधिकांश धाराएं धर्म एवं अध्यात्म से जुड़ी हैं, जिनके मूल में शान्ति, सौहार्द एवं मानव-कल्याण के भाव निहित हैं । बौद्ध तथा जैन धर्म-दर्शन तो अहिंसा, प्रेम, करुणा आदि के भावों से विशेष रूप से सम्पृक्त हैं। बौद्ध धर्म-दर्शन की यदि बात की जाए तो भगवान् बुद्ध अपने जीवनकाल में राजकुमार सिद्धार्थ के रूप में बालवय से ही दूसरों के दुःखों से द्रवित होते थे, इसके अनेक दृष्टान्त उपलब्ध होते हैं। इन दुःखों के कारण क्या हैं और उन्हें कैसे दूर किया जा सकता है, इन्हीं समस्याओं के निदान की खोज में उन्होंने महाभिनिष्क्रमण किया और छः वर्षो की कठिन तपश्चर्या के पश्चात् चार आर्य सत्यों के अन्वेषण के माध्यम से वे बुद्धत्व को प्राप्त हुए। बोधि- प्राप्ति के पश्चात् सात सप्ताहों के बोधगया - प्रवास के अनन्तर उन्होंने सारनाथ जाकर प्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन किया। जब उनके शिष्यों की संख्या 60 तक पहुँच गई तब उन्होंने उन परिपक्व शिष्यों को दुःखी मानवता को सही मार्ग दिखाने के उद्देश्य से विभिन्न दिशाओं में भेज दिया। वे स्वयं भी वहाँ से मगध वापस गए एवं जटिल बन्धु, उनके अनुयायियों एवं जनसामान्य को दुःख शम हेतु अमृत वाणी का पान करवाया। बुद्ध के हृदय में दुःख से सन्तप्त मानव को दुःख से मुक्त कराने की प्रबल भावना थी, करुणा का उद्रेक था, जो समय-समय पर उनकी अमृतवाणी के माध्यम से करुणा की रसधारा के रूप में प्रस्फुटित एवं प्रवहमान होता रहता था । संसार में विभिन्न स्वभाव, रूप-रंग, सामाजिक - पारिवारिक-सांस्कृतिकबौद्धिक आदि स्तर के लोग रहते हैं । उनमें से कुछ करुणाशील हैं तो क्रूर एवं निष्ठुर भी हैं । बुद्ध को अपने शेष 45 वर्षो में अनेक प्रकार के लोग मिले। कुछ उनकी वाणी की मधुरता से प्रभावित होकर उनके अनन्य भक्त हो गए तो देवदत्त जैसे लोग अपनी दुष्टता से कभी बाज नहीं आए। षड्वर्गीय भिक्षु भिक्षुणियों के दुष्कृत्य भी बुद्ध एवं उनके धर्म के लिए एक बड़ी चुनौती थे, तथापि बुद्ध का मार्ग अहिंसा व प्रेम का ही रहा। उन्होंने For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला यह स्पष्ट कहा कि शत्रुता से शत्रुता का अन्त कभी भी नहीं होता। इसके विपरीत प्रेम व शान्ति का मार्ग ही इसे समाप्त करने की ओर ले जाता है - "न हि वेरेने वेरानि, सम्मन्तीध कुदाचनं। अवेरेन च सम्मन्ति, एस धम्मो सनन्तनो।" यदि कोई व्यक्ति यही सोचता रहता है कि अमुक व्यक्ति ने मुझे मारा, डाँटा, गाली दी, लूट लिया इत्यादि, तो वह सदैव मानसिक तनाव में रहता है और उसके कलह कभी शान्त नहीं होते, किन्तु इसके विपरीत जो व्यक्ति इन बातों को भूलकर.शान्त रहता है तथा सकारात्मक रूप से सोचता है, तो उसके कलह शान्त हो जाते हैं - 'अकोच्छि म अवधि मं, अजिनि मं अहासि मे। एतं वे उपनय्हन्ति वेरं तेसं न सम्मति।। अक्कोछि मं अवधि मं, अजिनि मं अहासि मे। एतं वे न उपनय्हन्ति, वेरं तेसूपसम्मन्ति।। बौद्ध धर्म में प्रव्रजित-उपसम्पन्न होने वाला कोई श्रमण (भिक्षु) या भिक्षुणी हो; अथवा हो कोई गृहस्थ उपासक-उपासिका; उसके लिए दस शिक्षापदों (प्रव्रजितों के लिए) या पांच शिक्षापदों (गृहस्थों के लिए) को ग्रहण कर यावज्जीवन उनका अनुसरण करना आवश्यक होता है - "पाणातिपाता वेरमणी सिक्खापदं समादियामि। __ यहां 'पाणातिपाता वेरमणी' का शिक्षापद ग्रहण करने का तात्पर्य यह है कि इसका साधक जानबूझ कर किसी भी प्राणिहिंसा का दोष करने से बचा रहेगा। प्रतिदिन उठने-बैठने, चलने-फिरने, खेती-बाड़ी करने से अनेकों जीव, छोटे-बड़े कीट-पतंग आदि अनजाने में हमारे पैरों तले कुचलकर या हाथों से भी मर जाते हैं। किन्तु, जानबूझ कर हम किसी प्राणी को मारने से हिचकिचाते हैं। प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों है? और उत्तर यही मिलता है कि हमारे शास्त्रों ने तथा हमारे धर्मगुरुओं ने यह स्पष्ट किया है कि हिंसा करने वाला व्यक्ति मन से अवश्य तनावग्रस्त रहता है, जबकि अहिंसा के मार्ग का अनुयायी मन में शान्ति का अनुभव करता है। शास्ता भी कहते हैं - "वरं जयं पसवति, दुक्खं सेति पराजितो। उपसन्तो सुखं सेति हित्वा जयपराजय।। 1. धम्मपद, गाथा -5 2. तत्रैव, गाथा 3-4 3. खुद्दकपाठ (दस सिक्खापदं) - भिक्षु धर्मरत्न एवं भिक्षु धर्मरक्षित (सं.+अनु.), भारतीय बौद्ध शिक्षा परिषद्, लखनऊ, पृ. 3 4. धम्मपद, गाथा 201 For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा एवं आतंकवाद के निवारण में बौद्ध धर्म की भूमिका 41 यद्यपि पालि साहित्य में 'अहिंसा' शब्द औपचारिक रूप से प्रयुक्त नहीं हुआ है तथापि 'पाणातिपाता वेरमणी', 'अवेर', 'मेत्ता', करुणा, 'अदोस' इत्यादि अनेक ऐसे शब्द हैं जो 'अहिंसा' भाव का संवहन करते हैं। आज के आधुनिक परिवेश में परिवार, समाज, गांव, कस्बा, नगर, महानगर तथा अन्तरराष्ट्रीय सभी स्तरों पर घृणा, विद्वेष, प्रतिहिंसा, प्रतिस्पर्द्धा इत्यादि की बहुलता देखने को मिलती है। यह प्रवृत्ति अतीत काल में भी थी और आज भी है । बड़े देश छोटे तथा दुर्बल देशों को सैन्य बल पर या अन्य अनेक विधियों व बहानों से डराते धमकाते रहते हैं या फिर कभी-कभी उनके कई हिस्से हड़प लेते हैं। यद्यपि द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् दूसरे देशों की भूमि पर कब्जा करने के दृष्टान्त कम मिलते हैं, तथापि यह प्रवृत्ति पूर्णतः रुक गई हो ऐसा नहीं लगता। चीन द्वारा तिब्बत पर कब्जा कर लेना जिससे कि दलाई लामा को भागकर भारत में शरण लेनी पड़ी, रासायनिक हथियारों को समाप्त करने के बहाने अमेरिका द्वारा इराक पर हमला कर सद्दाम हुसैन को मार देना, इस्लामी मज़हब के नाम पर अफगानिस्तान, पाकिस्तान तथा भारत के जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद का ताण्डव इत्यादि अनेक उदाहरण हमारे समक्ष विद्यमान हैं। अपनी बात को बलात् किसी दूसरे व्यक्ति, समाज या कौम पर थोपने की कोशिश करना और बात नहीं मानने पर उसे डराना-धमकाना और एतद् हेतु हिंसात्मक कार्रवाई करना ही आतंकवाद है। आज भारतवर्ष ही नहीं, अपितु विश्व का एक बहुत बड़ा भाग हिंसा तथा आतंकवाद की समस्या से ग्रस्त है और इसका निदान कोई भी नहीं निकाल पा रहा है। अपने देश में एक लम्बे समय तक पंजाब के आतंकवाद का हमने सामना किया है और कश्मीर में भी प्राय: 22 वर्षो से हम इस समस्या से ग्रस्त हैं। विदेशों में अफगानिस्तान, इराक, इज्राइल व फिलीस्तीन, दक्षिण कोरिया - उत्तरकोरिया, फिलीपीन्स आदि देशों में हिंसा और आतंकवाद का वातावरण देखने को मिलता है। विचारणीय प्रश्न यह है कि ये समस्याएँ उत्पन्न ही क्यों होती है ? क्या इन्हें उत्पन्न होने से ही रोका नहीं जा सकता है और यदि किसी कारण ये उत्पन्न हो भी गईं तो इन्हें दूर करने के उपाय क्या हैं? वर्तमान राष्ट्रीय संगोष्ठी के सन्दर्भ में बौद्ध धर्म की इनके निवारण में क्या भूमिका हो सकती है ? सबसे पहले हमें यह विचार करना चाहिए कि असहनशीलता, क्रूरता, वैमनस्य इत्यादि उत्पन्न ही क्यों होते हैं और क्या इनकी उत्पत्ति को किसी प्रकार रोका नहीं जा सकता? कारण अनेक हो सकते हैं, किन्तु बौद्ध दृष्टिकोण से यह विवेचना की जाए तो सबके मूल में तीन प्रकार के 'अकुशल मूल' या ' हेतु' को चिह्नित किया जा सकता हैलोभ, दोष (द्वेष तथा मोह । लोभ, राग, तृष्णा, पिपासा, लिप्सा इत्यादि एकार्थक हैं, जिनकी प्रवृत्ति होती है - उपलब्ध से अधिक प्राप्त करने की इच्छा, चाहे वह उचित तरीके से हो या अनुचित तरीके से। इससे ग्रसित व्यक्ति हो या संस्था वह दूसरों की For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · 42 • बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला सम्पत्ति को येन-केन-प्रकारेण हथियाना चाहेगा। द्वेष, हिंसा, घृणा, वैमनस्य, विवाद, प्रतिघात आदि अनेक शब्द उपलब्ध होते हैं, जिनमें सूक्ष्म अन्तर होने पर भी दूसरों को हानि पहुंचाने का भाव निहित होता है और इसकी प्रवृत्ति होती है - "पर विनाश चिन्ता'। इसी प्रकार 'मोह' अज्ञान या मिथ्या दृष्टि को कहते है - मोहो ति अाणं। इससे ग्रसित व्यक्ति विभिन्न वस्तुओं या विषयों के विलक्षण स्वभाव (अनित्य, दुःख व अनात्म) को नहीं समझ कर उनके प्रति अनावश्यक ममत्व व तृष्णा उत्पन्न कर लेता है, जिनकी अनुपलब्धि होने पर वह दुःख अनुभव करता है। कोई भी व्यक्ति, संगठन, संस्था या राज्य दूसरों से शत्रुता, द्वेष, बदला लेने की भावना के कारण अथवा उन्हें प्रताड़ित करने की भावना से हिंसा या आतंक का सहारा लेता है। आज का समय विश्व के विभिन्न भागों में आतंकवाद के दौर से गुजर रहा है। जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है, अपने देश में नक्सलवाद, कश्मीर में धर्म के नाम पर पनपता आतंकवाद, पूर्वोत्तर भारत में विकसित होता पृथक्तावाद, इसके रूप हैं। प्रलोभन या भयपूर्वक धार्मिक मतान्तरण कराना, सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के नाम पर गुण्डागर्दी करना आदि भी अनेक माध्यम हैं, जिनसे आतंकवाद की अभिव्यक्ति होती है। बौद्ध धर्म की भूमिका बौद्ध धर्म स्वभावतः अहिंसावादी है, जिसमें पारस्परिक प्रेम, सौहार्द, सहिष्णुता, शान्पूिर्ण, सह अस्तित्व, करुणा आदि का प्राधान्य है। भगवान् बुद्ध के समय में भी कोसल और मल्ल के मध्य रोहिणी के जल को लेकर विवाद, अंगुलिमाल का आतंक, देवदत्त के षड्यन्त्र आदि अनेक स्थितियां आई थीं, जिनका निराकरण उन्होंने पारस्परिक बातचीत, मैत्री-करुणा, सहनशीलता आदि के माध्यम से निकाला। हिंसा एवं आतंकवाद एक ऐसी समस्या है जिसका समाधान कई बार बहुत शीघ्र निकल भी नहीं पाता और कभी-कभी इसमें वर्षों या दशकों भी लग जाते हैं। कई बार तो आतंकवादियों को प्रशिक्षण भी इस रूप में दिया जाता है कि उसे पता भी नहीं होता कि वह हिंसा, घृणा या आतंकवाद फैला कर कोई अनैतिक कार्य भी कर रहा है। अपितु अनेकधा वह यही मानकर चलता है कि वह अपने 'धर्म' या अन्य उद्देश्य की प्राप्ति हेतु कोई पुण्य कार्य ही कर रहा है। ऐसे दिग्भ्रमित व्यक्ति या संगठन के सदस्यों को कैसे समझाया जाए, यह एक बहुत बड़ी समस्या है। यदि हम बौद्ध धर्म की दृष्टि से विचार करें तो सबसे पहले तो हमें यह देखना पड़ेगा इसके मूल में कौन-कौन से तत्त्व सक्रिय हो सकते हैं। इसके बाद बुद्धनिर्दिष्ट 5. अभिधम्मत्थ संगहो, धर्मानन्द कौसम्बी, महाबोधि सभा, सारनाथ 6. तत्रैव For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा एवं आतंकवाद के निवारण में बौद्ध धर्म की भूमिका * 43 आर्य अष्टांगिक मार्ग, शील-समाधि-प्रज्ञा, ब्रह्मविहार आदि के माध्यम से निराकरण या निवारण की सम्भावनाओं का अन्वेषण किया जा सकता है। आर्य अष्टांगिक मार्ग - हमें यह सुविदित है कि भगवान् बुद्ध के समय जितनी भी दार्शनिक पद्धतियाँ या चिन्तन-परम्पराएं प्रचलित थीं, उन्हें स्थूल रूप से उन्होंने दो भागों में रखा- शाश्वतवाद तथा उच्छेदवाद। इनमें से एक जगतू एवं जीवन को मिथ्या मान कर आत्मशुद्धि हेतु अत्यधिक शारीरिक कष्ट को उचित मानता था तथा दूसरा इसी जगत् एवं जीवन को सर्वस्व मानकर किसी भी प्रकार से इसे सुखी बनाने हेतु प्रयास करने पर जोर देता था, भले ही इसमें किसी प्रकार की अनैतिकता का समावेश हो। बुद्ध की दृष्टि में ये दोनों ही जीवन की दो अतियां हैं। इसलिए उन्होंने इन दोनों के मध्य का मार्ग अपनाने की शिक्षा दी और नाम दिया - मज्झिमा पटिपदा (मध्यमा प्रतिपदा) इसके आठ अंग है - सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति तथा सम्यक् समाधि।' इन आठों मार्गों के अर्थ एवं महत्ता से हम भलीभांति परिचित हैं। इसलिए मैं इनके विस्तृत विवेचन को छोड़ रहा हूँ। मात्र इतना निवेदन करना चाहता हूँ कि यदि अष्टांगिक मार्ग का पालन किया जाए तो हमारी दृष्टि या सोच संतुलित, पवित्र, विस्तृत एवं संवेदनशील होंगे। तभी हमारा संकल्प सार्थक संकल्प होगा। यदि वाणी सत्य होगी, मृदुभाषण एवं सार्थक सम्भाषण पर आधारित होगी तो हम दूसरों की बात धैर्यपूर्वक सुनेंगे और उन्हें भी यथोचित मान देने का यत्न करेंगे। - सम्यक् कर्म तथा आजीविका अपनाने पर घूसखोरी, लूट-खसोट, व्यभिचार आदि से हम बचे रह सकेंगे। सम्यक् व्यायाम हमें बुरे विचारों के दमन एवं सद्विचारों की अभिवृद्धि की शक्ति देगा। सम्यक् स्मृति कुविचारों को मन में पनपने नहीं देगी और कल्याणकारी लाभप्रद विचारों को अपनाने की प्रेरणा देगी। इसी प्रकार सम्यक् समाधि चित्त को विक्षेप एवं यत्र-तत्र भटकाव को रोकने में मदद करेगी। अष्टांगिक मार्ग के अतिरिक्त चार ब्रह्मविहार हैं - मेत्ता (मैत्री), करुणा, मुदिता एवं उपेक्खा (उपेक्षा)। हमारे मन में स्थित वैमनस्य, घृणा, प्रतिहिंसा आदि दुर्भावनाओं को दूर कर सबके प्रति कल्याणभाव के विकास में मैत्री सहायक होती है। इसका लक्षण . ही है बिना किसी प्रतिदान की अपेक्षा के सबके प्रति हितचिन्तन - 7. द्वे मे भिक्खवे, अन्ता पब्बजितेन सेवितब्बा। कतमे द्वे यो च कामेसु कामसुखल्लिकानुयोगो हीनो गम्मो पोथुज्जनिको अनत्थसंहितो... । यो च अत्तकिलमथानुयोगो हीनो गम्मो पोथुज्जनिको अनत्थ संहितो... । उभो पेते अनुपगम्म मज्झिमा पटिपदा तथागतेन अभिसम्बुद्धा चक्खुकरणी जाणकरणी अभिज्ञाय,सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तति.... सम्मादिट्ठि,सम्मासङ्कप्पो सम्मावाचा, सम्माकम्मन्तो, सम्माजीवो, सम्मावायामो, सम्मा सति, सम्मा समाधि। -महावग्ग विपश्यना विशोधन विन्यास, इगतपुरी, 1998 For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला 'सब्बे सत्ता भवन्तु सुखितत्ता । " करुणा का स्थान मैत्री से भी थोड़ा आगे है। दुःखी जनों के दुःख में सहभागी होकर उन्हें दूर करने के लिए प्रयत्नरत होने का भाव ही करुणा है। यदि मैत्री एवं करुणा की भावना प्रबल हो जाती है तो 'स्व-पर' आदि के भेदभाव समाप्त हो जाते हैं और दूसरों की प्रसन्नता व सुख, साधक को अपना ही प्रतीत होने लगता है। उस समय जो प्रसन्नता होती है वह नि:स्वार्थ होती है और वही है मुदिता । चतुर्थ ब्रह्मविहार है - उपेक्खा (उपेक्षा), जिसके कारण साधक सुख-दुःख, साफल्य-वैफल्य, अनुकूलता - प्रतिकूलता, निन्दा - प्रशंसा आदि हर स्थिति में समभावी रहता है। बुद्ध कहते हैं “सेलो यथा एकघनो, वातेन न समीरति । एवं निन्दापसंसासु, न समीञ्जन्ति पण्डिता ।। अस्तु, ये बातें तो हुईं बौद्ध धर्म की। किन्तु, समस्या यह है कि क्या किया जाए जब कोई व्यक्ति या संगठन सब कुछ जानते-समझते हुए भी हिंसा या आतंक का मार्ग अपनाए। आज हम इस प्रकार की समस्या से जूझ रहे हैं । बौद्ध धर्म की अहिंसावादी विचारधारा इनके निवारण में किसी प्रकार प्रभावशाली हो सकती है। प्रशासनिक दृष्टि से शान्ति, निर्भयता एवं सुरक्षा को पुन:स्थापित करने हेतु अनेकधा दण्डात्मक विधियों का सहारा लेना पड़ सकता है । मेरी अल्पबुद्धि में बौद्ध दृष्टिकोण से देखने पर उपर्युक्त कार्यवाही आवश्यक एवं उचित कही जा सकती है, क्योंकि निर्दोष लोगों की सुरक्षा भी तो राज्य या स्थानीय प्रशासन का दायित्व है। फिर भी इस बात का ध्यान अवश्य रखा जाना चाहिए कि विरोधी पक्ष से भी उसका पक्ष सुना जाए और यथासम्भव एवं यथोचित ढंग से उसकी समस्याओं के निराकरण हेतु यत्न किए जाएं। स्थायी शान्ति तभी सम्भव है। 8. धम्मपद, गाथा 81 बौद्ध अध्ययन विभाग जम्मू विश्वविद्यालय, जम्मू For Personal & Private Use Only - Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दलितों का उत्थान और बौद्धधम्म-दर्शन डॉ. विमलकीर्ति बौद्धधम्म भारतीय धम्म है, वह भारत की भूमि में पैदा हुआ है। प्राचीन भारत में जितने भी धर्म पैदा हुए हैं, जैसे वैदिक धर्म या ब्राह्मण धर्म और आज का हिन्दूधर्म, जैनधर्म, सिक्ख धर्म आदि सभी भारतीय हैं और भारत की भूमि से भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक पर्यावरण से उनका बहुत ही निकट का सम्बन्ध है । जिस प्रकार वैदिक धर्म की अपनी विशेषता है, उसी प्रकार बौद्धधम्म की, जैनधर्म की, सिक्खधर्म की अपनी-अपनी विशेषताएँ है। वैदिक या हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिक्ख आदि सभी धर्म भारत की भूमि में पैदा होने के बावजूद सभी धर्म समान हैं, सभी की दार्शनिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, धर्माचार सम्बन्धी नीतितत्त्व सम्बन्धी एक ही मान्यता है, यह मानना सही नहीं है। हर बात में सभी की अलग-अलग मान्यताएं हैं और पिछले हजारों, सैकड़ों वर्षों के इतिहास में उनके धम्म और दर्शन का अलग-अलग ढंग से विकास हुआ है। इसी भारत की भूमि में पिछले चार हजार/पांच हजार साल के इतिहास में हमें दो प्रकार की मान्यतावाले धर्म दिखायी देते हैं। एक आत्मा, परमात्मा और ईश्वरवाद की स्थापना करने वाला धर्म और दूसरा अनात्मा, अनीश्वरवाद, प्रतीत्यसमुत्पाद की स्थापना करने वाला धर्म । मतलब एक लौकिकवादी, भौतिकवादी धर्म और दूसरा अलौकिकतावादी, अभौतिकतावादी धर्म । बौद्धधम्म लौकिकतावादी और भौतिकतावादी है, इसलिये बौद्धधम्म अन्य भारतीय धर्मो से अलग है। आधुनिक भारत के कई विद्वानों ने इस बात को स्पष्ट रूप से लिखा है कि बौद्धधम्म अन्य भारतीय धर्मो से भिन्न है, अलग है । डॉ. अम्बेडकर की मान्यता डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर ने अपनी 'द बुद्धा एण्ड हिज धम्मा' ग्रन्थ में इस बात को विस्तार से स्पष्ट किया हैं कि बौद्धधम्म और अन्य भारतीय धर्मो में फर्क है, वे एक नहीं हैं। डॉ. अम्बेडकर भगवान बुद्ध के विचारों को ' धम्म ' के नाम से सम्बोधित For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला करते हैं और ईश्वरवादी, आत्मवादी, ब्रह्मवादी, परमात्मावादी धर्मों को 'धर्म' के नाम से सम्बोधित करते हैं। आधुनिक भारत के बौद्ध विद्वान ने धम्मानंद कोसम्बी ने भी बौद्धधम्म और अन्य भारतीय धर्मो में फर्क किया है। वे सभी भारतीय धर्मों को एक नहीं मानते हैं, उसी प्रकार आधुनिक भारत के बौद्ध विद्वान और भिक्खु डॉ. भदन्त आनन्द कौसल्यायन ने भी अपने 'बुद्धिज्म एण्ड अदर रिलिजन्स' नाम की प्रसिद्ध पुस्तक में बौद्धधम्म और अन्य भारतीय धर्मो में फर्क किया है, एक नहीं माना है। आधुनिक भारत में बौद्धधम्म और दर्शन पर बहुत लिखा गया है और बहुत लिखा जा रहा है। एक समय था जब भारत में बौद्ध साहित्य, पालि साहित्य उपलब्ध नहीं था, भारत से बौद्धधम्म और दर्शन की परम्परा खण्डित हो गई थी, लेकिन आज आधुनिक भारत में लोकतन्त्रवादी प्रजासत्ताकवादी भारत में बौद्धधम्म की पुनःस्थापना डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर के द्वारा की गई। इसका स्पष्ट मतलब यह है कि बौद्धधम्म और दर्शन का संदर्भ भारत से अछूतपन, जातिभेद, जातिवाद की समाप्ति के साथ है, दलितों के उत्थान के साथ है। आज आधुनिक भारत में सम्पूर्ण पालि-तिपिटक के दो संस्करण उपलब्ध हैं - एक नवनालंदा महाविहार पालि तिपिटक है। दूसरा धम्मगिरि पालि ग्रन्थमाला, विपश्यना विशोधन विन्यास, इगतपुरी का पालि तिपिटक उपलब्ध है। पालि तिपिटक के अधिकतर ग्रन्थों का हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी, बांग्ला आदि आधुनिक भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी उपलब्ध हैं। इसके अलावा पालि ग्रन्थों पर, पालि साहित्य पर बहुत लिखा गया है और लिखा जा रहा है। आधुनिक भारत में बौद्धधम्म और दर्शन पर संशोधन भी हो रहा है और शोध पर किताबें एवं लेख लिखे जा रहे हैं, लेकिन बौद्धधम्म और दर्शन को अलौकिक, अभौतिक, आध्यात्मिक, लोकोत्तर धर्म के रूप में स्थापित करने का काम अधिकतर लेखकों ने किया है। कई लेखक विचारशील, दार्शनिक, चिंतक साहित्यकार बौद्धधम्म और दर्शन के सामाजिक संदेश को जानबूझकर नजरअंदाज करने का प्रयास करते हैं और इसकी वजह भी है, पालि साहित्य, बौद्धधम्म और दर्शन, बौद्ध संस्कृति, बौद्ध इतिहास आदि पर लेखन, शोध करने वाले लेखकों, संशोधकों, विचारशीलों, तत्त्वचिन्तकों पर हिंदूधर्म का, ईश्वरवाद का, आत्मवाद का प्रभाव होने के कारण वे बौद्धधम्म और दर्शन की ओर भी उसी दृष्टि से देखते हैं और प्रस्थापित, व्यवस्थावादी, जातिवादी समाजव्यवस्था के अनुकूल बौद्धधम्म और दर्शन की व्याख्या करते हैं, लेकिन यह बौद्धधम्म और दर्शन की सही व्याख्या नहीं है। बौद्धधम्म और दर्शन का अध्ययन बौद्ध दृष्टि से और वैज्ञानिक दृष्टि से होना चाहिए। बौद्धधम्म के प्रवर्तन का उद्देश्य बौद्धधम्म और दर्शन के प्रवर्तक तथागत भगवान बुद्ध हैं। वे तत्कालीन भारतीय समाज में ही पैदा हुए थे। आज लुम्बिनी जो भगवान बुद्ध की जन्मस्थली है, नेपाल में For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दलितों का उत्थान और बौद्धधम्म-दर्शन * 47 है। भगवान बुद्ध ने लुम्बिनी में जन्म लेकर बोधगया में बोधि (ज्ञान) को प्राप्त किया था अर्थात् बुद्धत्व को प्राप्त किया था। उसके बाद उन्होंने अपना पहला उपदेश सारनाथ के इसीपत्तन मिगदाय में दिया था, जो 'धम्मचक्कपवत्तन' के नाम से सुविख्यात है। उसके बाद भगवान बुद्ध अपने जीवन के अन्तिम पल तक तत्कालीन मध्यप्रदेश और हिमालय की तराई के मैदानी प्रदेशों में विचरण करते रहे और विहार करते रहे। पालि तिपिटक साहित्य जिसको बुद्धवाणी कहा जाता है, उसमें भगवान बुद्ध के सारे उपदेश संगृहीत हैं। पालि तिपिटक भगवान बुद्ध के और उनके समकालीन अरहन्त बौद्ध भिक्खू और भिक्खुणियों के उपदेशों का संग्रह है। इस पालि तिपिटक के अध्ययन से ज्ञात होता है कि इसमें भगवान बुद्ध का धम्म और दर्शन तो संग्रहीत है ही, लेकिन इस पालि तिपिटक में तत्कालीन भारतीय समाजव्यवस्था के सम्बन्ध में भी पर्याप्त जानकारी उपलब्ध होती है और भगवान बुद्ध तत्कालीन भारतीय समाज-व्यवस्था की कुव्यवस्था कहिये या विकृतावस्था कहिये, चार वर्णोंवाली व्यवस्था का, जातिवाद, जातिभेद, अछूतपन का खण्डन करते हुए हमें दिखायी देते हैं। उसी प्रकार वे अपने समय के समाज की हर प्रकार की विषमता, सामाजिक गैरबराबरी, सामाजिक अन्याय, जातीय शोषण, उत्पीडन, पुरोहितवाद, धर्मान्धता, धार्मिक पाखण्ड, मिथ्यावाद, मिथ्याधारणा आदि का खण्डन करते हुए दिखायी देते हैं। भगवान बुद्ध के विचारों का प्रभाव तत्कालीन भारतीय समाज पर बहुत बड़े पैमाने पर दिखायी देता है। गैर ब्राह्मण समाज में नई आशा की किरणें, नई उम्मीदें दिखाई देती हैं, क्योंकि भगवान बुद्ध के धम्म प्रवर्तन का उद्देश्य ही सामान्य जनों में परिवर्तन की आशाएं, उम्मीदें जगाता है। समाजव्यवस्था में परिवर्तन का विश्वास पैदा करता है। वह भारतीय समाज में सामाजिक क्रान्ति की शुरुआत थी।. . पालि तिपिटक साहित्य का महत्त्व पालि तिपिटिक के अध्ययन से विदित होता है कि तत्कालीन समाज के सभी वर्णो वर्गों, जाति और सभी प्रकार के सामाजिक, आर्थिक स्तरों के लोग बौद्धधम्म की ओर आकर्षित हुए थे और भगवान बुद्ध के अनुयायी बने थे। उन्होंने बुद्ध, धम्म और संघ की अपने जीवन के अंतिम सांस तक के लिये शरण ग्रहण की थी। पालि तिपिटक साहित्य में तत्कालीन समाजव्यवस्था के स्वरूप की पर्याप्त जानकारी हमें प्राप्त होती है। इस तरह से यह कहा जा सकता है कि पालि तिपिटक साहित्य प्राचीन भारतीय समाजव्यवस्था का सही और सुस्पष्ट ऐतिहासिक दस्तावेज है। पालि तिपिटक साहित्य के अध्ययन के बगैर हम प्राचीन भारतीय समाजव्यवस्था के सही स्वरूप को समझ नहीं सकते। पालि तिपिटक साहित्य में जातियों का उल्लेख है, और उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा के स्तर का भी उल्लेख है। पालि तिपिटक साहित्य के अध्ययन से ज्ञात होता है कि सामाजिक समानता, जाति विनाश, दलित तथा पिछड़ी जातियों का उत्थान ही For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 48 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला भगवान बुद्ध की मूल प्रेरणा रही है। बुद्ध की बोधिप्राप्ति (बुद्धत्व) के बाद एक अभिमानी ब्राह्मण (जन्म से) उनके पास आया और उसने भगवान बुद्ध से कहा था कि, 'ब्राह्मण कैसे होता है? ब्राह्मण बनाने वाले कौन से धर्म (गुण) हैं?' इसका उत्तर देते हुए भगवान बुद्ध ने 'ब्राह्मण' की जो वेद, वेदान्त मान्य व्याख्या है उसका खंडन किया था। उसी प्रकार उन्होंने जन्म के आधार पर ब्राह्मण, अब्राह्मण के मत का भी खंडन किया था। उन्होंने जन्म से नहीं बल्कि पापरहित, मलरहित, अहंकारशून्य, संयमित जीवन जीने वाले को ब्राह्मण कहा है। यह उनकी ब्राह्मण शब्द की नई व्याख्या थी जो उस समय के ब्राह्मणों को बिल्कुल मान्य नहीं थी और आज भी ब्राह्मण लोग भगवान बुद्ध की 'ब्राह्मण' शब्द की उस व्याख्या को स्वीकार नहीं करते हैं। यहां हमें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि, 'ब्राह्मण' शब्द की नई व्याख्या देकर भगवान बुद्ध ब्राह्मण शब्द के पास ही नहीं रुकते हैं, बल्कि उनका चिन्तन आगे ही बढ़ता जाता है। वे बुद्धत्व प्राप्ति के बाद धम्मचक्क प्रर्वतन के लिए सारनाथ जाते हैं और वहाँ धम्मचक्र का प्रवर्तन करने के बाद भिक्खुसंघ की स्थापना करते हैं। उनका भिक्खुसंघ इकसठ (61) अर्हतों का हो जाता है, तब वे इन इकसठ अर्हतों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि, 'भिक्खुओं! जितने भी दिव्य और मानुष बन्धन हैं, मैं (उन सभी) से मुक्त हूँ, तुम भी दिव्य और मानुष बन्धनों से मुक्त हो। भिक्खुओं! बहुत जनों के हित के लिये, बहुत जनों के सुख के लिये, लोकपर दया करने के लिये, देवताओं, मनुष्यों के प्रयोजन के लिये, हित के लिये, सुख के लिये विचरण करो। हे भिक्खुओं! आदि में कल्याणकारक, मध्य में कल्याणकारक, अन्त में कल्याणकारक इस धम्म का उपदेश करो। अर्थ सहित व्यंजनसहित, केवल परिपूर्ण परिशुद्ध भिक्खु जीवन का प्रकाशन करो। भगवान बुद्ध के द्वारा सारनाथ में धम्मचक्र प्रवर्तन के बाद भिक्खुसंघ की स्थापना करके भिक्खुओं को यह जो उपदेश (आदेश) दिया गया, उसी में भगवान बुद्ध की सामाजिक समानता के प्रति प्रतिबद्धता का सिद्धांत छिपा हुआ है। बौद्धधर्म अपने जन्म से ही सामाजिक परिवर्तन, सामाजिक बदलाव और सामाजिक समानता के सरोकारों से प्रतिबद्ध है। इसलिये आधुनिक भारत में डॉ.बाबासाहेब अम्बेडकर ने दलितों के उत्थान के लिये भगवान बुद्ध और दर्शन को एक क्रांतिकारी धम्म और दर्शन के रूप में जाना और स्वीकार किया है। भारतीय समाज का स्वरूप प्राचीनकाल से ही भारतीय समाज का स्वरूप जातीय है, वर्गीय नहीं है। जातीय समाज में व्यक्ति का स्थान और महत्त्व जन्मगत जाति पर आधारित होता है। जातीय समाज में व्यक्ति के व्यक्तित्व, उसके अच्छे-बुरे कर्म का कोई महत्त्व नहीं होता, लेकिन वर्गीय समाज में अच्छे व्यक्ति के अच्छे-बुरे कर्म का महत्त्व होता है, उसका सामाजिक महत्त्व उसकी आर्थिक सम्पन्नता-विपन्नता पर निर्भर करता है। वर्गीय समाज में भी For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दलितों का उत्थान और बौद्धधम्म-दर्शन * 49 विषमता, असमानता होती है और जातीय समाज में भी विषमता, असमानता होती है, लेकिन दोनों समाज व्यवस्थाओं में व्याप्त विषमता और असमानता का स्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। वर्गीय समाज में व्यक्ति की आर्थिक स्थिति बदलने से उसका वर्ग बदलता है और उसका सामाजिक स्तर, सामाजिक प्रतिष्ठा बदल जाती है, लेकिन जातीय समाज में आर्थिक स्थिति बदलने से व्यक्ति का सामाजिक स्तर, प्रतिष्ठा बदलती नहीं है, क्योंकि वह उसको जन्म से, जाति से प्राप्त होती है। भारतीय समाज जातीय समाज होने से और जाति-व्यवस्था को धार्मिक और दार्शनिक आधार प्राप्त होने से भारतीय समाज से जातिव्यवस्था को समाप्त करना एक तरह से असम्भव माना गया है। भारत में आज भी यह कहावत प्रसिद्ध है कि, 'जो जाती नहीं वह जाति है' मतलब जो नष्ट होने वाली नहीं वह जाति है। भारत की जातिव्यवस्था को वंशवाद या नस्लवाद का कोई विशेष आधार प्राप्त नहीं है। भारत में जातिवाद, जातिभेद, अछूतपन का सबसे बड़ा आधार हिंदू धार्मिक और दार्शनिक है और भारत के वैदिक साहित्य में और बाद के वेदप्रेरित सम्पूर्ण हिंदू धार्मिक साहित्य में जातिवाद, जातिभेद का समर्थन है। संपूर्ण वैदिक धर्म और दर्शन अपने धार्मिक सिद्धान्तों के द्वारा, अपने आत्मवाद, ईश्वरवाद, कर्मवाद के द्वारा जातिवाद का समर्थन करता है। यहां ईश्वर का अवतार भी जातिवाद की रक्षा के लिए ही होता है। इस बात के पर्याप्त प्रमाण हिंदू संस्कृत साहित्य में उपलब्ध हैं। इसलिये हिंदू धर्म में रहते हुए जातिवाद, जातिभेद, अछूतपन समाप्त नहीं हो सकता। यही डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर की मान्यता थी और जातिभेद, जातिवाद, अछूतपन के रहते हुए दलितों का उत्थान हो नहीं सकता, यह उनका निष्कर्ष था और अनुभव भी। डॉ. अम्बेडकर ने अपने साहित्य में जाति के उत्पत्ति के कारणों की विस्तार से चर्चा की है। यहां उन्होंने बौद्धधर्म के प्रसिद्ध सिद्धान्त कार्यकारणवाद के आधार पर भारत के जातिवाद के उत्पत्ति के कारणों का विश्लेषण किया और वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि भारत की जातिवाद और अछूतपन की समस्या का हल बौद्धधम्म को अपनाने में ही है, क्योंकि बौद्धधम्म और दर्शन ज़ातिवाद, अछूतपन को स्वीकार नहीं करता है और यह धम्म भारत की भूमि में ही प्रवर्तित हुआ है जिसके साहित्य में, दर्शन में जाति के हर पहलू का खण्डन है। डॉ. अम्बेडकर की यह भी मान्यता थी और अनुभव भी था कि भारत का और संसार का अन्य कोई भी धर्म जो आत्मवादी है, ईश्वरवादी है, अलौकिकतावादी है, पुरोहित प्रधान है, दैववादी है वह भारत की जातिव्यवस्था को नष्ट नहीं कर सकता। इसलिये डॉ. अम्बेडकर ने भारत से जातिभेद को समाप्त करने के लिए अछूतपन को समाप्त करने के लिये दलितों के उत्थान के लिये बौद्धधम्म और दर्शन को अपनाया था। For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 50 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला दलित जाति की उत्पत्ति का मूल भारत के दलितों की समस्या भारत के सनातन जातिवाद से उत्पन्न समस्या है। भारत के जातिवाद से भिन्न भारत की दलित समस्या नहीं है। भारत में जातिवाद है, इसलिए दलित समस्या है। भारत में जातिवाद इसलिये है, क्योंकि उसको धर्म का समर्थन प्राप्त है। इसके मूल में कर्मसिद्धान्त और ईश्वरवाद है और दोनों हिंदूधर्म के सिद्धान्त हैं। इसलिये दलित समाज जब हिंदूधर्म और समाजव्यवस्था का अंग है तब तक जातिवाद नष्ट नहीं होगा और दलित समस्या का हल भी नहीं होगा और दलित समस्या का हल नहीं होगा तो दलितों का उत्थान भी नहीं होगा। डॉ. अम्बेडकर ने इस बात को बार-बार कहा है कि अछूतपन की समस्या, जातिवाद की समस्या आर्थिक समस्या नहीं है, बल्कि यह पूरी तरह से हिन्दूधर्म से निर्मित और सम्बन्धित समस्या है। सदियों के जातिवाद और अछूतपन के कारण भारत के दलित केवल शारीरिक रूप से ही गुलाम हो गये हैं, ऐसी बात नहीं, बल्कि वे वाणी से भी मन से भी गुलाम हो गए हैं, दिलो दिमाग से भी गुलाम हो गए हैं। भारत के दलित अपने मानवीय अस्तित्व को भी भूल गये हैं और अपनी अस्मिता को भी भूल गये हैं। इस तरह की स्थिति में भारत के दलितों के उत्थान का रास्ता केवल अनीश्वरवादी, अनात्मवादी, प्रतीत्यसमुत्पादवादी बौद्धधम्म और दर्शन में ही है। यही डॉ. अम्बेडकर की मान्यता थी, क्योंकि भारत का दलित ईश्वरवाद, आत्मवाद, धर्मवाद, धार्मिक पाखण्ड, घटिया परम्पराएं, सनातन रूढ़ियां, जाति-पंथ-आस्था के मिथ्या रिवाजों में फंसा हुआ है और उसको इस मिथ्याजाल से निकालने के लिये बौद्धधम्म और दर्शन से बढ़कर कोई धर्म और दर्शन नहीं है, यह दलितों के उत्थान के लिये सब से महत्त्वपूर्ण बात है। दलितों के उत्थान के लिये, अछूतपन की चेतना से ऊपर उठने के लिए, अपने अस्तित्व की पहचान करने के लिये यह मालूम होना जरूरी है कि जातिव्यवस्था, जातिभेद, अछूतपन, यह कोई दैवी, या ईश्वरीय, या अलौकिक, या नैसर्गिक, या स्वाभाविक व्यवस्था नहीं है, बल्कि यह व्यवस्था मानवनिर्मित, समाजनिर्मित है और समाज के एक विशेष काल में इसका निर्माण हुआ है। इस व्यवस्था में जो लाभान्वित थे उन्होंने इसको जानबूझकर, जोर-जबर्दस्ती संभालकर रखा है, उन्होंने इस व्यवस्था को ईश्वरीय व्यवस्था कहा है। इस व्यवस्था को ईश्वरद्वारा निर्मित धर्मद्वारा निर्मित कहा है। जाति, अछूतपन के निर्माण के बारे में बौद्धधम्म और दर्शन की यह स्पष्ट मान्यता है कि जातिव्यवस्था एवं अछूतपन ईश्वरीय व्यवस्था नहीं है, यह मानवनिर्मित है, उसी प्रकार यह व्यवस्था नैसर्गिक या स्वाभाविक नहीं है। बौद्धधम्म और दर्शन के माध्यम से जातिव्यवस्था के बारे में दलितों में इस तरह की चेतना पैदा होती है और वह इस व्यवस्था को नकारने के लिये आगे आता है, उसके मन में जातिव्यवस्था और अछूतपन के प्रति नफरत पैदा होती है और वह इस व्यवस्था को तोड़ने के लिये संघर्ष करता है। For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दलितों का उत्थान और बौद्धधम्म-दर्शन * 51 इस व्यवस्था से हटने के लिये प्रयास करता है। डॉ. अम्बेडकर ने आधुनिक भारत में अछूतों के उत्थान के लिये और अछूतों के अछूतपन, अछूतपन की चेतना, अछूतपन की मानसिकता को समाप्त करने के लिये बौद्धधम्म और दर्शन को ही सब से बुनियादी रास्ता और बेहतर रास्ता माना है। बौद्धधम्म और दर्शन को अपनाने से दलित हिन्दूधर्म, दर्शन और समाज की शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की गुलामी से, दासता से मुक्त होते हैं और विश्व मानव समुदाय में एक स्वतंत्र मानव के रूप में अपना स्थान निर्माण करते हैं। दलित और बौद्धधम्म बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर के द्वारा सन 1956 में और उसके बाद आज तक जिन अछूतों ने, दलितों ने बौद्धधम्म और दर्शन को अपनाया उनका उत्थान, विकास भारतीय समाज के अन्य समाजों की तुलना में कम नहीं है। आज वे भारतीय समाज जीवन के हर क्षेत्र में अपनी योग्यता को सिद्ध कर रहे हैं। आज उन्होंने इस देश में अपनी एक अलग पहचान निर्माण की है। उनकी अपनी स्वतंत्र बौद्ध संस्कृति निर्मित हो रही है, उनका अपना स्वतंत्र साहित्य है जो दलित साहित्य, अम्बेडकरवादी साहित्य के नाम से सारे संसार में विख्यात हो गया है। वे आज भारत की सम्पूर्ण बौद्ध विरासत को अपनी विरासत मानने वाले हो गये हैं और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आधुनिक भारत में हो रहे सामाजिक परिवर्तन के संघर्षों में उनकी बड़ी अहम भूमिका भी है, और यह सारा दलितों द्वारा बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर के नेतृत्व में बौद्धधम्म को स्वीकार करने के कारण ही सम्भव हुआ है। आधुनिक भारत में दलितों के उत्थान के लिये जिस प्रकार के धम्म, दर्शन, चिन्तन, प्रेरणा, आस्था और श्रद्धातत्त्वों की आवश्यकता है वह सभी बौद्धधम्म और दर्शन में है और बौद्धधम्म, दर्शन भारतीय भूमि में पैदा हुआ, फूला, फला इसलिये बौद्धधम्म और दर्शन का बड़ा महत्त्व है। वास्तव में दलितों के उत्थान और बौद्धधम्म तथा दर्शन पर आज भी गंभीर रूप से सोचने की, चिंतन और मनन करने की आवश्यकता है। बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने दलितों के उत्थान के लिये बौद्धधम्म और दर्शन का रास्ता बताया है, उससे बढ़कर आज और कोई रास्ता हमें दिखायी नहीं दे रहा है। जो लोग यह मानते हैं कि आर्थिक उत्थान से ही दलितों का उत्थान होगा, यह पूरा सत्य नहीं है, आधा सत्य है। दलितों की समस्या आर्थिक समस्या मात्र नहीं है। दलितों की समस्या जाति से उत्पन्न समस्या है और इसकी जड़ें भारतीय इतिहास में काफी गहरी हैं। डॉ. अम्बेडकर ने भारतीय समाज-व्यवस्था का बहुत ही वैज्ञानिक ढंग से गहराई में जाकर अध्ययन किया है, फिर वे इस निर्णय पर पहुंचे कि आर्थिक उत्थान से दलितों का उत्थान, दलितपन का विनाश सम्भव नहीं हैं, इसलिये उन्होंने धर्मान्तरण के For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला रास्ते को अपनाया था और सन् 1956 में बौद्धधम्म को स्वीकार किया था। उन्होंने दलितों के उत्थान के लिये पूरी सोच-समझ के बाद बौद्धधम्म और दर्शन को ही एकमात्र सही रास्ता समझा था। आज का सम्पूर्ण दलित चिन्तन डॉ. अम्बेडकर की इसी सोच के इर्दगिर्द घूम रहा है। कुछ लोगों ने इससे हटकर दलितोत्थान के लिये सोचा था, वे मझधार में ही रुक गये और बह गये। आज दलित उत्थान की और जातिवाद को समाप्त करने की मुख्य चिन्तनधारा डॉ. अम्बेडकर की ही चिन्तनधारा है, इसमें कोई संदेह नहीं है। सहायक ग्रन्थ सूची 1. अम्बेडकर डॉ. बी.आर., भगवान बुद्ध और उनका धम्म'.. 2. कोसम्बी, धम्मानंद, भगवान बुद्ध' 3. कौसल्यायन, बुद्धिज्म अॅण्ड अदर रिलिजन्स' 4. विनयपिटक (हिन्दी - राहुल सांकृत्यायन) 5. भगवद्गीता 6. डॉ. विमलकीर्ति, 'बौद्धधर्म के विकास में डॉ. अम्बेडकर का योगदान' 7. दीघनिकाय (पालि) 8. मज्झिमनिकाय (पालि) 9. अंगुत्तरनिकाय (पालि) 10. डॉ. विमलकीर्ति, और बाबासाहेब अम्बेडकर ने कहा...' (सम्पादित खण्ड 1 से 5) __ - 29, ग्रीन फील्ड ले आउट, भामती, नागपुर-440022 For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालि-साहित्य में प्रजातान्त्रिक मूल्य डॉ. विजयकुमार जैन पालि-साहित्य (त्रिपिटक) मूलतः बुद्ध वचन है। पश्चात् उसी त्रिपिटक का पोषक साहित्य अनुपिटक अट्ठकथा साहित्य है। पालि में लिखने वाले आचार्यों के सामने बुद्ध का अनुशासन विद्यमान है। भगवान् बुद्ध के समय भाषा के पक्ष की बात आने पर भगवान ने अपनी-अपनी भाषा में बुद्ध वचन संग्रह करने की बात कही थी। आधुनिक विद्वान् प्रजातंत्र का अर्थ जनता का शासन करते हैं। भगवान् बुद्ध की शिक्षाएं 'बहुजनहिताय बहुजनसुखाय' रहीं। इस घोषणा में ही प्रजातंत्र की आधारशिला रख दी गई थी। भगवान ने भिक्षुओं को आदेश दिया था कि भिक्षुओं, बहुजन के हित एवं सुख के लिए विचरण करो। प्रचलित राजतंत्र में सभी के हित का ध्यान नहीं रखा जाता था, वर्ग विशेष एवं कुल विशेष की प्रधानता रहती थी। राजा के कुल में जन्म से ही व्यक्ति का राज्य पर अधिकार माना जाता था। इसकी जड़ को काटते हुए बुद्ध ने यह घोषणा कर दी कि जन्म से कोई महान नहीं होता, कर्म से ही कोई महान होता है। सबसे महत्त्वूपर्ण बात है कि भगवान बुद्ध ने संघ के स्वरूप में प्रजातंत्र का ढांचा विकसित किया था। - यह तो बहुत सामान्य बात है कि पालि-ग्रंथों में गणतंत्रों एवं प्रदेशों के नाम मिलते हैं, जैसे शाक्यों का कपिलवस्तु, कोलियों का रामग्राम, मौर्यों का पिप्पलिवन, मल्लों का कुसीनारा पावेय्यक, लिछवियों का वैशाली, एवं इसी तरह तीन गणतंत्रों में मिथिला-विदेह सुषुमारगिरि के भग्ग, कालाम केसपुत उल्लेखनीय हैं। शाक्यों के संस्थागार का उल्लेख मिलता है जिसका प्रारम्भ (उद्घाटन) भ. बुद्ध ने किया था। हम उन बिन्दुओं पर ध्यान आकृष्ट करना चाहते हैं जिनके कारण प्रजातंत्र का स्वरूप मजबूत होता है - संघ में प्रव्रज्या देते समय भिक्षुओं से पूछा जाता था। संघ की स्वीकृति के बाद ही प्रव्रज्या एवं उपसम्पदा का विधान था। For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला संघ में उपोसथ की व्यवस्था थी, जिसमें 15 दिन में एक निश्चित क्षेत्र में रहने वाले भिक्षु उपस्थित थे एवं पातिमोक्ख का पाठ करते थे। इसमें व्यवस्था थी कि सभी लोग अपने-अपने दोषों का वर्णन करें एवं तदनुसार दण्ड प्राप्त करें। भिक्षु द्वारा दोष छिपाए जाने पर दूसरा भी प्रकट कर देता था। इस प्रकार सूक्ष्मतया देखने से पता चलता है कि यहाँ के नियमों के विधान में तानाशाही व्यवस्था नहीं थी, तीन-तीन बार अनुमोदना का विधान था। बुद्ध के पश्चात् संगीतियों के माध्यम से जो बुद्धवचनों का संग्रह किया गया उसमें प्रजातंत्र का स्वरूप प्राप्त होता है। भगवान बुद्ध के पश्चात् महाकाश्यप ने अनुभव किया कि बुद्धवचनों का संग्रह होना चाहिए। अतः तीन महीने पूर्व सभी विहारों के भिक्षुओं को सूचना दे दी गई, स्थान निश्चित हो गया, अध्यक्ष का निर्णय हुआ। विचार किया गया कि किस प्रकार बुद्धवचनों का संग्रह किया जाय। आनन्द को सुत्त के लिए तथा उपालि को विनय के लिए चुना गया। प्रत्येक सुत्त के संग्रह के पश्चात् संघ से अनुमोदना करायी गयी। इसमें आनन्द की सदस्यता (अर्हत्व) को लेकर भी रोचक चर्चा है कि पहले आनन्द को प्रायश्चित्त लेना पड़ा, क्षमा-याचना करनी पड़ी। पश्चात् ही उसको इसके लिए अर्ह माना गया। प्रथम सङ्गीति के 100 वर्ष पश्चात् संघ में 10 वस्तुओं के सेवन को लेकर विवाद खड़ा हुआ। कुछ भिक्षु दस वस्तुओं का सेवन करना चाहते थे, कुछ उनके पक्ष में नहीं थे। भगवान् बुद्ध ने कुछ क्षुद्रक नियम बना दिए थे जिनका प्रयोग करने पर दोष होता है, अपराध नहीं। विवाद होने पर यहाँ बँटवारा हो जाता है। एक प्रकार से बुद्ध की भावना लागू नहीं होती है कि एक होकर निर्णय किया जाय तथा निर्णय होने पर उसे सभी स्वीकार करें। वृद्ध भिक्षु अपना अलग संघ बना लेते हैं जो स्थविरवाद के नाम से जाना गया तथा अधिक संख्या वाले भिक्षु महासांघिक कहलाए। मतभेद इतना बढ़ा कि दोनों ने बुद्ध वचनों का संग्रह भी अलग-अलग किया। स्थविरवादियों ने जहाँ बुद्धवचनों का संग्रह पूर्व परम्परानुसार किया, महासांघिकों ने संस्कृत भाषा में बुद्धवचनों का संग्रह किया। ___ तृतीय संगीति सम्राट अशोक के समय सम्पन्न हुई। उसको बुलाने का कारण था कि बौद्ध धर्म 18 सम्प्रदायों में विभक्त हो गया था। अशोक ने मोग्गलि पुत्त तिस्सथेर की अध्यक्षता में यह निर्णय करना आवश्यक समझा कि वास्तविक बुद्धवचन क्या हैं? इसमें भी प्रजातांत्रिक पद्धति का प्रयोग किया गया। विभिन्न पक्ष उपस्थापित करने के बाद निर्णय किया गया कि यह सही है, शेष समुचित नहीं है। इसका विस्तार से प्रतिपादन कथावत्थु नामक ग्रन्थ में किया गया है, जिसे त्रिपिटक में समाहित किया गया है। जब अशोक निर्णय कर लेते हैं कि स्थविरवाद ही सही है, शेष नहीं, तब बुद्धवचनों के प्रचार एवं प्रसार के लिए भी समुचित व्यवस्था की जाती है। बुद्धवचन For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालि - साहित्य में प्रजातांत्रिक मूल्य 55 शिलालेखों में उत्कीर्ण कराए जाते हैं तथा विभिन्न प्रदेशों में भिक्षुओं को भेजा जाता है। स्वयं अशोक के पुत्र एवं पुत्री श्रीलंका जाते हैं तथा जाते समय कहते हैं कि 'आपके उपकार के लिए आए हैं, विजय प्राप्त करने के लिए नहीं ।' धर्म प्रचार का भी यह उदाहरण अनुपम है, प्रजातांत्रिक है, तानाशाही नहीं । दीघनिकाय के महापरिनिर्वाणसुत्त में वर्णित सात अपरिहानीय धर्म तो किसी भी राष्ट्र के प्रजातंत्र के लिए मूलमंत्र हैं। इनको संघ में अनिवार्य किया गया । 'महापरिनिब्बाण - सुत्त' में यह उल्लेख मिलता है कि भगवान ने वैशाली में लिच्छवियो ं को सर्वप्रथम सात अपरिहानीय धम्म का उपदेश दिया था और उसी का स्मरण राजगृह में वर्षकार ब्राह्मण के आने पर आयुष्मान आनन्द की उपस्थिति में किया गया। ये सात उन्नतिगामी अपरिहानीय धम्म भी प्रजातंत्र की सफलता में अपना विशेष योगदान देते हैं। ये सात अपरिहानीय धम्म इस प्रकार हैं - 1. सम्मति के लिए बराबर बैठक करना । 2. एक साथ बैठक करना, एक साथ उठना और एक साथ करणीय कार्यों का T करना । 3. अवैधानिक कार्यो को न करना और विधान का उल्लंघन न करना । 4. वृद्धों का सत्कार - सम्मान करना, उनकी बातें सुनने योग्य मानना। 5. महिलाओं के साथ जोर जबर्दस्ती न करना, उचित व्यवहार करना । 6. पूजनीय स्थानों की पूजा का लोप न करना । 7. अर्हतों (पूज्यों) की धार्मिक रक्षा करना । ' • जब शासक और प्रजा एक साथ बैठक करेंगे और करणीय कार्यों को करेंगे तभी प्रजातंत्र की सफलता सुनिश्चित होगी। इसी प्रकार अवैधानिक कार्यों को न करने और वैधानिक कार्यो का उल्लंघन न करने से वृद्धों का सम्मान करने तथा महिलाओं के साथ उचित व्यवहार करने से भी प्रजातंत्र की सफलता सम्भव होती है, क्योंकि वृद्ध और महिलाओं के एक बड़े समूह की उपेक्षा प्रजातंत्र शासन के लिए घातक सिद्ध होती है। जिस देश में प्रजा व्यर्थ के सम्प्रलाप न करने वाली होगी, निद्रालु न होगी, पापेच्छ से युक्त न होगी, बुराई की ओर रुझान न रखने वाली होकर कर्मठ होगी अर्थात् थोड़े से साफल्य को पाकर बीच में न छोड़ देने वाली होगी, उस देश की प्रजा का . नैतिक स्तर समुन्नत होगा । यह प्रजातंत्र शासन की कुंजी है। भगवान् बुद्ध अन्य सात अपरिहानीय धर्मो का उपदेश देते हुए कहते हैं कि अन्य भी सात अपरिहानीय धर्म हैं जो इस प्रकार हैं -. 1. द्रष्टव्य, महापरिब्बाण सुत्त, दीघनिकाय, महाबोधि सोसायटी, सारनाथ पृ. 12-14 For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 56 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला 1. भिक्षु द्वारा सम्पूर्ण दिवस कारमता युक्त नहीं होना। 2. बकवाद से युक्त न होना। 3. निद्रारमता से युक्त न होना। 4. संगणिकारामता युक्त नहीं होना। 5. पापेच्छ के वश में न होना। पापमित्र पापसहाय बुराई की ओर रुझान न होना। . 7. थोड़े से विशेष को पाकर बीच में छोड़ देने वाला नं होना। ये अपरिहानीय धर्म भी प्रजातंत्र की फलता में सहायक हैं। भगवान बुद्ध ने जो अन्य सात अपरिहानीय धर्मों का उपदेश दिया है, वे इस प्रकार लं. 1. भिक्षुओं का श्रद्धालु होना। 2. पाप से लज्जाशील होना 3. पाप से भय खाने वाला होना। 4. बहुश्रुत होना 5. उद्योगी होना 6. याद रखने वाला होना। 7. प्रज्ञावान होना। - इन सात अपरिहानीय धर्मों के विद्यमान रहने पर प्रजातंत्र की सफलता निश्चित है, क्योंकि जनता जब पाप से लज्जाशील और भय खाने वाली होगी, तो उसका नैतिक स्तर विकसित होगा तथा जनता के बहुश्रुत, उद्योगी एवं प्रज्ञावान होनेपर ही योग्य शासक चुना जा सकेगा। अतएव ये सात अपरिहाणीय धर्म भी प्रजातंत्र की सफलता के पूरक हैं। .. प्रजातंत्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि जनता में त्याग की भावना हो। यदि त्याग की भावना नहीं होगी, तो शासक (जो जनता में से जनता के द्वारा चुना जाता है, वह) राष्ट्रीय सम्पत्ति को लोभवश अपने घर लाता चला जायेगा। 'धम्मपद' में त्याग की महत्ता का उपदेश देते हुए भगवान् बुद्ध कहते हैं कि जो अपने लिए या दूसरों के लिए पुत्र, धन और राज्य नहीं चाहता और न धर्म से अपनी उन्नति चाहता है वही शीलवान, प्रज्ञावान और धार्मिक है।' प्रजातंत्र के दो भेद किये गये हैं - 1. प्रत्यक्ष प्रजातंत्र 2. अप्रत्यक्ष प्रजातंत्र इन भेदों का नमूना भी पालि साहित्य में देखने को मिल जाता है। उपोसथ के दिन 2. वही पृ. 14-16 3. वही, पृ. 16 4. न अत्तहेतु न परस्स हेतु न पुत्तमिच्छे न धनं न रठें। न इच्छेय्य अधम्मेन समिद्धिमत्तनो, स सीलमा पञ्जावा धम्मिको सिया। - धम्मपद, पण्डितवग्ग,9 For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालि - साहित्य में प्रजातांत्रिक मूल्य 57 जब भिक्षु एकत्रित होकर संघ में अपने-अपने पापों का स्वीकरण कर क्षमायाचना करते हैं और कृतसंकल्प होते हैं तथा इस प्रकार अपने किये हुए अपराधों से जो मुक्त होते हैं, तो यह प्रत्यक्ष प्रजातंत्र का एक अच्छा उदाहरण बन जाता है। ' अप्रत्यक्ष प्रजातंत्र का उदाहरण हमें 'महावंस' में द्वितीय संगीति के अवसर पर मिलता है जब असंख्य भिक्षुओं में से चार-चार को पंच अधिकरण शमथ (झगड़े को शान्त करने) के लिए चुना जाता है ।' विनयपिटक में आपसी झगड़ा सुलझाने के लिए अधिकरण शमथ का विधान है तथा आवश्यकता पड़ने पर शलाका पद्धति में भिक्षुओं को निर्णय जानने का विधान है। भगवान बुद्ध के समय जब यह विवाद उठता है कि उनका उत्तराधिकारी कौन होगा तो देवदत्त अपने को उत्तराधिकारी बनवाना चाहता है तब बुद्ध स्पष्ट कहते हैं कि उनके बाद बुद्ध वचन (37 बोधि पाक्षिक धर्म) ही उनके उत्तराधिकारी होंगे। जब कोई विवाद की स्थिति बने तो इनसे मिला लेना चाहिए, इनके अनुकूल हो तो स्वीकार करें अन्यथा छोड़ दें। प्राय: इतनी व्यवस्था के बाद भी हम देखते हैं कि बौद्ध संघ में भेद - प्रभेद होते गए। यह भी प्रजातंत्र की निशानी है कि सभी लोग अपनी व्याख्या के अनुरूप धर्म-पालन के लिए स्वतंत्र हैं । धर्म थोपा नहीं जा सकता। परिणामस्वरूप मध्यममार्ग की व्याख्या में ही चार दार्शनिक सम्प्रदाय, 18 धार्मिक सम्प्रदाय तथा बोधिसत्त्व जैसी विश्वोपयोगी धारणा विकसित हुई । यदा मम परेषां च भयं दुःखं च न प्रियम् तदात्मनः को विशेषोऽयं तं रक्षामि नेतरम् ।। आधार ग्रंथ 1. दीघनिकाय, विनयपिटक आदि त्रिपिटक के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ । 2. ज्ञानायनी, वर्ष 3, संयुक्तांक 1-2, वर्ष 2005, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, लखनऊ प्राचीन राजवंश और बौद्धधर्म, लेखक - डॉ. अच्युतानन्द घिल्डियाल, प्रकाशन विवेक घिल्डियाल बन्धु समरा, वाराणसी, 1976 । 3. आचार्य एवं अध्यक्ष बौद्धदर्शन विभाग राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान (मानित विश्वविद्यालय) गोमती नगर, लखनऊ 226 010 5. महावग्ग, उपोसथ खन्धक । 6. पाचीनेक च चतुरो चतुरो पावेय्यके पि च । उब्बाहिकाय तं वत्थु समेतुं निच्छ्यं अका। - महावंस, चतुत्थो परिच्छेदो, गाथा संख्या 47, पृ. 20 For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपश्यना एवं मानव-मनोविज्ञान डॉ. चन्द्रशेखर __ मनोविज्ञान का आधुनिक स्वरूप मूल रूप से पाश्चात्त्य दर्शन के विकास का परिणाम है। देकार्त के द्वारा मन एवं शरीर के सम्बन्ध की समस्या को देखने के पश्चात् अनुभववादियों और उसके बाद ब्रिटिश सहभागितावाद और फिर काण्ट का इस सम्बन्ध में विशेष प्रभाव पड़ा है। वर्तमान में मनोविज्ञान को जिस रूप में समझा और जाना जाता है, उसका विकास प्रयोगात्मक मनोविज्ञान (Experimental Psychology), संरचनावाद (Structuralism) फलनवाद (Functionalism), व्यवहारवाद (Behaviourism) और गेस्टाल्ट का मनोविज्ञान (Gestalt's Psychology) के साथ विभिन्न प्रकार के सिद्धान्त और सम्प्रदायों में हुआ है। इसमें हेरिस (Heirs) से लेकर फ्रायड (Freud) तक विकास यात्रा का प्रभाव स्पष्ट है। उत्तर आधुनिक फ्रायडियन मनोविज्ञान की इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। आज मनोविज्ञान का जो स्वरूप दिखाई देता है वह दो धाराओं को व्यक्त करता है - 1. व्यवहारवाद 2. गेस्टाल्ट - मनोविज्ञान व्यवहारवाद मूलतः हमारी प्रतिक्रियाओं और व्यवहारों को अपने अध्ययन का विषय बनाता है, चाहे वह व्यवहार प्राकृतिक हो अथवा सीखा हुआ। चाहे वह सामूहिक हो या वैयक्तिक। यह आधुनिक मानव-मनोविज्ञान की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व की और आधारभूत मनोवैज्ञानिक प्राककल्पनाओं के निर्माण और मानव मन को समझने एवं उसे नियंत्रित करने के लिए विभिन्न प्रकार के सिद्धान्त एवं प्रयोगधर्मी निर्देशों का विकास करता है। यह उन निष्कर्षों को व्यवहार में अपनाने के लिए मानव के निर्णय, प्रेरणा, व्यवहार आदि के स्तर पर निदानमूलक एवं व्यवहारमूलक उपाय एवं उपयोग दोनों को विकसित करता है। आज मनोविज्ञान का यह स्वरूप केवल अकादमिक या सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपश्यना एवं मानव - मनोविज्ञान 59 तक सीमित न होकर विश्वबाजार और विभिन्न संस्थागत उपकरणों में से एक महत्त्वपूर्ण उपकरण बन गया । दूसरी ओर गेस्टाल्ट-मनोविज्ञान मानव की सामूहिक एवं संगठनात्मक मनोविज्ञान की उन शाखाओं का विकास कर रहा है जहाँ मनोविज्ञान निरन्तर पेशेवर दक्षता एवं विशेषज्ञता में प्रवेश कर रहा है। इसलिए आज मनोविज्ञान और मनोवैज्ञानिक दोनों ही अपने को किसी एक सम्प्रदाय के दायरे में नहीं रखते, बल्कि वे जिस विषय या क्षेत्र विशेष को चुनते हैं उसमें सभी सम्प्रदायों के उपयोगी सिद्धान्तों का समावेश करते हैं। यह कार्य करते हुए वे मानव मन की वैयक्तिक एवं सामूहिक दृष्टियों, प्रतिक्रियाओं, संकल्पों, स्मृति, भाषा, विचार, सूचना, ज्ञानात्मक एवं अवधारणात्मक प्रक्रियाओं आदि का अध्ययन कर उसे वास्तविक जीवन में लागू करते हैं और उन परिणामों को उत्पन्न करते हैं या प्रभावित करते हैं जो मानवीय अस्तित्व और जीवन द्वारा प्रवर्तित हो रहा है और होगा। सीखने की दृष्टि से वे व्यक्ति, समूह आदि के विभिन्न पक्षों और व्यवहारों के अध्ययन के लिए उन वैज्ञानिक प्रणालियों का अध्ययन करते हैं जो मानव की जैविक संरचना के तुल्य अन्य प्राणियों में उसी प्रकार की समानता रखती हैं। इस प्रकार आज मानव मनोविज्ञान को सीखने, जानने और उस पर नियंत्रण के साथ-साथ विकास के लिए विभिन्न प्राणियों के जैविक एवं मनोवैज्ञानिक पक्षों, प्रतिक्रियाओं आदि का शोध और उपयोग हो रहा है। वे मानव मनोविज्ञान के सापेक्ष उन प्राक्कल्पनाओं की पुष्टि और प्रयोग कर रहे हैं जो हमें चिकित्सा, संगठन, समाज रचना, व्यावसायिक एवं औद्योगिक क्षेत्र में हमारी समझ को और अधिक विकसित कर सके और मनोविज्ञान को और अधिक उपयोगी बना सके। इसी क्रम में सूचना एवं कम्प्यूटर तकनीकी तथा जीन रचना तकनीकी के साथ नेनो तकनीकी का मनोविज्ञान के साथ गठजोड़ का प्रभाव सम्पूर्ण मानव के भविष्य को प्रभावित करने वाला है। यही कारण है कि हमारे सामने एक ऐसी चुनौती विकसित हो रही हैं जो मनोविज्ञान को एक चक्राकार रीति से संगठित एवं प्रचलित करने वाली है। इसका एक संक्षिप्त आभास इस प्रकार प्रदर्शित किया जा सकता है। दर्शन मनोविज्ञान - जीवविज्ञान - सूचना ← E जीन नेनो For Personal & Private Use Only मनोविज्ञान भौतिकी तकनीकी Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला इस प्रकार मनोविज्ञान एक नए सम्मिश्रण के साथ मानव के वर्तमान एवं भविष्य में प्रवेश कर रहा है। इस आधुनिक परिप्रेक्ष्य में बौद्ध धर्म एवं दर्शन की प्रासंगिकता की दृष्टि से विचार करना आवश्यक हो गया है। बौद्ध दर्शन में मन एवं मनोविज्ञान पर जिस गहनता से अध्ययन किया गया है, वह आने वाले संकट से मानव को उबार सकता है। वह आज की हमारी समस्याओं विशेषकर आधुनिक जीवन की दृष्टि और मनोविज्ञान की भूमिका के परिणाम स्वरूप उत्पन्न हुई हैं, उनका हल कर सकती है। आज का विचार सुखमूलक, स्वार्थमूलक और साधन मूलक दृष्टि और सृष्टि को ही जीवन का सार मानता है। वह मानव जीवन की रचना को उसी ओर मोड़ देना चाहता है, लेकिन हमने ही हमारे दर्शन और धर्म को त्याग कर उसके पीछे होने को नियति मान लिया है। वस्तुतः हमें अपने श्रेष्ठ दर्शन और उसके सिद्धान्त एवं व्यवहार को पुनः जानना और जीवन को जागृत करना होगा। हमें पुनः हमारी परम्परा के अनुरूप अनुपश्यना एवं विपश्यना के साथ जीवन दृष्टि को पुनः प्रकट करना होगा। इसे जीवन में पुनः मनोविज्ञान की दृष्टि से प्रयोगधर्मी उपकरण के रूप में विकसित करना होगा। व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक जीवन में उसे एक उपयोगी सिद्धान्त एवं प्रयोगधर्मी उपकरण, उपाय एवं उपयोग के लिए विकसित करना होगा जो उन समस्याओं से मानव और उसकी दृष्टि को मुक्त कर सके जिसने समस्त मानव जीवन को और उसके हर पहलू को एक समस्या में रूपान्तरित कर दिया ____बौद्ध दर्शन की दृष्टि से विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि आधुनिक मनोविज्ञान जिस दृष्टि से विकसित हुआ है वह अभी तक चित्त की उस भूमि को अपने अध्ययन का विषय नहीं बना पाया है जिसे बौद्ध दार्शनिक कामावचर चित्त कहते हैं। आज की चुनौती आधुनिक जीवन दृष्टि का परिणाम है। वास्तव में कामावचर चित्त और उससे उत्पन्न चित्तोत्पादों के साथ, आने वाले समय में रूपावचर चित्त एवं चित्तोत्पाद के प्रभाव का प्रदर्शन होने वाला है। कम्प्यूटर, नेनो तकनीकी एवं जीन तकनीकी के प्रयोग के साथ इन्द्रियों की शक्ति का विस्तार एक नए मानसिक एवं जैविक पर्यावरण करने की रचना करने में संलग्न है जो हमारे व्यक्तिगत एवं सामूहिक संश्लिष्ट चेतन को ऐसी परिस्थितियों में ला देंगे जिसके लिए आज का मनोविज्ञान न तो सक्षम है और न ही उपयोगी सिद्ध हो सकेगा। हमें विपश्यना को और चित्त के प्रति बौद्धदष्टि को मनोविज्ञान के क्षेत्र में अE ययन, अध्यापन एवं प्रयोग व अनुसंधान आदि के लिए अपनाना चाहिए। इसे मानव मनोविज्ञान के अध्ययन की प्रणाली के रूप में विकसित करना चाहिए। आज भी For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपश्यना एवं मानव-मनोविज्ञान * 61 विश्वविद्यालयों और उच्च अध्ययन के केन्द्रों में जो दिशा दी जा रही है वहाँ विपश्यना एवं बौद्ध मनोविज्ञान का कोई स्थान नहीं है। भारत को स्वयं इस कार्य को आरम्भ करना होगा। मनोविज्ञान के अध्ययन की प्रणाली के रूप में विपश्यना को स्थापित करना एवं इस प्रयोग की पहल करना ये दोनों भारत के दार्शनिक एवं मनोवैज्ञानिक सहयोग के माध्यम से किया जाना चाहिये। दार्शनिक एवं मनोवैज्ञानिक क्षेत्रों के अतिरिक्त सभी क्षेत्रों के ज्ञान और प्रतिभा का उपयोग एक साथ लेकर इस दिशा में आगे बढ़ना होगा। यह दिखलाना होगा कि मानव मनोविज्ञान के अध्ययन के लिए विपश्यना किस प्रकार एक शक्तिशाली सिद्धान्त एवं प्रयोगधर्मी मानक उपकरण के रूप में विकसित हो सकता है और उसी के अनुरूप पाठ्यक्रम एवं प्रायोगिक प्रविधियों का प्रवर्तन करने की आवश्यकता है। उपर्युक्त दृष्टि से मानव के मन और उसके मानसिक पर्यावरण की स्थिति को देखते हुए प्रतीक्षारत रहने के स्थान पर विपश्यना को सामान्य जीवन में अनुशासित करने के लिए दो कार्य आरम्भ करने की आवश्यकता है। (1) शिक्षा में सैद्धान्तिक दृष्टि से इसको प्रचलन में लाना, (2) भारतीय दृष्टि से जो प्रायोगिक एवं उपचारमूलक विधिया हैं उनके अनुरूप एवं संगत अनुपश्यना अथवा विपश्यना मूलक प्रयोगों आदि को प्रतिष्ठित करना। इस दृष्टि से योग, ध्यान, प्रेक्षा, तप, प्राणायाम, आनापान सति, शिक्षा-संस्कार दर्शन आदि का प्रामाणिक प्रयोग निश्चित किया जाना चाहिये। इस पहल से ही शमथ यान आगे बढेगा। मानवीय जीवन आरोग्यमय, निरामय, सुख, शांति और तृप्ति से पूर्ण होगा और प्राणिमात्र के लिए अहिंसा और करुणा से पूर्ण जीवन का अवतरण हो सकेगा। ___ - अध्यक्ष, दर्शनशास्त्र विभाग जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्धदर्शन में निर्विकल्पकता का स्वरूप एवं उसका जीवन में महत्त्व डॉ. धर्मचन्द जैन बौद्धदर्शन में जो निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का स्वरूप दिङ्नाग (470-530. ई.), धर्मकीर्ति (620-690 ई.) आदि दार्शनिकों द्वारा प्रतिपादित किया गया है वह भारतीय दर्शन में नितान्त महत्त्वपूर्ण है। यही नहीं भारतीय दर्शन को उनकी यह विशिष्ट देन है, जिससे मीमांसक एवं नैयायिक भी प्रभावित हैं। बौद्धदार्शनिक प्रत्यक्ष प्रमाण को निर्विकल्पक ही मानते हैं, जबकि अन्य दार्शनिक उसे सविकल्पक भी अंगीकार करते हैं। बौद्धदार्शनिकों द्वारा प्रतिपादित निर्विकल्पक प्रत्यक्ष वस्तु के सप्रकारक ज्ञान में एवं उसकी हेयोपादेयता में भले ही तत्काल उपयोगी प्रतीत न होता हो, किन्तु जीवन में निर्विकल्पता का अनुभव आध्यात्मिक एवं सशक्त व्यक्तित्व विकास की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व रखता है। निर्विकल्पकता का अनुभव अनेक दृष्टियों से जीवन में उपयोगी सिद्ध होता है, यही प्रस्तुत आलेख का प्रतिपाद्य है। सविकल्पकता एवं निर्विकल्पकता का स्वरूप सामान्यतौर पर सविकल्पकता से आशय ऐसे ज्ञान से है जिसमें गौ, घट, पट, मनुष्य आदि शब्दों की योजना हो अथवा जो ज्ञान सप्रकारक हो, प्रमेय वस्तु को आकार-प्रकार आदि विशेषणों से युक्त जानता हो। भारतीय दर्शन में सविकल्पकता एवं निर्विकल्पकता का विचार करने वाले दर्शनों में बौद्ध, मीमांसा एवं न्याय-वैशेषिक दर्शन प्रमुख हैं। न्याय-वैशषिक दर्शन में नाम, जाति आदि की योजना से युक्त ज्ञान को सविकल्पक माना है जो ज्ञेय वस्तु के विशेषण विशेष्य को ग्रहण करता है; यथा नाम से यह डित्थ है, जाति से ब्राह्मण है, वर्ण से श्याम है आदि।' इसके विपरीत नाम, जाति, 1. सविकल्पकं नामजात्यादियोजनात्मकं डित्थोऽयं, ब्राह्मणोऽयं, श्यामोऽयमिति विशेषणविशेष्यावगाहि ज्ञानम्। - तर्कभाषा, केशवमिश्र, हिन्दी व्याख्या-आचार्य विश्वेश्वर सिद्धान्त शिरोमणि, चौखम्बा संस्थान, वाराणसी, षष्ठ संस्करण, 1977, पृ. 49 For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्धदर्शन में निर्विकल्पता का स्वरूप एवं उसका जीवन में महत्त्व * 63 आदि की योजना से हीन वस्तुमात्र को ग्रहण करने वाले 'यह कुछ है' इत्यादि ज्ञान को निर्विकल्पक स्वीकार किया गया है। न्यायदर्शन के न्यायसूत्र में प्रत्यक्ष का जो लक्षण दिया गया है वह निर्विकल्पक एवं सविकल्पक प्रत्यक्ष के भेदों का आधार बना है, यथाइन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षं।- न्यायसूत्र 1.14 प्रत्यक्ष के इस लक्षण में 'अव्यपदेश्य' पद निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का तथा 'व्यवसायात्मक' पद सविकल्पक प्रत्यक्ष का आधार बना, ऐसा न्याय-वैशेषिक दार्शनिक वाचस्पति मिश्र आदि के ग्रन्थों में देखा जा सकता है। मीमांसादर्शन में भी निर्विकल्पक प्रत्यक्ष की चर्चा है। कुमारिलभट्ट प्रत्यक्ष का लक्षण देते हुए कहते हैं - अस्ति ह्यालोचनाज्ञानं प्रथम निर्विकल्पकम्। बालमूकादिविज्ञानसदृशं शुद्धवस्तुजम्। - श्लोकवार्तिक, प्रत्यक्ष सूत्र 112 किसी वस्तु का साक्षात्कार करने पर प्रथम आलोचनमात्र ज्ञान निर्विकल्पक होता है। वह बालक, मूक आदि के ज्ञान के समान वस्तु से उत्पन्न शुद्ध ज्ञान है, जिसमें शब्दादि की योजना नहीं है। मीमांसादर्शन भी प्रत्यक्ष के निर्विकल्पक एवं सविकल्पक भेद अंगीकार करता है। . ____ बौद्धदर्शन ही भारतीय दर्शन में एक ऐसा दर्शन है जो प्रत्यक्ष प्रमाण को मात्र निर्विकल्पक मानता है। दिङ्नाग ने प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण देते हुए कहा है - प्रत्यक्षं कल्पनापोटं नामजात्याद्यसंयुतम् (प्रमाणसमुच्चय 1.3) नाम, जाति आदि की कल्पना से रहित.ज्ञान प्रत्यक्ष होता है। बौद्धों का मानना है कि जिस घट आदि अर्थ का प्रत्यक्ष किया जाता है, उसमें कोई शब्द नहीं होता, शब्द तो हम पूर्व संकेत स्मरण के कारण योजित करते हैं। बौद्ध दार्शनिक दिङ्नाग के अनुसार कल्पना का अर्थ है ज्ञान में नाम, जाति, गुण, क्रिया एवं द्रव्य की योजना करना। यथा यदृच्छ शब्दों में यह डित्थ है, इस प्रकार किसी विशिष्ट अर्थ को डित्थ नाम से युक्त करना नामयोजना रूप कल्पना है। जाति शब्दों में यह गाय है, इस प्रकार गाय शब्द का प्रयोग करना जातियोजना रूप कल्पना है। इसी प्रकार गुण शब्दों में यह शुक्ल है' इस प्रकार शुक्ल गुण का योजन करना गुण योजना रूप कल्पना है, क्रिया शब्दों में यथा 'यह क्रिया से रसोइया है इस 2. निर्विकल्पकं नामजात्यादियोजनाहीनं वस्तुमात्रावगाहि किञ्चिदिदमिति ज्ञानम्। - वही पृ. 48 3. See D.N. Shastri, The Philosopy of Nyaya Vaisesika and its Conflict with the ___Budhhist Dignāga school, Bhartiya Vidya Prakashan, Delhi 1954, Reprint - 1976.p.430-31 For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला प्रकार क्रिया की योजना करना क्रिया रूप कल्पना है तथा द्रव्य शब्दों में यथा 'यह दण्डी है' अथवा 'विषाणी है' इस प्रकार का प्रयोग करना द्रव्ययोजना रूप कल्पना है।। दिङनाग इन पांचों प्रकार की कल्पनाओं से रहित ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण की संज्ञा देते हैं। कल्पना से रहित होने पर भी वे प्रत्यक्ष को ज्ञानात्मक मानते हैं, क्योंकि ज्ञान ही कल्पना से युक्त होता है। दिङ्नाग द्वारा प्रत्यक्ष में नामादि योजनारूप कल्पना का निषेध करने के पीछे अभिधर्मकोश व्याख्या ग्रन्थ के दो कथन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यथा - (1) चक्षुर्विज्ञानसमंङ्गी नीलं विजानाति नो तु नीलमिति (2) अर्थेऽर्थसंज्ञी न त्वर्थे धर्मसंज्ञीति। प्रथम वाक्य का तात्पर्य है कि चक्षुर्विज्ञान से जानने वाला पुरुष नील अर्थ को जानता है, किन्तु उसे 'यह नील है' इस रूप में नहीं जानता। नीला अर्थ (पदार्थ) को जानना कल्पना रहित है, 'यह नील है' इस रूप में जानना कल्पना युक्त है। द्वितीय वाक्य का अभिप्राय है - अर्थ में अर्थ का ज्ञान होना निर्विकल्पक है, किन्तु अर्थ में उसके धर्म का अर्थात् नाम, गुण, आदि का ज्ञान होना विकल्पात्मकता है। बौद्ध मान्यता है कि शब्द एवं अर्थ (पदार्थ/वस्तु) का परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं है। अर्थ में शब्द नहीं होता। अर्थ को शब्द छूते भी नहीं हैं। इसलिए अर्थ का प्रत्यक्ष करते समय शब्द की योजना कल्पना ही है। समस्त कल्पनाएँ शब्द से उत्पन्न होती हैं तथा समस्त शब्द कल्पनाओं से उत्पन्न होते हैं - विकल्पयोनयः शब्दाः, शब्दाः विकल्पयोनयः। दिङ्नाग के पश्चात् बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति ने कल्पना के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए अधिक सूक्ष्मता का परिचय दिया है। वे कहते हैं कि अभिलाप अर्थात् वाचक शब्द के संसर्ग योग्य प्रतिभास की प्रतीति होना कल्पना है - अभिलापसंसर्गयोग्यप्रतिभासा प्रतीतिः कल्पना। (न्यायबिन्दु, 1.5) प्रमेय अर्थ का प्रत्यक्ष होते समय यदि किसी को उसका वाचक शब्द न आता हो, किन्तु वह यह समझे 4. यदृच्छाशब्देषु नाम्ना विशिष्टोऽर्थ उच्यते डित्थ इति। जातिशब्देषु जात्या गौरिति । गुणशब्देषु गुणेन __शुक्ल इति। क्रियाशब्देषु क्रियया पाचक इति। द्रव्यशब्देषुद्रव्येण दण्डी विषाणीति।- Dignaga, on perception Massaki Hattori, Harward University Press, 1968, प्रमाणसमुच्चयवृत्ति एवं प्रमाणसमुच्धयटीका, पृ. 12 5. यत्रैषा कल्पना नास्ति तत्प्रत्यक्षम्। Dignaga on perception प्रमाणसमुच्चयवृत्ति 6. (i) द्रष्टव्य अभिधर्मकोशव्याख्या पृ. 64.22-23 (ii) मुनि जम्बूविजय सम्पादित द्वादशारनयचक्र, आत्मानन्द सभा, भावनगर, गुजरात, 1966 भाग -1 पृ. 62 पर उद्धृत। 7. नार्थं शब्दाः स्पृशन्त्यपि। - दिङनाग, उद्धृत Buddhist Logic, Stecherbatsky, Dover Publication, New York, 1962, Vol 2, p.405 F.N. 1 8. वही, पृ. 405 For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्धदर्शन में निर्विकल्पता का स्वरूप एवं उसका जीवन में महत्त्व * 65 कि इस ज्ञात वस्तु को कोई शब्द दिया जा सकता है, तो उसकी यह प्रतीति भी कल्पना ही है। धर्मकीर्ति का यह कल्पनालक्षण मीमांसा दार्शनिक कुमारिलभट्ट के द्वारा निरूपित प्रत्यक्ष लक्षण का खण्डन कर देता है, जिसमें उन्होंने बालक एवं मूक पुरुष के ज्ञान को निर्विकल्पक माना है।' बालक जिस पदार्थ का प्रत्यक्ष करता है, उसका नाम भले ही न जानता हो, किन्तु ऐसी प्रतीति होती है कि इसे कोई नाम दिया जा सकता है। इसी प्रकार मूक व्यक्ति शब्द का प्रयोग नहीं कर पाता, किन्तु उसे यह बोध होता है कि दृष्ट या ज्ञात वस्तु को शब्द दिया जा सकता है। अतः धर्मकीर्ति की दृष्टि में बालक एवं मूक का ज्ञान भी कल्पना की श्रेणि में आता है। ऐसा प्रतीत होता है कि धर्मकीर्ति ने कुमारिल का खण्डन करने के लिए ही कल्पना का अभिलापसंसर्गयोग्यप्रतिभासप्रतीति लक्षण किया है। __ आज हम अंग्रेजी शब्द Imagination को कल्पना का पर्याय मानते हैं, किन्तु वह कल्पना भी शब्दों के आधार पर ही चिन्तन के रूप में अग्रसर होती है। उसके मूल में भी वाचक शब्द के प्रयोग की अवधारणा रही है। उसी का बृहत्प्रयोग हम Imagination स्वरूप कल्पना के रूप में जानते हैं। शब्दों या आकृतियों के आलम्बन के बिना किसी भी कल्पना का स्वरूप नहीं बनता, इसलिए दार्शनिकों ने शब्दयोजना को कल्पना कहा 'कल्पना' के स्वरूप-प्रतिपादन में दिङ्नाग, धर्मकीर्ति आदि बौद्ध दार्शनिकों की सूक्ष्मदृष्टि मात्र प्रमाणमीमांसा में ही उपयोगी नहीं, अपितु आध्यात्मिक साधना एवं व्यक्तित्व विकास की दृष्टि से भी उपयोगी है। ध्यानसाधना में निर्विकल्पकता का महत्त्व बौद्ध दर्शन में जो विपश्यना साधना है, उसमें द्रष्टाभाव का विकास किया जाता है तथा नाम, जाति आदि की योजना स्वरूप कल्पना का परिहार किया जाता है। शरीर पर विभिन्न प्रकार की संवेदनाओं का जो अनुभव होता है, उन्हें किसी प्रकार का नाम दिए बिना एवं उनके प्रति राग-द्वेष किए बिना मात्र उन्हें चित्त के द्वारा देखा जाता है। कायानुपश्यना, वेदनानुपश्यना, चित्तानुपश्यना एवं धर्मानुपश्यना में द्रष्टाभाव का ही विकास कर राग-द्वेषादि के संस्कारों से रहित होने का पुरुषार्थ किया जाता है। यह सारी साधना निर्विकल्पकता के अभ्यास की साधना है। कायानुपश्यना में जहाँ चित्त के द्वारा शरीर की प्रेक्षा की जाती है वहाँ वेदनानुपश्यना में वेदनाओं को तटस्थ रहकर जाना जाता है। चित्तानुपश्यना में चित्त का तटस्थ अवलोकन किया जाता है तथा धर्मानुपश्यना में चित्त में उत्पन्न दुःख, सुख आदि चैत्त धर्मों की अनुपश्यना की जाती है। अनुपश्यना 9. अस्ति ह्यालोचनाज्ञानं प्रथमं निर्विकल्पकम्। बालमूकादिविज्ञानसदृशं शुद्धवस्तुजम्।। - श्लोकवार्तिक, प्रत्यक्ष सूत्र 112 For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला करने वाले साधक को प्रतिक्षण अपने भीतर स्वतः प्रकट होने वाली सच्चाइयों को साक्षी भाव से देखना होता है। वह काया, वेदना, चित्त अथवा चैतसिक धर्मों के उदय-व्यय को प्रज्ञा या प्रत्यक्ष अनुभूति से जानता है। वह जागरूक होकर जैसा है वैसा जानता रहता है। महासतिपट्ठानसुत्त में कायानुपश्यना; वेदनानुपश्यना, चित्तानुपश्यना एवं धर्मानुपश्यना का विस्तृत एवं विशद निरूपण हुआ है। कायानुपश्यना के सम्बन्ध में कहा गया है - "यावदेव आणमत्ताय पटिस्सतिमत्ताय, अनिसितो च विहरति, न च किञ्च लोके उपादियति। एवम्पि खो, भिक्खवे, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति। अर्थात् काया की अनुपश्यना करते समय जब तक मात्र ज्ञान, मात्र दर्शन बना रहता है तब तक वह अनाश्रित होकर विहरता है और लोक में कुछ भी ग्रहण नहीं . करता। इस प्रकार भी भिक्षु काया में कायानुपश्यी होकर विहार करता है। यह तथ्य तब भी घटित होता है जब वेदनानुपश्यना, चित्तानुपश्यना एवं धर्मानुपश्यना की जाती है।12 . जब साक्षीभाव से अनुपश्यना की जाती है तो किसी कल्पना का अथवा शब्दादि का आरोपण नहीं किया जाता है। यद्यपि अनुपश्यना करने वाला आतापी (श्रमशील), सम्पजानो (सम्यक् प्रकार से ज्ञाता) एवं सतिमा (जागरूक) होता है तथा प्रज्ञा का आलम्बन लेता है, तथापि वह कल्पना से परे रहता है। वह यथाभूत को जानता एवं देखता है अथवा अनुभव करता है। राग-द्वेष किए बिना जानना तभी सम्भव होता है। निर्विकल्पकता के अनुभव से विविध लाभ अनुपश्यना की यह विधि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष को आधार बनाती है। निर्विकल्पक-साधना का अभ्यास जितना बढ़ता जाता है जीवन में उतने ही अनेकविध लाभ अनुभव होते हैं, यथा - 1.प्रज्ञा का विकास - प्रज्ञा के विकास में निर्विकल्पकता का अनुभव महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है। मनुष्य अधिकतर राग-द्वेषादि के विकल्पों में जीता है। प्रज्ञा का विकास तटस्थदृष्टि में ही सम्भव है। तटस्थदृष्टि निर्विकल्पकता के अभ्यास से विकसित होती है। शमथ एवं विपश्यना भी इसमें सहायक है। मानव जीवन में प्रज्ञा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। प्रज्ञा होने पर ही समस्त क्लेशों का नाश सम्भव है। प्रज्ञा एक प्रकार से अन्तः चक्षु है जो लोभ, मोह, द्वेष आदि अकुशल धर्मों को देखने एवं उनका निरसन करने में सहायक है। 10. द्रष्टव्य, महासितपट्ठानसुत्त,विपश्यना विशोधन विन्यास, इगतपुरी, प्रथम संस्करण 1996, पुनर्मुद्रण 2008 11. महासतिपट्ठानसुत्त, विपश्यना विशोधन विन्यास, इगतपुरी 2008, मूलपाठ पृ. 14 12. द्रष्टव्य, वही, पृ. 16, 18 एवं 22 For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्धदर्शन में निर्विकल्पता का स्वरूप एवं उसका जीवन में महत्त्व * 67 2.शान्ति का अनुभव - निर्विकल्पकता में शान्ति का अनुभव स्वाभाविक है। जीवन में जितना निर्विकल्पक होने का अभ्यास बढ़ेगा, उतना ही व्यक्ति शान्ति का अनुभव कर सकेगा। आज मनुष्य विकल्पों में ही अधिक जीता है, निर्विकल्पक स्थिति आती भी है, किन्तु उसे उसका बोध नहीं होता। निर्विकल्पकता के बोध का अभ्यास जितना बढ़ेगा उतना ही शान्ति का अनुभव अभिवृद्ध होगा। जिन जड पदार्थों को ज्ञान ही नहीं होता, उनमें सविकल्पता एवं निर्विकल्पता का प्रश्न नहीं उठता। चेतनाशील को ही ज्ञान होता है तथा वह सविकल्पक एवं निर्विकल्पक दोनों प्रकार का हो सकता है। कभी क्लेशमय चित्तवृत्ति का इतना आधिक्य होता है कि हमें ज्ञान का भी बोध नहीं रहता, मात्र लोभ, द्वेष, मोह सदृश अकुशल धर्मों से ग्रस्त होकर जीते रहते हैं। निर्विकल्पता के बोध के अभ्यास के साथ प्रज्ञा का विकास होता है जो लोभादि अकुशल धर्मों अथवा क्लेशों पर विजय प्राप्त करने में सहायक बनता है। मनुष्य का चित्त अधिकतर चिन्ता, योजना, राग-द्वेषादि के विकल्पों में उलझा रहता है, जिसके होने पर शान्ति का अनुभव नहीं होता। भीतरी शान्ति के अनुभव के लिए निर्विकल्पकता के अभ्यास की अभिवृद्धि आवश्यक है। 3. विकार-विजय - विकार-विजय के सामर्थ्य का विकास भी निर्विकल्पकता के अभ्यास से सहज ही सम्भव होता है। निर्विकल्पक होने पर विकारों को देखने का सामर्थ्य बढ़ता है एवं इसके साथ-साथ ही विकारों को जीतने की क्षमता भी बढ़ती जाती है। विकारों के उदयकाल में भी साधक उनसे अप्रभावित रह सकता है। इससे उन पर विजय का सामर्थ्य प्राप्त होता है एवं धीरे-धीरे चित्त में उत्पन्न लोभ, द्वेष, मोहादि विकारों को जीता जा सकता है। शमथ एवं विपश्यना एवं अनुपश्यना की साधना इसका प्रमाण है। 4. कार्यक्षमता में अभिवृद्धि - संकल्प-विकल्प मनुष्य की शक्ति का ह्मस करते हैं तथा इनसे रहित निर्विकल्पकता की अवस्था व्यक्ति की शक्ति में अभिवृद्धि करती है, जिससे उसकी कार्यक्षमता एवं निर्णय क्षमता का विकास होता है। फिर व्यक्ति चित्त को एकाग्र कर कार्य को अधिक सही ढंग से करने का सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है। 5. शारीरिक आरोग्य - कई बार मन के विकारों के कारण शरीर में रोग पैदा हो जाते हैं, चित्त की निर्विकल्पक साधना से जब चित्त निर्विकार बनता जाता है तो तनाव से उत्पन्न शारीरिक रोगों का निवारण भी सहज ही होता जाता है। 6. व्यक्तित्व-विकास- निर्विकल्पकता का अभ्यास व्यक्तित्व के विकास का महत्त्वपूर्ण घटक है। इससे व्यक्ति में स्वमूल्यांकन की दृष्टि प्राप्त होती है तथा निष्पक्ष दृष्टि से अपनी कमियों एवं सामर्थ्य को जानने का अवसर प्राप्त होता है। यही नहीं वह कमियों या दोषों को दूर करने के लिए तत्पर भी होता है तथा कुशल धर्मों की अभिवृद्धि हेतु सजग बनता है। व्यक्तित्व-विकास का यही मूलाधार है कि दोषों को दूर कर For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला सद्गुणों का आधान किया जाए और इसके लिए स्वमूल्यांकन की निर्मल दृष्टि आवश्यक है। स्वमूल्यांकन के साथ कुशल धर्म के ग्रहण एवं अकुशल धर्म के त्याग की दृष्टि का विकास भी आवश्यक है जो निर्विकल्पता के विकास के साथ सहज सम्भव है। उपसंहार मनुष्य के आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास में तटस्थ चिन्तन की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, जो निर्विकल्पकतापूर्वक तटस्थ दृष्टि के विकास से सम्भव है। निर्विकल्पक बोध का जितना विकास होता है, व्यक्ति की प्रज्ञा भी उतनी ही पुष्ट होती है एवं उसे आत्म-विश्वास का भी अनुभव होता है। साथ ही वह अपनी चैतसिक निर्मलता के साथ शारीरिक आरोग्य एवं कार्यक्षमता में अभिवृद्धि का भी अनुभव करता है। बौद्ध दार्शनिकों द्वारा प्रस्तुत निर्विकल्पकता का स्वरूप इस दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, जिसका क्रियात्मक स्वरूप विपश्यना ध्यान-साधना में अनुभव किया जा सकता है। द्रष्टाभाव का विकास जितना अधिक होगा उतना ही निर्विकल्पता का अनुभव गहरा होता जायेगा। अथवा निर्विकल्पता का अनुभव जितना सघन होता जायेगा उतना ही द्रष्टाभाव का विकास अधिक होता जाएगा। यह द्रष्टाभाव ही समता की साधना का आधार है। इससे समता या समत्व की साधना पुष्ट होती है जो राग, मोह एवं द्वेष पर विजय प्राप्त करने में सहायक है। इसी से वीतरागता एवं निर्वाण का मार्ग प्रशस्त होता है। - आचार्य एवं अध्यक्ष संस्कृत विभाग तथा निदेशक, बौद्ध अध्ययन केन्द्र जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर (राज.) For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समसामयिक परिप्रेक्ष्य में शून्यवाद की प्रासंगिकता डॉ. राजकुमारी जैन नागार्जुन द्वारा प्रतिपादित शून्यवाद का सिद्धान्त समसामयिक सन्दर्भ में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। आज का युग विज्ञान का युग है। एक वैज्ञानिक के अनुसार जगत् की प्रत्येक घटना की उत्पत्ति निश्चित कारण-कार्य नियमों के अनुसार होती है तथा प्रत्यक्षीकरण और प्रयोग की विधि से उन नियमों का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है | आज के बुद्धिजीवी वर्ग के अनुसार जगत् के स्वरूप की जानकारी प्राप्त करने का एक मात्र साधन यह वैज्ञानिक ज्ञान ही है तथा परिकल्पनात्मक दर्शन द्वारा यह ज्ञान प्राप्त किया जा सकना सम्भव नहीं है। विभिन्न दार्शनिकों द्वारा हजारों वर्षों से आत्मवाद, जड़वाद, ईश्वरवाद, निरीश्वरवाद आदि जो परस्पर विरोधी तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये हैं तथा ये स्वपक्ष की सिद्धि और परपक्ष के खण्डन हेतु जो तर्क-वितर्क करते रहे हैं, वह सब फालतू की बकवास है। बीसवीं शताब्दी के बुद्धिजीवियों का यह मत हमें गौतम बुद्ध की शिक्षाओं और उसके आधार पर प्रतिपादित किये गये शून्यवाद के सिद्धान्त में स्पष्ट रूप से उपलब्ध होता है। नागार्जुन के अनुसार प्रतीत्यसमुत्पाद ही शून्यता है प्रतीत्यसमुत्पाद के सिद्धान्त के अनुसार जगत की प्रत्येक वस्तु और घटना निश्चित कारण कार्य नियमों के अनुसार उत्पन्न होती है। इन नियमों के ज्ञान पूर्वक ही व्यक्ति अपने लौकिक और आध्यात्मिक - दोनों ही क्षेत्रों अभीष्ट लक्ष्यों को प्राप्त कर सकता है और अनिष्ट पदार्थों से बच सकता है। शून्यवाद का सिद्धान्त प्रतीत्यसमुत्पाद के नियम को स्थापित करने के साथ ही साथ सभी प्रकार की दार्शनिक दृष्टियों को मिथ्याज्ञान के रूप में प्रतिपादित करता है । इसके अनुसार सत्ता का वास्तविक स्वरूप सभी प्रकार की दार्शनिक दृष्टियों से परे तथा अनिवर्चनीय है। जब व्यक्ति इन सभी दृष्टियों का परित्याग करके पूर्णतया पूर्वमान्यता रहित होकर वस्तु स्थिति का साक्षात्कार करता है तभी वह यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर सकता है। - शून्यवाद और समसामयिक चिन्तन में उपर्युक्त सादृश्य होने पर भी एक बहुत महत्वपूर्ण अन्तर है और यह अन्तर समसामयिक समस्याओं की दृष्टि से बहुत उपयोगी For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 70 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला है। आज की संस्कृति उपभोक्तावादी और भोगपरक संस्कृति है तथा आज समाज में नैतिक मूल्यों के अभाव की स्थिति विद्यमान है। आज का मानव भौतिक समृद्धि की पराकाष्ठा को ही सुखी होने का एक मात्र साधन मानता है। वह उचित-अनुचित किसी भी तरीके से इस लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है तथा सदाचार पूर्ण जीवन का आदर्श उसकी दृष्टि से पूर्णतया ओझल है। नैतिक-मूल्यों से रहित और भोगपरक इस संस्कृति के कारण आज समाज में भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, खाद्य पदार्थों में मिलावट और उसके कारण रोगों में वृद्धि, कर्त्तव्यपालन के प्रति उदासीनता और उसके कारण दुर्घटनाओं में वृद्धि होती जा रही है, जो मानव-जीवन को निरन्तर अधिक असुरक्षित और कष्टमय बना रही है। शून्यवाद का सिद्धान्त इस मूल्यविहीन और भोगपरक दृष्टिकोण का विरोध करता है तथा सुखी होने के लिए सदाचार पूर्ण जीवन पर जोर देता है। प्रतीत्यसमुत्पाद के नियम के अनुसार हमारे दुःखों का मूलकारण है हमारा अनादिकालीन अज्ञान, विषयासक्ति तथा अनैतिक जीवन। इसके विपरीत सदाचार के नियमों का पालन ही सुख-प्राप्ति का एक मात्र उपाय है। सुखी जीवन की प्राप्ति से सम्बन्धित शून्यवाद के इस महत्त्वपूर्ण पक्ष पर विचार करने से पूर्व हम शून्यवाद के स्वरूप और प्रकारों पर विचार करेंगे। शून्यवाद का सिद्धान्त शाश्वत पदार्थो की सत्ता को अस्वीकार करता है तथा जगत में कारण-कार्य नियमों के अनुसार उत्पन्न नष्ट हो रही विशेष वस्तुओं की सत्ता को ही स्वीकार करता है। शून्यवाद शब्द का अर्थ है स्वभावशून्यता। वस्तु में प्राकृतिक रूप से विद्यमान विशेषताएं उसका स्वभाव कहलाती हैं। ये विशेषताएं पदार्थ में अन्य से निरपेक्ष रूप में विद्यमान होने के कारण उसका शाश्वत स्वरूप है। इन विशेषताओं की न तो किसी समय-विशेष में उत्पत्ति हुई है और न ही इनका विनाश सम्भव है। नागार्जुन अपने शून्यवाद के सिद्धान्त द्वारा इस स्वभाववाद और शाश्वतवाद का खण्डन करते हैं तथा जगत् में कारणकार्य नियमों के अनुसार उत्पन्न नष्ट हो रही विशेष वस्तुओं की सत्ता को ही स्वीकार करते हैं। नागार्जुन कहते हैं "प्रतीत्यसमुत्पाद ही शून्यता है।" 'प्रतीत्य' का अर्थ है इसके होने पर तथा 'समुत्पाद' का अर्थ है यह होता है। अर्थात् कारण का सद्भाव होने पर ही कार्य उत्पन्न होता है। यह प्रतीत्यसमुत्पाद का नियम लौकिक और आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में कार्यकारी है। इन दोनों ही क्षेत्रों से सम्बन्धित समस्याओं का समाधान प्रतीत्यसमुत्पाद के नियम को समझ कर ही किया जा सकता है। एक किसान अच्छी फसल को प्राप्त करने के उद्देश्य से खेती करने हेतु प्रवृत्त होता है। उसे अपने लक्ष्य में सफलता तभी मिल सकती है जब उसे यह ज्ञात हो कि अच्छी फसल की प्राप्ति के क्या उपाय हैं तथा फसल खराब होने के क्या कारण हैं? इस ज्ञान को अर्जित करके जब वह अच्छी फसल के साधनों को एकत्रित करता है अर्थात् वह अच्छे बीज लेता है, जमीन की भली प्रकार गुड़ाई करके उसमें बीज बोता For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समसामयिक परिप्रेक्ष्य में शून्यवाद की प्रासंगिकता * 71 है...तथा फसल खराब होने के कारणों जैसे खरपतवार को बाहर निकालता है, कीड़े आदि से फसल की रक्षा करता है तो वह अच्छी फसल को प्राप्त करता है। अच्छी फसल की उत्पत्ति स्वाभाविक रूप से नहीं होती, वरन् कारण सापेक्ष रूप से होती है तथा इसके लिये मानव द्वारा इस कारण सामग्री का ज्ञान अर्जित करके उसे प्राप्त करना आवश्यक है। जगत के प्रत्येक पदार्थ में जितनी भी विशेषताएं विद्यमान हैं, ये विशेषताएं उसमें अन्य से सापेक्ष रूप से ही अवस्थित हैं। एक व्यक्ति अपने पुत्र की अपेक्षा से ही पिता होता है तथा किसी व्यक्ति को उसके पिता की अपेक्षा से ही पुत्र कहा जाता है। पितृत्व, पुत्रत्व आदि विशेषण किसी व्यक्ति के स्वाभाविक या अन्य निरपेक्ष विशेषण नहीं हैं बल्कि ये अन्य सापेक्ष विशेषण हैं। पिता-पुत्र सम्बन्ध के समान ही जगत् के प्रत्येक व्यक्ति और वस्तु को जितने भी विशेषण दिये जाते हैं वे सभी विशेषण उनमें अन्य पदार्थों की अपेक्षा से विद्यमान विशेषण ही हैं। एक सामान्य व्यक्ति अपने इन विशेषणों, जैसे - धनवान, युवा, अधिकारी, आदि को अपना स्वभाव मानकर अपना स्थायी स्वरूप मान लेता है तथा इसके कारण अहंकार, स्वार्थ, राग, द्वेष, दुष्प्रवृत्तियों से ग्रस्त हो जाता है। उसकी ये दुष्प्रवृत्तियां उसकी मानसिक शान्ति को भंग करके उसके जीवन को कष्टमय बना देती हैं। व्यक्ति इन कष्टों से तभी मुक्ति पा सकता है जब वह स्वयं के और अन्यों के समस्त विशेषणों के परसापेक्ष स्वरूप को समझे, यह समझे कि ये सभी विशेषताएं अन्य वस्तुओं के संयोग से उत्पन्न विशेषताएं हैं और इसलिये ये स्थायी न होकर नाशवान हैं। नागार्जुन जगत के विभिन्न पदार्थो की स्वभाव शून्यता और अन्य सापेक्ष स्वरूप को प्रपंच शून्य के रूप में प्रतिपादित करते हैं। साथ ही वे स्वयं के और जगत् के प्रति सभी प्रकार की दार्शनिक दृष्टियों की व्यर्थता तथा उससे ऊपर उठने के आदर्श को परमार्थ शून्य के रूप में प्रतिपादित करते हैं। माध्यमिककारिका में वे सभी प्रकार के परस्पर विरोधी दार्शनिक सिद्धान्तों की अपूर्णता तथा इन सिद्धान्तों में सत्ता के स्वरूप की व्याख्या करने की सामर्थ्य के अभाव का प्रतिपादन करते हैं। वे सत्कार्यवाद की कमियों को प्रदर्शित करते हैं और असत्कार्यवाद के दोष भी दिखाते हैं। ये दोनों सिद्धान्त परस्पर विरोधी होने के कारण एक साथ स्वीकार नहीं किये जा सकते और दोनों ही नहीं हैं, यह भी नहीं कहा जा सकता। लंकावतार सूत्र में वे कहते हैं कि सत्ता के प्रति सत्, असत्, सत् और असत् दोनों तथा न सत् न असत् इन चारों ही कोटियों का प्रयोग नहीं किया जा सकता। सत्ता का स्वरूप चतुष्कोटि विनिर्मुक्त और अनिर्वचनीय है। इसका यथार्थ ज्ञान मात्र निर्विकल्पक प्रत्यक्ष द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। नागार्जुन के द्वारा समस्त तत्वमीमांसीय सिद्धान्तों की व्यर्थता का प्रतिपादन उनकी अनुभववादी दृष्टि का परिचायक है। व्यक्ति का तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्त उसकी पूर्वमान्यता है, बन्धन For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला है। व्यक्ति को स्वयं के और जगत् के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान स्वयं के प्रत्यक्ष से ही हो सकता है। जब व्यक्ति किसी तत्त्वमीमांसीय दृष्टि के प्रति समर्पित होता है तो वह अपनी दृष्टि को अपने अनुभव पर आरोपित कर देता है तथा प्रत्यक्ष द्वारा ग्राह्य विषय को यथावत् न समझ कर अपनी पूर्वमान्यताओं के अनुसार उसकी व्याख्या करता है। इसलिये समस्त तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्तों पर आधारित व्याख्याओं से युक्त ज्ञान मिथ्याज्ञान है। अतः सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति इन तत्त्वमीमांसीय दृष्टियों से मुक्त होने एवं प्रत्यक्ष द्वारा वस्तु को यथावत् जानने से ही हो सकती है। शून्यवाद की समसामयिक बुद्धिजीवियों के दृष्टिकोण से उपर्युक्त समानता होने पर भी इन दोनों में एक मूलभूत अन्तर है, वह है सदाचार के नियमों का पालन। आज़ का बुद्धिजीवी प्रकृति के ज्ञान को अर्जित करने में लगा हुआ है। वह विभिन्न घटनाओं के पीछे कार्य कर रहे कारणात्मक नियमों को जानकर प्रकृति पर नियन्त्रण स्थापित करने का प्रयास कर रहा है, विभिन्न भौतिक सुखों की प्राप्ति के साधनों का आविष्कार करने में लगा हुआ है। उसके इन प्रयत्नों से भौतिक सुखों के साधनों में वृद्धि होती जा रही है। भौतिक समृद्धि में निरन्तर हो रही वृद्धि के बावजूद भी आज का मानव बहुत अशान्त, तनावग्रस्त और दुःखी है। उसकी इस स्थिति का मूल कारण है आज के युग में नैतिक मूल्यों का पूर्णतः अभाव। इस मूल्यविहीनता की स्थिति से उत्पन्न समस्याओं की दृष्टि से नागार्जुन का शून्यवाद का सिद्धान्त बहुत महत्त्वपूर्ण है। नागार्जुन गौतम बुद्ध के चार आर्यसत्यों को स्वीकार करते हैं। प्रतीत्यसमुत्पाद के नियम के अनुसार दुःख का मूल कारण व्यक्ति का अनादिकालीन अज्ञान और उसके कारण व्यक्ति में विद्यमान राग, द्वेष, क्रोध, लोभ आदि विकार हैं। दुःखों के इस कारण को समाप्त कर व्यक्ति सुखी तभी हो सकता है जब वह अपने अनादिकालीन अज्ञान को समाप्त करे। यह कार्य शील (सदाचार के नियम), समाधि और प्रज्ञा के अवलम्बन पूर्वक ही हो सकता है। इस प्रकार आज के मूल्यविहीन समाज को मूल्यबोध के प्रति जागरूक होने तथा व्यक्तिगत सुख और सामाजिक शान्ति और व्यवस्था को स्थापित करने की दृष्टि से नागार्जुन का शून्यवाद अत्यन्त प्रासंगिक है। प्राध्यापक, दर्शनशास्त्र विभाग राजकीय महाविद्यालय, अजमेर (राजस्थान) For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध धर्म-दर्शन एवं सामाजिक न्याय डॉ. औतारलाल मीणा भगवान बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्ति से लेकर महापरिनिर्वाण पर्यंत जो कुछ उपदेश दिये. थे सब मौखिक ही थे तथा उनके महापरिनिर्वाण के पश्चात् समयांतर पर हुई तीन संगीतियों के बाद प्रथम सदी ईसा पूर्व या उसके पश्चात् बौद्ध ग्रंथों का लेखन हुआ जो आज हमारे समक्ष तिपिटक के रूप में उपलब्ध हैं। इसी त्रिपिटक के आधार पर प्रस्तुत शोध आलेख का विश्लेषण किया जा रहा है, जिससे स्पष्ट होगा कि भगवान बुद्ध ने अपने जीवन काल में लोगों को सामाजिक न्याय दिलाने के लिए क्या किया। भगवान बुद्ध ने अपने उपदेश या दर्शन का प्रमुख आधार तत्त्वों को बनाया, जो निम्नलिखित हैं - 1. उन्होंने दर्शन की जटिलताओं में न जाकर एक सर्वबोधगम्य आचार-संहिता के पालन का उपदेश दिया। 2. तत्कालीन सामाजिक तथा धार्मिक रीति-रिवाजों का प्रत्यक्ष विरोध न करके एक सुधारक के रूप में तयुगीन कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया। बौद्ध जीवन-पद्धति में सामाजिक न्याय का सिद्धान्त शुद्धतः मानववादी एवं लौकिक है। यह वैदिक अथवा प्लेटोनिक धारणा से बिल्कुल भिन्न है। बौद्ध दृष्टिकोण सामाजिक न्याय को सदाचरण के साथ जोड़ता है। व्यक्तियों के निर्मल मन और सदाचरण समाज की शान्तिप्रिय एवं न्याय संगत व्यवस्था स्थापित करने में समर्थ होंगे, ऐसी भगवान बुद्ध को आशा थी। ___'सामाजिक न्याय' के संबंध में तीन प्रमुख आधार स्तंभ हैं - (1) स्वतंत्रता (2) समानता (3) बंधुता। भगवान बुद्ध के उपदेशों में इनका अनेक बार उल्लेख हुआ है। भगवान बुद्ध ने भिक्खुओं को धर्म-प्रचारार्थ विदा करने से पूर्व कहा था - 'बहुत जनों के हित के लिए, बहुत जनों के सुख के लिए लोक पर दया करने के लिए देवताओं और मनुष्यों के प्रयोजन के लिए, हित के लिए, सुख के लिए विचरण करो।' 1. विनयपिटक, राहुल सांकृत्यायन, पृ. 87 For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 74 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला सामाजिक न्याय के आधार स्तम्भों में सर्वप्रथम स्वतंत्रता का विश्लेषण आवश्यक है, क्योंकि पराधीन रहकर व्यक्ति न तो स्वयं के लिए इच्छानुकूल कार्य कर सकता है और न समाज के लिए ही। कहा भी गया है - 'पराधीन सपनेहु सुख नाही' अर्थात पराधीन रहने पर व्यक्ति स्वप्न में भी सुख का अनुभव नहीं कर सकता है। किसी भी समाज की स्वतंत्रता की आवश्यक शर्त होती है - लोकतंत्र। लोकतांत्रिक प्रणाली में ही व्यक्ति अपने अधिकारों का सम्यक् पालन कर समाज एवं देश के विकासोन्मुख कार्य कर सकता है तथा इस प्रणाली के द्वारा समाज तथा देश की रक्षा की जा सकती है। भगवान बुद्ध भी गणतान्त्रिक प्रणाली के पक्षधर थे तथा बौद्ध संघ का संगठन गणतांत्रिक प्रणाली पर आधारित था। तत्कालीन जितने भी संघ थे, यथा - वज्जि संघ आदि, सभी गणतंत्र के पोषक थे। भगवान बुद्ध का जन्म भी गणतंत्र में ही हुआ था, शायद इसीलिए उन्होंने भिक्खुओं के समूह का नाम 'संघ' रखा था। भगवान बुद्ध का गणतांत्रिक प्रणाली में विश्वास था, इसकी प्रामाणिकता राजगृह में भगवान बुद्ध और मगध सम्राट अजातशत्रु के मंत्री वर्षकार के मध्य हुए वार्तालाप से प्राप्त होती है, जिसका वर्णन दीघनिकाय के महापरिनिब्बान सुत्त में मिलता है।' गणतांत्रिक प्रणाली के प्रति भगवान बुद्ध के मन में गहरी आस्था थी, इस बात का प्रमाण बौद्ध संघ की कार्य-प्रणाली से स्पष्ट मिलता है। संघ के कार्य के संपादन के लिए भगवान बुद्ध ने निश्चित विधान का निर्माण किया था जो गणतांत्रिक आधार पर निर्मित था। स्वतंत्रता के संबंध में यह भी देखा जा सकता है कि भगवान बुद्ध ने कभी किसी को बलपूर्वक संघ में शामिल नहीं किया। पालि पिटक साहित्य में ऐसे अनेक उदाहरण भरे मिलते हैं, जिनमें हम देखते हैं कि तत्कालीन कई ब्राह्मण एवं अन्य गणाचार्य भगवान बुद्ध के समक्ष अपने मत को रखते हैं तथा तर्क द्वारा उसे प्रमाणित करने की कोशिश करते हैं, परंतु जब वे भगवान बुद्ध के तर्को से संतुष्ट हो जाते हैं तो त्रिशरण की शपथ लेते हैं। बौद्ध धर्म में उपस्थित स्वतंत्रता की महत्ता के विश्लेषण के पश्चात् 'समता' का वर्णन आवश्यक है। भगवान बुद्ध ने माना है कि चित्त की शुद्धि सबसे आवश्यक है। इसके होने से ही एक मानव दूसरे को मानव समझ सकेगा और जिस दिन ऐसा होगा, सामाजिक न्याय स्वतः सभी को मिल जाएगा। इस प्रकार तथागत ने मानव-मानव के बीच के भेदभाव को समाप्त करने पर बल दिया है, जिसके तत्कालीन समाज में अनेक उदाहरण थे। वर्णभेद का इतिहास भारतीय संदर्भ में अत्यन्त प्राचीन है। ऋग्वैदिक काल के प्रारम्भ में तो यह ज्यादा रूढ़ नहीं था, परन्तु कालांतर में जाति-भेद सम्बन्धी मनुष्य की 2. दीघनिकाय, पृ. 23 For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध धर्म-दर्शन एवं सामाजिक न्याय * 75 धारणाएँ रूढ होती गई और पेशे वंशानुगत होते गए। ब्राह्मण युग आते-आते मनुष्य के सामाजिक जीवन में जातिभेद संबंधी धारणाओं की जड़ें इतनी गइराई तक प्रविष्ट हो गई कि देवगण भी चतुर्वर्ण में विभाजित माने जाने लगे। बुद्ध युग आते-आते जाति-भेद अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया। जाति के अनुसार ऊँच-नीच की भावना अति प्रबल हो गई। ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों ही अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए प्रयत्नशील थे। इन दोनों वर्गों में श्रेष्ठतर कहलाने की होड़ सी थी। मधुर अवन्तिपुत्र को हम यह कहते हुए पाते हैं कि ब्राह्मण ही श्रेष्ठ वर्ण है, शुक्ल वर्ण है, पवित्र है, ब्रह्म के मुख से उसकी उत्पत्ति हुई है, वही ब्रह्म का प्रतिनिधि है। दूसरी ओर क्षत्रिय अपने को श्रेष्ठ बतलाते थे। ब्राह्मणों में भी उदीच्य ब्राह्मण अपने को अन्य ब्राह्मण जातियों से उच्च समझने लगे थे और कतिपय क्षत्रिय जातियाँ अपने को अन्यों की अपेक्षा श्रेष्ठ मानने लगी थीं, यथा शाक्यवंशी, जिन्होंने कौशल-नरेश प्रसेनजित के साथ एक शाक्य राजकुमारी का विवाह अपनी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल माना था। इस तरह यह तो स्पष्ट है कि भगवान बुद्ध के समय में समाज में वर्ण-व्यवस्था अपनी जड़ें गहरी जमाए हुई थी। भगवान बुद्ध ने भी चारों वर्गों की उपस्थिति समाज में स्वीकार की है। बुद्ध के अनुसार चार वर्णों के सम्बन्ध में विचार भगवान बुद्ध ने चारों वर्णों - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की उत्पत्ति के संबंध में वेदों एवं ब्राह्मण ग्रंथों में प्रतिपादित सिद्धान्तों का खण्डन किया है। परंतु तत्कालीन ब्राह्मण एवं क्षत्रिय के मध्य श्रेष्ठतर कहलाने की होड़ में भगवान ने क्षत्रिय को ही श्रेष्ठ बताया है। भगवान बुद्ध के द्वारा इस तरह का वक्तव्य अम्बष्ठ नामक ब्राह्मण द्वारा शिकायत करने के पश्चात् दिया गया था। ब्राह्मण अम्बष्ठ ने भगवान बुद्ध से शिकायत की थी कि शाक्यों ने उन्हें अपने संस्थागार में बैठने के लिए आसन देने की बात तो दूर रही, सीधे मुंह बात भी नहीं की थी। भगवान बुद्ध ने सर्वप्रथम अम्बष्ठ ब्राह्मण के समक्ष वर्ण-व्यवस्था का खण्डन किया था, जिसका वर्णन सुत्तपिटक के दीघनिकाय के तृतीय सुत्त अम्बट्ठसुत्त में दिया गया है।' भगवान ने समाज में फैली वर्ण-व्यवस्था, जाति-व्यवस्था पर कठोर प्रहार किया। इसी प्रकार का वर्ण-व्यवस्था का खण्डन दीघनिकाय के अग्गज सुत्त में प्राप्त होता है। इस सुत्त में तथागत ने ब्राह्मण के इस दावे को, यथा-ब्राह्मण ही श्रेष्ठ वर्ण हैं, दूसरे वर्णहीन हैं, ब्राह्मण ही शुक्ल वर्ण हैं दूसरे वर्ण कृष्ण हैं, ब्राह्मण ही शुद्ध होते हैं, अब्राह्मण नहीं, ब्राह्मण ही ब्रह्म के मुख से उत्पन्न हुए ब्रह्मजात, ब्रह्मनिर्मित और 3. मज्झिम निकाय भाग - 2 , पृ. 84 4. दीघनिकाय, 1.3 For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला ब्रह्मदायाद हैं, का कई उदाहरणों द्वारा खण्डन किया है। वे कहते हैं कि मानवीय गुण और अवगुण सभी वर्गों में पाए जाते हैं, फिर ब्राह्मण कैसे कहते हैं कि वे ही श्रेष्ठ वर्ण हैं। उदाहरण के माध्यम से स्पष्ट करते हुए तथागत कहते हैं कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, चारों वर्गों की स्त्रियाँ ऋतुमती, गर्भवती होने के साथ योनि से प्रसव करती हैं, बच्चों को दूध पिलाती देखी जाती हैं, फिर ब्राह्मणों का यह कहना तो बिल्कुल ही गलत है कि वे ब्रह्म के मुख से उत्पन्न हैं। इस प्रकार तथागत ने स्पष्ट किया कि संसार के सभी मनुष्यों के जन्म का आधार एक (योनि) ही है। अतः जन्मीय आधार पर कुछ मनुष्यों द्वारा अपने को श्रेष्ठ बताना मिथ्या भाषण करना है। पुनः तथागत कहते हैं कि चारों वर्गों के कितने ही लोग जीव हिंसा, चोरी, मिथ्याचार, झूठ, मिथ्या दृष्टि, आदि अकुशल, सदोष, असेवनीय, अनार्य, कृष्ण, कृष्णविपाक कर्म करते हैं तथा इसके विपरीत चारों वर्गों के कितने ही लोग उपर्युक्त के विपरीत यथा कुशल, सेवनीय आदि कर्म करते हैं। इस तरह चारों वर्गों के लोग विद्वान पुरुषों द्वारा निन्दित तथा प्रशंसित कार्य करते हैं। ऐसी स्थिति में ब्राह्मणों द्वारा अपने को श्रेष्ठ बताना उनका मिथ्या भाषण है। उपर्युक्त खण्डन के पश्चात् तथागत ने अपना मत रखते हुए कहा कि चार वर्णो में जो भिक्खु अर्हत्, क्षीणाम्रव, ब्रह्मचारी, कृतकृत्य, भारमुक्त, परमार्थ प्राप्त, भव-बंधन मुक्त, ज्ञानी और विमुक्त होता है, वह सभी से बढ़ जाता है, धर्म से ही, अधर्म से नहीं। अतः मनुष्य में धर्म ही श्रेष्ठ है, इस जन्म में भी तथा परजन्म में भी। चारों वर्ण के मानव काया, वचन और मन से संयत हो सैंतीस बोधिपाक्षिक धर्मो की भावना करके इसी लोक में निर्वाण प्राप्त करते हैं। इस प्रकार तथागत ने कर्म को प्रधान माना, जन्म को नहीं, क्योंकि जन्म के अनुसार तो सभी समान होते ही हैं, कर्म के द्वारा एक दूसरे से अधिक श्रेष्ठ हो सकता है। अतः तथागत ने जन्मीय आधार पर सबको समान बताया जो सामाजिक न्याय के प्रमुख स्तम्भ 'समता' में आस्था के अनुकूल है। ___ महाभारत में यह स्पष्ट कहा गया है कि इतनी संकरता पैदा हो गई कि जाति का नियम ही व्यर्थ हो गया। हमें मुख्य स्थान शील को देना चाहिए। तथागत ने शील को महत्त्व प्रदान कर वर्ण को व्यर्थ सिद्ध किया। शील को महत्त्व संयुक्त निकाय की उन गाथाओं से स्पष्ट होता है जिनके आधार पर आचार्य बुद्धघोष ने विसुद्धिमग्ग नामक ग्रंथ का लेखन किया। पहली गाथा प्रश्न के रूप में है तथा दूसरी गाथा इसका उत्तर है। विसुद्धिमग्ग के प्रारंभ में ही 'संयुक्त निकाय' के उद्धरण स्वरूप कहा गया है कि एक बार जब भगवान श्रावस्ती में विहर रहे थे तो किसी देवपुत्र ने उनके पास आकर गाथा 5. दीघनिकाय,3.4 6. दीघनिकाय,3.4 7. दीघनिकाय,3.4 8. महाभारत, वन पर्व,पृ. 182 For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध धर्म-दर्शन एवं सामाजिक न्याय 77 के रूप में प्रश्न पूछा, जिसका अर्थ है - " अन्दर भी उलझन हैं बाहर भी उलझन है। यह जनता उलझन में जकड़ी हुई है । अत: हे गौतम! मैं आपसे पूछता हूँ कि कौन इस उलझन को सुलझा सकता है ?" भगवान ने दूसरी गाथा के द्वारा इसका उत्तर दिया, . जिसका अर्थ है - "शील में प्रतिष्ठित होकर प्रज्ञावान मनुष्य जब समाधि और प्रज्ञा की भावना करता है तो इस प्रकार उद्योगी और ज्ञानवान भिक्खु उलझन को सुलझा देता है । " बड़े-बड़े ऋषि जो वर्ण- संकर और मिश्रित जाति के थे, शील के कारण उनकी पूजा ब्राह्मण भी करते थे, यथा वशिष्ठ की माता वेश्या थी, व्यास का जन्म धीवर लड़की के गर्भ से हुआ था और पाराशर चाण्डाल कन्या की संतान थे, फिर भी वे शील के कारण पूज्य थे 1 शील के महत्त्व को बतलाते हुए तथागत ने कहा है कि शीलवान पुरुष सभी दिशाओं को सुवासित करता है जबकि फूल, चन्दन, तगर आदि की गंध वायु के विरुद्ध नहीं जाती है। चन्दन, तगर आदि की जो गंध है वह अल्प है, परन्तु जो सदाचारी मनुष्यों की गंध है, वह उत्तम गंध देवताओं में फैलती है । ' बौद्ध धर्म में उल्लिखित चार वर्णों का आधार शील ही था । ब्राह्मण के संबंध में तथागत की धारणा स्पष्ट है। वे कहते हैं कि केवल ब्राह्मण माता की योनि से उत्पन्न हुए मनुष्य को मैं ब्राह्मण नहीं कहता तथा जो भोगवादी (ब्राह्मण) तथा संग्रह करने वाला हो, उसे भी मैं ब्राह्मण नहीं मानता।" तथागत के अनुसार ब्राह्मण होने के लिए अनेक गुण हैं, जिनका वर्णन धम्मपद के 'ब्राह्मण वग्गो' में करते हुए कहा गया है कि जो तृष्णा रहित, कामना रहित, दोनों धर्मों में पारंगत, निर्भय, अनासक्त, ध्यानी, रजोगुण रहित, चित्तमल रहितं, कृतकृत्य, स्थिर आसन तेजस्वी, पाप का त्याग करने वाला, समता का आचरण करने वाला, प्रिय वस्तु से मन को दूर करने वाला, अहिंसक संयत (काय, वाणी एवं मन से), फटे-पुराने वस्त्र धारण करने वाला, कृश, क्रोध रहित, क्षमावान, प्रज्ञावान, मेधावी, मार्ग-अमार्ग का ज्ञाता, रागरहित, द्वेषरहित, मोहरहित, अचौर्ययुक्त, लोक-परलोक से आशा नहीं करने वाला, शोकरहित आदि अनेक विध गुणों से सम्पन्न हो, उसे ब्राह्मण कहा जाता है। जटाओं से, गोत्र और जन्म से मनुष्य ब्राह्मण नहीं होता है ।" 11 बुद्ध युग में ब्राह्मणोचित गुणों से युक्त हो विचरण करने वाला ब्राह्मण दिखाई नहीं देता था।'± इन्हीं कारणों से बुद्ध ने ब्राह्मणों को दीन कहा है । ब्राह्मणों में ब्राह्मणोचित - गुणों के लोप हो जाने पर भी वे ब्राह्मण ही कहलाना चाहते थे, जिसके कारण जन्म के 9. धम्मपद गांथा संख्या 54, 56 10. धम्मपद गाथ संख्या 396 11. धम्मपद "ब्राह्मण वग्ग” 12. सुत्तनिपात, ब्राह्मणधम्मिक सुत्त 2.7 For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला आधार पर जाति-व्यवस्था का उदय हुआ। भगवान ने समाज में व्याप्त इन बुराइयों को महसूस किया। उन्होंने देखा कि जन्म को वर्ण का आधार मानने के कारण सद्गुणों का लोप हो रहा है। जो जन्म से ब्राह्मण हो चुका है, वह कर्म से ब्राह्मण बनने का प्रयास नहीं कर रहा है। अतः धर्मों की रक्षा के लिए इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया कि जन्म से न कोई ब्राह्मण और न ही शूद्र, बल्कि कर्म से ही ब्राह्मण और कर्म से ही शूद्र बन सकता है। 13 भगवान बुद्ध का यह सिद्धांत सामाजिक न्याय को प्रत्यक्ष से प्रोत्साहन देता है। जाति-व्यवस्था का खण्डन कर चारों वर्णों को समान बताते हुए श्रावस्ती के अनाथपिण्डिक जेतवन में फासकारी ब्राह्मण को उपदेशित करते हुए भगवान ने कहा कि मैं न तो उच्च कुलीनता को अच्छा कहता हूँ और न बुरा, न मैं उच्च वर्ण को अच्छा कहता हूँ और न बुरा, न मैं बहुत धन-धान्य सम्पन्न को अच्छा कहता हूँ और न बुरा । ऊँचे कुल, वर्ण सम्पत्ति वाला व्यक्ति भी हिंसक, चोर, काम- मिथ्याचारी, झूठा, चुगलखोर, बकवादी, लोभी, द्वेषी, झूठी धारणा वाला आदि होता है। 14 तथागत ने एक स्थान पर स्वयं अपने बारे में बताया, जिसका वर्णन सुत्तनिपात के सुन्दरिक भारद्वाज सुत्त में है। जब भगवान कोसल जनपद में सुन्दरी नदी (सई नदी का प्राचीन नाम) के किनारे परिभ्रमण कर रहे थे, उसी समय सुन्दरिक भारद्वाज नामक ब्राह्मण ने भगवान बुद्ध के पास जाकर पूछा - "आप किस जाति के है ?" 15 भगवान नें उत्तर देते हुए कहा था कि मैं न तो ब्राह्मण हूँ, न राजपुत्र हूँ, न वैश्य हूँ और न कोई और ही हूँ | पृथक् जनों के गोत्र को भली प्रकार जानकर मैं विचारपूर्वक अकिंचन भाव से लोक में विचरण करता हूँ । चीवर पहन, बेघर हो, सिर मुंडाकर, पूर्ण रूप से शांत हो, यहाँ लोगों से अनासक्त हो विचरण करता हूँ। हे ब्राह्मण ! तू मुझसे गोत्र का प्रश्न अनुचित पूछ रहा है । " इसी क्रम में भगवान ने सुन्दरिक भारद्वाज को जाति गोत्र से हटकर जीवन व्यतीत करने तथा अहिंसामय यज्ञ करने का उपदेश दिया, जिसके पश्चात् सुन्दरिक भारद्वाज ने कहा - "आप जैसे ज्ञान पारंगत को पाकर मेरा यज्ञ पूर्ण हो। आप साक्षात् ब्रह्म हैं, भगवन्! मेरा भोजन स्वीकार करें।" इसके उत्तर में भगवान ने तत्कालीन ब्राह्मणों के रीति-रिवाजों का खण्डन करते हुए स्पष्ट कहा - धर्मोपदेश करने से प्राप्त भोजन मेरे लिए अभोज्य है । बुद्ध धर्मोपदेश से प्राप्त भोजन को त्याग देते हैं । " 13. सुत्तनिपात, वसल सुत्त 1.4 14. मज्झिमनिकाय 15. सुत्तनिपात, वासेट्ठ सुत्त 3.9 16. सुत्तनिपात, वासेट्ठ सुत्त 3.4 17. सुत्तनिपात, वासेट्ठ सुत्त 3.4 For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध धर्म-दर्शन एवं सामाजिक न्याय * 79 . तथागत ने मथुरा के राजा अवन्तिपुत्र को उपदेशित करते हुए कहा, चारों वर्ण चोरी, हिंसादि कुकर्म भी कर सकते हैं और साथ ही नरक भी भोग सकते हैं। इस तरह चारों वर्ण समान हो जाते हैं। और यदि शूद्र भी कल्याणधर्मा हो, शील ग्रहण करे तो उसकी शूद्र संज्ञा समाप्त हो जाती है तथा उसकी संज्ञा श्रमण हो जाती है। उन्होंने चारों वों को इस दृष्टि से समान कहा है, क्योंकि कोई भी वर्ण उत्तम गुणों को धारण कर ऊपर उठ जाता है और निम्न गुणों को धारण करने पर अपने वर्ण से पतित होकर नीचे गिर जाता है। शूद्र ब्राह्मण बन सकता है तथा ब्राह्मण शूद्र बन सकता है। बुद्ध ने सभी को स्वावलम्बी बनने का उपदेश दिया।18 तथागत ने कहा है कि कोई भी धर्म मानव का सद्धर्म तभी हो सकता है जब वह बुरी आदतों के त्याग की शिक्षा दे। पांच बुरी बातें यथा-प्राणी हिंसा, चोरी, व्यभिचार, झूठ और मद्य सेवन का व्यक्ति को त्याग कर देना चाहिए। तत्कालीन समाज में शूद्रों तथा अस्पृश्य वर्गों को बहुत ही हेय दृष्टि से देखा जाता था। परन्तु भगवान ने शूद्र के निम्न-स्तर को ऊपर उठाने का प्रयास किया। इसके प्रमाणस्वरूप विनयपिटक के संघभेदक-स्कंधक में उपालि द्वारा प्रव्रज्या ग्रहण का उदाहरण है। तथागत के अनुपिया (मल्लों को निगम) में विहरते समय शाक्य गणराज्य के सात लोग (भद्दिय, अनुरुद्ध, आनन्द, भृगु, किम्बिल, देवदत्त, उपालि) प्रव्रज्या के लिए पहुँचे। तथागत द्वारा पहले शाक्यों के अनुरोध पर उपालि (शाक्यों के नापित) को प्रव्रज्या दी गई ताकि उनके मित्र, जो पहले उससे सेवा करवाते रहे हैं, उपालि का (वरिष्ठता के कारण) अभिवादन, प्रत्युपस्थापन (सम्मानार्थ खड़ा होना), हाथ जोड़ना आदि करते रहें, जिससे उनके उच्च कुल के होने का अभिमान मर्दित हो।' उपालि ने संघ में प्रवेश कर शीघ्र ही धर्म-विनय को सीख लिया तथा कालांतर में विनयघरों की श्रेणी में प्रथम स्थान पाया तथा प्रथम संगीति के समय विनय का संगायन मुख्य रूप से 'उपालि' द्वारा ही किया गया था। तत्कालीन संघ के अनेक नियम तथागत ने उपालि के अनुरोध पर बनाए थे, यथा - चोरी-छिपे वस्त्र पहनने वालों को उपसम्पदा नहीं देना आदि। संदेहयुक्त भिक्खु की जांच उपालि द्वारा ही होती थी। - दूसरा उदाहरण सुणीत नामक भंगी को दी गई धर्मदीक्षा से प्राप्त होता है। सुणीत राजगृह का निवासी था तथा परम्परागत नीच पेशा (सड़कों पर फेंके गए कूड़े-कचरे को साफ करना) के द्वारा जीविकोपार्जन करता था।20 राजगृह में ही सुणीत को इस तरह कार्य करते देख कर तथागत ने उसे संघ में प्रव्रजित किया तथा कहा कि जिस प्रकार रास्ते पड़े किसी कूड़े-कचरे के ढेर पर एक सुंगधित कमल उग सकता है, उसी 18. दीघनिकाय 3.11 19. विनय पिटक, राहुल सांकृत्यायन, पृ. 477 20. थेरगाथा, सुणीत थेरो, 12वां निपात For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला प्रकार इस अंधेरी रात में, इस कूड़ा कचरा भरे संसार में बुद्ध शिष्य भी प्रकाशित हो सकता है। तीसरा उदाहरण सोपाक तथा सुप्पिय अछूतों को दी गई धर्म-दीक्षा है। श्मशान रक्षक के पुत्र सुप्पिय तथा पाले गए पुत्र सोपाक को तथागत ने संघ में प्रवज्या दी तथा धर्म और विनय की शिक्षा दी। इसी प्रकार सुमंगल (किसान), छन्न (कुम्हार) आदि को उनकी नीच जाति का खयाल किए बिना संघ में प्रविष्ट कर लिया। साथ ही सुप्रबद्ध नामक कुष्ठ रोगी को भी धर्म दीक्षा दी। इसी प्रकार. तथागत ने अंगुलिमाल नामक डाकू, राजगृह के एक आवारा व्यक्ति तथा सैंकड़ों अपराधी किस्म के व्यक्तियों को भी संघ में दीक्षित किया। तत्कालीन समाज की एक अमानवीय प्रथा - दासप्रथा का उल्लेख पालि पिटक साहित्य में मिलता है, जिससे स्पष्ट होता है कि उच्च वर्गीय लोग बड़ी संख्या में दास रखना पसंद करते थे तथा उनके साथ खामियों द्वारा अति क्रूर व्यवहार किया जाता था। भगवान बुद्ध ने दीघ निकाय के ब्रह्मजाल सुत्त तथा सामञफलसुत्त में शील का विश्लेषण करते हुए कहा था कि वे स्त्री और कुमारी, दास और दासी ग्रहण करने से विरत रहते हैं। इससे स्पष्ट है कि तथागत इस प्रथा के खिलाफ थे। बौद्ध ग्रंथों में दासता से मुक्त होने के कतिपय उपायों का उल्लेख मिलता है, जिनमें पहला उपाय संन्यास ग्रहण करना है। नारी के प्रति तथागत के विचार समाज की आधी जनसंख्या अर्थात् नारी को भगवान बुद्ध ने किस प्रकार सामाजिक न्याय दिलाने का प्रयास किया, इसका विश्लेषण भी आवश्यक है। नारी को पुरुष के समान अधिकार देने के विषय में समस्त विश्व के संन्यासी विरुद्ध रहे हैं। जिन धार्मिक संस्थाओं में वैराग्य की प्रमुखता है, वहाँ स्त्रियों की उपस्थिति से पुरुष की आध्यात्मिक साधना में व्यवधान होने की संभावना की उपेक्षा नहीं की जाती है। नारी जाति की प्रव्रज्या के अधिकार से वंचित रहने का एक प्रमुख कारण यह प्रतीत होता है कि पुरुष अपनी दुर्बलताओं का आरोप स्त्री के दुश्चरित्र पर करता रहा है। अतः संन्यासी को नारी से दूर रहकर लक्ष्यसिद्धि में सफलता दिखती है। विनयपिटक के उल्लेख के आधार पर लोगों द्वारा कहा जाता है कि भगवान बुद्ध नारी जाति को भिक्ख धर्म की दीक्षा देने के विरुद्ध थे, किन्तु यह पूर्णतः सत्य नहीं है। भगवान ने स्त्रियों के प्रवेश की अनुमति आनन्द की याचना पर दे दी, लेकिन 21. भगवान बुद्ध और उनका धर्म, अनुवादक-आनन्द कौसल्यायन, पृ. 159-163 22. दीघ निकाय 1.1,1.2 For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध धर्म-दर्शन एवं सामाजिक न्याय * 81 भिक्खुणियों के नियम में बढ़ोतरी कर दी तथा भिक्खुणियों को भिक्खुओं के लगभग समान अधिकार दिया। इन भिक्खुणियों के अतिरिक्त गृहस्थ धर्म पालन करने वाली नारियों के संबंध में पालि पिटक साहित्य में कुछ उदाहरण मिलते हैं, जिससे स्पष्ट होता है कि बौद्ध धर्म नारियों को न्याय दिलाने का पक्षधर था। तथागत ने बताया है कि एक पुरुष (पति) को स्त्री (पत्नी) के साथ किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए। सिगालोवाद सुत्त ने इसका विश्लेषण इस प्रकार किया कि एक पति को पत्नी का सत्कार (सम्मान) करना चाहिए, उसके प्रति आदर का भाव रखना चाहिए अर्थात् कभी भी अपमान नहीं करना चाहिए, पत्नीव्रत अर्थात् अतिचार (पर-स्त्री गमन आदि) नहीं करना चाहिए उसे अधिकार अर्थात् ऐश्वर्य प्रदान करना चाहिए तथा उसे अलंकार प्रदान करना चाहिए। स्त्री ऐसे पुरुष को प्यार करती है तथा उसके सभी कार्य अच्छी तरह करती है वह उसके तथा अपने मायके के सभी संबंधियों का आतिथ्य करती है, वह अतिचारिणी नहीं होती है अर्थात् पतिव्रता होती है तथा अपने तमाम कर्तव्यों को बड़ी दक्षता से पूरा करती है।3। तत्कालीन समाज प्रायः सोने-चांदी के थोड़े से टुकड़ों के बदले शरीर विक्रय के कर्म को हेय दृष्टि से देखता था। इसे नीच कर्म की संज्ञा दी गई थी।24 अर्थात् वेश्या कर्म को समाज में सम्मान का स्थान कदापि नहीं दिया गया। परंतु तथागत ने 'अम्बपाली', जो एक गणिका थी, का भोजन भिक्खुसंघ के साथ स्वीकार किया।25 बाद में उसी अम्बपाली को भगवान ने भिक्खुणी संघ में शामिल होने का आदेश दिया, जिसने कालांतर में निर्वाण प्राप्त किया। इस तरह हम देखते हैं कि तथागत ने समाज में हेय दृष्टि से देखे जाने वाली महिलाओं के लिए भी संघ का द्वार खुला रखा। तथागत ने भिक्खुओं एवं भिक्खुणियों के लिए विधि-नियमों में भले ही थोड़ा-बहुत अंतर किया, परन्तु धर्म को जानने अर्थात् शिक्षा के अधिकार में किसी प्रकार की कटौती नहीं की, चाहे वह भिक्खु हो, भिक्खुणी हो, श्रावक हो या श्राविका हो। तथागत ने व्यवस्था की थी कि महीने में दो बार संघ उपोसथ करे, जिसमें तत्कालीन समाज के सामान्य जन (चाहे वह बौद्ध धर्म का पालन करता हो या न करता हो) शिक्षा ग्रहण करते थे। इस प्रकार स्पष्ट है कि तथागत ने समाज में नारियों को न्याय दिलाने के अनेक प्रकार के कार्य अप्रत्यक्ष रूप से किए तथा अपने उपदेशों में ऐसे अनेक विधानों को बताया जिससे नारियों को पुरुषों के बराबर समाज में अधिकार मिल सकें। संघ के 23. दीघ निकाय, महापरिनिब्बान सुत्त 3.8 24. जातक, 3 पृ. 59-60 25. दीघ निकाय 2.3 For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला प्रवेश में भी तथागत ने किसी प्रकार का भेदभाव, यथा-जाति, वर्ण, दासी, वेश्या आदि नहीं रखा तथा सभी स्त्रियों को पुरुषों के समान ही संघ में सम्मिलित कर एक अलग संघ की व्यवस्था कर दी। सामाजिक न्याय के तृतीय आधार स्तम्भ बंधुता का विश्लेषण बौद्ध धर्म के परिप्रेक्ष्य में करना भी आवश्यक है, लेकिन इससे संबंधित भगवान बुद्ध के वचनों में से उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करना बहुत ही कठिन कार्य है, क्योंकि भगवान बुद्ध के द्वारा स्थापित धर्म बंधुता का पर्याय है। अगर यहाँ बौद्ध धर्म की सभी बातों का विश्लेषण किया जाए तो एक अलग पिटक साहित्य बन जाएगा। इसी को ध्यान में रखते हुए एक-दो बातों का विश्लेषण किया जा रहा है, क्योंकि प्रमाणीकरण के लिए कुछ बातों का उल्लेख आवश्यक है। सर्वप्रथम तथागत द्वारा बताए गए मार्ग 'ब्रह्मविहार' का उल्लेख आवश्यक है, जिसमें चार बातों यथा मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा का जिक्र किया गया है। तथागत ने कहा कि ब्रह्मविहार के द्वारा व्यक्ति मैत्री की भावना अर्थात् सारे संसार से मित्रता, वैर रहित, द्रोह-रहित होकर करता है तथा समस्त प्राणियों के प्रति दया की भावना करता है। इसके साथ ही वह मुदिता तथा उपेक्षा की भावना कर विहरता है। इस तरह स्पष्ट है कि तथागत ने सामाजिक न्याय अर्थात् स्वतंत्रता, समता तथा बंधुत्व के परिप्रेष्य में अपना उपदेश दिया। सामाजिक न्याय तत्कालीन समाज की आवश्यकता थी तथा आज के समाज की भी आवश्यकता है। - दर्शनशास्त्र-विभाग जयनारायण व्यास विश्वविद्यालयत्र, जोधपुर (राजस्थान) For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक परिप्रेक्ष्य में बौद्ध धर्म-दर्शन के कतिपय सिद्धान्तों की नवीन-व्याख्या डॉ. दिलीप सक्सेना Not see, only words and meanings but firstly look the intention and the context of the speaker or writer." - कोटेशन-वेद - डॉ. दिलीप 1 महात्मा बुद्ध के पूरे धर्म और दर्शन का अभिप्राय और संदर्भ (intention or context) कुछ शब्दों में कहना हो तो कह सकते हैं "दु:ख-निवृत्ति, प्रतिकार एवं व्यवहारवाद।" 2 दीघनिकाय के अनुसार बुद्ध के समय 62 मिथ्यादृष्टि एवं छह दार्शनिक-मत प्रचलित थे। 3 चूंकि इन छहों दार्शनिक मतों से भी दुःख की पूर्ण निवृत्ति नहीं हो रही थी अतः बुद्ध की सान्दर्भिक बाध्यता स्वतः ही बनी कि इन छहों का प्रतिकार किया जाये। 4 ये छ: मत अवधारणात्मक (Conceptual) क्रम में वाद-प्रतिवाद एवं संवाद के __ रूप में निम्न क्रम में रखे जा सकते हैं :प्रतिपादित सिद्धान्त बौद्ध सिद्धान्त के रूप में प्रतिकार वाद उच्छेदवाद-अजित केशकम्बली माध्यमिक/क्षणिकवाद 2 प्रतिवाद शाश्वतवाद, अकृतवाद-प्रक्रुधकात्यायन अनित्यवाद 3 संवाद संशयवाद - संजय बेलट्ठिपुत्त प्रतीत्यसमुत्पादवाद/ निश्चितवाद 4 वाद । नियतिवाद या दैववाद - मक्खलि गोसाल अनीश्वरवाद, अदेववाद For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला 5 6 6 7 5 इस प्रकार बौद्ध दर्शन के अनेक सिद्धान्त प्रतिकार के रूप में आये हैं। बुद्ध को लगा यदि छह मत पूर्णतः दुख निवृत्ति नहीं कर सकते, तो हो सकता है इनका प्रतिकार दुःख - निवृत्ति का हेतु बने। इसलिए यह प्रयोग उनके लिए आवश्यक हो 8 प्रतिवाद | अक्रियावाद - पूर्णकश्यप संवाद 9 चातुर्याम - संवरवाद / अनेकान्तवाद, सापेक्षवाद - महावीर स्वामी - निगंठनाथपुत्त • अर्थक्रियाकारित्व. अनात्मवाद, ऐकान्तिकवाद निरपेक्षवाद गया था । धर्म का आधार एवं सिद्धान्त 'दर्शन' होता है जबकि दर्शन का आधार एवं व्यवहार 'धर्म' होता है। दर्शन के बिना धर्म खोखला है। दर्शन का आधार उसकी 'तत्त्वमीमांसा' (Metaphysics) होती है और तत्त्वमीमांसा का आधार सत्ता (Reality) का लक्षण होता है। जैन दर्शन में सत्ता का लक्षण उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य है। अद्वैत वेदान्त में त्रिकालाबाधितता है । बौद्ध दर्शन में सत् का लक्षण है 'अर्थक्रियाकारित्व' जिसका तात्पर्य है कार्य उत्पन्न करने की शक्ति । अर्थक्रियाकारित्व की तार्किक परिणति प्रतीत्यसमुत्पादवाद, क्षणिकवाद, स्वलक्षणता, अद्रव्यवाद, मध्यमवाद, अनात्मवाद, अपरमात्मवाद आदि हैं। कार्य उत्पन्न करने की शक्ति का अर्थ 'सामर्थ्य' (Potentiality) है, अतः उत्पत्ति हो भी सकती है और नहीं भी, बीज है तो पौधा उत्पन्न हो भी सकता है और नहीं भी, उत्पन्न हो ही यह आवश्यक नहीं होता, अतः अर्थक्रियाकारित्व 'परिवर्तनशीलता' तो फलित कर सकता है, लेकिन 'निरन्तर परिवर्तनशीलता' या 'क्षणिकवाद' नहीं, दोनों में महत्त्वपूर्ण अन्तर है। 10 क्षणिकता भी निरपेक्ष नहीं सापेक्षिक होती है। पूरा जीवन भी क्षणिक कहा जाता है । (अधिक विवरण के लिए आगे देखें उन्मेष 'स') 11 प्रतीत्यसमुत्पादवाद असत्कार्यवाद नहीं है। कार्य का सदैव (अ) एक ही कारण हो। (ब) निश्चित ही कारण हो । यह दोनों ही आवश्यक नहीं हैं। भिन्न संदर्भ में (अ) अनेक कारण (ब) अनिश्चित कारण भी हो सकते हैं। क्रोध आने का सदैव एक व निश्चित कारण ही नहीं होता है । अनेक, भिन्न-भिन्न व अनिश्चित कारण भी होते हैं । (द्रष्टव्य आगे उन्मेष 'अ') 12 'अनात्मवाद' दुःख के प्रमुख कारण, आसक्ति के प्रतिकार हेतु 'मन' की अनित्यता का निष्पादन है, न कि आत्मा की अनित्यता का, अन्यथा आत्मा की भी For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक परिप्रेक्ष्य में बौद्ध धर्म-दर्शन के कतिपय सिद्धान्तों की नवीन व्याख्या 85 अनित्यता में निर्वाण भी स्वतः ही अनित्य और निरर्थक हो जाता है । (द्रष्टव्य, आगे उन्मेष 'ब') 13 'स्वलक्षणता' (unique-particularity) के साथ-साथ 'व्यावहारिक - सामान्य ' (Universality) को स्वीकार करना भी आवश्यक है, केवल स्वलक्षणता से व्यवहार नहीं चलता । 14 'दुःख' है लेकिन 'सर्वं दुःखम् ' कैसे ? सुख भी तो है । यदि सुख अस्थायी है तो दुःख भी अस्थायी है। तदनुरूप दुःख का अभाव है, अतः 'सर्वं सुखम् ' भी है। टैगोर कहते ही हैं, 'सर्वम् आनन्दम्'। 15 मध्यम मार्ग निरपेक्ष नहीं हो सकता । घृणा के प्रति मध्यम मार्ग, 'पूर्ण- घृणा' और 'अघृणा' के मध्य 'कुछ-कुछ घृणा' करना हो सकता है क्या ? अशुभ से तो ऐकान्तिक / पूर्ण रूप से घृणा करनी ही होगी 'माध्यमिक - घृणा' नहीं । 16 'विपश्यना' केवल निरन्तर परिवर्तनशीलता, श्वास-प्रश्वास व 'नाम-रूप' को ही देखना नहीं, वरन् इनके भी आधार 'नित्य - चेतन' को भी देखना है। 17 बौद्ध 'वेदों' की निंदा चार्वाक की भांति नहीं करते हैं, वरन् बौद्ध दर्शन में तो चार्वाक एवं आजीवकों की वेदों से भी ज्यादा निंदा और प्रतिकार है। वेदों का प्रतिकार मुख्यत: उनके हिंसावाद रूप विकृति के कारण है। उसे अप्रामाणिक कहना, संदर्भ की मांग थी । यह सामयिक प्रसंग मात्र है। बौद्ध-धर्म में ईश्वरवाद भी तदनुरूप पूर्णतः फलित होता है । मेरा मानना है कि वस्तुत: अनीश्वरवादी - धर्म तो असम्भव ही है । बुद्ध, बोधिसत्त्व, भगवान के रूप 'में भगवान के सभी गुणों के साथ उपास्य हैं। ईश्वर की स्वीकृति मानव की मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक आवश्यकता है। मनुष्य को भाग्यवादी, अकर्मण्य, अश्रमवाद से ' श्रमण' बनाने का प्रयास है। के 18. इस प्रकार क्रमशः विश्लेषण करने पर सिद्ध होता चला जाता है कि बुद्ध प्रमुख सिद्धान्तों का आधार Pragamatic या व्यावहारिक है 'तात्त्विक' नहीं है। तात्त्विक प्रश्नों को तो वे स्वयं अव्याकृत (अवक्तव्य ) कहकर इस वाद-विवाद को निरर्थक मान लेते हैं और इस संदर्भ में उनका 'मौन' ही बताता है कि तात्त्विक और सैद्धान्तिक प्रश्नों में उलझने के स्थान पर मौन श्रेष्ठ है, इनसे उलझना निरर्थक है, क्योंकि इनका निश्चित निर्धारण इनके चतुष्कोटि - विलक्षण होने के कारण कम से कम भाषा में तो संभव नहीं है । अतः इस विवाद के स्थान पर मानव मात्र की प्रमुख व्यावहारिक समस्या 'दुःख - समुदय' की निवृत्ति का ही प्रयास होना चाहिए और उनके सभी प्रमुख सिद्धान्तों की स्थापना को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए और उससे यह भी स्पष्ट हो जाना चाहिए कि यदि किसी For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • 86 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला विशिष्ट संदर्भ और परिप्रेक्ष्य में वे स्थापित हुए हैं तो बदले हुए संदर्भ व परिप्रेक्ष्य में नवीन व्याख्याएँ, परीक्षण स्वयं उनको भी स्वीकार होगी और हमें भी स्वीकार होनी चाहिये। 'लकीर के फकीर' बने रहना बुद्धत्व का लक्षण नहीं है। जो संदर्भ बदलने पर भी नहीं बदले वह तो सोया हुआ सा है और जो संदर्भ बदलने पर तदनुरूप बदल भी जाये, नवीनता ले आये (अवसरवादी नहीं) वही वस्तुतः 'जागा हुआ' या बुद्ध, Awakend, Enlightend है। - कोटेशन-वेद, डॉ. दिलीप उन्मेष 'अ' बौद्धों का प्रतीत्यसमुत्पादवाद, असत्कार्यवाद नहीं है दार्शनिक दृष्टि से कारण व कार्य के मध्य क्या सम्बन्ध है ? यह सिद्धान्त कारणतावाद कहलाता है। प्रत्येक दर्शन का कारणतावाद होता है। बौद्ध दर्शन का कारणतावाद, प्रतीत्यसमुत्पादवाद' कहलाता है। यदि 'अ' है तो 'ब' है अर्थात् कार्य, का कारण से ही होना एवं 'वही' कार्य होना ही निश्चित है। इसका एक अर्थ हुआ कि वह कार्य पहले से ही कारण में अव्यक्त रूप से विद्यमान है। यदि ऐसा है तो बौद्ध दर्शन का कार्य-कारण सिद्धान्त 'प्रतीत्यसमुत्पादवाद', 'सत्कार्यवाद' के अधिक समीप आ जाता है। क्योंकि कार्य के कारण में उत्पत्ति से पूर्व भी अव्यक्त रूप में विद्यमान रहने पर ही यह कहा जा सकता है कि वही निश्चित कार्य' उत्पन्न होगा। यद्यपि सत्कार्यवाद में यह उत्पत्ति आवश्यक नहीं है अर्थात् सत्यकार्यवाद उत्पत्ति से पूर्व कार्य की अव्यक्त अवस्था को तो स्वीकार करता है, लेकिन उसकी अभिव्यक्ति या उसका व्यक्त होना अपरिहार्य नहीं मानता, जबकि प्रतीत्यसमुत्पादवाद कारण होने पर कार्य की उत्पत्ति को अनिवार्य या अपरिहार्य भी मानता है, इसलिए यहाँ अव्यक्त का व्यक्त होना भी आवश्यक हो जाता है। इस दृष्टि से प्रतीत्यसमुत्पादवाद, सत्कार्यवाद का विकास कहा जा सकता है। दूसरी ओर असत्कार्यवाद तो कार्य को उत्पत्ति से पूर्व, अपने कारण में किसी भी रूप में सत् नहीं मानता और उत्पन्न कार्य को एक नया 'आरम्भ' (आरम्भवाद) मानता है। इसलिए असत्कार्यवाद के संदर्भ में यदि कारण है तो कार्य उत्पन होगा ही, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। दूसरी ओर सत्कार्यवाद में भी कारण के होने पर कार्य की निश्चित उत्पत्ति अनिवार्य नहीं है, जबकि प्रतीत्यसमुत्पाद में यह अनिवार्य है। इसलिए प्रतीत्यसमुत्पाद स्पष्टतः न तो सत्कार्यवाद है और न असत्कार्यवाद। यद्यपि तुलनात्मक रूप से देखा जाये तो प्रतीत्यसमुत्पाद, असत्कार्यवाद की तुलना में सत्कार्यवाद के अधिक समीप कहा जा सकता है, वस्तुतः तो यह दोनों से ही विलक्षण For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक परिप्रेक्ष्य में बौद्ध धर्म-दर्शन के कतिपय सिद्धान्तों की नवीन व्याख्या * 87 सिद्धान्त है। इसका अन्तर्भाव समुचित रूप से इनमें से किसी में भी नहीं किया जा सकता है एवं न ही ऐसा करना आवश्यक है। अत: यहाँ पर उस मान्यता को जो प्रायः परम्परा से स्वीकृत की जाती रही है कि प्रतीत्यसमुत्पाद, असत्कार्यवाद का ही एक रूप या उसके अधिक समीप है, के स्थान पर एक नवीन व्याख्या का प्रयास है कि या तो इसे सत्कार्यवाद के समीप माना जाये या 'सम्यक्' यह है कि इसे एक स्वतन्त्र, विलक्षण कारणतावाद के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। इस समझ से बौद्ध दर्शन की कई असंगतियों का समाधान भी सम्भव हो सकता है। उन्मेष 'ब' आत्मवादी बौद्ध-दर्शन 'आत्मवाद' के विवेचन के सन्दर्भ में निम्न कुछ आयामों पर दृष्टिपात आवश्यक है :1 जिस प्रकार जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा (Metaphysics) में अनेकांतवाद' एवं ज्ञानमीमांसा (Epistemology) में स्याद्वाद' आधारशिला हैं, उसी प्रकार बौद्ध दर्शन में यह स्थान प्रतीत्यसमुत्पादवाद रखता है। जब तक इसे न समझा जाए, बौद्ध दर्शन को समझना मुश्किल है। इसीलिए स्वयं बुद्ध ने इसे 'धम्म' कहा है। क्योंकि 'सर्वं दुखं' इसका बुद्ध ने अनुभव किया एवं प्रतीत्यसमुत्पाद के आधार पर उन्होंने चार आर्य-सत्यों का विकास किया। प्रतीत्यसमुत्पादवाद क्या है? - बाहय तथा आंतरिक जितनी भी घटनाएं होती हैं. .सभी का कुछ-न-कुछ कारण अवश्य रहता है। किसी कारण के बिना किसी भी कार्य या घटना का आविर्भाव नहीं हो सकता है। यह नियम किसी चेतन शक्ति द्वारा परिचालित नहीं होता है, वरन् यह स्वयं-चलित (स्वायत्त Autonomous) होता है। ऐसा होने पर ऐसा होता है। If X then Y, If Y then z, If not x then not y, if not Y then not z इसलिए x के न होने पर Y कभी भी नहीं हो सकता है। अतः कार्य का कारण (1) एक ही है और (2) वह निश्चित भी है। यह (1) + (2) प्रतीत्यसमुत्पादवाद है। 3 यह निम्नलिखित दो एकांगी मतों के मध्य का मार्ग है - शाश्वतवाद - सत् नित्य है जिसका न आदि है, न अंत है। अतः जो है उसका सर्वथा नाश असम्भव है। उच्छेदवाद - नष्ट होने पर सभी वस्तुओं का अन्ततः सर्वथा नाश हो जाता है। 6 चार आर्य सत्य - दुःख है, दुख का कारण है, उनका निदान है एवं उसके उपाय का निश्चित मार्ग है। इसके निदानस्वरूप अविद्या से जरा-मरण तक For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . 88 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला द्वादश-निदान इसी प्रतीत्यसमुत्पाद के आधार पर विकसित किए गए हैं। बौद्ध दर्शन में अंतिम लक्ष्य निर्वाण है। निर्वाण का शाब्दिक अर्थ बुझ जाना है। . बौद्ध दर्शन में आत्मा विचारों का प्रवाह मात्र है अर्थात् धर्म-धर्मी रूप या एक, नित्य, शाश्वत, स्थिर द्रव्यरूपी आश्रय का आत्मा के रूप में निषेध है, इस मत को 'अनात्मवाद' कहा गया है, परन्तु चिन्तन करने पर बौद्ध दर्शन में 'आत्मवाद' भी है, यह निम्नांकित तथ्यों से सिद्ध होता है :1 निर्वाण का स्वरूप क्या है ? क्या वह सर्वथा विनाश की स्थिति है या मोक्ष की तरह की कोई शाश्वत अवस्था है ? बौद्ध मत में सौत्रान्तिक सम्प्रदाय का एक छोटा भाग ही इसे सर्वथा विनाश की स्थिति मानता है, अन्य कोई भी बौद्ध सम्प्रदाय स्पष्टतः ऐसा नहीं मानते हैं। 2 यदि निर्वाण सर्वथा नाश नहीं है तो फिर मोक्ष एवं निर्वाण में कोई अंतर नहीं। अतः जब मोक्ष, जिसमें आत्मा अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाती है, एवं निर्वाण में भी सभी तृष्णाओं के बुझने पर व्यक्ति स्वयं में अवस्थित हो जाता है तो फिर मोक्ष की अवधारणा वाले दर्शनों को कैसे आत्मवादी कह सकते हैं? अतः या तो शंकर भी अनात्मवादी हैं या बुद्ध भी आत्मवादी है। परिवर्तनशीलता, क्षणिकवादिता एवं अनात्मवादिता का उपदेश देने का प्रयोजन व सन्दर्भ बौद्ध दर्शन में वस्तुतः (यद्यपि दुःख-निरोध मार्ग में निर्वाण प्राप्ति के लिए अष्टांगिक मार्ग देते हैं) द्वादशनिदान की किसी भी कड़ी पर आक्रमण करना है, क्योंकि उनके अनुसार अविद्या या मिथ्याज्ञान दुःख है एवं यह अविद्या हेय विषयों को स्थायी एवं सुखद समझना है। अतः इनमें आसक्ति, तृष्णा, मोह आदि के बुझने या समाप्त होने तथा ज्ञान, प्रज्ञा एवं शांति को उपलब्ध होने (जिसके लिये वे निर्वाण शब्द प्रयुक्त करते हैं) के लिए वे क्षणिकवाद परिवर्तनशीलता एवं अनात्मवादिता आदि का उपदेश देते हैं, क्योंकि यदि ऐसा नहीं करते तो विषयों में आसक्ति एवं मोह पैदा होता है। अतः अनात्मवादिता का उपदेश केवल मोह, राग, आसक्ति आदि भंग करने के लिए अर्थात् अविद्या दूर करने का एक सैद्धान्तिक मार्ग है एवं इसका क्रियात्मक मार्ग अष्टांगिक-मार्ग' है। __ मुझे लगता है कि बुद्ध, अंहकार या मन को आत्मा के रूप में जब देखते हैं तो इसे निरन्तर परिवर्तनशील, तदनुरूप क्षणिक पाते हैं। उनका अनात्मवाद इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिये। जहां कि मैं-पन या अंहकार को ही परिवर्तनशील आत्मा के रूप में देखा गया है। 5 व्यवहार में हम देखते हैं कि परिवर्तन के लिए एक स्थिर आधार आवश्यक है। अतः जो दर्शन जितनी तेजी एवं बल से परिवर्तनशीलता को स्थापित करता है, For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक परिप्रेक्ष्य में बौद्ध धर्म-दर्शन के कतिपय सिद्धान्तों की नवीन व्याख्या * 89 वह उतनी ही तेजी एवं बल से एक स्थिर आधार या आश्रय रूपी आत्मा को भी सिद्ध करता है। 6 अर्थ क्रियाकारी होने का अर्थ केवल परिवर्तन होना है, निरंतर परिवर्तनशीलता नहीं। निष्कर्ष :- बौद्ध दर्शन वस्तुतः अनात्मवादी नहीं, वरन् आत्मवादी है। अविद्या आसक्ति दूर करने के उद्देश्य से इसे वस्तुतः क्षणिकवाद या निरन्तर परिवर्तनशीलता या अनात्मवादिता का रूप दिया गया है। उन्मेष - 'स' बौद्धदर्शन में क्षणिकता, निरपेक्ष नहीं, सापेक्षिक है ___बौद्ध दर्शन की तत्त्व-मीमांसा के अनुसार सत्ता का लक्षण 'अर्थक्रियाकारित्व' है। तदनुरूप सत्ता स्वलक्षणस्वरूप (Unique-Particular) परिवर्तनशील या क्षणिक मानी गई है। क्षणिकता परिवर्तनशीलता तो है, लेकिन यह क्षणिकता भी 'निरपेक्ष' (Absolute) नहीं कहीं जा सकती है। मेरी दृष्टि में क्षणिकता को सापेक्षिक अवधारणा स्वीकार करना ही अधिक संगत लगता है। क्षण की सापेक्षिकता का अर्थ है कि किसी संदर्भ में क्षण न्यूनतम के रूप में हो सकता है, किसी में छोटी या मध्यम अवधि के रूप में, किसी में लंबी अवधि के रूप में भी हो सकता है। सम्पूर्ण जीवन को भी 'क्षणिक' कहा जाता है यहां एक बड़ी अवधि 'क्षण' के रूप में ली गई है। प्रेयसी के इन्तजार में एक लम्बी अवधि भी 'क्षण' लगती है या एक क्षण भी बरस के समान लगता है, जबकि प्रायः पत्नी का एक क्षण का इन्तजार भी काफी लम्बा व उबाऊ लगता है, ये सब क्षण की सापेक्षिकता के कुछ उदाहरण हैं। क्षण को निरपेक्ष मानने का अर्थ केवल निरन्तर परिवर्तनशील मानना है, जो कि सम्यक् नहीं है। वस्तुतः जितने समय तक नहीं बदले वह अवधि ही क्षण कही जा सकती है। अतः क्षण निरपेक्ष न होकर 'संदर्भ-सापेक्ष' है। वस्तुतः क्षण 'निरन्तर-परिवर्तनशीलता' नहीं वरन् 'अंततः परिवर्तनशीलता' है। क्षण, परिवर्तनशीलता तो है, लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि वह निरन्तर परिवर्तनशील हो। क्षण की यह परिवर्तनशीलता इसीलिए सापेक्षिक है, निरपेक्ष नहीं। क्षणिकता की इस सापेक्षिक नवीन अवधारणा एवं व्याख्या की स्वीकृति बौद्ध-दर्शन की कई समस्याओं का समाधान भी स्वतः कर देती है। - प्राध्यापक, दर्शन-शास्त्र विभाग जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर (राज.) For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध धर्म-दर्शन में नारी का अभ्युदय । डॉ. नीहारिका लाभ वैदिककालीन नारी भारतीय संस्कृति के विकास-क्रम को यदि देखा जाए तो ऋग्वैदिक काल में नारी की पुरुषों के समकक्ष स्थिति के संकेत मिलते हैं। नारी-स्वातन्त्र्य, नारी शिक्षा, यज्ञयागादि में नारी की सहभागिता आदि के अनेक दृष्टान्त उपलब्ध होते हैं। ऋग्वैदिक समाज पितृसत्तात्मक था, जिसके कारण परिवार में पिता का स्थान सर्वोच्च था। सामान्यतया नारी परिवार में अपने माता-पिता, भाई-बहन, पति-पुत्र आदि के साथ रहती थी तथा परिवार-प्रमुख की आज्ञा एवं उसके अनुशासन का पालन करती थी। अस्तु, नारी की इस पराश्रयता के बावजूद उसे कई प्रकार के स्वातन्त्र्य भी प्राप्त थे। पारिवारिक जीवन में वह माता के रूप में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती थी। ऋग्वेद में “जायेदस्तं मघवन्त्सेदु योनिस्तदितवा युक्ता हरयो वहन्तु", कहकर पत्नी के गहिणी-पद का सुन्दर विवेचन किया गया है। माता के रूप में उसे परिवार में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। घर की व्यवस्था, बच्चों का लालन-पालन आदि माता के ही उत्तरदायित्व थे। अपनी गोद में बच्चों को लेकर बैठी माता का चित्रण बहुत ही सुन्दर ढंग से किया गया है - 'आ पुत्रासो न मातरं विमृताः सानौ देवासो बर्हिषः सदन्तु।2 गृहिणी के रूप में भूमिका निर्वाह करती हुई वह प्रातःकाल अत्यन्त सवेरे उठती थी तथा सभी को जगाती भी थी। नित्यक्रिया से निवृत्त होकर तथा स्नान कर वह अपने पति के साथ गार्हपत्याग्नि में आहुतियाँ देती थी। यही कार्य वह मध्याह्न एवं सायंकाल भी पति के साथ मिलकर करती थी। पवित्र गार्हपत्याग्नि को प्रज्वलित कर रखना गृहिणी का पुनीत कर्तव्य माना जाता था। विभिन्न गृहकार्यों में दक्ष होना उसकी 1. ऋग्वेद - 3/53/4 2. तत्रैव - 7/43/3 3. तत्रैव - 1/2/28; 5/43/15;; 8/1/29; 8/13/13 For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध धर्म-दर्शन में नारी का अभ्युदय - 91 विशिष्टता मानी जाती थी। यदा-कदा वह अन्य स्त्रियों के साथ बाहर भ्रमणार्थ भी जाती थी एवं निकटस्थ पर्वत-उद्यान आदि से पुष्पादि तोड़कर लाती थी।' ... ऋग्वेद में कितने ही ऐसे स्थल हैं जहाँ नारी के गृहिणी एवं मातृपद की भूमिका के साथ-साथ उसे पति की अनुचरी नहीं, अपितु सहचरी के रूप में भी दर्शाया गया है। गृहपति कोई भी धार्मिक कार्य पत्नी के साहचर्य के बिना नहीं कर सकता था। ऋग्वेद के वैवाहिक मन्त्रों में स्पष्ट कहा गया है कि वर-वधू का पाणि-ग्रहण 'सौभगत्व' अर्थात् सुख-समृद्धि-आनन्दयुक्त जीवन का उपभोग करने के लिए तथा 'गार्हपत्य' अर्थात् गृहस्थ-आश्रम के सभी कर्तव्यों का निर्वाह साथ-साथ करने हेतु करता है। वहाँ यह आकांक्षा प्रदर्शित की गई है कि दोनों का साहचर्य आजीवन बना रहे। . सामान्यतया ऋग्वैदिक काल में युवा-विवाह की प्रथा प्रचलित थी, अतः विधवा-विवाह का प्रश्न बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं था, तथापि ऋग्वेद में विधवा-विवाह की प्रथा के उल्लेख प्राप्त होते हैं। एक स्थान पर विधवा स्त्री से कहा गया है - "हे नारी, मृत पति को छोड़कर इस जीवित संसार में आओ। तुमसे पुनर्विवाह का इच्छुक जो तुम्हारा दूसरा भावी पति है, उसके पत्नीत्व को प्राप्त होओ।"6 . __ऋग्वेद के कई सूक्त निःसन्तान स्त्री द्वारा किसी अन्य पुरुष के साथ सम्पर्क कर सन्तानोत्पत्ति करने अर्थात् नियोग करने की प्रथा की ओर संकेत करते हैं। नियोग द्वारा उत्पन्न पुत्र क्षेत्रज पुत्र' कहलाता था, जिसकी गणना 12 प्रकार के पुत्रों में होती थी। यह प्रथा उत्तरवैदिककालीन तथा महाकाव्यकालीन संस्कृतियों में भी चलती रही, जैसा कि महाभारत से धृतराष्ट्र, पाण्डु, विदुर तथा पंच पाण्डवों के जन्म के सन्दर्भ में ज्ञात होता है। अस्तु धीरे-धीरे यह प्रथा अलोकप्रिय होती गई तथा अन्ततः पूर्णरूपेण लुप्त हो गई। ___ ऋग्वेदकालीन समाज में स्त्री-शिक्षा की व्यवस्था अवश्य रही होगी जैसा कि विश्ववारा, आत्रेयी, अपाला, घोषा काक्षीवती, वागम्भृणी, रात्रि भारद्वाजी, श्रद्धा कामायनी, शची पौलोमी, लोपामुद्रा आदि ऋग्वैदिक युगीन मन्त्रद्रष्ट्री विदुषियों के दृष्टान्तों से ज्ञात होता है। ऋषि-पत्नियाँ अपने पतियों के समान विदुषी हुआ करती थीं। सामाजिक जीवन में भी ऋग्वेदकालीन स्त्री को पुरुषों के समान ही अवसर एवं अधिकार प्राप्त थे। वे ऋषिपद को भी प्राप्त कर सकती थीं। इस प्रकार समाज में उन्हें वन्दनीय माना जाता था। विश्ववारा तथा अपाला ने कई ऋचाओं की रचना की थी। 4. तत्रैव - 10/56/2 5. तत्रैव - 10/85/36 6. तत्रैव.- 10/18/8 7. तत्रैव - 10/18/7-8; 10/40/2 For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • 92 बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला यदा-कदा कई स्त्रियों के अपने पति के साथ युद्ध भूमि में जाने के वर्णन भी ऋग्वेद में मिलते हैं। उत्तरवैदिक काल में सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद के अतिरिक्त संहिता, ब्राह्मण आरण्यक, उपनिषद् प्रभृति विपुल साहित्य की रचना हुई। इस प्रकार इस काल की सीमा अत्यन्त विस्तृत है । समाज विभिन्न क्षेत्रों में विकास की श्रृंखलाएँ पार करता हुआ आगे बढ़ता गया। नारी की स्थिति में भी उत्तर वैदिककाल में अनेक प्रकार के परिवर्तन देखने को मिले। स्त्री को सामाजिक स्तर पर मिले अधिकार धीरे-धीरे कम होते गए। उसे यज्ञ अधिकार से वंचित किया जाने लगा । यज्ञोपवीत से भी वंचित किए जाने से वह. शूद्र-तुल्य समझी जाने लगी। नारी पर सतीत्व का दायित्व डालने तथा पुरुष को पुनर्विवाह का अधिकार मिल जाने से नारी की स्थिति और भी हीन हो गई । वस्तुतः इसके पीछे पुरुष का अहं भाव सक्रिय था । वह नारी को अपनी सम्पत्ति समझने लगा, जिससे इस भ्रान्त धारणा को प्रश्रय मिला कि पुरुष के चरित्रहीन होने पर मात्र वही बदनाम होता है, किन्तु स्त्री के सतीत्व से च्युत होने पर उसका पति तथा पिता दोनों ही कलंकित होते हैं। इस अधिकारच्युति के कारण नारी का वेद अध्ययनक्रम अवरुद्ध हो गया और अध्ययनाभाव के कारण उसका बाल-विवाह भी आरम्भ हो गया । बहु विवाह एवं सती-प्रथा का प्रचलन धीरे-धीरे आरम्भ हो गया । कन्या का जन्म दुःख का कारण समझा जाने लगा। बहुपत्नी - विवाह की प्रथा भी प्रचलन में आ गई थी । बुद्धकालीन नारी - बुद्धकाल तक आते-आते भारतवर्ष में ऋग्वेदकालीन सामाजिक सरलता बहुत पीछे छूट चुकी थी। सामाजिक संरचना में दुरूहता आ गई थी । नगरों के विकास के साथ-साथ नारी का एक नवीन रूप सामने आ रहा था और वह था - गणिका या वेश्या का । प्राग्बुद्धकालीन भारतीय नारी की कथा ॠग्वेदकालीन समाज से आरम्भ होती है। आरम्भिक काल में सामाजिक स्तर पर पुरुषों के समान अधिकार की प्राप्ति करने वाली नारी बुद्धकाल तक आते-आते घर की चारदीवारों में सिमटकर शिशु उत्पादन की मशीन बन कर रह गई । - बुद्ध द्वारा 'नारी - कल्याण' के प्रति अपनाए गए दृष्टिकोण एवं किए गए कार्यों के आकलन के लिए इस प्रकार से एक ऐतिहासिक सर्वेक्षण आवश्यक है, जिससे यह स्पष्ट हो सके कि प्राग्बुद्धकालीन भारत में नारी की क्या स्थिति थी, बुद्धकाल तक 8. एन. एन. घोष - अर्ली हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, द इण्डियन प्रेस प्रा. लि., इलाहाबाद 1960, पृ. 38 For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध धर्म-दर्शन में नारी का अभ्युदय * 93 आते-आते उसमें क्या परिवर्तन हुए और बुद्ध ने उनके कल्याण हेतु क्या-क्या कार्य किए? उपुर्यक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि नारी-स्वातन्त्र्य में बुद्धकाल में न्यूनता आ गई थी। यद्यपि परिवार के अन्दर उसे प्रतिष्ठा प्राप्त थी, तथापि उससे स्वतन्त्र निर्णय लेने के अधिकार लगभग छीन लिए गए थे। अगुत्तरनिकाय में उल्लेख मिलता है कि पुरुष नारी का आच्छादन है, आश्रय है और वही उसका अलंकरण भी है। एक जातक में इसी तरह के शब्दों में कहा गया है कि नारी के शरीर का वास्तविक आच्छादन तो उसका पति ही है, जिसके अभाव में वस्त्र-अलंकरण धारण करने से भी उसे निर्वस्त्र ही समझना चाहिए - "इत्थिया हि सामिको अच्छादनं नाम, सामिकम्हि असति सहस्समूलं पि साटकं निवत्था इणग्गा एव नाम। सन्तानोत्पत्ति को अत्यधिक महत्त्व दिए जाने से बहुपत्नीवाद को समाज में मान्यता मिली। मज्झिमनिकाय में रट्ठपाल की अनेक पत्नियों के होने का प्रसंग आता है।1 अगुत्तरनिकाय में चार सुन्दर पत्नियों वाले एक सुखी-सम्पन्न गृहस्थ का दृष्टान्त उपलब्ध होता है।" एक जातक में ऐसे ब्राह्मण की कथा मिलती है जिसने अपनी चार पुत्रियों का विवाह एक ही गुणवान् पुरुष से कर दिया। थेरीगाथा में वर्णित इसिदासी के प्रसंग से पता चलता है कि उसका विवाह एक उच्च वैश्यकुल में हुआ था, किन्तु पति के द्वारा परित्यक्त कर दिए जाने पर उसके पिता ने उसका विवाह एक दूसरे वैश्यकुल में कर दिया। किन्तु वहाँ भी उसके भाग्य में परित्यक्ता होना ही लिखा था। अतः उसके पिता ने उसकी तीसरी शादी भी कर दी, किन्तु उसे वहाँ भी पति-सुख नहीं मिला और अन्ततः उसने पिता की आज्ञा से भिक्षुणी-जीवन का वरण कर लिया। इस कथा से यह स्पष्ट होता है कि बुद्धकालीन समाज में नारी का स्थान गौण हो चला था।12 फिर भी यह कहना कठिन है कि समाज के कितने प्रतिशत लोग एकाधिक विवाह करते थे। - त्रिपिटिक से ज्ञात होता है कि विवाह-सम्बन्ध के निर्धारण में मध्यस्थता तथा पारस्परिक वार्ता का आश्रय लिया जाता था, जिसका उपक्रम वर के अभिभावक द्वारा होता था। इस बात के भी दृष्टान्त मिलते हैं कि वर स्वयं कन्या को पसन्द करता था। 9. द्रष्टव्य-मदनमोहन सिंह - बुद्धकालीन समाज और धर्म,बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, पटना, 1972, पृ. 40 10. मज्झिम निकाय(हिन्दी अनु.)-राहुल सांकृत्यायन, महाबोधि सभा, सारनाथ, 1964, पृ. 336 11. एफ.एल. बुडवर्ड तथा ई.एम. हेयर, द बुक ऑफ ग्रैजुएल सेइंग्स, I, पालि टेक्स्ट सोसायटी लन्दन, पृ. 120 12. थेरीगाथा, नालन्दा संस्करण, पृ. 455-59 For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला साथ ही इस बात के भी संकेत मिलते हैं कि विवाहयोग्य कन्या के एकाधिक प्रणयी होने पर सफलता उसी को प्राप्त होती है जिसके पक्ष में कन्या के पिता का निर्णय होता था। जातिव्यवस्था अत्यधिक रूढ़ हो जाने से विवाह-सम्बन्ध में सजातीयता सबसे पहली शर्त बन गई थी, यद्यपि अन्तर्जातीय विवाह के भी उदाहरण यत्र-तत्र उपलब्ध होते हैं। अम्बठ्ठ सुत्त में अन्तर्जातीय विवाह के प्रावधानों के उल्लेख मिलते हैं। __समाज का बहुमत बाल-विवाह का पक्षधर नहीं था। प्राप्त-यौवन कन्या का विवाह सर्वमान्य था, परन्तु विवाह-प्रथाओं में प्रायः सदा ही एकरूपता का अभाव रहा है। बुद्धकालीन समाज में भी बेमेल विवाह होते थे। वृद्ध व्यक्तियों को भी युवतियों से विवाह करने का लोभ रहता था। यही कारण है कि सुत्तनिपात में वृद्ध-विवाह की आलोचना की गई है। वेस्सन्तर जातक से ज्ञात होता है कि पूजक नामक एक वृद्ध ब्राह्मण ने अमित्ततापन नामक एक युवती से विवाह किया था, जिसका उपहास अन्य स्त्रियों ने किया था। यह भी प्रतीत होता है कि ऐसे विवाहों की संख्या अधिक नहीं होती होगी, क्योंकि प्रायः धनवान् वृद्ध ही कन्या के माता-पिता की निर्धनता का लाभ उठाकर अपना विवाह करने में सफल होते थे। बुद्धकाल में विधवा-विवाह की मान्यता के सम्बन्ध में परस्पर विरोधी उदाहरण मिलते हैं, जिसका कारण सम्भवतः समाज के विभिन्न वर्गों में प्रचलित प्रथाओं का वैविध्य रहा होगा। विधवा-विवाह को सामान्यतः मान्यता न मिलने के कारण समाज में नवयुवती विधवाओं के भ्रष्टाचारमय जीवन में संलिप्त होने की संभावनाओं से इन्कार नहीं किया जा सकता। बुद्धकालीन समाज में पति-पत्नी का दाम्पत्य जीवन प्रायः आदर्श, शान्तिमय एवं आनन्दपूर्ण था। परन्तु जातक तथा थेरीगाथा में अनेक ऐसे प्रसंग भी हैं जो दुःखी दाम्पत्यजीवन की ओर संकेत करते हैं। उनमें से अधिकांश प्रसंगों में स्त्री के दुष्ट स्वभाव एवं दुश्चरित्रता को उत्तरदायी माना गया है, किन्तु कहीं-कहीं पति की धूर्तता का भी उल्लेख किया गया है। नारी-वर्ग को दुश्चरित्र प्रदर्शित करने के पीछे बौद्धों की सम्भवतः यह मानसिकता थी कि किसी प्रकार बौद्ध भिक्षुओं को स्त्रियों के मायापाश से दूर रखा जाए। बुद्धकाल तक आते-आते वैदिक ग्राम्य-परिवेश में काफी परिवर्तन हुए। राजगृह, चम्पा, वैशाली, साकेत, श्रावस्ती, कौशाम्बी, वाराणसी, कपिलवस्तु आदि 13. “अतीतयोब्बनो पोसो, आनेति तिम्बरत्थनिं। तस्सा इस्सा न सुप्पति, तं पराभवतो मुखं ।।" - सुत्तनिपात, भिक्षु धर्मरक्षित (सं. तथा अनु.), मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली 1977, पृ. 28 14. जातक,VI, पृ. 532-33 For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध धर्म-दर्शन में नारी का अभ्युदय * 95 प्रमुख नगरों के रूप में विकसित हो चुके थे। इन समृद्ध नगरों के विलासप्रिय नागरिकों को आमोद-प्रमोद की वे समस्त सुख-सुविधाएँ प्राप्त थीं जो प्रायः ग्रामीण जीवन में दुर्लभ मानी जाती थीं। उनके विलासमय जीवन के ही एक सशक्त पक्ष के रूप में गणिकाओं को प्रमुख स्थान मिला। नगरवासी अपने नगर की गणिकाओं के सौन्दर्य पर गर्व का अनुभव करते थे। गणिकाएं भी तत्कालीन समाज का एक प्रमुख अंग थीं। वैशाली की आम्रपाली, राजगृह की सालवती के अतिरिक्त सामा, सुलसा, काली आदि गणिकाओं के नाम एवं उनसे सम्पर्क के मूल्य की चर्चा अनेकधा हुई है। ___ऋग्वैदिक काल से बुद्धकाल तक के सामाजिक विकास एवं इस विकास क्रम में नारी की परिवर्तित होती स्थिति पर दृष्टिपात करने से अनेक तथ्य हमारे समक्ष उद्घाटित होते हैं। ऋग्वैदिक काल में जो समाज वर्गों या वर्णों पर आधारित था, बुद्धकाल तक आते-आते उसमें वंश तथा जाति की प्रधानता हो गई, बल्कि यों कहें कि जाति ही व्यक्ति की प्रथम पहचान बन गई। नारी को पुरुषवर्ग के समान जो अधिकार ऋग्वैदिक समाज में प्राप्त थे, उनमें निरन्तर ह्रास होता गया, नारी पुरुषवर्ग तथा उसके द्वारा शासित परिवार व समाज के लिए दायित्ववाहिनी बनकर रह गई, उसकी सामाजिक स्वतन्त्रता जाती रही तथा घर के बाहर उसकी पृथक् पहचान भी खो गई। यह सत्य है कि घर के अन्दर उसे पत्नी तथा माता के रूप में पर्याप्त सम्मान मिलता रहा, तथापि उसका पृथक् व्यक्तित्व समाप्तप्रायः हो गया। राजशक्ति में वृद्धि, बड़े-बड़े राज्यों के विकास, विभिन्न नगरों के अभ्युदय, व्यापार-वृद्धि इत्यादि के चलते नारी का एक वर्ग देह-व्यापार के कर्म में भी संलग्न हो गया। परिणामस्वरूप, दिनानुदिन समाज में पुरुषों के अधिकार में वृद्धि और नारी की स्थिति ह्रासोन्मुख होती गई। बड़े-बड़े श्रेष्ठियों एवं राजाओं के महलों में राजकुमारों, श्रेष्ठियों, उनके परिजनों आदि के मनोरंजनार्थ नियुक्तं स्त्रियों के उदाहरण में पालि-साहित्य में अनेकधा मिलते हैं। इन सभी बातों से स्पष्ट ज्ञात होता है कि बुद्धकाल तक आते-आते नारी की दशा बहुत सन्तोषप्रद नहीं रह गई थी। बौद्ध धर्म में नारी का अभ्युदय - भगवान् बुद्ध समाज में हर प्रकार के उत्पीड़न, शोषण तथा वैमनस्यपूर्ण व्यवहार के विरुद्ध थे। उन्होंने जाति, लिंग, आर्थिक स्तर आदि के आधार पर किए जाने वाले सामाजिक भेदभाव की भर्त्सना की तथा ऐसे दलित-पीड़ित लोगों एवं महिलाओं को सम्मानपूर्ण स्थान दिलाने का यत्न किया। फिर भी निष्पक्ष रूप से यदि देखा जाए तो बुद्ध की दृष्टि भी नारी-वर्ग के प्रति बहुत अधिक उदार नहीं थी। यद्यपि वे नारी-सम्मान तथा स्वातन्त्र्य के पक्षधर थे, और इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उन्होंने 15. महावग्ग, पृ. 19. For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • 96 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला तत्कालीन समाज में भिक्षुणी-संघ की स्थापना द्वारा एक क्रांतिकारी कदम भी उठाया, तथापि उनकी हिचकिचाहट से कदाचित् उनके एतद्विषयक, दृष्टिकोण का पता चलता __ भगवान् बुद्ध की विमाता महाप्रजापती गौतमी उनके कपिलवस्तु-प्रवास के समय उनके पास प्रव्रज्या प्राप्त करने के उद्देश्य से गई, किन्तु बुद्ध ने उनके अनुरोध को स्वीकार नहीं किया। गौतमी इससे निराश नहीं हुई और अपने प्रयास जारी रखे। जब शास्ता वैशाली के कूटागार में विहार कर रहे थे, तब प्रजापती गौतमी एक बार फिर उनके पास गई। इस बार उसने अपने बालों को मुंडवा कर काषाय वस्त्र धारण कर लिया था तथा कपिलवस्तु से वैशाली तक पैदल यात्रा की। उसका वेश भिक्षुणी जैसा था। सम्भवतः इसके माध्यम से वह नारी के प्रति बुद्ध की शंका को निर्मूल सिद्ध करना चाहती थी एवं यह प्रमाणित करना चाहती थी कि पूर्ववत् गृहस्थ-जीवन में सुख-सुविधाओं का उपभोग करने के बाद भी उच्चतर उद्देश्य की प्राप्ति के लिए नारी भी कठोर जीवन का वरण एवं पालन कर सकती है। बाद में आनन्द के बारम्बार आग्रह करने पर बुद्ध महाप्रजापती गौतमी तथा अन्य आगत स्त्रियों को संघ में प्रवेश देने को राजी हो गए। बुद्ध ने हिचकिचाहट के साथ एवं शंकालु मन से ही भिक्षुणी संघ के निर्माण की अनुमति दी थी। आठ शर्तों (अट्ठगरुधम्मा) को महाप्रजापती गौतमी तथा अन्य स्त्रियों ने स्वीकार किया, तभी जाकर उन्हें पृथक् भिक्षुणी संघ बनाने की अनुमति दी गई। ये शर्ते थीं - 1. सौ वर्षों की उपसम्पन्न भिक्षुणी को भी उसी दिन (अर्थात् एक दिन) के भी उपसम्पन्न भिक्षुओं के लिए अभिवादन, प्रत्युपस्थान (अंजलि जोड़ना) सामीचिकर्म करना चाहिए। यह भी धर्म सत्कारपूर्वक गौरवपूर्वक मानकर, पूजकर आजीवन पालन करना चाहिए। 2. भिक्षु का उपगमन (अर्थात् धर्म श्रवणार्थ आगमन) करना चाहिए। 3. प्रतिअर्द्धमास भिक्षुणी को भिक्षु-संघ से उपोसथ-पृच्छा एवं अववाद- उपसंक्रमण हेतु पर्येषणा (प्रार्थना) करनी चाहिए। 4. वर्षावास के अनन्तर भिक्षुणियों को दोनों संघों (भिक्षु-भिक्षुणी) में दृष्ट, श्रुत एवं परिशंकित - तीनों स्थानों से प्रवारणा करनी चाहिए। 5. गरुधर्म स्वीकार करने वाली भिक्षुणी को दोनों संघों में पक्षमानता करनी चाहिए। 6. दो वर्ष तक छ: धर्मों में शिक्षित होकर भिक्षुणी को दोनों संघों में उपसम्पदा की प्रार्थना करनी चाहिए। 16. चुल्लवग्ग, विपश्यना विशोधन विन्यास, इगतपुरी, 1998, पृ. 415-16 For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध धर्म-दर्शन में नारी का अभ्युदय * 97 7. किसी प्रकार भी भिक्षुणी को भिक्षु के प्रति आक्रोश परिभाषण (गाली, अपशब्द आदि) नहीं करना चाहिए। 8. आज से भिक्षुणियों के लिए कुछ कहने का मार्ग बन्द हुआ, किन्तु भिक्षुओं के लिए भिक्षुणियों से कुछ कहने का मार्ग खुला है। भिक्षुणी संघ के लिए आठ गरुधर्मों की व्यवस्था की आवश्यकता को सिद्ध करने के लिए बुद्ध ने चार लौकिक कारण बताए - (क) वह परिवार चोरों द्वारा आसानी से नष्ट कर दिया जाता है, जिसमें स्त्रियाँ . अधिक हों और पुरुष कम। (ख) जैसे पके हुए धान के खेत में सफेदा (सेतट्ठिका) रोग लग जाने से वह खेत नष्ट हो जाता है। (ग) जैसे तैयार गन्ने के खेत में मञ्जिट्टिका रोग (एक प्रकार का लाल रोग) लग जाने से वह नष्ट हो जाता है। (घ) जैसे मनुष्य पानी की रोकथाम के लिए खेत के मेड़ों को बाँधता है, उसी प्रकार मैंने (बुद्ध ने) अतिचारों की रोकथाम के लिए भिक्षुणियों के लिए ___. आजीवन अनतिक्रमणीय अष्ट गरुधर्मों को प्रतिष्ठापित किया है।" । - बुद्ध के द्वारा प्रस्तुत ये चारों उदाहरण वस्तुतः प्रतीकात्मक थे। बौद्ध संघ में स्त्रियों के प्रवेश से भिक्षुओं के ब्रह्मचर्य-स्खलन होने का भय तो था ही। आठ 'गरुधम्म' से सरसरी तौर पर तो लगता ही है कि भिक्षुणी संघ के निर्माण के सम्बन्ध में बुद्ध के मन में हिचकिचाहट थी और उन्होंने आनन्द से कहा भी था कि यदि स्त्रियों को संघ में प्रवेश नहीं दिया जाता तो भिक्षु संघ हजार वर्षों तक भी अक्षुण्ण रहता, किन्तु अब यह पाँच सौ वर्षों तक ही जीवित रहेगा।18 ___ नारी-वर्ग के प्रति बुद्ध द्वारा किए गए विभेदपूर्ण व्यवहार के लिए बुद्ध पर दोषारोपण किया जाता है। किन्तु आलोचक प्रायः आज 21वीं शताब्दी की दृष्टि से नारी-पुरुष वैषम्य की बात सोचते हैं और बुद्धकालीन सामाजिक परिस्थितियों की तुलना आज की परिस्थितियों से करने लगते हैं, जो उचित नहीं है। वस्तुतः बुद्धकाल में नारी-संसार गृहजीवन की दीवारों में ही सिमटकर रह गया था और उस दृष्टि से बुद्ध ने नारी-वर्ग को अपने संघ में सम्मिलित कर उसे अभिव्यक्ति तथा आत्मोत्कर्ष का एक स्वर्णिम अवसर प्रदान किया जो तत्कालीन परिस्थितियों में एक महत्त्वपूर्ण कदम था। बौद्ध संघ में स्त्रियों को प्रवेशाधिकार दिला कर आनन्द ने निश्चय ही एक अत्यन्त श्लाघनीय कार्य किया। अपने इस क्रान्तिकारी कार्य के लिए आनन्द सदैव याद 17. तत्रैव, पृ. 419-20 18. तत्रैव, पृ. 419 For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 98 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला किए गए। बुद्ध के परिनिर्वाण के पश्चात् राजगृह में आहूत प्रथम संगीति में उन्हें अपने इस क्रांतिकारी कार्य हेतु 'दुक्कर' के दण्ड का दोषी भी माना गया था। परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि भिक्षुणियों की आने वाली पीढ़ियों ने उन्हें हमेशा आदर की दृष्टि से देखा। चतुर्थ शताब्दी ई. में चीनी यात्री फाह्यान ने मथुरा में आनन्द की स्मृति में निर्मित एक स्तम्भ के प्रति भिक्षुणियों को सम्मान प्रदर्शित करते हुए देखा था। उनके इस कथन की पुष्टि उनके लगभग 300 वर्षों बाद आने वाली यात्री ह्वेनत्सांग ने भी की है।" नारी जाति के लिए बौद्ध संघ में प्रवेश की भले ही कठोर शर्ते बुद्ध ने क्यों न लागू की हों, किन्तु इससे शताब्दियों पूर्व खो चुके उनके सामाजिक अधिकार उन्हें फिर से मिल पाए। वे स्वतंत्र रूप से जीवन जीने की अधिकारिणी मानी जाने लगी। थेरीगाथा में विभिन्न भिक्षुणियों द्वारा संघीय जीवन जीने के भावोद्गार देखने को मिलते हैं। आम्रपाली जैसी गणिका का उद्धार भगवान् बुद्ध की नारी जाति के प्रति मानवीय संवेदना का सुन्दर उदाहरण है। ___“नारी जाति के प्रति तथागत की करुणा एवं कल्याण भावना को 21वीं शताब्दी के चश्मे से न देखकर तत्कालीन परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में यदि देखा जाए तो बुद्ध सचमुच ही एक क्रान्तिकारी युग-प्रवर्तक महापुरुष के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। -बौद्ध दर्शन विभाग जम्मू विश्वविद्यालय, जम्मू 19. तत्रैव, पृ. 458 20. एस.बील - बुद्धिस्ट रिकार्ड ऑफ द वेस्टर्न वर्ल्ड,खण्ड - 1,पृ. 22 21. तत्रैव, खण्ड-2, पृ. 213 | For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध धर्म-दर्शन के अध्ययन की उच्चशिक्षा में प्रासंगिकता डॉ. हेमलता बोलिया वर्तमान में जीविकोपार्जन की विद्या का महत्त्व बढ़ता जा रहा है, जिससे मनुष्य पैसा कमाने की मशीन तो बनता जा रहा है, परन्तु दूसरी ओर वह संवेदना शून्य होकर केवल आर्थिक पशु होता जा रहा है। वह अर्थ कमाने के लिये किसी भी स्तर तक जा सकता है। वर्तमान युग में भाई-भाई, पति-पत्नी, स्वामी-सेवक, सास-बहू, गुरु-शिष्य, शासक-शासित, सहयोगी-मित्र सभी सम्बन्ध आशंका के घेरे में आ गये हैं। इन सब भयावह परिस्थितियों में जीवन तनावग्रस्त हो गया है और व्यक्ति एक अज्ञात भय, आतंक और आशंका में जी रहा है। . ऐसी स्थिति में तनाव की समस्याओं से कैसे निकला जाए, इन परिस्थितियों में क्या किया जाए आदि विषयों का प्रशिक्षण देना विश्वविद्यालय का दायित्व बनता है। स्कूल शिक्षा के समय विद्यार्थी निश्चिन्त रहता है, किन्तु विश्वविद्यालय में प्रवेश के साथ ही विद्यार्थी के जीवन में अनेक प्रकार के संघर्ष प्रारम्भ हो जाते हैं। पहले वह विद्यालयीय अनुशासन में जीता हैं, फिर विश्वविद्यालय में सभी प्रकार के बाह्य अनुशासन से प्रायः मुक्त हो जाता है और स्व-अनुशासन पर अधिक बल रहता है। इस स्थिति में उसे ऐसे अध्ययन या शिक्षा की आवश्यकता होती है जो उसे सम्यक् अनुशासन में जीना सिखाए। अतः विश्वविद्यालयों में आर्य अष्टांगिक मार्ग के अध्यापन की महती आवश्यकता है, क्योंकि 'शील' आचार से सम्बद्ध है, जिसका अभिप्राय अच्छे कर्म करने से है। शील से चित्त कुशल कर्मों की ओर आवर्जित होता है, जिसकी अभिव्यक्ति कायिक एवं वाचिक संयम में प्रतिफलित होती है। इसे ब्रह्मचर्य की संज्ञा भी दी जा सकती है। इसमें समस्त नैतिक आचरण की नियम संहिता अनुस्यूत हो जाती है। त्रिविध कायदुश्चरितों (प्राणातिपात, अदिन्नादान, काम मिथ्याचार) का सम्यक् For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला विशोधन 'सम्मा कम्मन्तो' (सम्यक कर्मान्त) है। चतुर्विध वाग्दुश्चरितों (पैशुन्य, पारुष्य, मृषावाद तथा सम्भिन्नप्रलाप) का विशोधन 'सम्मावाचा' (सम्यक् वाक्) है। इसका अभिप्राय है - वाणी पर नियन्त्रण। जीविका के अशोभन साधनों का विशोधन ही 'सम्मा आजीवो' (सम्यक अजीव) है। दुराजीव से तात्पर्य भेष मुखाकृति, भविष्यकथन, स्वप्नकथन, शकुनकथन, इन्द्रजाल प्रदर्शन, शस्त्रव्यापार, पशुव्यापार, मांस, मद्य तथा विष के व्यापार आदि से है। भावार्थ यह है कि जिस सवृत्ति के आश्रय से अनवद्य जीवन निर्वाह किया जाता है वह सम्यक् अजीव है। यदि सम्यक् आजीव विश्वविद्यालयीय शिक्षा का अंग बने तो अनेक समस्याओं का समाधान स्वतः ही हो जायेगा। छात्र सदाचरण की शिक्षा लेकर समाज में जायेंगे तो स्वस्थ समाज का स्वप्न चरितार्थ होगा। भ्रष्टाचार, घूसखोरी जो आज देश के कोढ बन गये हैं, उनकी गति के प्रसार में न्यूनता आयेगी। चित्त की एकाग्रता समाधि है।' ध्येयवस्तु का निरन्तर अविच्छिन्न रूप से स्मरण (चिन्तन) करना स्मृति और कुशल विचारों का अनुचिन्तन 'सम्मासति' (सम्यक् स्मृति) है। यहाँ 'प्रज्ञा' शब्द एक विशेष अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, जिसके अनुसार धर्म के स्वभाव का विशिष्ट ज्ञान 'प्रज्ञा' है। 'धम्मसभावपरिवेधलक्खणा पञ्जा'। मोहान्धकार का नाश करना उसका कार्य है। चार आर्य सत्यों का सम्यक् बोध ही 'सम्यक दृष्टि' है। यह निर्वाण मार्ग का प्रथम सोपान है। इसके अभाव में शील एवं समाधि की प्राप्ति सम्भव नहीं है। अविद्यामिश्रित संस्कारों को परिष्कृत करने का ज्ञानमय संकल्प ही 'सम्मा संकप्पो' (सम्यक संकल्प) है। संकल्प भी त्रिविध हैं - (1) नैष्कर्म्य संकल्प (2) अव्यापाद संकल्प (3) अविहिंसा संकल्प। सम्यक् संकल्प विचार दृढ़ता और निश्शंक निश्चय का सूचक है। बुराइयों को न उत्पन्न होने देने के लिए सतत उद्योग करना ही 'सम्मा वायामो' (सम्यक् व्यायाम) है। यह अष्टांगिक मार्ग दुःख-विनाश की ओर ले जाने वाला है। अतः यह मार्ग क्षेमकरी और उत्तम शरण है। इसकी शरण में आकर मानव दुःखों से छूट जाता है। अरियं अट्ठाङ्गिक-मग्गं दुक्खूपसमागमिनं।' एवं खो सरणं खेमं एतं सरणमुत्तमं। एवं सरणमागम्म सव्वदुक्खा पमुच्चति।। 1. चितस्स एकग्गता अयं समाधि। - संयुक्त निकाय, पृ. सं. 1 2. विसुद्धिमग्गो - 14 पृ. 305 3. धम्मपद, बुद्धवग्गो, 13 4. वही, 14 For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध धर्म-दर्शन के अध्ययन की उच्च शिक्षा में प्रासंगिकता * 101 इस मार्ग को संयुत्त निकाय के मग्गसंयुत में कल्याणमित्र (आध्यात्मिक उपदेष्टा) कहा गया है। बुद्ध ने 'दुःख सत्य' की स्थापना 'सव्वं दुक्खं' कहकर की है। उनके विचार में दुःख कोई दार्शनिक अवधारणा नहीं है, अपितु वास्तविक अनुभूति है। जन्म दुःख है जग-मरण, इच्छित वस्तु को प्राप्त न होना, अनिच्छित की प्राप्ति आदि दुःख हैं। एक प्रकार से बुद्ध ने अनात्मता, दुःखरूपता तथा क्षणभंगुरता (नश्वरता) के द्वारा भव (संसार) ओघ (प्रवाह/दुःख) को समझाया। इसका कारण तृष्णा है और इसका क्षय सम्भव है, जिसका उपाय मध्यम मार्ग है। तृष्णा के विकराल एवं भयंकर स्वरूप को बुद्ध ने समझाया और उससे छूटने का मार्ग भी दिखलाया। उपभोक्तावादी संस्कृति के वातावरण में विद्यार्थी कैसे मोबाइल, फैशन के कपड़े आदि की अपनी तृष्णाओं को कम कर सकता है, कैसे इनकी भयंकरता से बच सकता है, इसका बोध बुद्ध के दर्शन से सम्भव है। आज विश्वविद्यालयों में प्रत्येक विषय का अध्यापक स्वविषय की व्यावसायिकता और उपयोगिता का ही इतना विस्तार करता जा रहा है मानो उस विषय के अतिरिक्त संसार में कुछ है ही नहीं। अन्य विषयों के साथ गलाकाट प्रतियोगिता चल पड़ी है। वर्तमान में आई.आई.एम. और आई.आई.टी आदि संस्थानों में प्रबन्धन एवं इंजिनियरिंग के विषय इतने चल पड़े हैं कि उन्होंने अपनी सीमा में सभी विषयों को लीलना शुरू कर दिया है। साथ ही प्रबन्धन और प्रौद्योगिकी का छात्र सामान्य विज्ञान के छात्रों के प्रति हीनता के भाव से देखता है, तो दूसरी ओर विज्ञान का छात्र वाणिज्य के छात्र को हीन दृष्टि से देखता है। मानविकी एवं सामाजिक विज्ञान का कोई व्यक्ति यदि विश्वविद्यालयों के उच्च पद पर आ भी गया तो तकनीकी विरोध, राजनीति एवं घात-प्रतिघात के चक्र प्रारम्भ हो जाते हैं। वहाँ इनमें भी अन्तर्विरोध दिखाई देता है। छात्रों एवं कर्मचारियों में निष्णात राजनीतिगत गुटबाजी, परस्पर नीचा दिखाने की प्रवृत्ति, विश्वविद्यालय के कोष पर कब्जा जमाने की कश्मकश सर्वत्र दिखाई पड़ती है। इस गलाकाट प्रतियोगिता में नैतिकता और मर्यादा की सारी सीमाएँ.छिन्न-भिन्न हो जाती हैं। - गौतम बुद्ध ने इस भयावहता की स्थिति का पूर्वानुमान कर लिया था, इसीलिये उन्होंने समाज के अध्यापक (भिक्खु) के लिये आचार संहिता बनाते समय पंचशील की स्थापना का आदर्श दिया - 1. अपराह्न भोजन करना, 2. माला धारण न करना, 3. संगीत न सुनना, 4. स्वर्ण का त्याग और 5. महंगी शय्या का त्याग। यदि छात्र जीवन में ही इन सब के प्रति अनुराग हो जायेगा तो क्या वह अध्यापक बनकर शुद्ध कर्मान्त वाला बन पायेगा तथा तृष्णा पर विजय भी प्राप्त कर सकने में समर्थ होगा? कहा भी गया है5. कल्याणमित्तो कल्याणसहायो, कल्याणसम्पवङ्को अरियं अट्ठङ्गिकमग्गभावेति। - संयुत्तनिकाय, पृ. 4 For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला नत्थि रागसमो अग्गि नत्थि दोससमो गहो । नत्थि मोहसमं जालं नत्थि तण्हासमा नदी । " अर्थात् राग के समान (दूसरी) आग नहीं । द्वेष के समान (दूसरा) ग्रह (पिशाच) नहीं। मोह के समान (दूसरा) जाल नहीं और तृष्णा के समान (डुबा देने वाली नदी नहीं । बौद्ध धर्म की आधार शिला है - मध्यम मार्ग । अतः गौतम बुद्ध ने काय क्लेश और काम सुख को त्यागकर बीच का मार्ग अपनाने का उपदेश दिया । 'अति सर्वत्र वर्जयेत्' वीणा के तारों को इतना न कसो कि तार ही टूट जायें और न इतना ढीला रखो कि स्वर ही न निकले या बेसुरा हो जाये। दोनों ही अतियाँ अच्छी नहीं है। इनसे बचने का साधन मध्यम मार्ग है। इसी पर बौद्ध साधना टिकी हुई है। आचार्य बुद्धघोष ने अष्टांगिक मार्ग के महत्त्व एवं आवश्यकता का प्रतिपादन करते हुए 'विसुद्धिमग्गो' में लिखा है कि - 'सीलेन च कामसुखल्लिकानुयोगसंखातस्स अंतस्स वज्जं पकासंति होति। समाधिना अत्तकिलामयानुयोगसंखातस्स। पञ्ञाय मज्झिमाय पठिपत्तिया सेवन पकासितं होति।” अर्थात् शील से कामसुखात्मक आसक्ति निराकृत होती है और दुर्गति अतिक्रम का उपाय प्रत्यक्ष होता है। जहाँ प्रज्ञा से दृष्टि संक्लेश का विशोधन होता है तो समाधि से तृष्णा संक्लेश का और वहीं शील से दुश्चरित संक्लेश का विशोधन होता है। यह मार्ग हमें चिन्तन की सन्तुलित एवं विस्तृत दृष्टि प्रदान करता है। कहा जाता है 'सा विद्या या विमुक्तये' यहाँ मुक्ति को व्यापक अर्थ में समझना आवश्यक है। पूर्वाग्रह, संकुचित मानसिकता, अंधविश्वास से रहित सम्यक् एवं संतुलित जीवन दृष्टि का विकास करना ही इसका ध्येय है। 'श्रेय' की अनदेखी कर 'प्रेय' को ही सब कुछ समझ लेना, या फिर वर्तमान के संकुचित हित को ही जीवन का लक्ष्य समझने की मनोवृत्ति बना लेना उचित नहीं है। इस तथ्य का संदेश इसमें निहित है। विश्वविद्यालय की शिक्षा के क्षेत्र में इस सम्यक् एवं सन्तुलित जीवन दृष्टि के विकास में धर्म-दर्शन की महत्त्वपूर्ण भूमिका है तथा उनमें भी बौद्धधर्म-दर्शन इस दिशा में विशेष योगदान दे सकता है । किन्तु इस हेतु यह आवश्यक है कि बौद्ध धर्म-दर्शन का अध्ययन पारम्परिक रूप में न होकर एक नए रूप में हो । बुद्ध ने जो नवीन चिन्तन दृष्टि दी है तथा विश्वविद्यालयों में बौद्ध धर्म के अध्ययन-अध्यापन में जिन बिन्दुओं को रेखांकित करने की आवश्यकता है, वे कुछ बिन्दु हैं. - 1. संसार (भव ) की व्याख्या 'प्रवाह' (ओघ) के रूपक के माध्यम से करना । 6. धम्मपद, मसवग्गो, गाथा 17 7. विसुद्धिमग्गो, पृ. 23 For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला * 103 2. भव प्रवाह की व्याख्या के लिए किसी 'परासत्ता' की परिकल्पना की अनावश्यकता का प्रतिपादन। दो अतियों से बचना, दर्शन में मध्यम मार्ग है। 3. दुःख सत्य है - इसकी स्थापना। 4. चिन्तन के क्षेत्र में दार्शनिक तथा नैतिक पक्ष के साथ-साथ भौतिक तथा मनोवैज्ञानिक पक्षों को भी उतना ही महत्त्व प्रदान करना - 'अभिधम्मत्थसंगहो' में अधिधर्मों को चार समूहों में रखा गया है - 1. चित्त 2. चैतसिक 3. रूप और 4. निर्वाण। रूप के अन्तर्गत सभी भौतिक जगत् के पदार्थ आ जाते हैं। चित्त और चैतसिक पदार्थों के अन्तर्गत मनोवैज्ञानिक (Emotional) पदार्थ भी संगृहीत हैं, जैसे प्रीति, सुख इत्यादि । इस प्रकार मनोवैज्ञानिक वृत्तियों को भी शुद्ध दर्शन के क्षेत्र के अन्तर्गत रखा गया है; यह बुद्ध के चिन्तन की मौलिकता है। कवि इकबाल ने बुद्ध के दर्शन के वैशिष्ट्य को रेखांकित करते हुए कहा है - कोम ने पैगामे गौतम की ज़रा परवा न की कद्र पहचानी न अपने गौहरे यकदाना की (अद्वितीय मोती) . आशकार (प्रकट) उसने किया जो जिंदगी की राज़ था हिन्द को लेकिन ख्याली फल्सफे पर नाज़ था आह, शूद्र के लिए हिन्दोस्तां गमख़ाना है । दर्दे इन्सानी से इस बस्ती का दिल बेगाना है बरह मन सरशार है अब तक मए पिन्दार (अहंकार की मदिरा) में शम ए गौतम जल रही है महफिलें अगियार (गैरों की महफिल) में बुद्ध का दर्शन आज पूरे विश्व में धर्मदूत का कार्य कर रहा है। भारत में इस विद्या के पुनर्विकास के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने विश्वविद्यालयों में बौद्ध अध्ययन केन्द्र स्थापित कर सराहनीय कदम उठाया है। बौद्ध दर्शन के सैद्धान्तिक पक्ष के रूप में पाठ्यक्रम का और व्यावहारिक पक्ष के रूप में विपश्यना साधना का शिक्षण देकर विश्वविद्यालय के छात्रों को युगानुकूल बनाया जा सकता है। - संस्कृत विभाग मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर (राज) For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्वघोष के महाकाव्यों की प्रयोजनवत्ता. डॉ. सत्यप्रकाश दुबे सुवर्णाक्षीपुत्र साकेतनिवासी आचार्य भदन्त आदि अनेक उपाधियों से मण्डित महाकवि अश्वघोष रचित 'बुद्धचरित' तथा 'सौन्दरनन्द' नामक महाकाव्यों की रचना का मुख्य प्रयोजन तथागत गौतम बुद्ध के अमर सन्देश का समाज में सम्प्रेषण है। चूंकि इन दोनों ही काव्यों में धर्मतत्त्व को आत्मसात् कराने का यत्न किया गया है। आज के इस भौतिकता से परिपूर्ण समाज में धर्म के स्वरूप को हृदयङ्गम कराना कड़वी औषधि के चूंट पिलाने के समान है, तथापि कवि के शब्दों में वह मोक्षधर्म के अङ्गभूत काव्यधर्म रूपी मधु से सम्पृक्त कर देने से सुगम हो चला है - बुद्धानुरागादनुगम्य तस्य शास्त्रं च लोकस्य हिताय शान्त्यै। काव्यं कृतं ज्ञापयितुं निजस्य कला न काव्यस्य च कोविदत्वम्।। इत्येषा व्युपशान्तये न रतये मोक्षार्थगर्भाकृतिः श्रोतृणां ग्रहणार्थमन्यमनसां काव्योपचारात् कृता। यन्मोक्षात् कृतमन्यत्र हि मया तत् काव्यधर्मात् कृतं पातुं तिक्तमिवौषधं मधुयुतं हृद्यं कथं स्यादिति।।' मूलतः त्रयोदशसर्ग पर्यन्त उपलब्ध होने वाले बुद्धचरित महाकाव्य के प्रथम सर्ग में बौद्ध धर्म के उन तीन तत्त्वों का संकेत किया गया है जो कि बौद्ध धर्म में साधना के तीन अंगों के रूप में वर्णित हैं - प्रज्ञाम्बुवेगां स्थिरशीलवप्रां समाधिशीतां व्रतचक्रवाकाम्। अस्योत्तमां धर्मनदी प्रवृत्तां तृष्णार्दितः पास्यति जीवलोकः।। 1. बुद्धचरित 28.78 2. सौन्दरनन्द 18.63 3. बुद्धचरित 1.71 For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्वघोष के महाकाव्यों की प्रयोजनवत्ता * 105 अर्थात् प्रज्ञा ही जिसका जलप्रवाह है, स्थिर शील ही जिसके तट हैं, समाधि ही जिसकी शीतलता है और व्रत ही जिसके चक्रवाक हैं, उस प्रवृत्त उत्तम धर्म नदी के जल का वह प्रवर्तन करेगा और तृष्णा से पीड़ित जीवलोक उसके जल को पीयेगा। यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि बौद्ध धर्म उद्गम के सैकड़ों वर्ष पूर्व ही जैनधर्म के साथ श्रमणसंस्कृति का अवतरण हो चुका था और ये दोनों ही धर्म सम्प्रदाय मात्र तक सीमित न रहकर सर्वत्र भूमण्डल पर मानव जीवन के पथ-प्रदर्शक बने थे। जैसा कि नैषधीय चरित में जैन धर्म के प्रमुख विचारों 'सम्यक् दर्शन', 'सम्यक् ज्ञान' और 'सम्यक् चारित्र' में से सम्यक् चारित्र के अन्तर्गत सती धर्म का वर्णन करती हुई दमयन्ती कहती है - न्यवेशि रत्नत्रितये जिनेन यः स धर्म चिन्तामणिरुज्झितो मया। . कपालिकोपानलभस्मनः कृते, तदेव भस्म स्वकुले स्तुतं तया।। बौद्ध धर्म में साधना के तीन अंगों को प्रमुख स्थान दिया गया है - शील, समाधि और प्रज्ञा। इनमें शील का आधार नैतिकता -सदाचरण है जैसा कि बुद्धचरित के अराड् दर्शन नामक बारहवें सर्ग में कहा गया है - ... अयमादो गृहान्मुक्त्वा भैक्षाकं लिंगमास्थितः। समुदाचारविस्तीर्णं शीलमादाय वर्तते।।' समाधि में मानसिक विक्षेपों को दूर किया जाता है जैसा कि इसी महाकाव्य के छब्बीसवें सर्ग के 64 वें श्लोक में वर्णित है कि अपने भावों को सम तथा चित्त को नियन्त्रित करते हुए संसार के उदय और व्यय को जानो और समाधि का अभ्यास करो, क्योंकि जिसने मानसिक समाधि प्राप्त कर ली है उसे कोई आधियां स्पर्श नहीं करतीं। यह समाधि तो वह बोध है जिसके द्वारा विचाररूपी जल स्थिर किया जाता है। इस प्रकार मानसिक विक्षेपों के दूर होने पर चित्त में निर्मलता आती है, उसी का नाम प्रज्ञा है। जैसा कि बुद्धचरित के छब्बीसवें सर्ग के 67 वें श्लोक का भाव है - प्रज्ञा जरामरण रूपी महासागर में एक नौका है, मोहान्धकार में मानो एक प्रदीप है, समस्त व्याधियों को दूर करने वाली औषधि है, दोष रूपी वृक्षों को काटने वाली कुल्हाड़ी है। इसलिए प्रज्ञा की वृद्धि के लिए विद्या, ज्ञान और भावना का अभ्यास करो। क्योंकि जिसके पास प्रज्ञा रूपी चक्षु है उसे ही वास्तविक दृष्टि प्राप्त है। यद्यपि उस चक्षु में स्थूल पदार्थों को देखने की शक्ति नहीं होती। इसे सौन्दरनन्द महाकाव्य में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है - 4. नैषधीय चरित, 9.72 5. बुद्धचरित 12.46 For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला "प्रज्ञामयं यस्य हि नास्ति चक्षुश्चक्षुर्न तस्यास्ति सचक्षुषोऽपि बौद्ध धर्म में तृष्णा को ही सभी दु:खों का मूल माना गया है। यह तब होती है जब हम किसी अभीष्ट वस्तु को मूल्य प्रदान करते हैं - अज्ञानं कर्म तृष्णा च ज्ञेयाः संसारहेतवः। .. स्थितोऽस्मिंस्त्रितये जन्तुस्तत्सत्त्वं नातिवर्तते।।' यत्कर्माज्ञानतृष्णानां त्यागान्मोक्षश्च कल्प्यते। अत्यन्तस्तत्परित्यागः सत्यात्मनि न विद्यते।। ... उपादान का कारण तृष्णा है। जैसे हवा का साथ पाकर थोड़ी सी आग से जंगल प्रज्वलित हो जाता है वैसे ही तृष्णा से काम आदि महापाप वृद्धिंगत होते हैं। तृष्णा का कारण वेदना है।' बौद्धदर्शन में अन्यत्र भी दुःख के निरूपण में तृष्णा को ही मूल बताया गया है - इदं खो पन भिक्खवे, दुक्खं अरियसच्चं। जातिपिदुक्खा जरापि दुक्खा, मरणम्पि दुक्खं, सोकपरिदेवदोमनस्सुपामासादिदुक्खा, अप्पियेहि सम्पयोगो दुक्खो, पियेहि विप्पयोगो दुक्खो, यं पिच्छं न लभति तम्पि दुक्खं संख्यित्तेन पञ्चूपादानक्खन्धापि दुक्खा। .. ___ इदं खो पन भिक्खवे, दुक्खसमुदयं अरियसच्चं यो यं तण्हापोनव्भविका नन्दिरागसहगता तत्र तत्राभिनन्दिनी, सेयमीदम् कामतण्हा,भवतण्हा विभवतण्हा...। इसके पश्चात् “इदं खो पन भिक्खवे, दुक्खनिरोधं अरियसच्चं सो तस्सायेव तण्हाय असेसविरागनिरोधो चागो परिनिस्सागो मुत्ति अनालयोno आदि वचनों के द्वारा तृष्णात्याग को दुःखनिवृत्ति का हेतु बतलाया गया है। अश्वघोष ने अपने दोनों ही महाकाव्यों में सरल, प्रसादगुणोपेत और वैदर्भी रीति के माध्यम से संयतपदसन्निवेश किया है। दोनों ही रचनाओं में नायक का प्रतिद्वन्द्वी 'मन्मथ' अपनी उन्मादक वासना का जाल बिछाता है। राजकुमार सिद्धार्थ को सांसारिक पाश में बांधे रखने के लिए शुद्धोधन शृंङ्गार का मादक चन्दोआ तान देते हैं - ललनाएं अपना लालित्य एवं लास्य प्रकट करती हैं, अनवद्य वनितायें अपनी छवि बिछा देती हैं, तथापि गौतम स्वरूप में ही अवस्थित रहते हैं और कहते हैं कि प्रजाओं की इस रोगरूप 6. सौन्दरनन्द 18.35 7. बुद्धचरित 12.23 8. बुद्धचरित 12.73 9. बुद्धचरित 14.60, 61, 62 10. संस्कृति - डॉ. आदित्यनाथ झा अभिनन्दन ग्रन्थ 1969, दिल्ली For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्वघोष के महाकाव्यों की प्रयोजनवत्ता * 107 विपत्ति को देखते हुए भी संसार निर्भीक रहता है, अरे कितना अज्ञान है, इन मनुष्यों का, जो रोगभय से अमुक्त होकर भी हँस रहे हैं - इदं च रोगव्यसनं प्रजानां पश्यंश्च विश्रम्भमुपैति लोकः। विस्तीर्णमज्ञानमहो नराणां हसन्ति ये रोगभयैरमुक्ताः।। राजा के द्वारा नियुक्त विषयोपभोग का ख्यापन करने वाले उदायी के वचनों को सुनकर गौतम स्पष्ट कह उठते हैं - नावजानामि विषयान्, जाने लोकं तदात्मकम्। अनित्यं तु जगन्मत्त्वा नात्र मे रमते मनः।। मैं विषयों की अवज्ञा नहीं करता हूँ, संसार को उनमें रत जानता हूँ, किन्तु जगत् को अनित्य मानकर मेरा मन इसमें नहीं रम रहा है। राजा बिंबिसार के द्वारा त्रिवर्ग-प्राप्ति उपदेश पर गौतम कह उठते हैं - त्रिवर्गसेवां नृप यत्तु कृत्स्नतः परो मनुष्यार्थ इति तत्वमात्थ माम्। अनर्थ इत्येव ममात्र दर्शनं क्षयी त्रिवर्गो न चापि तर्पकः।। पूरा त्रिवर्गसेवन परमपुरुषार्थ है। हे राजन्! यह जो आपने हमें कहा, इसमें मैं अनर्थ ही देखता हूँ। क्योंकि त्रिवर्ग नाशवान है और तप्तिदायक भी नहीं है। ...यज्ञों को प्रणाम है। मैं वह सुख नहीं चाहता जो दूसरों को दु:ख देकर प्राप्त होता है - ... नमो मखेभ्यो न हि कामये सुखं परस्य दुःखक्रियया यदिष्यते। . सौन्दरनन्द की कथा में बुद्धचरित से अधिक लौकिकता दिखाई पड़ती है, इसका एकमात्र प्रयोजन है - सांसारिक भोगविलास की नश्वरता दिखाकर बुद्धमार्ग की श्रेष्ठता का उपस्थापन। कथा एकदम सीधी है। अपनी प्रेयसी को जीवनसर्वस्व मानने वाले नन्द का प्रमुख शत्रु वही मन्मथ है जिसे अवाङ्मुख बनाकर गौतम बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्त किया था। अब गौतम बुद्ध नन्द को ज्ञानदीप द्वारा कामकर्दम से उबारते हैं। इस प्रसंग में एक ओर पत्नी के प्रति वज्र कीलायित अनराग और दूसरी ओर बुद्ध का दैवी आकर्षण नन्द को द्वन्द्व में डाल देते हैं। उसकी इस मन:स्थिति का वर्णन करते हुए कवि कहता है - . तं गौरवं बुद्धगतं चकर्ष भार्यानुरागः पुनराचकर्ष। सोऽनिश्चयान्नापि ययौ न तस्थौ तरंस्तरङ्गेष्विव राजहंस।।" यहां नन्द के हृदयगत भावों के मुखरण में कविवर्य ने अपनी मानव हृदय सम्बन्धी चुभती परख का परिचय दिया है। 11. सौन्दरनन्द 4.42 For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला मानवता के समग्र अवदात गुणों के पुञ्ज शाक्यवंश का अवतरण अश्वघोष ने हिमालय के उस तपः पूत आंचल में किया है जहां की वायु में भी वदान्यता एवं महत्ता का सौरभ बहना स्वाभाविक है। कवि ने कपिलवस्तु के वर्णन में जिन तत्त्वों का समाहरण किया है, उसे पढ़कर यह प्रतीत होता है कि स्वयं धर्म मूर्तिमान होकर अवतरित हुआ है तथा उसकी सहचारिणी समस्त ऋद्धि-सिद्धियां उसकी सेवा में उपस्थित हुई हैं। यहां कपिलवस्तु के लिए चयनित शब्दों पर दृष्टिपात आवश्यक है - सन्निधानमिवार्थानामाधानमिव तेजसाम् । निकेतमिव विद्यानां सङ्केतमिव सम्पदाम् ।।12 यह नगर गुणवानों का वासवृक्ष तथा पक्षियों का रैन बसेरा है वासवृक्षं गुणवतामावासं शरणैषिणाम् । आनर्तं कृतशास्त्राणामालानं बाहुशालिनाम्।।13 यहां कवि ने ‘वासवृक्ष' शब्द के प्रयोग से यह ध्वनित किया है कि वस्तुत: यह रैन बसेरा - डेरा है। इसी प्रकार तृतीयपद में 'कृतशास्त्राणाम् आनर्तम्' कहकर प्राणियों के लिए दिये गये मञ्च पर अभिनय कला को प्रदर्शित करने का स्थान बतलाया है तथा कृतविद्य महाशास्त्रार्थियों को भी उनकी अनित्यता का ध्यान दिलाया है। जीवन की क्षण-भङ्गुरता पर चिन्तन करता हुआ कवि कहता है - - ऋतुर्व्यतीतः परिवर्तते पुनः क्षयं प्रयातः पुनरेति चन्द्रमाः। गतं गतं नैव तु सन्निवर्तते जलं नदीनां च नृणां च यौवनम् ।।4 बुद्ध नन्द को उसकी इच्छा के विरुद्ध धर्मदीक्षा देकर भिक्षु बना देते हैं, अनिच्छुक नन्द के सिर के बाल उतार दिये जाते हैं और वह आंसू गिराता रहता है। अतो रुतं तस्य मुख सवाष्पं प्रवास्यमानेषु शिरोरुहेषु । वक्राग्रनालं नलिनं तडागे वर्षोदकक्लिन्नमिवाबभासे ।। 15 संन्यासी बनकर पुनः गृहस्थ बनने की सुन्दरनन्द की भावना पर कुठाराघात करता हुआ कवि अपनी भाव शुद्धि तथा मनोहर अनुभूति को प्रस्तुत करता हुआ कहता है - 12. सौन्दरनन्द 1.53 13. सौन्दरनन्द 1.54 14. सौन्दरनन्द 9.28 15. सौन्दरनन्द 5.52 For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृपणं बत यूथलालसो महतो व्याधभयात् विनिःसृतः । प्रविवक्षति वागुरां मृगश्चपलो गीतरवेण वञ्चितः।।" अश्वघोष के महाकाव्यों की प्रयोजनवत्ता 109 अर्थात् वह मनुष्य उस चपल मृग के समान है जो बहेलिये के भयङ्कर भय से निकल कर गीत की ध्वनि से वञ्चित होकर जाल में स्वयं फंसना चाहता है। (वाहिंसने उरच्गन् च) कवि अलंकारों के प्रयोग में अत्यधिक कुशल है । जरारूपी यन्त्र से सन्त्रस्त होकर मृत्यु की प्रतीक्षा करने वाले सारहीन शरीर की रस निचोड़े गये तथा जलाने के लिए सुखाये जा रहे ईख से की गयी उपमा कितनी प्रभावोत्पादक है - यथेक्षुरत्यन्तरसप्रपीडितो भुवि प्रविद्धो दहनाय शुष्यते । तथा जरायन्त्रनिपीडिता तनुर्निपीतसारा मरणाय तिष्ठति । । 7 इस प्रकार महाकवि अश्वघोष की अमृत निष्यन्दिनी लेखनी से प्रसूत बुद्धचरित और सौन्दरनन्द महाकाव्य में अवगाहन करने पर यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने जिन प्रयोजनों को ध्यान में रखकर इन काव्यों का प्रणयन किया है वे उनमें पूर्ण सफल हुए हैं। इन दोनों ही काव्यों के स्वाध्याय से अश्वघोष की वैदिक यज्ञानुष्ठान में प्रवीणता, अराड् द्वारा किया गया गौतम को उपदेश, महाभारत के सांख्य सिद्धान्तों में निष्णातता, तत्कालीन नीतिशास्त्र, कौटिल्य के अर्थशास्त्र, वैद्यक शास्त्र आदि उपयोगी विद्याओं में दक्षता का पता तो चलता ही है, मुख्य रूप से शील, समाधि और प्रज्ञा के द्वारा चित्तशुद्धि करके सभी समस्याओं के मूल तृष्णा से रहित होकर जीवन के परमपुरुषार्थ मोक्ष को किस प्रकार प्राप्त कर बुद्धत्वस्वभाव में पहुंचा जा सकता है, इसे समझाने में कवि अश्वघोष पूर्ण सफल हुए हैं। 16. सौन्दरनन्द 8.15 17. सौन्दरनन्द 9.31 - संस्कृत विभाग, जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पंचशील की प्रासंगिकता डॉ. प्रभावती चौधरी मनो पुब्बंगमा धम्मा मनो सेट्ठा मनोमया मनसा च पदुद्वेन भासति वा करोति वा। .. ततो दुक्खमन्वेति चक्क व वहतो पदं। 1 भगवान् बुद्ध ने चित्त या मन को समस्त साधनाओं का केन्द्र बिन्दु माना। चित्त साधना का पूर्वघटक एवं पूर्वगामी है, अतः वह साधना को प्रभावित करता है। चित्त समस्त मानसिक क्रियाओं का उत्पत्ति स्थल है। संसार में प्रवृत्ति का कारक भी मन ही है, इसी का विचार ब्रह्मबिन्दूपनिषद् में भी प्राप्त होता है - न देहो न जीवात्मा नेन्द्रियाणि परन्तप। मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः। इन्द्रियाँ, देह आदि कोई भी मनुष्य के बन्ध एवं मोक्ष में कारण नहीं हैं, अपितु मन ही बन्धन एवं मुक्ति का हेतु है। बुद्ध ने समाधि और शील द्वारा मन को वश में करना सिखाया, ताकि जब-जब मन में दुराचरण के भाव जागें तब तब मन को नियंत्रित करके उसे बुरे मार्ग पर जाने से रोकें। मन के संयमन के लिए शील का पालन वैसे ही आवश्यक है जैसे जीवन के लिए प्राण वायु। शील (सदाचार) हमारे जीवन में क्या स्थान रखता है, इसको पद्य रूप में इस प्रकार व्यक्त किया गया है - सीलं बलं अप्पठिमं, सीलं आयुधमुत्तमं। -सीलमाभरणं सेट्ठं, सील कवचमब्भुतं।। अप्रतिम है शील का बल, उत्तम है शील आयुध, श्रेष्ठ है शील का आभरण और 1. धम्मपद 1.1 2. धम्मवाणी संग्रह, विपश्यना विशोधन विन्यास, इगतपुरी,शील की महिमा, श्लोक 1 For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पंचशील की प्रासंगिकता * 111 अद्भुत है शील का कवच। __ शील का अर्थ है - 'सब्बपापस्स अकरणं' अर्थात् सभी पाप कर्मों को नहीं करना। धर्म मार्ग में अग्रसर होने के लिए शील धारण करना आश्यक है। शील को धारण करने से दुर्वासनाओं से जन्य दुष्कर्मों से दूर रहने के कारण भय और चिन्ता से मुक्ति होती है। शील के पश्चात् समाधि की क्रिया प्रारम्भ होती हैं। समाधि के द्वारा पुराने क्लेश नष्ट होते हैं और प्रज्ञा प्रकट होती है। प्रज्ञा द्वारा तृष्णा और वासनाओं से मुक्ति मिलती है। बौद्ध धर्म में भिक्षु और गृहस्थ दोनों के लिए शील का विधान है, जिनका पालन करना उनका पहला कर्त्तव्य है। वे पञ्चशील निम्नलिखित हैं - 1. पाणातिपाता वेरमणी -प्राणिहिंसा से विरत रहना। 2. अदिन्नादाना वेरमणी - अदत्तादान (चोरी) से विरत रहना। 3. कामेसु-मिच्छाचारा वेरमणी - व्यभिचार से विरत रहना। 4. मुसावादा वेरमणी - मिथ्यावचन से विरत रहना। 5. सुरा-मेरय-मज्ज-पमादट्ठाना वेरमणी - शराब, मदिरा आदि नशे तथा प्रमादकारी वस्तुओं से विरत रहना। पञ्चशील के अतिरिक्त भिक्षुओं के लिए अन्य पाँच शील का भी उपदेश है - 1. अपराह्न में भोजन ग्रहण, 2. मालाधारण का त्याग, 3. संगीत का त्याग, 4. सुवर्ण, रजत का त्याग, 5. महार्घ शय्या का त्याग। इस प्रकार भिक्षु के लिए 10 शीलों का प्रावधान है। चतुर्थ आर्य सत्य के रूप में तथा प्रज्ञा शील-समाधि रूपी त्रिशिक्षा के रूप में कथित आष्टांगिक मार्ग में भी 'शील' का समावेश है। इनमें सम्यक् वाक्, सम्यक् कर्मान्त और सम्यक् आजीव शीलाचार में परिगणित है। उसका स्वरूप इस प्रकार है. सम्यक् वाक् - हमारी वाणी सम्यक हो। सम्यक् से तात्पर्य है असत्य से दूर रहना, किसी की निन्दा न करना, सदा सत्य बोलना, कठोर भाषा का प्रयोग न करना, निरर्थक वार्तालाप से दूर रहना। अर्थात् वाणी के चार प्रकार के दोषों - 1. मिथ्यावादिता 2. निन्दा 3. अप्रिय वचन एवं 4. वाचालता से दूर रहना एवं मंगलमय, मित तथा मधुर वचनों का प्रयोग सम्यक वाक् है। सम्यक कर्मान्त - मन, वचन व शरीर के द्वारा किए जाने वाले कार्य सम्यक रहें, अर्थात् सम्यक् संकल्प केवल मानसिक एवं वाचिक न हो, अपितु कर्मरूप में परिणत हो। प्राणियों को हिंसा, चोरी, व्यभिचार व छल-कपट का मार्ग छोड़कर शुभ कमों का आश्रय 3. खुद्दक पाठ 2.2, दससिक्खापदं For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1112 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला लेना चाहिए। सम्यक् कर्मान्त का अर्थ है बुरे कर्मों का त्याग । बुद्ध के अनुसार तीन पाप कर्म हैं - हिंसा, स्तेय एवं इन्द्रिय-निग्रह का अभाव। सम्यक् कर्मान्त इन तीन कर्मों का विपरीत है अर्थात् हिंसा न करना, चोरी न करना एवं इन्द्रियों का निग्रह करना। भगवान बुद्ध ने कहा - जो जीव हिंसा करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है परस्त्रीगमन करता है, सुरापान करता है, वह इस संसार में अपनी ही जड़ खोदता है। यो पाणमतिपातेति मुसावादं च भासति। लोके अदिन्नं आदियति परदारं च गच्छति।। . ' सुरामेरयपानं चयो नरो अनुयुञ्जति। इधेवमेसो लोकस्मिं मूलं खणति अत्तनो।। सम्यक् आजीविका-सम्यक् कर्म से सम्यक् जीवन बनता है। निषिद्ध कर्मों को त्यागकर छल, कपट रहित ईमानदारी से जीविका अर्जन सम्यक् आजीविका है। पालिनिकाय में पाँच प्रकार के कर्मों का निषेध किया गया है- . 1. सत्थ वाणिज्जा अर्थात् शस्त्र का व्यापार 2. सत्त वाणिज्जा अर्थात् प्राणी का व्यापार , 3. मंस वाणिज्जा अर्थात माँस का व्यापार 4. मज्ज वाणिज्जा अर्थात् मद्य का व्यापार 5. विस वाणिज्जा अर्थात् विष का व्यापार इन निषिद्ध कर्मों को त्याग कर उचित मार्ग से जीविकोपार्जन करना चाहिए, यही सम्यक् आजीविका है। भगवान् बुद्ध ने प्राणिमात्र के लिए धम्म का सार इस रूप में बताया - सव्वपापस्स अकरणं कुसलस्स उपसम्पदा। सचित्तपरियोदपनं एतं बुद्धानं सासनं।। वस्तुतः शील समाधि एवं प्रज्ञा ही बुद्धधर्म का सार है शील के बिना प्रज्ञा एवं प्रज्ञा के बिना शील अधूरे हैं - शील पर बुद्ध ने अत्यधिक महत्त्व देते हुए कहा - यो च वस्ससतं जीवे दुस्सीलो असमाहितो। एकाहं जीवितं सेय्यो सीलवन्तस्स झायिनो।। 4. धम्मपद, मलवग्गो12-13 5. धम्मपद, बुद्धवग्गो 14.5 6. धम्मपद, सहस्स वग्गो गाथा।। For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पंचशील की प्रासंगिकता * 113 सभी प्रकार के शीलों का मूल आधार अकुशल कर्मों की सही पहचान व उनका परित्याग है। इसी से कर्मफल की व्यवस्था की शुरूआत होती है - तीन कायिक, चार वाचिक एवं तीन मानसिक - इन दस अकुशल कर्मों को सही रूप में पहचान कर उनका निराकरण करके हम अपने चित्त को वश में रख सकते हैं। ऐसे पाप जो स्वभाव से दुष्कर्म हैं - प्राणिवध, चोरी, व्यभिचार, असत्यभाषण एवं सुरापान - आज विश्व में ये सभी पाप कर्म निरन्तर वृद्धि प्राप्त कर रहे हैं। अपने स्वार्थ एवं लालसाओं के कारण मानव त्याग एवं सहिष्णुता को छोड़कर निरन्तर इन दुष्कर्मों का आश्रय लेकर न केवल स्वयं को पतन की ओर अग्रसर कर रहा है, अपितु सामाजिक सद्भावना, प्रेम, क्षमा आदि गुणों से वंचित होकर अपने दुःख का मार्ग प्रशस्त कर रहा है। वस्तुतः सम्पूर्ण भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में आचार पर अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। मोक्ष-प्राप्ति ही नहीं, अपितु सम्यक् सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व धार्मिक जीवन हेतु भी आचार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यही कारण है कि मनु ने आचार को परम धर्म माना - आचारः परमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च। तस्मादस्मिन् सदा युक्तो नित्यं स्यादात्मवान्द्विजः।।' वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः। एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्।। जैन दर्शन में साधु के लिए पाँच महाव्रतों का निर्देश करते हुए गृहस्थजन के लिए पाँच अणुव्रत का निर्देश है, क्योंकि गृहस्थ जन साधुवत् महाव्रतों का पालन करें तो सामान्य रूप से जीवनचर्या एवं सामाजिक कृत्य नहीं कर सकते - अणुव्रतोऽऽगारी। मर्यादित रूप में जिनका पालन किया जाता है, वे अणुव्रत 1. अहिंसा, 2. सत्य, 3. अस्तेय 4. ब्रह्मचर्य 5. अपरिग्रह रूप पाँच प्रकार के हैं। वस्तुतः शील के रूप में निरूपित ये अणुव्रत शाश्वत उपदेश हैं जो सार्वकालिक एवं सार्वदेशिक होने से आधुनिक काल में विशेष रूप से विचारणीय हैं, क्योंकि वर्तमान समय में काम, क्रोध एवं लोभ जैसे कषाय अपने चरम पर हैं तथा तज्जन्य हिंसा से सकल समाज, सभी देश उद्वेलित है। ऐसे समय में इनकी प्रतिष्ठा आवश्यक है - इनमें . प्रथम है अहिंसा। 7. मनुस्मृति 1.108 8. मनुस्मृति.2.12 9. तत्त्वार्थसूत्र, 7.15 For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला अहिंसा तत्वार्थसूत्र में अहिंसा का लक्षण न करके हिंसा का स्वरूप निर्दिष्ट है। - प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणम् हिंसा। " अर्थात् राग-द्वेष से युक्त होकर मानसिक, वाचिक या कायिक रूप से प्राण-व्यपरोपण हिंसा है, इसके विपरीत अहिंसा है। इस अहिंसा के पांच अतिचार हैं - बन्ध, वध, छविच्छेद, अतिभार का लादन, अन्न-पान का निरोध - इन पाँच अतिचारों से बचना आवश्यक है - सत्य तत्त्वार्थसूत्र में असत्य अथवा अनृत का लक्षण है - असदभिधानमनृतम्।" महाभारत में सत्य के स्वरूप तेरह बताए गए हैं - प्राप्यते च यथा सत्यं तच्च श्रोतुमर्हसि। सत्यं त्रयोदशविधं सर्वलोकेषु भारत।। सत्यं च समता चैव दमश्चैव न संशयः। अमात्सर्यं क्षमा चैव ह्रीस्तितिक्षानसूयता।। त्यागो ध्यानमथार्यत्वं धृतिश्च सततं स्थिरा। अहिंसा चैव राजेन्द्र सत्याकारास्त्रयोदश।।12 अर्थात् सत्य, समता, दम, अमात्सर्य, क्षमा, ह्री, तितिक्षा, अनसूयता, त्याग, ध्यान, आर्यत्व, स्थिरमति एवं अहिंसा सत्य का स्वरूप है। अतः किसी भी रूप में सत्य रूप धर्म की प्रतिष्ठा आवश्यक है। सत्य की प्रतिष्ठा होने का फल द्रष्टव्य है - - काले गावः प्रसूयन्ते नार्यश्च भरतर्षभ। भवन्त्युतुषु वृक्षाणां पुष्पाणि च फलानि च।।13 अर्थात् सत्य की प्रतिष्ठा होने पर गाएँ समय पर प्रसव करती है। स्त्रियाँ भी ऋतुकाल में प्रसव करती हैं यहा तक कि वृक्षों के पुष्प व फल भी ऋतु के अनुसार वर्धन करते हैं। मिथ्योपदेश, रहस्याभ्याख्यान, कूटलेखक्रिया, न्यासापहार और साकार-मन्त्र भेद ये पाँच सत्य के अतिचार हैं। वर्तमान काल में इस प्रकार के अतिचारों का बाहुल्य सर्वत्र दिखाई देता है - 10. तत्त्वार्थसूत्र, 7.8 11. तत्वार्थ सूत्र 7.9 12. महाभारत शान्तिपर्व 162.7,8-9 13. महाभारत शान्ति पर्व, 64.25 For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पंचशील की प्रासंगिकता 115 मिथ्यापदेश का तात्पर्य है गलत - सही समझा-बुझाकर गलत राह पर प्रविष्ट कराना। वर्तमान में प्रिया गोल्ड, गोल्ड सुख काण्ड इसकी ओर ही संकेत करते हैं, जिसके कारण लोभ में आकर हजारों लोगों ने निवेश किया एवं इनके मालिकों द्वारा जबरदस्त ठगी का शिकार हुए। रहस्याभ्याख्यान - रागवश विनोद हेतु पति-पत्नी या स्नेहीजनों द्वारा परस्पर रहस्य का कथन करके एक दूसरे से अलग करना । कलियुग में सम्बन्धों में निरन्तर बढ़ती दूरियां इसी अतिचार का संकेत हैं। इससे परस्पर अविश्वास का वातावरण उत्पन्न होता है। अतः इस प्रकार के व्यवहार से बचना आवश्यक है। कूटलेखक्रिया - हस्ताक्षर, मोहर आदि द्वारा झूठा कार्य करना । वर्तमान में इस प्रकार के कार्य-कलाप बहुलता से द्रष्टव्य हैं। इसी कारण से कई नकली -प्रमाण पत्र, बैंक फारजरी आदि प्रकरण सुर्खियों में रहते हैं। न्यासापहार- कोई धरोहर रखकर भूल जाए तो उसका लाभ उठाकर थोड़ी या पूरी धरोहर दबाना । साकार मन्त्रभेद - किसी भी आपसी प्रीति तोड़ने के लिए एक दूसरे की चुगली करना या किसी की गुप्त बात प्रकट करना । वर्तमान काल में एम.एम.एस., सीड़ी प्रकरण, फोन टेपिंग आदि के द्वारा ब्लेकमेलिंग का कारोबार अत्यधिक बढ़ रहा है। इन पाँच प्रकार के अतिचारों का त्याग आवश्यक है, अन्यथा पापार्जन के साथ-साथ समाज की व्यवस्थाओं के भी नष्ट होने की संभावना है। अस्तेय तत्त्वार्थ में स्तेय लक्षण इस प्रकार है- अदत्तादानं स्तेयम् 4 अर्थात् बिना दिए लेना चोरी है - किसी अन्य के स्वामित्व की वस्तु यदि तृणवत् है तो भी बिना उसकी आज्ञा के लेना चोरी के अन्तर्गत है । चोरी की ऐसी सूक्ष्म व्याख्या की वर्तमान काल में प्रतिष्ठा अत्यावश्यक है। इसके पाँच अतिचार बताए गए हैं - स्तेनप्रयोग, स्तेनाहृतादान, राज्य - विरुद्ध कार्य, हीनाधिक मानोन्मान एवं प्रतिरूपक व्यवहार - ये पाँच प्रकार के अतिचार भी वर्तमान में सर्वत्र स्तेय का बाहुल्य प्रकट कर रहे हैं। आयात-निर्यात कर चोरी, चुराई गई वस्तु का छद्म रूप से व्यापार, तोल में गड़बड़ी, नकली नोट का चलाना आदि प्रकार आज बहुतायत से बढ़ रहे हैं । ब्रह्मचर्य 'मैथुनमब्रह्म' अब्रह्म के विपरीत आचरण ब्रह्मचर्य है । तत्त्वार्थसूत्र में इसके पाँच अतिचार हैं - परविवाहकरणेत्वरपरिगृहीताऽपरिगृहीतागमनानङ्गक्रीडा तीव्रकामाभिनिवेशा:'s 14. तत्वार्थसूत्र 7.10 15. तत्त्वार्थसूत्र 7.23 For Personal & Private Use Only 15 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • 116 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला परविवाहकरण, इत्वरपरिगृहीतागमन, अपरिगृहीतागमन, अनङ्गक्रीडा, तीव्रकामाभिनिवेश ये पाँच अतिचार ब्रह्मचर्य रूप व्रत के पालन में बाधा है। पुरुषार्थ चतुष्टय में धर्मपूर्वक अर्थ एवं काम का सेवन वस्तुतः गृहस्थ जनों के लिए इन अतिचारों से निवृत्ति का मार्ग है। अपनी पत्नी के अतिरिक्त प्रत्येक स्त्री को मातृवत् समझें। महाभारत का यह वचन भी ब्रह्मचर्य के अतिचारों से बचने का उपाय है। अपरिग्रह ईशावास्योपनिषद् का प्रथम मन्त्र भारतीय संस्कृति में अपरिग्रह के स्वरूप को निर्दिष्ट करता है - ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।। इसका तात्पर्य है कि सम्पूर्ण वस्तुओं पर उस परमात्मा का स्वामित्व है, अतः किसी भी वस्तु का अपनी आवश्यकता के अनुसार ही उपभोग करें तथा उसे ईश्वर का ही अनुग्रह समझें। अन्य के धन का लोभ न करें। वस्तुत: उपर्युक्त मन्त्र अपरिग्रह एवं अस्तेय दोनों व्रतों के पालन का स्वरूप प्रस्तुत करता है। क्षेत्र और वास्तु, हिरण्य और सुवर्ण, धन और धान्य, दासी व दास, कुप्य के प्रमाण का अतिक्रमण ये पाँच अपरिग्रह परिमाण के अतिचार हैं।6 - तत्त्वार्थसूत्र (7.12) में परिग्रह का लक्षण - 'मूर्छा परिग्रहः' भी परिग्रह के स्वरूप को व्यक्त करता है। मूर्छा का तात्पर्य है आसक्ति। अतः आसक्तिवश अर्थ की ओर प्रवृत्ति परिग्रह है। इस प्रकार हम देखते हैं कि इन पाँच प्रकार के अणुव्रतों के पालन से न केवल मोक्ष का मार्ग प्रवृत्त होता है, अपितु सामाजिक, आर्थिक व्यवहार भी सम्यक् रूप से परिचालित होता है। आज समाज में आचार की प्रतिष्ठा आवश्यक है। यदि आचार की पालना हो या विद्यालय स्तर पर आचार-शिक्षा का समुचित अध्ययन हो तो समाज में निरन्तर वृद्धि को प्राप्त काम, क्रोध, हिंसा पर अंकुश संभव है। श्री कृष्ण ने गीता में कहा है - ध्यायतो विषयान् पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते। सङ्गात् संजायते कामः कामात् क्रोधोऽभिजायते।। 7 शील का महत्त्व वस्तुतः उच्च तकनीकी तन्त्र ने जब वैश्वीकरण को बढ़ावा देकर सकल विश्व 16. तत्त्वार्थसूत्र 7.24 17. श्रीमद्भगवद्गीता, 2.62 For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पंचशील की प्रासंगिकता * 117 को एक धरातल पर उपस्थित कर दिया है, ऐसे समय में बाजारवाद ने उपभोक्तावाद को अत्यधिक प्रश्रय दिया है। घर में बैठे बाल-मन को भी इस बाजारवाद ने अपने वशीभूत करके कामनाओं की एक अविच्छिन्न परम्परा को उत्पन्न किया है, जिसके कारण निरन्तर विषयों का चिन्तन एवं उन विषयों की प्राप्ति के प्रति अन्धता ने हिंसा, द्रोह, असन्तोष, मर्यादा-उल्लंघन जैसे दोषों की श्रृंखला का निरन्तर प्रसार किया है, अतः समय रहते आचार-प्रतिष्ठा युगीन आवश्यकता है। धम्मपद में कहा गया है है कि दुराचार अथवा दुश्शील और असंयत जीवन के सौ वर्षों से तो सदाचार एवं संयत जीवन का एक दिन भी श्रेष्ठ है। इसलिए वृद्धावस्था तक शील का पालन ही उचित है - सुखं याव जरा सीलं। 18 एक बार स्थविर आनन्द ने भगवान बुद्ध से पूछा कि ऐसी कोई गन्ध है जो वायु के विपरीत जाती है? तो भगवान ने कहा - चन्दनं तगरं वा पि उप्पलं अथ वस्सिकी। एतेसं गन्धजातानं सीलगन्धो अनुत्तरो।।१ अप्पमत्तो अयं गन्धो यो यं तगरचन्दनो। यो च सीलवनं गन्धो वाति देवेसु उत्तमो।।२० इसका तात्पर्य है कि तगर या चन्दन, कमल या जूही की गन्ध तो अल्पमात्र है। इन सभी सुगन्धों से शील की सुगन्ध उत्तम है। शीलवान की उत्तम गन्ध देवी-देवताओं में फैलती है। अतः ठीक ही कहा गया है कि शील पर प्रतिष्ठित होकर ही विकारों को नियन्त्रित किया जा सकता है। पञ्चशील नैतिकता का आधार है, विकार रूपी मल को शील पारमिता के अभ्यास से दूर किया जा सकता है, अतः कहा गया है कि शीलपालन के बिना गृहस्थ या उपासक, धर्म के किसी भी गुण का अधिकारी नहीं बन सकता। शीलवान् पुरुष को काम भी पीड़ित नहीं कर सकता - 'तेसं संपन्नसीलानं... मारो मग्गं न विन्दति' अज्ञान के नाश के लिए कठोर नैतिकता आवश्यक है। शील और प्रज्ञा, सदाचार व अन्तर्दृष्टि में ऐक्य है। विचार व आचार की निर्मलता उनके धर्म का आधार है। बुद्ध बहुधा यह कहते सुने जाते हैं - शिष्यों, आओ! दुख से निवृत्ति के लिए पवित्र जीवन का निर्वाह करो।' . 18. धम्मपद,333 19. धम्मपद,55 20. धम्मपद, 56 For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 • बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला बुद्ध के उपदेशों को पर्याप्त जनाधार प्राप्त हुआ। वर्तमान काल में भी बुद्ध के उपदेश एवं बौद्धदर्शन के सिद्धान्त उतने ही प्रासंगिक हैं जितने बुद्ध के समय में थे। डॉ. राधाकृष्णन इस विषय में अपने विचार प्रस्तुत करते हुए कहते हैं - "मानवतावादी लोग आनन्द, प्रतिष्ठा और समस्त मानवों के मानसिक एकीकरण सम्बन्धी अपने सिद्धान्तों का बुद्ध को प्रथम प्रचारक मानते हैं। सामाजिक आदर्शवादी, नैतिक रहस्यवादी, बौद्धिक भविष्यवादी सभी बुद्ध के उपदेशों से आकृष्ट हुए हैं तथा अपने पक्ष की सत्यता के लिए बुद्ध का आश्रय लेते हैं। बुद्ध के उपदेशों का हमारे युग के लिए बड़ा मूल्य है।" 21 पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने अन्ताराष्ट्रीय सम्बन्धों के लिए कुछ सिद्धान्तों को विश्व के सामने रखा जिन्हें पञ्चशील के नाम से जाना जाता है। पण्डित नेहरू ने स्वयं कहा कि पञ्चशील के सिद्धान्तों का अर्थ एक अलग प्रकार की दृष्टि और विकास का विशिष्ट मार्ग है। लेकिन इसका विस्तृत एवं अन्तिम लक्ष्य है सभी राष्ट्रों में परस्पर संवेदना और वैचारिक समानता का भाव फैलाना, लेकिन बिना किसी के आन्तरिक मामलों में दखल दिए। सोवियत नेताओं के स्वागत हेतु कलकत्ता में सभा हुई जिसमें नहेरू के पञ्चशील का जिक्र करते हुए कहा गया "भारतीय चिन्तन के लिए पञ्चशील कोई नई अवधारणा नहीं है। यह भारतीय विचारधारा तथा संस्कृति में निहित है, आखिरकार पञ्चशील सहिष्णुता का संदेश ही तो है। इस विशाल और परम्परा विरोधी विश्व में पञ्चशील शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की अवधारणा से हमें सम्मान मिला है। हम यह सम्मान इसलिए पा सके हैं, क्योंकि हमारी विचारधारा सही है व ऐसे सिद्धान्तों पर आधारित है जो अवसरवादी नहीं है - 1. परस्पर एक दूसरे की भौगोलिक अखण्डता व सम्प्रभुता का सम्मान। 2. एक दूसरे पर आक्रमण नहीं करना। 3. एक-दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना। 4. परस्पर समानता तथा लाभ के आधार पर कार्य करना। 5. शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व।"22 पण्डित नेहरू द्वारा स्थापित पञ्चशील की इस अवधारणा से ही अन्ताराष्ट्रीय सम्बन्धों को पुनः शान्तिपूर्ण एवं वैश्विक सद्भावना के साथ विकसित किया जा सकता संस्कृत विभाग, जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर 21. गौतम बुद्ध, डॉ. राधाकृष्ण राजपाल एण्ड सन्स, कश्मीरी गेट, दिल्ली 2011 संस्करण, पृ. 27 22. जवाहरलाल नेहरू के भाषण भाग - 2, प्रकाशन विभाग, पृ. 19 For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साम्प्रदायिक सद्भाव और बौद्ध धर्म डॉ. श्वेता जैन साम्प्रदायिक द्वेष एवं हिंसा अहितकर भारतीय समाज में अनेक धर्म-सम्प्रदाय हैं-हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, यहूदी, जैन, बौद्ध आदि। इन सभी धर्म-सम्प्रदाय के प्रवर्तकों ने अपने दर्शन के साथ एक आदर्श आचार-प्रणाली भी व्यवस्थित की है। यदि इस आचार का पूर्णतः पालन किया जाता तो सभी हिन्दू बोधि सम्पन्न, सभी मुस्लिम समर्पित और शान्त, सभी सिक्ख शुद्ध हृदयी, सभी ईसाई समाजसेवक, सभी यहूदी उदार और सदाचारी, सभी जैन समताधारी एवं सभी बौद्ध राग-द्वेष विजेता बन जाते, किन्तु वस्तुतः ऐसा होता नहीं है। जैसे हर व्यक्ति में अच्छाई-बुराई दोनों होती हैं वैसे हर सम्प्रदाय में अच्छे बुरे लोग होते हैं। किसी भी सम्प्रदाय के न सभी लोग अच्छे हो सकते हैं, न सभी बुरे। परन्तु व्यक्ति साम्प्रदायिक आसक्ति के कारण अपने सम्प्रदाय के हर व्यक्ति को सज्जन और पराए सम्पद्राय के हर व्यक्ति को दुर्जन मानने लगता है। हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, यहूदी, जैन और बौद्ध कहलाने मात्र से कोई व्यक्ति सज्जन या दुर्जन नहीं हो सकता। किसी भी सम्प्रदाय का व्यक्ति परम पुण्यवान भी हो सकता है और नितान्त पापी भी। इस समझ के अभाव में और अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए साम्प्रदायिक हिंसा का उद्भव होता है। ... वर्तमान में साम्प्रदायिक दंगे व्यापक स्तर पर हो रहे हैं। जैसे 1984 के सिक्ख विरोधी दंगे और 2002 में गुजरात का नर-संहार, इस बात के परिचायक हैं। इनमें बड़े पैमाने पर जानमाल का तो नुकसान हुआ ही, क्रूरताओं की प्रकृति भी ज्यादा तीव्र और अमानवीय थी। हिन्दू और मुसलमान हों, अथवा सिक्ख, ईसाई, बौद्ध और जैन - इनके बीच किसी भी कारण से उत्पन्न द्वेष एवं हिंसा के वातावरण को कानून-व्यवस्था के द्वारा एक सीमा तक नियन्त्रित किया जा सकता है, किन्तु अन्तर्मन से रही दुर्भावनाओं को चित्त के For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला शोधन के द्वारा ही दूर किया जा सकता है। राहत एवं मुआवजा दिलों में भड़की आग के कारण को समाप्त नहीं करते। इसके लिए भगवान बुद्ध के उपदेश अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं जिनमें शाश्वत सत्य को प्रस्तुत किया गया है। धम्मपद में क्या ही सुन्दर कथन है- 'न हि वेरेन वेरानि सम्मन्तीध कुदाचनं, अवेरेन च सम्मन्ति" अर्थात् वैर से वैर कभी शान्त नहीं होता, अवैर अर्थात् मैत्री से ही वैर शान्त होते हैं। इन भावों का सम्प्रेषण जन-जन के जीवन में हो इसका प्रयास किया जाना चाहिए। एक-दूसरे के प्रति अवैर का भाव, मैत्री का भाव साम्प्रदायिक सद्भाव फैलाने में समर्थ होता है। आज राष्ट्र के नाम पर हिंसा को प्रोत्साहित किया जाता है, ऐसा कक्षा 5 की पाठ्य पुस्तक से ज्ञात होता है । पुस्तक में जापानी बच्चों से प्रश्नोत्तर इस प्रकार प्रकाशित हैं : प्रश्न- आप सबसे अधिक अच्छा किसे मानते हैं ? उत्तर- भगवान् बुद्ध को। प्रश्न- यदि भगवान बुद्ध पर कोई आक्रमण करे तो आप क्या करेंगे ? उत्तर- आक्रमण करने वाले को समाप्त कर देंगे। प्रश्न- यदि स्वयं भगवान बुद्ध ही जापान पर हमला करे ? · उत्तर- भगवान बुद्ध का सर हम काट देंगे। इस पाठ में राष्ट्र के नाम पर हिंसा को बहादुरी बताया गया है। यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा की शिक्षाएँ देने वाले बुद्ध क्या जापान पर आक्रमण कर सकते हैं ? यदि कर सकते हैं तो उनके (जापान के बच्चों) द्वारा बुद्ध को सबसे अधिक अच्छा क्यों माना गया ? यहाँ बुद्ध को अच्छा मानने के पीछे रहे आधारों को स्पष्ट करने के बजाय राष्ट्र के साथ बुद्ध को जोड़कर विद्यार्थियों के मन छोटी सी उम्र में ही संकीर्ण सोच के बीज बोये जा रहे हैं। जहाँ विश्व एक गाँव बन रहा है वहाँ मात्र राष्ट्र को महत्त्व न देकर पूरे विश्व अर्थात् मानव मात्र के कल्याण हेतु शिक्षा प्रदान करने की बात सोची जानी चाहिए। बौद्ध दर्शन का 'बहुजनहिताय 'बहुजनसुखाय' सिद्धान्त इसी शिक्षा की ओर संकेत करता है। बुद्ध की उदारदृष्टि भगवान बुद्ध ने धर्म या संघ को लेकर हिंसा न हो अर्थात् साम्प्रदायिक हिंसा का उद्भव न हो, इसके लिए अपने भिक्षुओं को उपदेश देते हुए कहा ममं वा, भिक्खवे, परे अवणं भासेय्युं, धम्मस्स वा अवण्णं भासेय्युं, संघस्स वा अवण्णं भासेय्युं, तत्र तुम्हेहि न आघातो न अप्पच्चयो न चेतसो अनभिरद्धि करणीया । ममं वा, भिक्खवे, परे 1. धम्मपद, 1.5 For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साम्प्रदायिक सद्भाव और बौद्ध धर्म * 121 अवण्णं भासेय्यु, धम्मस्स वा अवण्णं भासेय्यु, संघस्स वा अवण्णं भासेय्यं, तत्र चे तम्हे अस्सथ कुपिता वा अनत्तमना वा, तुम्हें येवस्स तेन अन्तरायो। अर्थात् कोई मेरी या मेरे धर्म या संघ की निन्दा करे, इस कारण तुम्हें उसके प्रति न वैर करना चाहिए, न असन्तोष और न क्रोध ही। क्योंकि भिक्षुओं! यदि कोई मेरी, धर्म तथा संघ की निन्दा करे, उस पर तुम वैर, असन्तोष या क्रोध प्रकट करोगे तो इससे तुम्हारी धर्म साधना में विघ्न पड़ेगा। अतः तुम्हें निन्दा करने वाले की बात पर विचार करना चाहिए कि उसमें कितना सत्य है और कितना असत्य। सत्य को स्वीकार कर, असत्य को मिथ्या समझकर त्याग देना चाहिए। तथागत द्वारा दिया गया यह उपदेश आज भी प्रासंगिक है। वर्तमान में साम्प्रदायिक विद्वेष फैलने में एक महत्त्वपूर्ण कारण है- अपने धर्म उपदेष्टा को सर्वोच्च मानना। इस बात को लक्ष्य में रखते हुए 'वर्ल्ड कान्फ्रेंस ऑफ रिलीजन्स फॉर पीस' संस्था ने अपने कार्य करने के स्वीकारोक्ति, समझौता एवं कार्यप्रणाली ये तीन आधार माने हैं 1. स्वीकारोक्ति- इसके अन्तर्गत सभी धर्मों के लोग मुक्त कण्ठ से इस तथ्य को स्वीकार करेंगे कि सभी धर्मों के सिद्धान्त पवित्र और पावन हैं। ... 2. समझौता- इसमें सभी धर्मावलम्बी सर्वसम्मति से सहमत होंगे कि सभी धर्मो के लोग आपस में मिलेंगे, अपने-अपने धर्म के सम्बन्ध में चर्चा करेंगे, धर्म की व्याख्या भी करेंगे, लेकिन किसी के धर्मपरिवर्तन का प्रयास नहीं करेंगे। 3. कार्यप्रणाली- शांति, सौहार्द तथा मानवीय प्रेम की स्थापना की दिशा में सभी धर्मों के लोग अपने-अपने धर्मों की विशेषताओं व श्रेष्ठ गुणों की व्याख्या तो करेंगे, लेकिन दूसरे धर्मो की बुराई कतई नहीं करेंगे, इसे शांति-स्थापना व धार्मिक समरसता की कार्यप्रणाली कहेंगे। सम्प्रदाय सद्भाव के बाह्य उपाय सम्प्रदाय-सद्भाव के लिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 में धार्मिक स्वतन्त्रता के अन्तर्गत कहां है-"हर व्यक्ति को इस बात का बुनियादी अधिकार है कि वह अपने विवेक और अंत:करण के अनुसार धार्मिक विश्वास को न केवल माने बल्कि अपनी आस्था और मान्यताओं को अपने धर्म में निर्दिष्ट या स्वीकृत कार्यों के रूप में प्रचारित भी कर सकता है। इतना ही नहीं दूसरों के उन्नयन के लिए अपने धार्मिक विचारों का प्रचार-प्रसार करने का भी उसे बुनियादी अधिकार है। अनुच्छेद 2. दीघनिकाय पालि, सीलक्खन्ध वग्ग, ब्रह्मजालसुत्त, अनुच्छेद 5, सम्पादक एवं अनुवादक-स्वामी द्वारिकादास शास्त्री, बौद्ध भारती, वाराणसी, 2005, भाग 1, पृ. 5 3. 'धर्म, सामाजिक सद्भाव और राष्ट्रीयता', राजस्थान प्रकाशन, जयपुर, 2010, हमारी बात' पृ. 14 For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला 25(1) में अपने धर्म का प्रचार करने का अधिकार देने का मतलब यह नहीं है कि किसी व्यक्ति को दूसरों का धर्म-परिवर्तन करने का अधिकार दे दिया गया है, बल्कि इसमें अपने धर्म की आस्थाओं का प्रचार कर अपने धर्म का प्रचार करने या उसे फैलाने का अधिकार दिया गया है।" भारतीय संविधान में लोक मंगल को ध्यान में रखकर धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार दिया गया है। सम्प्रदायवाद को रोकने एवं सम्प्रदाय सद्भाव हेतु कई कानूनी नियम बनाए गए हैं, जैसे उपद्रवग्रस्त इलाकों में आयुधों की तलाशी लेना। • साम्प्रदायिक रूप से उपद्रवग्रस्त क्षेत्रों में व्यक्तियों के आचरण के सम्बन्ध में आदेश देने के अधिकार। असद्भावपूर्ण रीति से कार्य करने वाले लोक सेवकों के लिए 144 की धारा लागू करना। साम्प्रदायिक सामंजस्य के संवर्धन और सांप्रदायिक हिंसा के निवारण कि लिए राज्य स्तरीय योजना। पीड़ितों को मुआवजा। पुनर्वास की व्यवस्था। प्रत्येक राज्य में साम्प्रदायिक सद्भाव योजना। शंका के आधार पर 'साम्प्रदायिक गड़बंडी' वाला क्षेत्र घोषित कर शीघ्र शान्ति के उपाय करना। बौद्ध धर्म में निर्दिष्ट आन्तरिक उपाय बुद्ध ने सम्प्रदाय-सद्भाव के आन्तरिक उपाय बतलाये हैं, जो इस प्रकार हैंमैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा ये चित्त की चार अवस्थाएँ ब्रह्मविहार कहलाती हैं। चित्तविशुद्धि के ये उत्तम साधन हैं। दूसरे जीवों के प्रति किस प्रकार सम्यक् व्यवहार करना चाहिए। इसका यह निदर्शन है। यह सम्यक् व्यवहार सम्प्रदाय सद्भाव को उत्पन्न करता है। इन चार भावनाओं से युक्त व्यक्ति समाज में सब प्राणियों के हित एवं सुख की कामना करता है, दूसरों के दुखों को दूर करने की चेष्टा करता है। जो सम्पन्न हैं, उनको देखकर वह प्रसन्न होता है, उनसे ईर्ष्या नहीं करता, सब प्राणियों के प्रति उसका समभाव होता है, किसी के साथ वह पक्षपात नहीं करता है। अतः ब्रह्मविहार आत्महित और परहित दोनों का साधन है।। प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति तथा स्थिति का यथाभूत दर्शन, यथाभूत ज्ञान ही सम्यक् दृष्टि है। जो सम्यक् दृष्टि होगा, वह सभी सम्प्रदाय के यथाभूत दर्शन को जानेगा For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साम्प्रदायिक सद्भाव और बौद्ध धर्म - 123 तो समझ जाएगा कि सम्प्रदायवाद फैल रहा है। यह व्यक्ति के निज राग-द्वेष और लोभ का परिणाम है न कि उसके धर्म-सम्प्रदाय में ऐसा करने के लिए कहा गया है। इस समझ से युक्त व्यक्ति साम्प्रदायिक हिंसा में कभी सहयोगी नहीं बनेगा। सम्यक् संकल्प के अन्तर्गत बुरे, दूषित विचारों से मुक्त, रागरहित, द्वेषरहित एवं मोहरहित चिन्तन-मनन किया जाता है। ये सभी संकल्प सम्प्रदाय, सद्भाव में वृद्धि करते हैं। झूठ न बोलना, कटु भाषा बोलकर किसी का मन न दुःखाना, किसी की निन्दा न करना, किसी की चुगली न करना, मिथ्या बयान न करना, गाली-गलौज न करना, मधुर व सत्य बोलना सम्यक् वचन है। सम्यक् वाणी दो पक्षों को जोड़ने का काम करती है, प्रेमभाव, मैत्रीभाव, बंधुभाव बढ़ाने का काम करती है। साम्प्रदायिक हिंसा में दूसरों को क्षति पहुँचाना, किसी प्राणी की हत्या करना, व्यभिचार करना आदि कर्म किये जाते हैं। बुद्ध ने 'सम्यक् कर्म' के उपदेश में किसी भी परिस्थिति में इन असम्यक् कर्म के आचरण का निषेध किया है। बौद्ध धर्म के अनुयायी सम्राट अशोक के गिरनार शिलालेख के द्वादश अभिलेख में सम्प्रदायवाद को रोकने हेतु कुछ सिद्धान्त दिए हैं, वे इस प्रकार हैं1. सब सम्प्रदायों में सार की वृद्धि हो। 2. इसका मूल आधार यह है कि वाणी पर नियन्त्रण बना रहे। बिना प्रसंग के अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा और अन्य सम्प्रदाय की निंदा न हो अथवा प्रसंग-विशेष में साधारण सी चर्चा हो। 3. जिस किसी प्रसंग में अन्य सम्प्रदायों की प्रशंसा ही की जानी चाहिए। ऐसा करता हुआ (व्यक्ति) अपने सम्प्रदाय की उन्नति करता है और अन्य सम्प्रदायों · पर उपकार करता है। . 4. इसके विपरीत करता हुआ (व्यक्ति) अपने सम्प्रदाय की हानि करता है और . अन्य सम्प्रदायों का भी अपकार करता है। 5. क्योंकि जो कोई अपने सम्प्रदाय के प्रति आसक्ति होने के कारण अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा और अन्य सम्प्रदायों की निन्दा करने लगता है- वह ऐसा करता हुआ वास्तव में अपने सम्प्रदाय की खूब बढ़चढ़ कर हानि करता है। 6. इसलिए मेल-जोल ही उत्तम है। लोग एक दूसरे के धर्म अर्थात् धारण करने योग्य तत्त्व को सुनें और सुनायें। 4. सम्राट अशोक के अभिलेख, विपश्यना विशोधन विन्यास, इगतपुरी, 2008 For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला 7. देवानांप्रिय (सम्राट अशोक) की ऐसी कामना है कि सब सम्प्रदाय वाले बहुत विद्वान हों और कल्याण के भागी हों। बुद्ध के उपदेशों में ही नहीं उनके जीवन के कई प्रसंगों में साम्प्रदायिक सद्भाव दृग्गोचर होता है। उन्होंने अनेक राजपुत्रों और धर्मज्ञों, गंवार ब्राह्मण, नाई उपाली, भंगी सुणीत, सोपाक तथा सुप्पिय अछूत, कुष्ठ रोगी सुप्रबुद्ध, अंगुलिमाल जैसे हत्यारे, स्त्रियों में प्रकृति नामक चंडालिका, नगरवधू आम्रपाली सहित अनेक लोगों को धम्म दीक्षा दी, जो हर वर्ग के थे, हर सम्प्रदाय के थे। अतः साम्प्रदायिक सद्भाव में वृद्धि हेतु बाह्य व्यवस्था को ठीक करने के साथ भीतर में सद्भाव उत्पन्न करने के लिए बौद्ध दर्शन के इन सिद्धान्तों को भी जन-जन के हृदय तक पहुँचाना आवश्यक है। - अतिथि अध्यापक, संस्कृत-विभाग जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसुद्धिमग्ग में शान्ति के उपाय डॉ. हेमलता जैन विसुद्धिमग्ग के रचनाकार आचार्य बुद्धघोष का पालि-साहित्य की समृद्धि में महनीय योगदान है। गुरु महास्थविर रेवत से आदेश प्राप्त कर बुद्धघोष त्रिपिटिकों के विशेष अध्ययन के लिए श्रीलंका गए। वहाँ स्थविर संघपाल से सम्पूर्ण सिंहली अट्ठकथाओं और आचार्यो की परम्पराओं का ज्ञान प्राप्त किया। वे अट्ठकथाओं का अनुवाद सिंहली भाषा से मागधी भाषा में करने के इच्छुक थे। उनकी इच्छा को जानकर वहाँ के भिक्षुओं ने उनकी योग्यता की परीक्षा के लिए पालि में दों गाथाएँ दीं और उनकी व्याख्या करने को कहा । बुद्धघोष ने उन दो गाथाओं के व्याख्यानस्वरूप सम्पूर्ण त्रिपिटक के सिद्धान्तों का ही सार संकलन कर दिया और उसे 'विसुद्धिमग्ग' नाम दिया । बुद्धघोष का यह ग्रन्थ बौद्ध योगशास्त्र का स्वतन्त्र मौलिक प्रकरण ग्रन्थ है। विश्वशान्ति के उपाय इस ग्रन्थ में सूत्र रूप में ग्रथित हैं, जिनकी वर्तमान परिप्रेक्ष्य में महती आवश्यकता है। वे इस प्रकार हैं 1. 'एवं पियो पुथु अत्ता परेसं, तस्मा न हिंसे परमत्तकाये " अर्थात् सभी को अपना जीवन प्रिय है, अत: स्वार्थ के लिए दूसरे की हिंसा न करे । विसुद्धिमग्ग का यह सूत्र आज के हिंसामय वातावरण को दूर करने का अचूक उपाय है / अमोघ शस्त्र है। लोग स्वार्थ के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक हनन एवं दुरुपयोग कर रहे हैं। सौन्दर्य प्रसाधनों की प्राप्ति के लिए मूक प्राणियों की हिंसा कर रहे हैं और पर्यावरण-संतुलन को बिगाड़ रहे हैं। अतः ऐसे समय में उपर्युक्त सूत्र की उपयोगिता बढ जाती है। 1 विसुद्धिमग्ग, दुतियो भागो, सम्पादक एवं अनुवादक - स्वामी द्वारिकादास शास्त्री, बौद्ध भारती, वाराणसी, 2002. पृ. 150, 2 वही, पृ. 181 For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला 2. बुद्धघोष कहते है- 'हिताकारप्पवत्तिलक्खणा मेत्ता दूसरों के हित, कल्याण के लिए प्रवृत रहना ही मैत्री है और मैत्री का प्रयोजन है- 'निस्सरणं हेतं आवुसो, व्यापादस्स,यदिदं मेत्ता चेतोविमुत्ति व्यापाद ( हिंसा) के नाश के लिए मैत्री की जाती है | मैत्री भावना के अभाव में आज मानव मानवता का विस्मरण कर वर्ण, जाति, सम्प्रदाय, भाषा, राष्ट्र जैसे मुद्दों पर विद्रोह कर रहा है और उदार दृष्टिकोण से शून्य होता जा रहा है। अमरीका में हुआ अश्वेत आन्दोलन, भारत में गुर्जर समाज के द्वारा किया गया गुर्जर आन्दोलन, मुम्बई में बाल ठाकरे के द्वारा मराठी भाषा के लिए किया गया विद्रोह आदि सभी इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। विसुद्धिमग्ग में बुद्धघोष मैत्री भावना के विस्तार की प्रक्रिया भी बताते हैं । वे कहते हैं कि सर्वप्रथम स्व में मैत्री भावना करें, तत्पश्चात् घनिष्ठ मित्र में, फिर मध्यस्थ में और फिर वैरी व्यक्ति में | 1 3. आवश्यकता से अधिक संचय, पारस्परिक स्पर्धा, ईर्ष्या, सत्ता प्राप्ति तथा दूसरे की सम्पत्ति हड़पने की चेष्टा से व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व में अशान्ति उत्पन्न होती है। इस अशान्ति का परिहार करने के लिए बुद्धघोष विसुद्धिमग्ग में मरणानुस्मृति का कथन करते हुए क्षणिकवाद को प्रस्थापित करते हैं। वे कहते हैंयथा पि कुम्भकारस्स कतं मृत्तिकभाजनं । खुद्दकं च महन्तं च यं पक्तं यं च आमकं।। अर्थात् जैसे कुम्हार के बनाए हुए मिट्टी के बर्तन छोटे हों या बड़े, पक्के हों या कच्चे सब के सब फूट जाने वाले होते हैं, वैसे ही मर्त्यो का जीवन भी समझना चाहिए। यदि व्यक्ति क्षणिकता के सिद्धान्त को अच्छी तरह समझ कर अपना आचरण करे तो उसका परिग्रह, ईर्ष्या आदि स्वतः कम हो सकते हैं। 4. आज मानव समाज की व्यवस्था नैतिक, धार्मिक और सदाचार पूर्ण नियमों को छोड़ कर द्वेष और स्वार्थपूर्ण एवं शोषण नीति पर आधारित हो रही है। यह दोषपूर्ण सामाजिक व्यवस्था भी अशान्ति का कारण है। इस व्यवस्था को सुधारने के लिए बुद्धघोष द्वारा उपदिष्ट विसुद्धिमंग्ग के सीलनिद्दसो में तीन प्रकार के शीलों की चर्चा महत्त्वपूर्ण है । वे कहते हैं - प्रत्येक व्यक्ति को 3. वही पृ. 182 4. 'तस्मा सक्खिभावत्थं पठमं अत्तान मेत्तायं करित्वा..... तदनन्तरं अतिप्पिय सहायके, अतिप्पियसहायकतो मज्झते, मज्झततो वेरिपुग्गले मेत्ता भावेतब्बा । ' - वही पृ. 150-151 5. वही, पृ. 54 6. विसुद्धिमग्ग, पठमो भागो, सीलनिद्देसो, पृ. 30 7. वही, पृ. 33 For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसुद्धिमग्ग में शान्ति के उपाय 127 1. प्रातिमोक्षसंवरशील' अर्थात् अल्पमात्र दोष से ही भय कर उसे दूर करना, 2. इन्द्रिय संवरशील' अर्थात् पांचों इन्द्रियों और मन में उत्पन्न होने वाले लोभ, दौर्मनस्यादि अकुशल धर्म के संवर के लिए तत्पर होना तथा 3. आजीवपरिशुद्धिशील' अर्थात् नैतिक एवं प्रामाणिक रीति से आजीविका प्राप्त करना इनका सम्यक् प्रकार से ज्ञान प्राप्त कर तदनुसार आचरण करना चाहिए । इससे परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व सुदृढ़ और शान्त होगा । 5. क्रोध, अभिमान, दम्भ और अंसतोष ये चारों अशान्ति के मूल हैं। ये कषाय चतुष्क, राग-द्वेष के कारण उत्पन्न होते हैं । इनके निराकरण के लिए बुद्धघोष मेघियसुत्त में कहते हैं - " असुभा भावेतब्बा रागस्स पहानाय। मेत्ता भावेतब्बा व्यापादस्स पहानाय। अनिच्चसञ्ञा भावेतब्बा अस्मिमानसमुग्घाताय ।" अर्थात् व्यक्ति को राग के प्रहाण के लिए अशुभ की भावना करनी चाहिए, द्वेष के प्रहाण के लिए मैत्री की भावना करनी चाहिए और अभिमान, अहंकार को दूर करने के लिए अनित्यसंज्ञा की भावना करनी चाहिए। 6. बुद्धघोष कहते हैं- 'परदुक्खे सति साधूनं हृदयकम्पनं करोतीति करुणा 10 अर्थात् परदुःख को देखकर सत्पुरुषों के हृदय में जो कम्पन होता है वही करुणा है। करुणा की प्रवृत्ति दूसरों के दुःख का अपनय करने के लिए होती है । जो दूसरों के दुःख को सहन नहीं कर सकता है वही दूसरों की मन, वचन और काया से हिंसा नहीं करता है। हाल ही में आस्ट्रेलिया में एक भारतीय छात्र की रेल में करंट लगकर मृत्यु हुई तो मेलबर्न की पुलिस ने टिप्पणी की कि हम ऐसे ही तरीके से भारतीयों को यहाँ से समाप्त कर सकते हैं। इसी तरह अमरीका में भारतीय छात्रों के रेडियो कॉलर बांधकर उन्हें प्रताडित कर उनकी प्रतिभा को दबाया जा रहा है और उन्हें हतोत्साहित कर वहाँ से पलायन करने के लिए मजबूर किया जा रहा है।" ये घटनाएँ उनकी क्रूरता का परिचय कराती है। यही क्रूरता धीरे-धीरे राष्ट्रवाद का विकराल रूप धारण कर लेती है और इससे वशीभूत होकर वे अणुबम, परमाणुबम आदि का दुरुपयोग करने के लिए तत्पर हो जाते हैं। इससे देश एवं विश्व में अशान्ति उत्पन्न होती है । बुद्ध ने इसके विपरीत करुणा का उपदेश दिया है, जिसकी चर्चा विसुद्धिमग्ग में बुद्धघोष ने प्रभावी ढंग से की है। शान्ति की प्राप्ति के लिए बुद्ध उपदिष्ट करुणा भावना की आज महती आवश्यकता है। करुणा भावना विश्वशान्ति का एक महत्त्वपूर्ण उपाय है। 8. वही, पृ. 34 9. विसुद्धिमग्ग, पठमो भागो, कंम्मट्ठनग्गहणनिद्देस, पृ. 159 10. विसुद्धिमग्ग, दुतियो भागो, ब्रह्मविहारनिद्देसो, पृ. 181 11. राजस्थान पत्रिका, 31 जनवरी 2011, संपादकीय आलेख For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला 7. मुदिता-भावना शान्ति के प्रवाह को गति प्रदान करती है। इस भावना में हर्ष का उत्पाद होता है, जिससे अरति का उपशम होता है। जो मुदिता की भावना करता है, वह दूसरों को सम्पन्न देखकर उनसे ईर्ष्या या द्वेष नहीं करता है। दूसरों की सम्पत्ति, पुण्य और गुणोत्कर्ष को देखकर उसे अप्रीति और असूया नहीं होती है। मुदिता भावना किस प्रकार उत्पन्न की जाती है, इस सम्बन्ध में बुद्धघोष कहते हैंसचे पिस्स सो सोण्डसहायो वा पियपुग्गलो वा अतीते सुखितो अहोसि, सम्पति पन दुग्गतो दुरूपतो, अतीतमेव चस्स सुखितभावं अनुस्सरित्वा “एस अतीते एवं महाभोगो महापरिवारो निच्चप्पमुदितो अहोसी" ति तमेवस्स मुदिताकारं गहेत्वा मुदिता उप्पादेतब्बा। "अनागते व पन पुन त सम्पत्तिं लभित्वा हात्थिकखन्ध-अस्सपिट्ठि सुवण्णसिविकादीहि विचरिस्सति" ति अनागत पिसस मुदिताकारं गहेत्वा मुदिता उप्पादेतब्बा।” अर्थात् यदि घनिष्ठ मित्र या प्रिय व्यक्ति बीते समय में सुखी रहा हो, किन्तु इस समय दुर्गतिग्रस्त, भाग्यहीन हो तो भी उसके अतीत सुखीभाव का स्मरण करते हुए मुदिता उत्पन्न करने हेतु कहना चाहिए - जैसे-भूतकाल में तुम मित्र महाभोगवान्, महापरिवार वाले, नित्य प्रमुदित रहते थे। इस प्रकार मुदित रहो, भविष्य में पुनः तुम उस सम्पत्ति को प्राप्त कर सोने की पालकी आदि में बैठोगे। इस प्रकार उसके भावी मुदितरूप को ग्रहण कर मुदिता उत्पन्न करनी चाहिए। इस तरह प्रिय व्यक्ति के प्रति मुदिता उत्पन्न करने के बाद मध्यस्थ के प्रति, फिर वैरी के प्रति क्रमिक भावना उत्पन्न करनी चाहिए। 8. 'सत्तेसु मज्झत्ताकारप्पवत्ति लक्खणा उपेक्खा 13 अर्थात् सभी सत्त्वों के प्रति माध्यस्थ भाव से प्रवृत्त होना उपेक्षा है। विसुद्धिमग्ग का यह सूत्र सत्त्वों के प्रति समत्व का दर्शन कराता है। अर्थात् जिसमें उपेक्षा भावना होती है उसमें बडे-छोटे का भेदभाव नहीं होता। कोई वर्ण, जाति आदि उच्च या निम्न नहीं होती। उसके लिए सभी सत्त्व समान होते है। वह समदृष्टि वाला होता है। उपेक्षा भावना के सम्यक् आचरण से मानव समाज में वर्ण, जाति आदि सभी भेदभाव समाप्त हो सकते हैं। परिणामस्वरूप अन्याय, अत्याचार का भी अपनयन हो जाता है। बुद्धघोष के अनुसार मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा इन चारों भावनाओं का विस्तार एक क्रम में होता है। वे कहते हैं कि ये भावनाएँ प्रारम्भ में अप्रिय पुरुष, घनिष्ठ मित्र, मध्यस्थ और वैरी पुरुष इन चार के प्रति नहीं करनी चाहिए। वे 12. विसुद्धिमग्ग, दुतियो भागो, ब्रह्मविहारनिदेसो 13. विसुद्धिमग्ग, दुतियो भागो, ब्रह्मविहारनिद्देसो 14. विसुद्धिमग्ग, दुतियो भागो, पृ. 148 For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. विसुद्धिमग्ग में शान्ति के उपाय 129 मैत्री आदि भावना की प्रक्रिया में सर्वप्रथम स्वयं से, तत्पश्चात् घनिष्ठ मित्र से, उसके बाद घनिष्ठ मित्र के रूप में मध्यस्थ से और अन्त में मध्यस्थ के रूप में वै व्यक्ति से इस क्रम में ये भावनाएँ करने का कथन करते हैं। 15 वर्तमान शिक्षा प्रणाली में भौतिक विकास के लक्ष्य की प्रधानता है । आध्यात्मिकता का वर्तमान शिक्षा में नगण्य स्थान है। आज विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में परकल्याण और समत्व के ज्ञान से छात्र-छात्राओं का परिचय भी नहीं हो पाता है । परिणामतः बालकों में विनय, उच्छृंखलता, स्वार्थपरायणता और भौतिक अभिसिद्धि की भावना अपना स्थान बना लेती है। आगे चलकर ये ही अशान्ति के कारण बन जाते हैं । विसुद्धिमग्ग में इन दोषों के अपनयन हेतु शील, अनुस्मृति, मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा स्वरूप चार ब्रह्मविहार और विपश्यना का उल्लेख हुआ है। अतः विसुद्धिमग्ग के अहिंसा, क्षणिकता, मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा, शील आदि सभी सूत्र शान्ति के अमूल्य उपाय हैं। 15 वही, पृ. स. 150 151 शोध सहायक, बौद्ध अध्ययन केन्द्र जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध दर्शन में शून्यवाद एवं उसका प्रभाव डॉ. मंगलाराम बौद्ध दर्शन में शील, समाधि और प्रज्ञा को निर्वाण अर्थात् मोक्ष का हेतु माना गया है। बुद्ध के समस्त उपदेश पाप-अकरण, पुण्य-सञ्चय तथा चित्तपरिशुद्धि के लिये हैं। धम्मपद में स्पष्ट लिखा है - सब्बपापस्स अकरणं कुसलस्स उपसम्पदा। सचित्तपरियोदपनं एतं बुद्धानं सासनं।।।। बौद्ध दर्शन में रूप, वेदना, सञ्ज्ञा, संस्कार और विज्ञान इन पांच स्कन्ध अर्थात् समुदाय का पुञ्ज मात्र ही आत्मा है। आत्मा और जगत् दोनों अनित्य हैं। रूपादि पञ्च स्कन्ध क्षण-क्षण परिवर्तनशील हैं अर्थात् आत्मा प्रतिपल परिणामी है। यही स्थिति जगत् की भी है। किसी वस्तु के अस्तित्व के प्रवाह में एक अवस्था उत्पन्न होती है और एक अवस्था लय होती है। अनुभूत वस्तु क्षण-क्षण में परिणाम को प्राप्त हो रही है। वस्तु की एकता तदाकार वस्तु की एक वीथि है। वस्तुतः एकता जगत् में अलभ्य वस्तु है। बुद्ध सत्ता और असत्ता के बीच परिणाम के सिद्धान्त को मानते हैं। जगत् के सत्य रूप की अवहेलना न करते हुए भी वे उसकी परिणामात्मक व्याख्या करते हैं। इस विश्व में परिणाम ही सत्य है, किन्तु इस परिणाम के भीतर विद्यमान किसी परिणामी पदार्थ का अस्तित्व सत्य नहीं है। सभी पदार्थ वस्तुतः स्वभावरहित हैं। आचार्य नागार्जुन ने स्पष्ट शब्दों में कहा है - हेतु प्रत्ययसामग्र्यां च पृथक् चापि मद्वचो न यदि। ननु शून्यत्वं सिद्धं भावानामस्वभावत्वात् ।। बुद्ध के अनुसार जीव को परमुखापेक्षी होने की आवश्यकता नहीं है। यदि वह 1. धम्मपद, 14.5 2. नागार्जुन, विग्रहव्यावर्तनी, कारिका 21 For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध दर्शन में शून्यवाद एवं उसका प्रभाव 131 स्वयं आर्य अष्टांगिक मार्ग का अनुकरण यथावत् करे तो संसार की रागद्वेषमयी विषयवागुरा से मुक्ति पा सकता है। लोकव्यवहार में घटपटादि पदार्थों के प्रति आसक्ति सापेक्षभाव के कारण होती है। 3 - - चित्त की नदी उभयतो वाहिनी है' अर्थात् वह पाप की ओर भी बहती है तथा कल्याण की ओर भी बहती है, अतः कल्याणगामी प्रवाह में चित्त को डाल देना ही श्रेयस्कर है। संसार के प्रपञ्च में अज्ञानपूर्वक जीवनयापन करने वाला व्यक्ति पृथक् जन कहलाता है। निर्वाण मार्ग पर आरूढ व्यक्ति आर्य कहलाता है । जब आर्य अर्हत् बनकर स्वकीय व्यक्तिगत कल्याण साधन में तत्पर हो जाता है तब उसे दूसरों को निर्वाण प्राप्त करवाने की आवश्यकता भी नहीं होती, क्योंकि जगत्शून्यता ही यथार्थ है। जगतशून्यता का अर्थ है भाव शून्यता । बौद्धदर्शन के चार प्रमुख सम्प्रदाय हैं - वैभाषिक, सौत्रान्तिक, योगाचार और माध्यमिक । बाह्य अर्थों को प्रत्यक्षरूपेण सत्य मानने वाले बौद्ध वैभाषिक कहलाते हैं। बाह्य अर्थों को प्रत्यक्ष सिद्ध न मानकर अनुमेय मानने वाले सौत्रान्तिक कहलाते हैं। बाह्य भौतिक जगत् का नितान्त मिथ्यात्व स्वीकार करके चित्त अथवा विज्ञान को ही एकमात्र सत्य मानने वाले बौद्ध योगाचार कहलाते हैं । माध्यमिक बौद्धों के अनुसार शून्य ही परमार्थ सत्य है । शून्य का अर्थ अभाव नहीं है, अपितु शून्य शब्द अनिर्वचनीय का द्योतक है जो न सत् है न असत् है न सदसत् है और न इन दोनों से भिन्न है । शून्य से तात्पर्य अलक्षण या निःस्वभाव है। उसके अनुसार समस्त जगत् विवर्त है। शून्यवाद एवं बौद्ध सम्प्रदायों का संक्षिप्त कथन करने वाला प्रसिद्ध श्लोक इस प्रकार है - मुख्यो माध्यमिको विवर्तमखिलं शून्यस्य मेने जगद् योगाचारमते तु सन्ति मतयस्तासां विवर्तोऽखिलः। अर्थोऽस्ति क्षणिकस्त्वसावनुमितो बुद्ध्येति सौत्रान्तिकः, प्रत्यक्षं क्षणभङ्गुरं च सकलं वैभाषिको भाषते।। माध्यमिक सम्प्रदाय समस्त जगत् को शून्य का विवर्त मानता है। योगाचार मत में ज्ञान ही सत् है तथा सब उसका विवर्त है। सौत्रान्तिक दर्शन के अनुसार पदार्थ क्षणिक है 1 तथा उसे अनुमान से जाना जाता है। वैभाषिक उसे क्षणिक एवं प्रत्यक्ष द्वारा ज्ञेय कहते हैं। 3. यश्च प्रतीत्यभावो भावानां शून्यतेति सा प्रोक्ता । यश्च प्रतीत्यभावो भवति हि तस्यास्वभावत्वम् ।। - वही, कारिका 22 4. चित्तनदी नामोभयतो वाहिनी वहति कल्याणाय वहति पापाय च । 5. नैः स्वाभाव्यानां चेन्नैःस्वाभाव्येन वारणं यदि हि । नै:स्वाभाव्यनिवृत्तौ स्वाभाव्यं हि प्रसिद्धं स्यात् । । - विग्रहव्यावर्त्तनी, कारिका 26 6. सर्वदर्शन संग्रह, माधवाचार्य, बौद्धदर्शन निरूपण - - योगसूत्रवृत्ति 1.12 For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला शून्यवाद के प्रसिद्ध बौद्ध आचार्य नागार्जुन, आर्यदेव, स्थविर बुद्धपालित, भावविवेक, चन्द्रकीर्ति तथा शान्तरक्षित हैं । इन विद्वानों ने स्वस्वशास्त्रों में कहा है कि इस जगत् से परे विद्यमान पारमार्थिक सत्ता वर्ण्यातीत है। उसके विषय में मानसिक या बाह्य होने का वर्णन असम्भव है । लौकिक विचारों से अवर्ण्य होने से उसे शून्य कहना चाहिये । शून्य वस्तुतः अभाव रूप नहीं है। 'अभाव' शब्द सापेक्ष है, क्योंकि भाव की कल्पना पर ही अभाव आश्रित है। परमतत्त्व या पारमार्थिक सत्ता सर्वथा निरपेक्ष है अर्थात् वह स्वसत्तार्थ किसी अन्य पर आश्रित नहीं है। किसी पदार्थ के स्वरूप का निर्णय चार कोटियों से किया जाता है- अस्ति, नास्ति, अस्ति नास्ति, और न अस्ति न च नास्ति। किन्तु परम तत्त्व का निर्णय इन चतुष्कोटियों से असम्भव है। वह मनोवाग्गम्य न होने से सुतरां अनिर्वचनीय है । उस परम तत्त्व की अनिवर्चनीयता की सूचना 'शून्य' शब्द से दी जाती है - न सन्नासन्न सदसन्न चाप्यनुभयात्मकम्। चतुष्कोटिविनिर्मुक्तं तत्त्वं माध्यमिका विदुः । । वस्तु न तो ऐकान्तिक सत् है और न ऐकान्तिक असत्, अपितु उसका स्वरूप इन दोनों सत् तथा असत् के मध्य बिन्दु पर निर्णीत हो सकता है जो स्वयं शून्यरूप ही होगा। यह शून्य अभाव से नितान्त भिन्न है, क्योंकि अभाव की कल्पना सापेक्ष कल्पना है, किन्तु यह शून्य निरपेक्ष परम तत्त्व का सूचक है। शून्यवाद मध्यममार्ग कहलाता है। समाधिराज सूत्र में भी लिखा है अस्तीति नास्तीति उभेऽपि अन्ता शुद्ध अशुद्धीति इमेsपि अन्ता । तस्मादुभे अन्ते विवर्जयित्वा । मध्ये हि स्थानं प्रकरोति पण्डितः ।। शून्यता मध्यम मार्ग का ही नाम है। वस्तुओं के दो ही रूप हो सकते हैं - भाव तथा अभाव। जो वस्तु सदा विद्यमान रहे वह भावरूप कहलाती है और जो वस्तु विद्यमान नहीं रहती, वह अभावरूप होती है। वास्तव में वस्तु का न तो भाव है और न ही अभाव । अतः वस्तु शून्य कहलाती है अर्थात् वस्तु भाव तथा अभाव दोनों के बीच रहने वाली होती है, अतः मध्यम मार्ग का नाम ही शून्य है । आचार्य चन्द्रकीर्ति ने प्रसन्नपदा टीका में यही कहा है - अतो भावाभावान्तद्वयरहितत्वात्सत्स्वभावानुत्पत्तिलक्षणा शून्यता मध्यमा प्रतिपत् मध्यमो मार्ग इत्युच्यते। 7. नागार्जुन माध्यमिककारिका 1.7 For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध दर्शन में शून्यवाद एवं उसका प्रभाव 133 प्रमाणों द्वारा किसी अर्थ की सत्ता उपलब्ध नहीं होती और न ही किसी प्रमाण से किसी अन्य प्रमाण की सत्ता की सिद्धि सम्भव है । अग्निवत् प्रमाण स्वयं को और अन्य प्रमेयों को प्रकाशित नहीं कर सकते, क्योंकि अग्नि से अप्रकाशित घट अन्धकार में दिखाई नहीं देता और बाद में अग्नि से प्रकाशित होने पर वह दिखाई देने लगता है। यदि अग्नि स्वतः प्रकाशित करने का सामर्थ्य रखता, तो अग्नि से दूर अन्धकारगत घट को भी प्रकाशित कर देता, किन्तु ऐसा कभी नहीं होता । वस्तुतः न तो अग्नि में अन्धकार है, जहां अग्नि है वहां अन्धकार है । अन्धकार के नाश को प्रकाश कहते हैं । जब अग्नि 4 अन्धकार नहीं है और न जहां अग्नि है वहां अन्धकार है, तो वह अग्नि किसका प्रतिघात करे कि जिसके प्रतिघात से स्वयं को तथा अन्य घटपटादि को प्रकाशित करे उत्पद्यमान अग्नि ही स्व या पर को प्रकाशित करता है, किन्तु यह आवश्यक नहीं कि उत्पद्यमान अग्नितम को दूर कर ही दे, यदि उस अग्नि को तम के पास न पहुंचा दिया जाय। जब तक अग्नि तम के समीप न पहुंचे तब तक तम का उपघात असम्भव है। यदि अग्नि तम के समीप बिना पहुंचे भी तमोनाशक हो जाये तब तो हमारे सम्मुख अग्नि से संसार के यच्च यावत् अन्धकार का नाश होना चाहिये, किन्तु ऐसा कदापि नहीं देखा गया । वस्तुतः तम, अग्नि इत्यादि प्रमेयों तथा प्रमाणादि की सत्ता ही नहीं है । ये सभी परस्पर सापेक्षभाव से स्थित हैं - अथ ते प्रमाणसिद्ध्या प्रमेयसिद्धिः प्रमेयसिद्ध्या च । भवति प्रमाणसिद्धिर्नास्त्युभयस्यापि ते सिद्धिः।।' आचार्य नागार्जुन के मतानुसार सत्यता के दो प्रकार हैं - लोकव्यावहारिक सत्य तथा वास्तविक सत्य । प्रथम व्यावहारिक सत्य है, द्वितीय पारमार्थिक सत्य है । व्यावहारिक सत्य को सांवृतिक सत्य कहते हैं । अनुत्पन्न, अनिरुद्ध, अनुच्छेद, अशाश्वत आदि विशेषणों से वर्णित शून्य ही पारमार्थिक सत्य है जो बुद्धि से अगोचर है। बुद्धिग्राह्य तो विकल्प होते हैं और विकल्प अवस्तुग्राही होने से अविद्यात्मक हैं। अतः बुद्धि में इतनी योग्यता नहीं है कि वह परम सत्य का यथार्थ ग्रहण कर सके । समस्त पदार्थों को ढकने वाला अज्ञान ही संवृति कहलाता है। इस जगत् की सत्ता अज्ञान के द्वारा ही है, इसलिये समस्त जगत की सत्ता सांवृतिक या व्यावहारिक है - समन्ताद्वरणं संवृतम् अज्ञानं हि समन्तात्सर्वपदार्थतत्त्वावच्छादनात्संवृतिरित्युच्यते ।' संवृति सत्य पारमार्थिक सत्य की प्राप्ति के लिये एक साधनमात्र है। निर्वाण की दशा भी साधारण व्यावहारिक दशा से भिन्न होती है। जो साधारण उपायों द्वारा अविदित होता है, जो सर्वदा प्राप्त होता है, जिसका विनाश नहीं होता, जो निरुद्ध नहीं है और जो उत्पन्न भी नहीं है उसी का नाम निर्वाण है। निर्वाण को प्राप्त करने वाला और उसे जानने 8. विग्रहव्यावर्तनी, कारिका 46 9. माध्यमिककारिकावृत्ति 24.8 For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला वाला व्यक्ति ही तथागत या बुद्ध कहलाता है। परमार्थ संवृति से विलक्षण होता है। त्रिकाल में अबाधित होने से शून्य तथा निर्वाण परमार्थरूप माने जाते हैं। शून्य को ही तथता कहा जाता है। इसके आलम्बन के बिना न आत्मकल्याण और न ही परकल्याण हो सकता है। अविद्या के द्वारा अस्पृष्ट होने से इसमें समस्त मलों का अभाव रहता है। उभयविध क्लेशावरण तथा ज्ञेयावरण से यह उन्मुक्त रहता है। सम्यक् सम्बोधि के बिना इस अद्वैततत्त्व की उपलब्धि नहीं हो सकती। सम्यक् सम्बोधि की प्राप्ति के लिये षट् पारमिताओं दान, शील, शान्ति, वीर्य, समाधि और प्रज्ञा की उपलब्धि नितान्त आवश्यक है। शून्य अर्थात् बुद्धत्व ही प्रज्ञा का अन्तिम लक्ष्य है। उस समय द्वैतज्ञान का सर्वथा अभाव हो जाता है। इस दशा में स्वदुःख और परदुःख सदा के लिये निवृत्त हो जाते हैं। शून्यता सम्पन्न मनुष्य ज्ञानी कहलाता है। क्लेशों का क्षय हो जाने पर ज्ञानी नित्य शान्ति प्राप्त करता है। अश्वघोष ने भी कहा है - दीपो यथा निर्वृत्तिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम्। दिशं न काञ्चिद् विदिशं न काञ्चित् स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम्।। तथा कृती निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम्। दिशं न काञ्चिद् विदिशं न काञ्चित् क्लेशक्षयात्केवलमेति शान्तिम् ।। जिस प्रकार दीपक बुझकर न तो पृथ्वी पर नीचे जाता है और न ही अन्तरिक्ष में ऊपर जाता है, न किसी दिशा में जाता है न विदिशा में जाता है, वह तो तेल बीत जाने से केवल शान्त हो जाता है। इसी प्रकार पुण्यशाली व्यक्ति निर्वाण को प्राप्त कर न पृथ्वी पर नीचे जाता है न अन्तरिक्ष में ऊपर जाता है, न अन्य दिशा-विदिशा में जाता है। वह तो क्लेश का क्षय होने से केवल शान्ति को प्राप्त हो जाता है। बौद्ध दर्शन के शून्यतावाद, त्याग, अनासक्ति, सर्वभूतदया प्रभृति विचारों का तत्कालीन नाटककारों पर भी अत्यधिक प्रभाव पड़ा। पञ्चम शताब्दी के कवि विशाखदत्त ने मुद्राराक्षस में राक्षस के मुख से चन्दनदास के त्यागमय आचरण को तथागत तुल्य कहा है।" __ - संस्कृत विभाग जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर 10. अश्वघोष सौन्दरनन्द 16.28-29 11. दुष्कालेऽपि कलावसज्जनरुचौ प्राणैः परं रक्षता नीतं येन यशस्विनातिलघुतामौशीनरीयं यशः।। बुद्धानामपि चेष्टितं सुचरितैः क्लिष्टं विशुद्धात्मना। पूजार्होऽपि स यत्कृते तव गतो वध्यत्वमेषोऽस्मि सः।।-विशाखदत्त, मुद्राराक्षस, 7.5 For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध योग एवं उसकी उपादेयता डॉ. दीपमाला योगविद्या भारत की अमूल्य निधि है। सम्पूर्ण भारतीय धर्म-दर्शन में योग-साधना को एक स्वर से स्वीकार किया गया है, चाहे वह वैदिक धर्म-दर्शन हो या जैन एवं बौद्ध धर्म-दर्शन। योग-साधना के बिना मुक्ति सम्भव नहीं है। योगदर्शन में चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहा है। जैन दार्शनिक आत्मा की शुद्धि करने वाली क्रियाओं को योग कहते हैं। बौद्ध बोधिसत्त्व की प्रापक क्रिया को योग कहते हैं। इस प्रकार योग को एक विशिष्ट क्रिया के रूप में स्वीकार किया गया है, जिसके अन्तर्गत अनेक प्रकार के यान तथा तप का समावेश होता है, जिनका एक मात्र लक्ष्य चेतना का विकास है। 'योग' शब्द का अर्थ - योग शब्द के संयोग, सम्पर्क, युक्ति, ध्यान, चित्तवृत्तिनिरोध, निर्वाण, समाधि आदि अनेक अर्थ हैं। योग शब्द 'युज्' धातु से निष्पन्न है । पाणिनीय धातु - पाठ में तीन 'युज्' धातुएँ उपलब्ध हैं - (i) युज् समाधौ (दिवादिगणीय, युज्यते) (ii) युजिर् योगे ( रुधादिगणीय, युनक्ति, युङ्क्ते) (iii) युज संयमने (चुरादिगणीय, योजयति, योजयते) 'योग' शब्द का समाधि अर्थ 'युज् समाधौ ' से 'घञ्' प्रत्यय होकर निष्पन्न होता है। बौद्ध साहित्य में प्रयुक्त योग शब्द 'युजिर् योगे' से निर्मित है। यहाँ योग का प्रयोग संयोजन अर्थ में हुआ है। साथ ही समाधि एवं क्रिया के रूप में भी अभिहित हुआ है। बौद्ध-दर्शन में योग का अर्थ समाधि या ध्यान है। 'विसुद्धिमग्गो' में कुशलचित् की एकाग्रता को समाधि कहा गया है। बौद्धयोग का स्वरूप - बौद्ध योग-साधना का मुख्य सम्बन्ध समाधि से है। बौद्ध धर्मानुसार एक ही आलम्बन में समान तथा सम्यक् रूप से चित्त और चैतसिक धर्मों की प्रतिष्ठा समाधि है । समाधि के दो सोपान हैं - For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला 1. शमथ और 2. विपश्यना शमथ इसे लौकिक समाधि भी कहते हैं, क्योंकि इसमें ध्यान का विषय काम, रूप और अरूप भूमियाँ बनती हैं। शमथ का अर्थ है - पाँच नीवरणों अर्थात् विघ्नों का उपशम। इन विघ्नों के शमन से चित्त की एकाग्रता होती है। . पञ्च नीवरणानं समनटेन समथं। इसलिए शमथ का अर्थ चित्त की एकाग्रता भी है।' ___ पाँच नीवरण या विघ्न इस प्रकार हैं1. कामच्छन्द - विषयों के अनुराग को कामच्छन्द कहते हैं। इसमें चित्त नाना विषयों से प्रलोभित होता है। 2. व्यापाद - हिंसा को व्यापाद कहते हैं। यह प्रीति का प्रतिपक्षं है। 3. स्त्यान - चित्त की अकर्मण्यता स्त्यान है। 4. मिद्ध - आलस्य को मिद्ध कहा गया है। 5. औद्धत्य-कौकृत्य - औद्धत्य का अर्थ है अव्यवस्थित चित्तता और कौकृत्य का अर्थ खेद या पश्चात्ताप है। सुख औद्धत्य-कौकृत्य का प्रतिपक्ष है। 5. विचिकित्सा - संशय को विचिकित्सा कहते हैं। विचार विचिकित्सा का प्रतिपक्ष है। ये नीवरण चित्त की एकाग्रता के बाधक हैं, अतः इन विघ्नों का नाश होने पर ६ यान एवं ध्यान के पांच अंगों का प्रादुर्भाव होता है। .. ध्यान के पांच अंग हैं - 1. वितर्क 2. विचार 3. प्रीति 4. सुख एवं 5. एकाग्रता। दश पलिबोध अथवा अन्तराय जिसको लौकिक समाधि अभीष्ट हो उसको परिशुद्ध शील में प्रतिष्ठित होकर सबसे पहले विघ्नों (पलिबोध) का नाश करना चाहिए। ये पलिबोध हैं - आवास, कुल, लाभ, गण, कर्म, मार्ग, ज्ञाति, आबाध, ग्रन्थ और ऋद्धि। 1. समथो हि चित्तेकग्गता, अंगुत्तर निकायट्ठकथा, बालवग्ग, सुत्त 3, 2. योग-दर्शन में अन्तरायों का उल्लेख है - व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्ध भूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः। - योगसूत्र, समाधिपाद, सूत्र 30 3. योगदर्शन में - वितर्कविचारानन्दास्मितारूपानुगमात्सम्प्रज्ञातः। (योगसूत्र, समाधिपाद, 17) आनन्द में प्रीति को, अस्मिता में सुख को समाविष्ट जानना चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध योग एवं उसकी उपादेयता * 137 आवास - जिसका चित्त किसी कारणवश अपने आवास में प्रतिबद्ध है उसके लिए आवास भी अन्तराय है। कुल - कुछ भिक्षु अपने तथा सेवक के कुल से विशेष संसर्ग की भावना रखते हैं। उनके लिए कुल अन्तराय है। लाभ - चीवर, पिण्डपात, शयनासन और ग्लान प्रत्यय भैषज - ये चार प्रत्यय लाभ हैं। भिक्षु को इन चार वस्तुओं की आवश्यकता रहती है। कभी-कभी ये भी अन्तराय हो जाते हैं। गण - गण में रहने से लोग अनेक प्रकार के प्रश्न पूछते हैं या पाठ के लिए आते हैं। अतः गण भी अन्तराय है। ___ कर्म - कर्म का अर्थ हैं, 'नवकर्म' अर्थात् विहार का अभिसंस्कार। जो विहार का अभिसंस्कार (नवकर्म) कराता है उसे श्रमिकों के कार्य का निरीक्षण करना पड़ता है। उसके लिए नवकर्म सर्वदा अन्तराय है। मार्ग - गमन भी कभी-कभी अन्तराय होता है। मार्ग में मिलने वाला लाभ-सत्कार जिनके चित्त को स्थिर नहीं रहने देता, उनके लिए मार्ग भी अन्तराय है। . ज्ञाति - विहार के आचार्य, उपाध्याय, अन्तेवासिक, माता-पिता आदि ज्ञाति हैं। वे जब बीमार पड़ते हैं तो ये अन्तराम होते हैं। क्योंकि इनकी सेवा करनी पड़ती है। जब तक ये नीरोग न हों, उनकी सेवा करना भिक्षु का कर्तव्य है। · आबांध - भिक्षु को कोई रोग हुआ तो श्रमण धर्म के पालन में अन्तराय होता है। चिकित्सा द्वारा रोग का शीघ्र उपशम करना चाहिए। ग्रन्थ - भिक्षु की समाधि में कभी ग्रन्थ भी विघ्न बन जाते हैं। ऋद्धि - विपश्यना में ऋद्धि भी अन्तराय है, किन्तु समाधि में नहीं। इन विघ्नों का उच्छेद कर भिक्षु को 'कर्मस्थान' के ग्रहण के लिए कल्याण भिक्षु के पास जाना चाहिए। कर्मस्थान बौद्ध साहित्य में 40 कर्मस्थान स्वीकृत हैं, जिन्हें परिहारिय - कम्मट्ठान भी कहते हैं। इनमें से जो कर्मस्थान चर्या के अनुकूल हो उसका नित्य अभियोग अर्थात् ग्रहण करना चाहिए। ये 40 कर्म स्थान इस प्रकार है - दस कसिण, दस अशुभ, दस अनुस्मृति, चार ब्रह्म विहार, चार आरूप्य, एक संज्ञा, एक व्यवस्थान। दश कसिण - दस कसिण योग कर्म के सहायक आलम्बनों में से हैं। कसिणों पर चित्त को एकाग्र करने से ध्यान की प्राप्ति होती है। कसिण इस प्रकार हैं - पृथ्वीकसिण, अपकसिण, तेजकसिण, वायुकसिण, नीलकसिण, पीतकसिण, लोहितकसिण, अवदात कसिण, आलोककसिण, परिच्छिनाकाशकसिण। For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार हैं 138 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला दश-अशुभ - उद्घमातक, विनीलक, विपुब्बक, विच्छिद्दक, विक्खायितक विक्खित्तक, हतविक्खित्तक, लोहितक, पुलुवक, अट्ठिक ये 10 अशुभ है। उपस्थितस्मृति से, संवृत्त-इन्द्रियों से, एकाग्रचित्त से जैसे निर्धन निधि-स्थान की ओर, या यजमान यज्ञशाला में जिस सौमनस्य से जाता है उसी प्रकार योगी को अशुभ कर्मस्थान के पास जाना चाहिए और उस अशुभ निमित्त को अमूल्य रत्न के समान देखकर उस आलम्बन पर ध्यान एकाग्र करना चाहिये। इस कर्मस्थान में प्रथम ध्यान से आगे नहीं बढ़ा जा सकता है। इसलिए इनकी वृद्धि नहीं करनी चाहिए। दश अनुस्मृति - पुनः पुनः होने वाली स्मृति ही अनुस्मृति है। प्रवर्तन के योग्य स्थान में ही प्रवृत्त होने के कारण अनुरूप स्मृति को भी अनुस्मृति कहते हैं। ये दस अनुस्मृतियां इस प्रकार हैं - बुद्धानुस्मृति, धर्मानुस्मृति, संघानुस्मृति, शीलानुस्मृति, त्यागानुस्मृति, देवतानुस्मृति, कायानुस्मृति, मरणानुस्मृति, आनापानस्मृति, उपशमानुस्मृति। . . .. इन दस स्मृतियों में आनापान स्मृति का विशेष महत्त्व है। पातञ्जल योग में इसे प्राणायाम' कहते हैं। यह एक प्रकृष्ट कर्म स्थान है। आचार्य बुद्धघोष ने इसे 40 कर्मस्थानों में शीर्ष स्थान पर रखा है, क्योंकि यह कर्मस्थान किसी भी दृष्टि से अशान्त और अप्रणीत नहीं है। चार ब्रह्म विहार - मैत्री,करुणा, मुदिता, उपेक्षा ये चार ब्रह्मविहार हैं। चित्त विशुद्धि के उत्तम साधन हैं। जीवों के प्रति किस प्रकार सम्यक् व्यवहार करना चाहिये इसका भी यह निदर्शन है। इन चार भावनाओं द्वारा राग, द्वेष, ईर्ष्या, असूया, आदि चित्तमलों का अपाकरण होता है। योग के अन्य कर्म आत्महित के साधन हैं, किन्तु ये चार ब्रह्म-विहार पर-हित के भी साधन हैं। प्रथम तीन ब्रह्म विहार तीन ध्यानों का ही उत्पाद करते हैं और चौथा ब्रह्म विहार अन्तिम ध्यान का उत्पाद करता है। ___चार आरूप्य - आकाशानन्त्यायतन, विज्ञानानन्त्यायतन, आकिञ्चन्यायतन और नैवसंज्ञानासंज्ञायतन ये चार अरूप ध्यान है। चार रूप ध्यानों की प्राप्ति होने पर उनमें दोष देखकर रूप का समतिक्रम करने के हेतु यह ध्यान किया जाता है। ये चार ध्यान क्रम से शान्ततर, प्रणीततर और सूक्ष्मतर होते हैं। __ संज्ञा - आहार में प्रतिकूल संज्ञा नामक एक संज्ञा है। चतुर्विध आहारों में से कवलीकार (खाद्य पदार्थ) आहार में चित्त को एकाग्र किया जाता है तथा आहार में अशुचिभाव का विचार किया जाता है, जिससे आहार में प्रतिकूल संज्ञा उत्पन्न होती है। इस संज्ञा से योगी की रस-तृष्णा नष्ट होती है। योगी केवल दुःखनिस्सरण के लिए ही 4. प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य। - योगसूत्र समधिवाद, सूत्र 34 5. मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्। - योगसूत्र समाधिपाद, सूत्र 33 For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध योग एवं उसकी उपादेयता * 139 आहार सेवन करता है। व्यवस्थान - चार धातुओं का व्यवस्थान नामक एक व्यवस्थान है। इस काया में पृथिवी धातु है, अप् धातु है, तेज-धातु है, वायु धातु है। इस प्रकार के व्यवस्थान से काय में “यह सत्त्व है, यह पुद्गल है, यह आत्मा है ऐसी संज्ञा नष्ट हो धातु संज्ञा ही उत्पन्न होती है। इस अवस्था में योगी शून्यता में अवगाहन करता है तथा महाप्रज्ञा को प्राप्त करता है। इन चालीस कर्मस्थानों में से केवल दस कसिणों की वृद्धि करनी चाहिए। परकायगता स्मृति और दस अशुभों की वृद्धि नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इससे कोई लाभ नहीं है। इसमें से दस कसिण, दस अशुभ, आनापान-स्मृति, कायगता स्मृति -केवल ये बाईस कर्मस्थान ही आलम्बन के निमित्त हैं, शेष में कुछ स्वभाव धर्म हैं और कुछ न निमित्त हैं और न स्वभाव-धर्म हैं। समाधि इन कर्मस्थानों में ध्यान से समाधि का उदय होता है। समाधि दो प्रकार की है - उपचार और अर्पणा। ध्यान की क्षीण अवस्था को उपचार समाधि कहते हैं। इस अवस्था में नीवरणों का प्रहाण होकर चित्त समाहित होता है। अर्पणा समाधि में वितर्क-विचार-प्रीति-सुख एकाग्रता इन अंगों का प्रादुर्भाव होकर वह सुदृढ़ हो जाता है। अर्पणा में कुशलता निम्न साधनों से प्राप्त की जा सकती है - 1. शरीर तथा चीवर की शुद्धता से। 2. श्रद्धांदि इन्द्रियों के समभाव प्रतिपादन से। 3. निमित्त कौशल से। 4. जिस समय चित्त का प्रग्रह करना हो उस समय चित्त का प्रग्रह करने से। 5. . जिस समय चित्त का निग्रह करना हो, उस समय चित्त का निग्रह करने से। 6. जिस समय चित्त का सम्प्रहर्षण करना हो, उस समय चित्त के सम्प्रहर्षण से। 7. जिस समय चित्त का उपेक्षाभाव होना चाहिए उस समय चित्त की उदासीन वृत्ति से। 8. ऐसे लोगों के परित्याग से जो अनेक कार्यों में व्याप्त रहते हैं। 9. समाधि-लाभी पुरुषों के आसेवन से। 10. समाधि-परायण होने से। ध्यान के चार भेद बौद्ध दर्शन में ध्यान के चार सोपान स्वीकृत हैं - 1. प्रथम ध्यान, 2. द्वितीय ध्यान, 3. तृतीय ध्यान, 4. चतुर्थ ध्यान For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला 1.प्रथम ध्यान - काम और अकुशल के परित्याग से ही प्रथम ध्यान का लाभ होता है। इस ध्यान में विशेषकर कामधातु का अतिक्रमण होता है। यहाँ अकुशल धर्मो का आशय पाँच नीवरणों से ही है। ध्यान के अंग इनके प्रतिपक्ष हैं, यथा - समाधि कामच्छन्द का, प्रीति व्यापाद का, वितर्क स्त्यान का, सुख औद्धत्य-कौकृत्य का और विचार विचिकित्सा का प्रतिपक्ष है। इन पाँच नीवरणों का परित्याग कर प्रथम ध्यान वितर्क, विचार, प्रीति, सुख और समाधि इन पाँचों अंगों से समन्वागत होता है। इन पाँच अंगों का जब तक प्रादुर्भाव नहीं होता तब तक प्रथम ध्यान का लाभ नहीं होता। योगी को आवर्जन, सम, अधिष्ठान, व्युत्थान और प्रत्यवेक्षण इन पांच प्रकारों से प्रथम ध्यान पर आधिपत्य प्राप्त करना चाहिए तभी द्वितीय ध्यान की प्राप्ति हो सकती है। . द्वितीय ध्यान - प्रथम ध्यान से उठकर योगी विचारता है कि प्रथम ध्यान सदोष है क्योंकि इसके वितर्क-विचार स्थूल हैं और इसलिए इसके अंग दुर्बल और परिक्षीण है। द्वितीय ध्यान की वृत्ति शान्त है और उसके प्रीति, सुख आदि शान्ततर और प्रणीततर हैं, अतः वह द्वितीय ध्यान में प्रवृत्त होता है। द्वितीय ध्यान में स्थूल वितर्क और विचार का अनुत्पाद होता है। अतः द्वितीय ध्यान के केवल तीन अंग हैं - 1. प्रीति 2. सुख और 3.एकाग्रता। द्वितीय ध्यान सम्प्रसादन है।' अर्थात् श्रद्धायुक्त होने के कारण तथा वितर्क, विचार के क्षोभ के व्युपशम के कारण यह चित्त को सुप्रसन्न करता है। वितर्क विचार के अभाव से यह समाधि श्रेष्ठ है। द्वितीय ध्यान का भी आवर्जनादि पाँच प्रकारों से अभ्यास करना चाहिए। ततीय ध्यान - द्वितीय ध्यान भी सदोष है, क्योंकि इसकी प्रीति स्थूल है, यह विचार कर योगी को तृतीय ध्यान का यत्न करना चाहिए। तृतीय ध्यान के क्षण में प्रीति का अनुत्पाद होता है। इस ध्यान के दो अंग हैं - 1. सुख और 2. एकाग्रता। उपेक्षा, स्मृति और सम्प्रजन्य इसके परिष्कार हैं। ___ प्रीति का अतिक्रमण करने से तृतीय ध्यान का लाभी उपेक्षाभाव रखता है, वह समदर्शी होता है। इस कारण वह 'उपेक्षक' कहलाता है। यह उपेक्षा दश प्रकार की होती है - 1. षडङ्गोपेक्षा 2. ब्रह्मविहारोपेक्षा 3. बोध्यङ्गोपेक्षा 4.वीर्योपेक्षा 5. संस्कारोपेक्षा 6. वेदनोपेक्षा 7. विपश्यनोपेक्षा 8. तत्रमथ्यत्वोपेक्षा 9. ध्यानोपेक्षा और 10. परिशुद्धयुपेक्षा। योगी इस ध्यान में चैतसिक सुख का लाभ करता है और ध्यान से उठकर कायिक सुख का भी अनुभव करता है तथा उपेक्षा भाव से विहार करता है। तृतीय ध्यान का भी पूर्वोक्त पाँच प्रकारों से अभ्यास करना चाहिए। 6. अधिगमेन समं ससम्पयुस्तस्स झानस्स सम्माआपज्जन परिपज्जनं समापज्जनं झानसमङ्गिता" - परमत्थमंजूसा टीका 7. प्रीत्यादयः प्रसादश्च द्वितीयेऽङ्गचतुष्टयम्। तृतीये पञ्च तूपेक्षा स्मृतिर्ज्ञानं सुखं स्थितिः।" अभिधर्मकोश 8/7-8 For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध योग एवं उसकी उपादेयता * 141 चतुर्थ ध्यान - योगी स्मृति-सम्प्रजन्यपूर्वक ध्यान के अंगों की प्रत्यवेक्षा करता है तो उसे अनुभव होता है कि चैतसिक सुख स्थूल है और उपेक्षा, वेदना तथा चित्तैकाग्रता शान्त है। तब वह चतुर्थ ध्यान का प्रयत्न करता है। चतुर्थ ध्यान के दो अंग हैं - 1. उपेक्षा-वेदना और 2. एकाग्रता। चतुर्थ ध्यान में चैतसिक सुख का प्रहाण होता है तथा स्मृति परिशुद्ध होती है। इस समय अनुभव होने वाला सुख दुःख, सौमनस्य और दौर्मनस्य का अभाव मात्र नहीं है। यह तीसरी वेदना है। इसे उपेक्षा भी कहते हैं। यही उपेक्षा चित्त की विमुक्ति है। सुख दुःख के प्रहाण से इसका अधिगम होता है। इस प्रकार योगी शमथ रूपी लौकिक समाधि को प्राप्त करता है। विपश्यना निर्वाण की प्राप्ति हेतु शमथ की भावना के पश्चात् विपश्यना की भावना आवश्यक है। विपश्यना के बिना योगी न तो अर्हत् पद को प्राप्त कर सकता है और न ही संसार के बन्धन से मुक्ति पा सकता है। पालि-त्रिपिटक में कहीं-कहीं शमथ एवं विपश्यना के एक साथ होने का उल्लेख मिलता है। इससे स्पष्ट है कि शमथ और विपश्यना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। विपश्यना को लोकोत्तर समाधि कहा गया है, क्योंकि विपश्यना का आलम्बन लौकिक कर्म का स्थान नहीं है। . विपश्यना प्रज्ञा का मार्ग है। विपश्यना का सामान्य अर्थ है - विशेष रूप से देखना। साधक विपश्यना की भावना से क्षणिक नामरूप धर्मों के अनित्य स्वभाव को जानता है, जिससे उसे यह ज्ञान हो जाता है कि जो अनित्य है वह दुःखरूप है, अनात्म है। इस प्रकार साधक जब नाम-रूप धर्मों के अनित्य, दु:ख और अनात्मस्वरूप को विशेष रूप से देखने लगता है तब उसका ज्ञान विपश्यना कहलाता है। भगवान बुद्ध के अनुसार जब साधक इस नाम और रूप को स्पष्ट रूप से देखने में समर्थ हो जाता है तब उसके अन्दर से आत्मा के अस्तित्व की मान्यता समाप्त हो जाती है और वह पूर्ण विपश्यना भावना को प्राप्त कर लेता है। विपश्यना भावना के अन्तर्गत सात प्रकार की विशुद्धियाँ करनी होती हैं, जो निम्न प्रकार हैं - ___ 1. शील विशुद्धि.2. चित्त विशुद्धि 3. दृष्टि विशुद्धि 4. कांक्षावितरण विशुद्धि 5. . मार्गामार्गज्ञानदर्शन विशुद्धि 5. प्रतिपदाज्ञान दर्शन विशुद्धि 7. ज्ञानदर्शनविशुद्धि। . विपश्यना पद्धति मन को शान्त करने के लिए, रागद्वेष को कम करने के लिए स्वयं को जानने और देखने के लिए है। अर्थात् विपश्यना राग, द्वेष और मोह से विकृत हुए चित्त को निर्मल बनाने की साधना है, दैनिक जीवन के तनाव, खिंचाव से विकृत हुए चित्त को ग्रन्थि-विमुक्त करने का सक्रिय अभ्यास है। विपश्यना में जो अनायास, सहज श्वास चल रहा है, उसे देखने के लिए कहा जाता है। किसी प्रकार का विशेष प्रयत्न यहाँ नहीं किया जाता है। विपश्यना में आसन, For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला जप एवं स्वाध्याय का निषेध है तथा प्राणायाम (आयास पूर्वक श्वास प्रश्वास पर नियन्त्रण) को महत्त्व नहीं दिया गया है। किन्तु विपश्यना में मौन का विशेष महत्त्व है। विपश्यना में नियम से मौन रखा जाता है। बौद्ध योग का पातञ्जल योग से वैशिष्ट्य - महर्षि पतञ्जलि द्वारा रचित 'योगसूत्र' में प्रतिपादित योग पद्धति एवं बौद्धयोग में मान्य मुख्य भेदों का उल्लेख किया जा रहा है - ____1. पतञ्जलि के अनुसार योग का लक्ष्य चित्त की वृत्तियों का निरोध है, जबकि बौद्धमत में ध्यान-साधना का लक्ष्य चित्त का ही निरोध है। 2. पातञ्जल योग में समाधि सिद्धि के लिए ईश्वरवाचक प्रणव (ॐ) के उच्चारण का निर्देश है, जबकि बुद्ध शिक्षा में किसी शब्द के उच्चारण का निर्देश नहीं है। ___3. योगसूत्र में एक निर्विकार तत्त्व 'पुरुष' के बारे में परिकल्पना की गई है जो चित्त की समस्त क्रियाओं का साक्षी है। किन्तु बुद्ध ने पुरुष जैसे किसी तत्त्व को नहीं स्वीकारा, उनकी दृष्टि में तो शरीर मनोमय होता है।' 4. योगसूत्र' में नियमों के अन्तर्गत स्वाध्याय को भी स्वीकार किया गया है, जबकि बुद्ध सदा इस बात पर बल देते थे कि धर्म के सैद्धान्तिक पक्ष की जानकारी की अपेक्षा इसके वास्तविक आचरण का अधिक महत्त्व है। ___5. उदय एवं क्षय इन शब्दों का प्रयोग योगसूत्रकार ने कुछ धर्मों के उदय एवं नाश के लिए किया है, जबकि बुद्ध ने उदय-व्यय को शरीर में होने वाली संवेदनाओं (वेदनाओं) के साथ जोड़ा है। 6. पतञ्जलि के अनुसार कैवल्य प्राप्ति योग-साधना का परम लक्ष्य है। उनके अनुसार गुण (सत्त्व, रज, तम) शान्त होकर पुरुषार्थ शून्य हो जाते हैं तो कैवल्य होता है। बौद्ध मत में मुक्ति के लिए केवल या केवली शब्दों का प्रयोग किया गया है, जो परममुक्ति की निर्मल और विशुद्ध अवस्था को दर्शाते हैं। केवली में पाँच विशेषताएँ होती हैं - अशैक्ष्य का शील, अशैक्ष्य की समाधि, विमुक्ति, वैसा ही ज्ञान और अर्हत् के धर्म-सम्बन्धी ज्ञान की पराकाष्ठा।" 8. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः- योगसूत्र, 1.2 १. मनोमयेषु कायेषु सब्बत्थ पारंमि गतो - अप. थेर. 1.2.53 10. शौचसन्तोषतप:स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः। योगसूत्र-2.32 11. असेखेन च सीलेन, असेखेन समाधिना। विमुत्तया च सम्पन्नो, आणेन च तथाविधो।। स वे पञ्चङ्गसम्पन्नो, पञ्च अङ्गे विवज्जयं। इमस्मिं धम्मविनये, केवली इति वुच्चतीति।। - अंगुत्तर निकाय 3.10.12 For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध योग एवं उसकी उपादेयता * 143 वर्तमान समय में भी योग एवं ध्यान की उतनी ही प्रासङ्गिकता है जितनी प्राचीनकाल में थी, बल्कि आधुनिक काल में इसकी महत्ता अत्यधिक बढ़ गई है। आज के व्यस्त जीवन में मन विचारों, कल्पनाओं, स्मृतियों, वृत्तियों, कामनाओं और वासनाओं से व्याकुल रहता है, जिनकी निवृत्ति के लिए मन का निरोध आवश्यक प्रतीत होता है। आज भौतिक सुखों से उत्पन्न मानसिक अशान्ति के निराकरण के लिए भारतीय ही क्या पाश्चात्त्य देश भी योग एवं ध्यान की शरण में आने को लालायित हैं। योग से चित्त एकाग्र होता है। चित्त की एकाग्रता का प्रबलतम एवं सर्वोत्तम साधन है - ध्यान। ध्यान से मन की चंचलता, अस्थिरता, अशान्ति तथा व्यग्रता का नाश होता है तथा चैतसिक शान्ति एवं आनन्द का अनुभव होता है। भगवान बुद्ध द्वारा प्रतिपादित ध्यान-साधना पद्धति 'विपश्यना' जो भारत से प्रायः लुप्त हो चुकी थी, को श्री सत्यनारायण गोयनका द्वारा बर्मा से लाकर पुनजोवित करने का प्रयास किया गया है, जिससे आज यह ध्यान पद्धति जन-मानस में लोकप्रिय हो रही है। इसके लिए समस्त मानव जाति श्री गोयनका जी की ऋणी रहेगी। - अतिथि अध्यापक, संस्कृत विभाग जयनारायणव्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध धर्म एवं कला : पारस्परिक अवदान सुश्री ऋचा शर्मा बौद्ध धर्म-दर्शन एवं कला 'निब्बान परमं वदन्ति बुद्धा'।' .. बौद्ध दर्शन में निर्वाण' ही परम लक्ष्य माना गया है। निर्वाण-प्राप्ति ही वह केन्द्र है जिसके चारों ओर बौद्ध धर्म-दर्शन की दृष्टि दिखाई देती है। इसे ही बौद्धदर्शन में परमसुख, सर्वस्व और अमृत पद कहा गया है। समस्त के त्याग का नाम ही 'निर्वाण' है - 'सर्वत्यागश्च निर्वाणम्'।' बौद्ध धर्म में यह समस्त का त्याग 'रूप' के त्याग की भी अपेक्षा रखता है। 'रूप' के अस्तित्व के साथ ही 'नाम' जुड़ा है। 'नाम' और 'रूप' की निर्ऋति (निरोध) निर्वाण-प्राप्ति के लिए उपदिष्ट मार्ग (प्रतीत्यसमुत्पाद) की आवश्यक कड़ी मानी गयी है। इस प्रकार बौद्ध मत जीवन के एकमात्र उद्देश्य के रूप में निर्वाण को स्वीकार करता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति में प्रत्येक बाधक तत्व (वह चाहे नाम हो, रूप हो अथवा इन्द्रिय-सुख हो) का निषेध करता है। अब यदि हम कलाओं पर दृष्टिपात करें तो वे उपर्युक्त प्रकार से वर्णित निर्वाण से नितान्त भिन्न हैं। 'रूप' कला का प्रमुख तत्त्व है। 'रूप' से पृथक् तो कला की सत्ता ही नहीं है। कला कल्पना का संसार है, रचना का संसार है जो दृश्य होने पर ही हमारे 1. धम्मपद, बुद्धवग्गो,6 2. (क) 'निब्बानं परम सुखं । - वही, सुखवग्गो,7-8 (ख) आत्मानन्दः परानन्दो निर्वाणं परमं सुखम्'। - बुद्धचरित, 19.27 3. 'दुर्लभं शान्तमजरं परं तदमृतं पदम्'! बुद्धचरित, 12.106 4. सर्वत्यागश्च निर्वाणं निर्वाणार्थि च मे मनः। त्यक्तव्यं चेन्मया सर्वं वरं सत्त्वेषु दीयताम्।। - बोधिचर्यावतार, 3.11 5. (क) नामरूपनिरोधे च षडायतनसंक्षयः। तथा विज्ञानरोधे च नामरूपे विनश्यतः।। - बुद्धचरित, 14.84 (ख) 'नामरूपस्मिं असज्जमानं, अकिंचनं नानुपतन्ति दुक्खा।' - धम्मपद कोधवग्गो, 1 For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध धर्म एवं कला : पारस्परिक अवदान - 145 ज्ञान के क्षेत्र में आती है। निरी कल्पना कला नहीं है उसे दृश्यजगत् में आना पड़ता है। दृश्यता 'रूप' के लिए आवश्यक है - 'रूपं दृश्यतयोच्यते संगीत, चित्र, मूर्ति, काव्य, अभिनय, स्थापत्य आदि किसी भी कला में रूप सर्वोपरि है। यहाँ उत्कण्ठा होती है कि क्या संगीत भी रूप की संज्ञा प्राप्त कर सकता है, क्योंकि वह श्रव्य' होता है। बी.एम. बरुआ ने अपनी पुस्तक 'ए हिस्ट्री ऑफ प्रिबुद्धिस्टिक इंडियन फिलॉसफी' में रूप को अनुभाष्य कहा है। उन्होंने फुसफुसाहट को श्वास के समान रूपहीन माना है। जोर से बोलने पर वही फुसफुसाहट जो कि अब तक श्वास थी, 'रूप' हो जाती है, अनुभाष्य हो जाती है। इस प्रकार संगीत के स्वर भी 'रूप' हैं। रूप धारण करने के कारण वे हमारी इन्द्रियों के ज्ञान क्षेत्र में आ जाते हैं। इसके अतिरिक्त भी कानों से देखने और आँखों से सुनने को सर्वोत्तम कहा गया है। सर्वविदित है कि कलाएँ जहाँ 'रूप' की ओर संकेत करती हैं, वहीं इन्द्रिय-सुख से भी सम्बन्ध रखती हैं। भारतीय मनीषा ने कलाओं में 'रस' के उन्मीलन को प्रमुखता से स्थान दिया है। रस-निष्पत्ति की परिणति 'आनन्द' है, जिसे अनिर्वचनीय कहा गया है। __इन दोनों दृष्टियों (धर्मदृष्टि एवं कला दृष्टि) से तो कहीं भी बौद्धधर्म और कला में कोई तारतम्य दिखाई नहीं देता है। कहाँ तो इन्द्रिय-सुख से विरक्ति का भाव (बौद्धधर्म दृष्टि) और कहाँ इन्द्रिय-सुख का आनन्द (कला दृष्टि)! कहाँ 'रूप' में अनासक्ति (बौद्धधर्म दृष्टि) और कहाँ रूप रचना (कलादृष्टि)! कहाँ 'स्व' का त्याग (बौद्ध धर्म दृष्टि) और कहाँ 'स्व' अर्थात् आत्मा की अभिव्यक्ति (कलादृष्टि) निर्वाण के पथ पर अग्रसर व्यक्ति के लिए कला का क्या प्रयोजन? इससे तो बौद्ध धर्म एवं कला का साहचर्यमूलक सम्बन्ध असंगत प्रतीत होता है। किन्तु जैसा प्रतीत हो रहा है वैसा वस्तुतः है नहीं। यदि हम भारत में कलाओं के चरम उत्कर्ष की ओर नज़र डालें तो बौद्ध कला' उभर कर सामने आती है। बौद्ध धर्म से सम्बन्धित कलाओं में सर्वश्रेष्ठ रूप-रचना अभिव्यक्त होती है। भारतीय कला भण्डार को सर्वाधिक समृद्धता बौद्ध मूर्तिकला एवं चित्रकला ने प्रदान की। अतः बौद्ध धर्म और कला के साथ इसके सम्बन्ध पर दृष्टि डालें तो हमारी धिषणा के आगे जो अवगुंठन (पर्दा) है, वह स्वतः ही हट जाएगा और हमारी शंकाओं का समाधान भी मिल जाएगा। बौद्ध धर्म एवं कला : अन्तःसम्बन्ध धार्मिक आन्दोलन के दृष्टिकोण से ई.पू. छठी शताब्दी का काल भारतीय इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण काल रहा है। भारत ही नहीं विश्व के इतिहास में यह 6. दशरूपक (धनंजय), 1.7 . 7. बी.एम बरुआ, ए हिस्ट्री ऑफ प्रिबुद्धिस्टिक इंडियन फिलासफी, कलकत्ता, 1921, पृ. 64 8. 'नामरूपस्मिं असज्जमानं, अकिंचनं, नानुपतन्ति दुक्खा'। - धम्मपद, कोधवग्गो, 1 For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला शताब्दी बहुत महत्त्वपूर्ण मानी गयी है, क्योंकि इस शताब्दी में सभी देशों में कुछ ऐसे मनीषी एवं महापुरुष हुए, जिन्होंने भविष्य के लिए नूतन आलोक दिया। इसी काल में महात्मा बुद्ध द्वारा बौद्ध धर्म की स्थापना की गयी थी। ज्ञान-प्राप्ति के बाद महात्मा बुद्ध ने अपने उपदेशों द्वारा मनुष्य के दुःखों को दूर करने का मार्ग दिखलाया। ये बौद्ध धर्म के सिद्धान्त के रूप में विज्ञेय हैं। परवर्ती अनुयायियों ने सिद्धान्त सूत्रों की विवेचना कर इसे दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित किया। कालान्तर में बौद्ध कला भी एक चमत्कार के रूप में सामने आई, जिसने सम्पूर्ण भारतीय कला को एक आदर्श रूप प्रदान किया। बौद्ध धर्म एवं कला का समन्वय कब और किन परिस्थितियों में स्थापित हुआ, इसका स्पष्ट संकेत तो नहीं मिलता है, किन्तु इस सन्दर्भ में इतना तो प्रत्यक्ष है कि आरम्भिक व्यावहारिक बौद्ध दृष्टिकोण कला के पक्ष में नहीं था। प्रारम्भिक दृष्टिकोण के अनुसार कला नाम और रूप की दुनिया है, जो हमें तात्कालिक सुख देने वाली है। जबकि निर्वाण वह स्थिति है जो इन सबसे निर्मुक्त है। इस दृष्टिकोण के बावजूद भी भारतीय कला का जो स्वरूप बौद्ध कला में देखने को मिलता है, वह अन्यत्र कहीं नहीं मिलता है। ये कलाकृतियाँ सौन्दर्यशास्त्र के उच्चतम मानदण्डों पर खरी उतरती हैं। मौर्य, शुंग, सातवाहन, कुषाण, गुप्त काल (लगभग चौथी शताब्दी ई.पू. - छठी शताब्दी ई.) में जहाँ बौद्ध धर्म का अत्यधिक विकास हुआ वहीं बौद्ध कला भी अपने उन्नत शिखर पर पहुँच चुकी थी। मूर्ति, स्थापत्य, चित्र, साहित्य - प्रत्येक क्षेत्र बौद्ध धर्म एवं दर्शन से सम्पृक्त हो गया था। कार्ले, कान्हेरी, भाजा, अजन्ता - जहाँ भी नज़र डालें बौद्ध कला का ही परचम लहराता नज़र आएगा। इससे यह ध्वनित होता है कि बौद्ध कला एवं बौद्ध धर्म के मध्य एक ऐसा उभयनिष्ठ तत्त्व अवश्य है जो इन्हें जोड़ता है। इन दोनों दृष्टिकोणों के मध्य जो भेद है वह वस्तुतः विभ्रम है। बुद्ध ने भी इस भेद-अभेद पर अवश्य चिन्तना की होगी और अन्त में उन्होंने अभेद को ही विशिष्ट पाया होगा। इसीलिए उन्होंने कालान्तर में बौद्ध भिक्षुओं के निवास पर चरण चित्रों की अनुमति प्रदान की। बुद्धघोष ने कला को मस्तिष्क की सृजनात्मक स्थिति से उद्भूत माना है।' प्रारम्भ में बौद्ध दृष्टिकोण भले ही कला के पक्ष में नहीं रहा हो, किन्तु कालान्तर में कला और बौद्ध धर्म के मध्य परस्पर साहचर्य मूलक सम्बन्ध स्थापित हुआ और दोनों ने एक दूसरे के विकास में योगदान किया है। बौद्ध धर्म ने कला को समृद्ध बनाया है तो कला ने बौद्ध धर्म को विशिष्ट आलोक प्रदान किया है। बौद्ध धर्म को कला का अवदान बौद्ध धर्म के विकास में कला का विशिष्ट योगदान रहा है। बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में कला ने माध्यम के रूप में अपनी महती भूमिका निभाई है। 9. S.N. Dasgupta, Fundamentals of Indian Art, Bhartiya Vidya Bhawan, Bombay, 1954, pp.95-96 For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध धर्म एवं कला : पारस्परिक अवदान * 147 बोधि-प्राप्ति के पश्चात् बुद्ध ने सर्वजनहिताय धर्म का प्रचार-प्रसार प्रारम्भ किया। अपने कार्य को स्थायित्व प्रदान करने के उद्देश्य से उन्होंने भिक्षुओं के एक संघ का निर्माण किया। महापरिनिर्वाण (बुद्ध की मृत्यु) के पश्चात् इसी बौद्ध संघ द्वारा उनके बहुजनहिताय एवं बहुजन सुखाय की भावना से आप्लावित मत का अधिकाधिक प्रचार हुआ। इसके अतिरिक्त बिम्बसार, अजातशत्रु, कनिष्क, हर्षवर्धन, अशोक आदि महान् राजाओं ने इस धर्म को ग्रहण किया और इसके उत्कर्ष में अपनी समस्त शक्ति लगा दी। सम्राट अशोक ने तो इस धर्म को स्थानीय स्तर से ऊपर उठाकर अपने प्रयासों द्वारा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर पहुँचा दिया। इस कार्य के लिए राजकीय संरक्षकों ने कला को माध्यम बनाया। स्पष्ट है कि बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार एक महती आवश्यकता थी, जिसके लिए कला भी एक माध्यम बनी। राजकीय संरक्षकों ने ही नहीं, संघ के निवासी भिक्षुओं और अन्य बौद्ध अनुयायियों ने भी कला को माध्यम एवं साधना के रूप में स्वीकार किया। यथा-अजन्ता की कृतियों के रचनाकारों का स्पष्ट नामोल्लेख नहीं मिलता है, किन्तु कला मर्मज्ञ वाचस्पति गैरोला के अनुसार बौद्ध स्थविरों और कलाविद् आचार्यों का इसमें पूर्ण योगदान रहा है। विशेष रूप से महायान शाखा के बौद्ध भिक्षुओं का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा है कि 'इन महान् कलाकृतियों के निर्माण में राज्याश्रित पेशेवर कलाकारों की अपेक्षा उन त्यागी, तपस्वी संन्यासियों की साधना अधिक दिखाई देती है, जिन्होंने यश-अपयश हानि-लाभ, और राग-द्वेष पर पूर्णतया विजय प्राप्त करली थी।1 कलाओं की दूसरी महत्त्वपूर्ण भूमिका है - लोगों को बौद्ध धर्म की ओर आकृष्ट करना। राज्याश्रय में कला अपने श्रेयस् अस्तित्व को प्राप्त करती हुई आध्यात्मिकता में पर्यवसित हो जाती है। धर्म की आध्यात्मिक, अदृष्ट एवं अलौकिक पृष्ठभूमि पर ही भारतीय चित्रकला की आधारभित्ति खड़ी है। यह आध्यात्मिक आकृष्टता ही जनसमूह में चेतना का अवलम्बन है। बौद्ध प्रचारकों की अनुभूति भी इस तथ्य से अछूती नहीं रही। निहार रंजन रॉय ने बौद्ध समुदाय की ओर विशेष रूप से संकेत करते हुए कहा है कि उन्हें यह महसूस हुआ कि कला के माध्यम से वे सीधे और प्रभावशाली ढंग से अपनी पौराणिक एवं दन्तकथाओं, प्रतीकों और उपमाओं का प्रचार करके अन्य 10. 'बुद्ध ने यह समझकर कि अपने जीवन में मैंने जिस धर्म का प्रचार किया है वह सदा फूलता-फलता रहे तथा वृद्धि को प्राप्त हो एक संघ की स्थापना की।' - आचार्य बलदेव उपाध्याय, बौद्ध दर्शन-मीमांसा, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, 1999 पृ. 372 11. वाचस्पति गैरोला, भारतीय चित्रकला, चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान, दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 1990, पृ. 118 12. रामनिवास वर्मा, धार्मिक प्रेरणा से उद्भूत कला, सं. प्रेमचन्द गोस्वामी, कला : सन्दर्भ और प्रकृति, जयपुर, 1971, पृ.75 For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला समुदाय के लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर सकते हैं। उन्होंने कला को अपढ़ समाज को शिक्षित करने का लोकप्रिय एवं परम्परागत साधन माना है। भगवान बुद्ध की शिक्षाओं, जातक कथाओं एवं बुद्ध के जीवन दृश्यों यथा - 'श्वेत गज के रूप में बुद्ध का अवतरण' 'राहुल का जन्म' 'हाथियों द्वारा बोधिवृक्ष की पूजा' 'कपिलवस्तु पुनरागमन', 'बुद्ध के शरीर व अवशेषों का बँटवारा"धर्मचक्रप्रवर्तन' आदि का वर्णन इन कलाओं में प्रदर्शित है। बौद्ध कलाओं की आध्यात्मिक शक्ति और उत्कृष्ट रचनात्मकता आज भी आकर्षण का केन्द्र है। स्थापत्य, शिल्प अथवा चित्र - किसी भी रूप में ये हमें बुद्ध एवं उनके दर्शन की ओर खींचती हैं। बौद्ध कला तत्कालीन धर्म और दर्शन का स्पष्ट रूप परिलक्षित करती है। यह तीसरी विशेषता बौद्ध धर्म-दर्शन एवं कला का एकत्र सम्मेलन बन गई है। ये सब यहाँ एकरूप हो गए हैं। मैत्रेय' (बौद्ध धर्मानुसार भविष्य में अवतार लेने वाले बुद्ध) की कल्पना को बौद्ध चित्रों एवं मूर्तियों में मूर्त रूप मिला है। मैत्रेय की कलाकृति में सौन्दर्य पक्ष के साथ आध्यात्मिक भावबोध की भी सहज प्रस्तुति है। इसी प्रकार बोधिसत्त्व पद्मपाणि के चित्रों में निस्सीम करुणा और सौहार्द्र प्रस्फुटित है। 'सर्वजनहित' और 'सर्वजनसुख' के उद्देश्य की संकल्पना वाले बुद्ध पूर्ण मोक्ष की प्राप्ति में समर्थ होते हुए भी स्वयं तब तक निर्वाण ग्रहण नहीं करेंगे और अपने पुण्यों से दूसरों को उपकृत करते रहेंगे, जब तक कि ब्रह्माण्ड के सभी व्यक्ति निर्वाण को प्राप्त न कर लें। ऐसी उदार प्रवृत्ति, आदर्श और जीवन दर्शन की स्पष्ट आभा 'बोधिसत्त्व पद्मपाणि' में उद्भासित होती है। वज्रपाणि बुद्ध' को पाप एवं दुष्टों के विनाशक के रूप में दर्शाया गया है। एक अन्य दृष्टान्त 'मार-विजय' के उत्कीर्णन अथवा चित्रण में भी बौद्ध धर्म एवं दर्शन के उच्च प्रतिमानों का गुम्फन है। कमलपत्र जलराशि से सराबोर होते हुए भी गीला नहीं 13. भारतीय कला के आयाम, पूर्वोदय प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1984 पृ. 39-40 14. 'इसमें भगवान् बुद्ध के पूर्व-जन्मों की कथाएँ हैं। भगवान् बुद्ध के जीवन में अनेक बार ऐसे अवसर आये, जब कि तत्कालीन किसी घटना को देखकर उन्हें अपने पूर्वजन्म की घटनाएं याद हो आती थीं। कुछ देर तक तन्मय हो कर उस पर विचार करते और फिर उपस्थित श्रोताओं को सुनाकर वर्तमान के साथ अतीत का मेल बैठा दिया करते थे। यह उनकी एक जातक कथा बन जाती थी।'- जातकमाला (अनु.-डॉ. जगदीश चन्द्र मिश्र, चौखम्भा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, 1987) भूमिका, पृ.7 15. 'बौद्ध धर्मानुसार सृष्टि की रचना व परिवर्तन पाँच बार होता है, जिन्हें सम्बद्ध बोधिसत्त्व अपने ध्यानी बुद्ध से शक्ति एवं प्रेरणा प्राप्त कर रचता है एवं सम्बद्ध मानुषी बुद्ध पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। बौद्धमतानुसार यह चतुर्थ विश्व हैं, जिसमें मानुषी बुद्ध शाक्यसिंह गौतम एवं इस संसार का संचालन अवलोकितेश्वर अर्थात पद्मपाणि कर रहे हैं। गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के लगभग 5000 वर्ष पश्चात् बोधिसत्त्व विश्वपाणि पुनः पाँची सृष्टि की रचना करेंगे और मैत्रेय मानुषी बुद्ध के रूप में अवतरित होंगे। - डॉ . सन्ध्या पाण्डेय, गुप्तकालीन बौद्ध चित्रकला, परिमल पब्लिकेशन्स, दिल्ली, 1991, पृ. 119 For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध धर्म एवं कला : पारस्परिक अवदान - 149 होता है, इसी भाँति भगवान् बुद्ध कामदेव की सेना के मध्य निर्विकार भाव से सांसारिक दुःखों को दूर करने के लिए वज्रासन मुद्रा (भूमिस्पर्श मुद्रा) में तल्लीन हैं। बुद्ध की मनोवैज्ञानिक छवि का यह चित्रण संसार में रहते हुए सांसारिक विषयों से निर्लिप्त रहने की ओर भी संकेत है। 'अष्टांगिक मार्ग' की संकल्पना यहाँ चरितार्थ होती है। इनके अतिरिक्त कला न बौद्ध धर्म के लिए 'भाषा' की भूमिका भी निभाई है और आदर्श की भूमिका भी। कलाकार ने तत्कालीन धार्मिक मान्यताओं को कलाकृतियों में ढालकर कला के आदर्श को नई भाषा प्रदान की है। प्रारम्भिक काल में भगवान बुद्ध की उपस्थिति मानव रूप में कहीं भी उत्कीर्ण नहीं की गई है बल्कि प्रतीक माध्यमों यथा-रिक्त सिंहासन, धर्मचक्र, स्वस्तिक, चिह्न चरण चिह्न, कमल आदि धार्मिक संकेतों से दर्शायी गयी है। बुद्ध स्वयं की प्रतिमा बनवाने के पक्ष में नहीं थे, इसी आदेश के अनुरूप प्रारम्भ में बुद्ध-मानवाकृति के स्थानापन्न ये प्रतीक अस्तित्व में आए। बाद में महायान सम्प्रदाय के अस्तित्व में आने पर कुषाण काल में बुद्ध की मानव प्रतिमाएँ बनने लगी। अशोककालीन मौर्य कलाओं की प्रतीकात्मक भाषा आज भी प्रासंगिक है। सारनाथ से प्राप्त अशोक-स्तम्भ-शीर्ष हमारा राष्ट्रीय चिह्न है। इसका प्रतीकात्मक वैभव इसे यह योग्यता प्रदान करता है। मौर्यकालीन स्तम्भों के शीर्ष पर प्रयुक्त 'चक्र' चक्रवर्ती सम्राट् के रूप में बुद्ध को प्रदर्शित करता है। यह चक्र बुद्ध की शिक्षाओं का भी संकेत देता है। प्रत्येक पशु, पक्षी अथवा आकृति किसी न किसी तथ्य की ओर संकेत है। 'स्तूप, चैत्य, चक्र, गुहा आदि सभी उपकरणों में भावनाएं अंकित हुई हैं। यहीं कला और धर्म तथा जीवन और साधना का समन्वय होता है। बौद्धाचार्यों ने इस समन्वित रूप को भलीभाँति सुरक्षित रखा है। 17 बौद्ध कला अपने आप में एक सम्पूर्ण एवं सरस भाषा है। यह ऐसी भाषा है जिसने बौद्ध धर्म को भारत की सीमा से मुक्त कर मध्य एशिया, चीन, कोरिया, जापान, लंका, दक्षिणी-पूर्वी एशिया आदि के विभिन्न भागों में पहुँचा दिया। बौद्ध धर्म के सर्वतोमुखी निनाद से विभिन्न देशों में भारतीय संस्कृति का भी प्रसार हुआ। स्पष्ट है कि बौद्ध धर्म के प्रचार में कला ने अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कलाओं के माध्यम से बौद्ध धर्म ने लोक जन-जीवन की चेतना के स्तर तक सुगम पहुँच बनायी है। कला के स्पर्श से ही बौद्ध धर्म व्यापक आधार प्राप्त कर सका। बौद्ध धर्म, संस्कृति, दर्शन, आदर्श एवं जीवन - सभी बौद्ध कला में सजीव हो उठे हैं। बौद्ध कला ने केवल बौद्ध धर्म के ही नहीं, अपितु भारत के धार्मिक एवं सांस्कृतिक उत्थान 16. Jeannine Auboyer, Buddha (A Pictorial history of his life and Legacy), Roli Books International, new Delhi, 1983, p. 20 17. भागचन्द्र जैन भास्कर',बौद्ध संस्कृति का इतिहास, बुद्ध ग्रन्थमाला-3,आलोक प्रकाशन, नागपुर, 1972, पृ. 387 For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला को भी सुदूर देशों में पहुँचाने का कार्य किया है। 'बौद्धकला में चित्र, स्थापत्य और शिल्प की त्रिवेणी का एक साथ दर्शन होता है। असंख्य मठ, संघाराम, विहार और चैत्य आज भी बौद्ध कला के उज्ज्वल अतीत के साक्षी हैं।18 कला के क्षेत्र में बौद्ध धर्म का अवदान बौद्ध धर्म कला जगत् के लिए ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण भारतीय परिदृश्य के लिए स्वर्णिम विभव के रूप में उदित हुआ। बुद्ध के विचारों ने साहित्य और दर्शन के साथ-साथ कला-वैभव को भी उन्नत शिखर पर पहुँचा दिया। बौद्ध संस्कृति के समन्वयवादी दृष्टिकोण ने अन्य देशों की संस्कृति के अनेक पक्ष स्वीकार किए और उन देशों की संस्कृति को भी अपने विचार और अपनी कला के उच्चादर्श दिए। संसारभर के विभिन्न देशों में भारतीय साहित्य, संस्कृति और कला का प्रवेश बौद्ध धर्म के माध्यम से हुआ। प्रत्येक काल में बौद्ध धर्म ने कला परिक्षेत्र को नूतन प्रतिमान एवं अद्भुत विरासत प्रदान की है। बौद्ध धर्म की प्रथम और अत्यन्त विशिष्ट देन है- 'अभूतपूर्व कला स्थापत्य।' भारतीय कला एवं स्थापत्य के विकास में बौद्ध धर्म का योगदान वर्णनातीत है। 'स्तूप', 'चैत्य' एवं विहार' - ये तीनों ही स्थापत्य के क्षेत्र में नवीन अध्याय थे, जो कि बौद्ध धर्म के कारण ही कला जगत के क्षेत्र में आए। ये तीनों ही स्थापत्य की नवीन अवधारणा के रूप में सामने आए, जिसका श्रेय बौद्धधर्म को जाता है। स्तूपों, चैत्यों और विहारों के अतिरिक्त गुहाएँ, मूर्तियाँ और चित्रसारियाँ भी बौद्ध कला की विरासत में शामिल हैं। सांची, सारनाथ, भरहुत, अमरावती आदि के स्तूप, सारनाथ का सिंहशीर्षकयुक्त स्तम्भ, रामपुरवा का पाषाण निर्मित वृषभ, लौरियानन्दनगढ़ का स्तम्भ, गांधार की मैत्रेय मूर्ति, सारनाथ से प्राप्त धर्मचक्रप्रवर्तन मुद्रा में बुद्ध की धातुमूर्ति (गुप्तकालीन), मथुरा की 'अवलोकितेश्वर बोधिसत्त्व' तथा 'कश्यप बुद्ध' की मूर्तियाँ, चौखण्डी स्तूप (सारनाथ) धमेख स्तूप (सारनाथ), एलोरा की विशाल बौद्ध प्रतिमाएँ ('ध्यानस्थ बौद्ध', 'पद्मपाणि अवलोकितेश्वर' तथा 'वज्रपाणि' आदि), परखम और पटना की यक्षछवियाँ, अजन्ता की विश्व-विख्यात गुफाएँ एवं उनकी चित्रकारियाँ आदि - ये सभी भारतीय कला के उच्च कीर्तिमान हैं, जिन्होंने हमारी कला एवं संस्कृति, को समृद्धिशाली बनाया है। गान्धार, मथुरा, अमरावती, नासिक, कार्ले, भाजा आदि बौद्ध कला के प्रमुख केन्द्र थे। बौद्ध धर्म का अध्ययन करने तथा बौद्ध स्थलों का अवलोकन करने की लालसा से कई विदेशी यात्री भारत आए। आज भी भारत के कई स्थानों पर बौद्ध स्मारक विद्यमान हैं तथा श्रद्धालुओं के आकर्षण का केन्द्र बने हुए हैं। 18. भारतीय चित्रकला, पृ. 128 For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध धर्म एवं कला : पारस्परिक अवदान 151 बौद्ध धर्म की कला जगत् को दूसरी अनुपम देन है - 'बौद्ध विषयवस्तु' । विषय वस्तु की भिन्नता प्रत्येक देश और काल में अपेक्षणीय रही है। बौद्ध धर्म की नवीन विचारधारा ने कलाकारों को नवोन्मेष प्रदान किया। बौद्ध विचारधारा ने बुद्धचरित, जातक (अवदान) कथाएं, स्तूप पूजा, बोधिवृक्ष पूजा, बुद्ध के अनुगामी के रूप में देवांकन, विभिन्न मुद्राएं यथा धर्मचक्र प्रवर्तन, अभय, वरद, भूमिस्पर्श, ध्यान, व्याख्यान, महापरिनिर्वाण मुद्रा इत्यादि, विभिन्न हस्त मुद्राएँ यथा - शांति की हस्त मुद्रा, दण्ड हस्त मुद्रा, धर्मचक्र मुद्रा, नीलकमल धारण किए हस्त मुद्रा, शिखर हस्त मुद्रा आदि, विभिन्न प्रतीकात्मक अंकन एवं आलंकारिक अभिप्राय इत्यादि - विषयवस्तु प्रदान कर कलाकोष को समृद्ध बनाया है। बौद्ध विषयवस्तु का आश्रय पाकर कला आध्यामिकता के ऊँचे प्रतिमान का पर्यायवाची बन गयी। बौद्ध धर्म की अन्त: प्रेरणाओं - ही बौद्ध कला को धार्मिक रंग, रूप, वाणी और व्याप्ति प्रदान की है। गांधार कला का विषय बौद्ध है और इस कला की सांस्कृतिक आत्मा पूर्णतया बौद्ध धर्म से ही आबद्ध है। प्रत्येक काल में बौद्ध विषयवस्तु एक अद्भुत शैली के साथ कला एवं जनसम्पर्क में आयी है। चित्रकारों को बौद्ध धर्म ने नए भाव दिए । बौद्ध धर्म की तीसरी देन है - कुषाण कालीन 'मथुरा' और 'गांधार' शैली। दोनों शैलियाँ भारतीय कला के इतिहास में नए आयाम जोड़ती हैं। सर्वप्रथम बुद्ध मूर्ति का निर्माण कुषाण (सम्राट कनिष्क के) काल में ही हुआ।" 'अवलोकितेश्वर बोधिसत्त्व' तथा 'कश्यप बुद्ध' की मूर्तियाँ मथुरा कला की देन हैं । सर्वप्रथम बुद्ध की पूर्णरूपेण भारतीय प्रतिमा बनाने का श्रेय भी मथुरा सम्प्रदाय को प्राप्त है। 20 गान्धार कला एक मात्र बुद्ध की लीलाओं से अनुप्राणित है। यहाँ बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित 61 दृश्यों का अंकन हुआ है । यथा - 'मायादेवी का स्वप्न' 'जेतवन दान', 'धातुओं का बँटवारा ' आदि । इन बुद्ध मूर्तियों को बनाते समय बौद्ध धर्म की परम्परा और विश्वासों के 19. (क) डॉ. सन्ध्या, पाण्डेय ने भी अपनी पुस्तक 'गुप्तकालीन बौद्ध चित्रकला' में यही काल उल्लेखित किया है। देखिए पृ. 109 (ख) 'कनिष्क के समय अर्थात् बुद्ध से चार सदी बाद पहले-पहल बुद्ध की प्रतिमा (मूर्ति) बनायी गयी । ' - महापंडित राहुल सांकृत्यायन, भारत में बौद्ध धर्म का उत्थान और पतन, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, तृतीय संस्करण, 2005 पृ. 9 20. बुद्ध की प्रारम्भिक प्रतिमा का शिल्पांकन मथुरा कला में माना गया है, किन्तु कुछ विद्वान बुद्ध प्रतिमा का प्रथमतः निर्माण गान्धार कला में मानते हैं। यह तो निर्विवाद अनुमान है कि बुद्ध प्रतिमा का आधार 'यक्ष' प्रतिमाएँ रही होंगी। प्रारम्भ में 'यक्ष' स्वरूप में से ही आभूषणों को हटाकर कुषाण काल में भारी शारीरिक सौष्ठव वाले बुद्ध अथवा बोधिसत्त्व बनाए गए। बाद में इसी स्वरूप में बुद्धत्व के आधार पर कल्पनानुसार परिष्कृति की गई। धीरे-धीरे इन प्रतिमाओं एवं चित्रों में जो 'यक्ष' स्वरूप का प्रभाव था, वह जाता रहा और गुप्तकाल में समाप्त हो गया। अतः विद्वानों का बहुमत मथुरा कला के कलाकारों को ही प्रथम भारतीय बुद्ध प्रतिमा बनाने का श्रेय प्रदान करने का पक्षधर है। For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 बौद्ध धर्म - दर्शन, संस्कृति और कला प्रतीकात्मक तथ्यों का निर्वाह हुआ है । गान्धार कला के अन्तर्गत 'बामियान' में बुद्ध की आदमकद से भी 20 गुना विशाल प्रतिमा का निर्माण भी एक सर्वथा नव्य परम्परा है। बौद्ध धर्म में वैचारिक मतभेद के फलस्वरूप समय-समय पर विभिन्न नवीनीकरण होते रहे हैं। इन परिवर्तनों ने कला को भी नवीन परिभाषाएं दी हैं । हीनयान और महायान सम्प्रदाय के विभाजन से बौद्ध कलाओं में परिवर्तन आया। 21 जहाँ हीनयान विचारधारा से भारत में स्तूप अस्तित्व में आए, वहीं महायान के प्रभाव से बुद्ध की विभिन्न मुद्राओं में प्रतिमा तथा चित्र अस्तित्व में आए। गुप्तकाल में बौद्धकला पर पूर्णतया महायान सम्प्रदाय का आधिपत्य हो गया था । महायान सम्पद्रीय से संबंधित बौद्धकला, भारतीय कला जगत् के लिए वरदान सिद्ध हुई । हीनयान विचारधारा से प्रभावित प्रतीक गूढ़ार्थक होने से कम प्रभावशाली थे। 22 महायान के उदय से कथानकों में ऊँचे आदर्श की भावना कथा-विषयों में रोचकता एवं बुद्ध की कल्पना में विभिन्न मुद्राओं में मानुषी रूप का समावेश हुआ। अजन्ता की गुफा में हीनयान एवं महायान दोनों का प्रभाव है। महायान सम्प्रदाय के उदय से पूर्व जहाँ बुद्ध को प्रतीकों के माध्यम से दर्शाया जाता था वहीं अब उन प्रतीकों ने मानुषी रूप ले लिया था। मनुष्य रूप के साथ ही आसन एवं स्थानक मुद्राएँ एवं विभिन्न हस्त मुद्राएँ भी इससे जुड़ जाती हैं। इस प्रकार बौद्ध धर्म में हो रहे नवीनीकरण, बौद्ध कला में भी नवीन अध्याय जोड़ते गए। बौद्ध धर्म में जो-जो परिवर्तन हुए उसकी स्पष्ट छाप बौद्ध कला पर दिखाई देती है। ऊपर उल्लेख किए गए चारों योगदान के अतिरिक्त भी हम श्रेष्ठ भारतीय कलाकृतियों की श्रेणी में बौद्ध कला की प्रधानता देखते हैं। अजन्ता के चित्र बौद्ध धर्म की देन हैं जो सर्वश्रेष्ठ चित्रकला का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये गुफाएँ चित्रकला, मूर्तिकला एवं वास्तुकला का अपूर्व संगम हैं। बुद्ध के जीवन-दर्शन के दो आधार रहे हैं 21. किंचित् परिवर्तन कुछ हद तक बौद्ध धर्म को पतन की ओर उन्मुख कर रहे थे, किन्तु कलाओं के लिए वरदान सिद्ध हुए हैं। महायानवाद की कल्पना ने जहाँ बौद्ध धर्म को विस्तृत तो किया, किन्तु आगे चलकर गुह्यसमाज ने इसे खण्डित कर दिया। इन परिवर्तनों ने किस प्रकार बौद्ध धर्म को क्षति पहुँचायी, देखिए - महापंडित राहुल सांकृत्यायन की पुस्तक 'भारत में बौद्ध धर्म का उत्थान और पतन । ' 22. 'हीनयान की स्तूप, बोधिवृक्ष आदि की प्रतीकात्मक कल्पना चित्रकला में गुप्तकाल के पूर्व ही चित्रित की गई। इसी प्रकार विभिन्न कला केन्द्रों में स्तूप और बोधिवृक्ष द्वारा बुद्ध उपस्थिति का प्रतीक एवं सिंहासन, छत्र आदि विभिन्न प्रतीकों का शिल्पांकन किया गया। अजन्ता में इनसे संबंधित अल्पसंख्यक चित्र है। ये चित्र स्थूल रूप में सिर्फ बुद्ध की उपस्थिति का संकेत करते हैं, किन्तु इनमें बुद्ध के महान आदर्श - भावों को नहीं देखा जा सकता। बुद्ध की विचारधारा के चार आर्य सत्य, बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग, जिसके सम्यक् शब्द में उचित कार्य की भावना समाहित है, जो इन चित्रों में नहीं ढूंढे जा सकते। इनके इतिरिक्त बुद्ध के दशशील की विचारधारा भी इन प्रतीकों में समाहित नहीं है।' गुप्तकालीन बौद्ध चित्रकला, पृ. 73 For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध धर्म एवं कला : पारस्परिक अवदान * 153 - व्यष्टि और समष्टि। यह बौद्ध धर्म-दर्शन का ही प्रभाव है कि अजन्ता की कलाकृतियों में ये दोनों पक्ष गुम्फित हैं। 'अजन्ता की चित्र-रचना में अक्षय सौन्दर्य और अमिट कलातृष्णा का एकमात्र रहस्य भी यही दिखायी देता है कि उसके निर्माता ऐसे जीवन्मुक्त सन्त, फकीर और संन्यासी थे, जिन्होंने उन तमसाच्छन्न गुफाओं में दीपक जलाकर या मशालों के प्रकाश में दिन-रात निरन्तर श्रम-साधना करके विश्व को चकित कर देने वाले इतने महान् कला मण्डप का निर्माण किया। 23 इन बौद्ध कलाकृतियों ने अन्य कलाओं पर अपनी छाप छोड़ी है। अजन्ता की चित्रशैली का प्रभाव बाघ, सित्तनवासल, एलोरा, पुनरुत्थान कला एवं आधुनिक कला पर भी पड़ा। विषयवस्तु बौद्ध धर्म से सम्बद्ध नहीं होने पर भी शैली की अनुरूपता अवश्य दिखाई देती है। भारत का राष्ट्रीय चिह्न भी बौद्ध कलाकृति से निःसृत है जो बौद्धानुराग का ही परिणाम है। स्पष्ट है कि बौद्ध धर्म ने कला को ही नहीं, देश को भी राष्ट्रीय चिह्न प्रदान किया है। गुप्तकाल को कला-इतिहास में स्वर्णिम काल माना गया है। इस काल की बौद्ध मूर्तियां आद्योपान्त आध्यात्मिक सौन्दर्य से पूर्ण हैं। इनमें बुद्ध के शान्त तथा निःस्पृह भाव को व्यक्त करने में अद्भुत सफलता मिली है। इसकी आध्यात्मिक अभिव्यक्ति, गम्भीर मुस्कान एवं शान्त ध्यानमग्न मुद्रा भारतीय कला की सर्वोच्च सफलता का प्रदर्शन करती है। इसी काल को 'क्लासिकल युग' (Classical Age) अथवा भारत का 'पेरीक्लीन युग' (Periclean Age of India) आदि नामों से जाना जाता है। रसदृष्टि भी गुप्तकला की प्रमुख विशेषता है। कला वस्तुओं में अब भावों की श्रेष्ठता दिखाई देती थी चाहे वे सजीव हों अथवा प्राणहीन।24 . विश्व के देशों को अहिंसा, करुणा, प्राणिमात्र पद दया आदि का सन्देश भारत ने बौद्ध धर्म के माध्यम से ही दिया। शताब्दियों पूर्व बुद्ध ने जिन सिद्धान्तों एवं आदर्शों का प्रतिपादन किया था वे आज के वैज्ञानिक युग में भी अपनी मान्यता बनाए हुए हैं। भारत के बाहर भी अन्य देश उनके परिपालन में प्रयत्नरत हैं। भारत ने अपने राजचिह्न के रूप में बौद्ध प्रतीक को ही ग्रहण किया है तथा वह शान्ति एवं सह-अस्तित्व के सिद्धान्तों का पोषक बना हुआ है। - उपर्युक्त विवेचना पर पुनर्दष्टि डालें तो बौद्ध धर्म 'कला' के लिए और बौद्ध कला बौद्ध धर्म के लिए सहायक सिद्ध हुई है। दोनों की पारस्परिक अन्तर्निर्भरता एवं अन्तः सम्बन्ध ही उनकी जीवन्तता है, स्पन्दन है। बौद्ध कला एवं धर्म - दोनों ने ही 23. भारतीय चित्रकला, पृ. 118 24. 'Rasadrshti (Correct concept of sentiment or emotion) was another significant feature of the Gupta art, the Supremacy of sentiments was now recognized in the art objects, whether they were animate or inanimate. - S.R. Goyal, Indian Art of the Gupta age, Kusumanjali, Book World, Jodhpur, 2000p.164. For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला इतिहास एवं संस्कृति को नए आयाम प्रदान किए हैं। डॉ. गोविन्द चन्द्र पाण्डे के अनुसार "कला और धर्म का यह समन्वय एक विशाल आध्यात्मिक क्रान्ति का द्योतक था।"25 जहाँ कला बौद्ध विचारों, आदर्शो, सिद्धान्तों के लिए विनिमय की भाषा बन गयी है वहीं बौद्ध धर्म कला की सम्प्रेषणीयता के लिए समग्र दृष्टि बन गया है और दोनों की समन्यवयात्मकता का गुण विस्मय का प्रभाव पैदा करता है। धर्म वही है जो मनुष्य को सरल बना दे और कला आत्मा की सरल अभिव्यक्ति मानी गयी है। सरलता की दोनों में उभयनिष्ठ अभिव्यक्ति है। दोनों का सरल तालमेल आज भी इनके स्वर्णिम अतीत को पुष्ट बनाता है और भावी सम्भावनाओं के लिए दृष्टि एवं अवसर प्रदान करता है। - शोध छात्रा, विजुअल आर्ट विभाग मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर (राज.) 25. डॉ. गोविन्द चन्द्र पाण्डे, बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, 2006 पृ. 164 For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौन्दरनन्द महाकाव्य में जीवनोत्थान के सूत्र डॉ. यादराम मीना भारतवर्ष में ऋग्वैदिक युग से ही सर्जनधर्मी विवेकी मानव ने जीवन-उत्थान के लिए चिन्तन प्रारम्भ कर दिया था । कठोपनिषद् में श्रेयस् एवं प्रेयस् का चिन्तन इसका साक्षी है। श्रेयस् आत्मा के लिए कल्याणकारी है, जबकि प्रेयस् हमें विषयभोगों की ओर आकर्षित करता है, किन्तु हमारा हित नहीं करता । वह हमें प्रिय लगता है। श्रेयस् एवं प्रेयस् के स्वरूपगत भेद का प्रतिपादन प्रो. गोविन्दचन्द्र पाण्डे ने इस प्रकार किया है - "आत्मज्ञान के द्वारा आत्मावस्थिति या मुक्ति ही श्रेयस् है । श्रेयस् - साधन प्रत्यंगमुख, आत्माभिमुख यात्रा है, जो मृत्युलोक का अतिक्रमण कराती है, जबकि प्रेयस् साधन बहिर्मुखी प्रवृत्ति है, जो बार - बार मनुष्य को मृत्यु के मुख में ले जाती है।"" जीवन का वास्तविक उत्थान प्रेयस् से नहीं श्रेयस् से होता है । दुःख से आत्यन्तिक मुक्ति प्रेयोमार्ग से नहीं श्रेयोमार्ग से होती है। भारतीय दर्शन-परम्परा में चार्वाक को छोड़कर सभी दर्शन संसार को दुःखमय मानते हैं, दुःखों के कारणों का निरूपण करते हैं तथा उनसे मुक्ति के उपाय में अनेक सूत्रों का प्रतिपादन करते हैं। संसार की दुःखमयता के विषय में महात्मा बुद्ध का कथन है - "इस संसार में दुःखियों ने जितने आँसू बहाये हैं, उनका पानी महासागर में जितना जल है, उससे भी अधिक है। "2 इस संसार की दुःखमय स्थिति का जो संकेत महात्मा बुद्ध ने अपने प्रथम आर्य-सत्य में किया है, उसे भारतीय दर्शन के साथ-साथ पाश्चात्त्य परम्परा ने भी ध्वनिमत से स्वीकार किया है । बुद्ध ने दुःख के कारण, उसके निवारण एवं निवारण के उपाय को भी आर्यसत्य के रूप में प्रतिपादित किया है। अश्वघोष ने सौन्दरनन्द महाकाव्य में बुद्ध के उपदेशों का यथाप्रसंग जीवनोत्थान सूत्रों के रूप में प्रतिपादन किया है। उनसे मानव-जीवन को श्रेयोमार्ग में ले जाने हेतु 1. मूल्य मीमांसा - प्रो. गोविन्द चन्द्र पाण्डे, 2 संयुक्तनिकाय - 3.25 पृ. 4 For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला आलोक प्राप्त होता है। अश्वघोष ने महाकाव्य में मानव-इच्छा को मानव के दुःखों का मूल कारण माना है और इन समस्त दुःखों का परिणाम है - जीव का जन्म-ग्रहण करना या शरीर-धारण करना। इस संसार में सबसे बड़ा भय वृद्धावस्था, रोग, और मृत्यु हैं। ऐसा कोई भी देश अथवा स्थान नहीं जहाँ इनका डर नहीं सताता हो। जहाँ देहधारी जाता है, दुःख भी उसका पीछा करते हैं। वृद्धावस्था आदि विपत्तियों की जड़ जन्म-मरण रूपी दुःख है। जिस प्रकार सभी औषधियाँ पृथिवी पर उत्पन्न होती हैं, उसी तरह सभी विपत्तियों का क्षेत्र जन्म ग्रहण करना है। जिस प्रकार ज़हरीला भोजन स्वादिष्ट हो या कटु मारक ही होता है, न कि पालक। उसी तरह अण्डज से ऊपर या नीचे किसी भी योनि में जन्म लेना दुःखों का कारण है। जिस प्रकार से आकाश में उत्पन्न हवा, शमी वृक्ष के भीतर अग्नि, धरती के नीचे पानी की सत्ता रहती है, उसी प्रकार मन और देह में दुःखों की उत्पत्ति होती है - ____ आकाशयोनिः पवनो यथा हि यथा शमीगर्भशयो हुताशः आपो यथान्तर्वसुधाशयाश्च, दुःखं तथा चित्तशरीरयोनिः।। अश्वघोष जीवनोत्थान विषयक मूल्यों की मीमांसा दार्शनिक ढंग से करते हुए कहते हैं कि छल, कपट, मद, माया, लोभ, ईर्ष्या, वासना, प्रम इत्यादि अकुशल धर्म अग्नि-तुल्य दाहक हैं, जिन्हें निर्वाण रूपी जल से ही शान्त किया जा सकता है। इस निर्वाण रूपी जल से भगवान बुद्ध ने छल-कपट रूपी जल वाले, मानसिक व्याधि रूप जन्तु वाले, क्रोध, मद और भय रूपी तरंगों वाले, चंचल तथा अगाध दुर्गुण सागर को स्वयं तो पार किया ही, दूसरों को भी पार कराया। अश्वघोष ने समस्त सांसारिक दुःखों का मूल कारण अविद्या' को माना है, जिसका नाश तत्त्व-ज्ञान से ही संभव है। मनुष्य का कर्तव्य है कि स्वप्न की तरह सारहीन तथा सर्वसाधारणोपभोग्य इन विषयानन्दों से अपने चंचल मन को रोकना चाहिए, क्योंकि पवन-प्रेरित अग्नि की तृप्ति घृताहुति से कभी नहीं होती, ठीक उसी तरह विषयानन्दों से मन सन्तुष्ट नहीं होता। अतः कहा गया है - न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति। हविषा कृष्णवर्मेव भूय एवाभिवर्द्धते।। - नारद परिव्राजकोपनिषद् 3.37 सांसारिक विषय-भोगों की भर्त्सना करते हुए महात्मा बुद्ध पत्नी में आसक्त 3. सौन्दरनन्द महाकाव्य - 15.46,47 4. वही...16.9 5. वही... 16.11 6. वही... 3.14 7. वही 5.23 For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौन्दरनन्द महाकाव्य में जीवनोत्थान के सुत्र * 157 अपने अनुज नन्द को वानरी का दर्शन कराते हैं, जिसका मुख निचोड़े गए महावर की तरह लाल वर्ण का है तथा एक आँख से विकृत है। तदुपरान्त वे इन्द्र के उद्यान में रमणियों के दर्शन कराते हैं और पूछते हैं कि तुम्हारी प्राणप्रिया पत्नी, वानरी और अप्सराओं में कौन सुन्दर है। तब नन्द कहते हैं - "स्वामिन्! आपकी अनुज-वधू और कानी वानरी में जितना अन्तर है, उतना ही अन्तर इन अप्सराओं और आपकी अनुज-वधू में है।" अतः ईंधन से आग की, पानी से सागर की और भोग से वासना की कभी तप्ति नहीं होती, उसी प्रकार कामोपभोग कभी तुष्टिदायक नहीं होता।' ___ अश्वघोष अपने काव्य में इन सांसारिक दुःखों से मुक्त होने के लिए दुर्गुणों का त्याग करने हेतु मानव को प्रेरित करते हुए कहते हैं कि "अपने उत्कृष्ट गुणों से अलंकृत होकर कुरूप व्यक्ति भी दर्शनीय हो जाता है, किन्तु दुर्गुणों से युक्त रूपवान व्यक्ति भी विरूप प्रतीत होता है।10 इस अविद्या रूपी दुःख से तरने के लिए मानव को विषय-भोगों से दूर रहने का उद्योग करना चाहिए, क्योंकि उत्कृष्ट उद्योग ही कार्य की सफलता का मूल कारण है। उद्योग के बिना कोई कार्य-सिद्ध नहीं होता। उद्योग ही सारी समृद्धियों के उदय का कारण होता है। जहाँ उद्योग नहीं होता वहाँ सर्वत्र पाप ही पाप होता है। अनुद्योगी लोगों को निश्चित रूप से अलब्ध वस्तुओं की उपलब्धि नहीं होती और जो प्राप्त है, उसका भी नाश हो जाता है। ऐसे लोग आत्म-सम्मान खोकर दीन हो जाते हैं तथा शक्तिशाली उन्हें अपमानित करते हैं। अतः मानसिक अन्धकार से पीड़ित व्यक्ति का तेज क्षीण हो जाता है, साथ ही शास्त्र, संयम और सन्तोष नष्ट हो जाता है तथा वे अध:पतन को प्राप्त होते हैं। इसके विपरीत उत्साही व्यक्ति अप्राप्त वस्तु को भी प्राप्त कर लेता है। अश्वघोष ने बहुत ही सुन्दर उक्तियों के द्वारा उद्योगी पुरुष की प्रशंसा करते हुए कहा है - - अनिक्षिप्तोत्साहो यदि खनति गां वारि लभते, प्रसक्तं व्यामथ्नन् ज्वलनमरणिभ्यां जनयति। . प्रयुक्तो योगे तु ध्रुवमुपलभते श्रमफलं, . द्रुतं नित्यं यान्त्यो गिरिमपि हि भिन्दन्ति सरितः।।2 - अर्थात् उत्साही व्यक्ति पृथ्वी को खोदकर पानी निकाल लेता है, निरन्तर रगड़े जाने पर काष्ठ से आग उत्पन्न कर लेता है, योगाभ्यास में लगा व्यक्ति अवश्य ही फल प्राप्त करता है, और निरन्तर तेज बहने वाली नदियां पहाड़ों को भी तोड़ डालती हैं। 8. सौन्दरनन्द महाकाव्य 10.15, 16 9. सौन्दरनन्द महाकाव्य 11.32 10. सौन्दरनन्द महाकाव्य 18.34 11. सौन्दरनन्द महाकाव्य 16.94 12. सौन्दरनन्द महाकाव्य 16.97 For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला जिस प्रकार किसी औषधि का रस प्रारम्भ में कड़वा होता है और उसका परिणाम मीठा होता है, उसी प्रकार थकावट के कारण प्रारम्भ में उद्योग कटु प्रतीत होता है, किन्तु लक्ष्य-सिद्धि हो जाने पर मीठा फल रूप आस्वाद का अनुभव होता है। अश्वघोष अपने वैराग्य का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि मनुष्य को मुक्त चित्त होकर भय, थकान और शोक-रहित, स्वाधीन, दूसरों के द्वारा न छीने जाने वाले अविनाशी, कल्याणप्रद वैराग्य-सुख का वरण करना चाहिए, जिसे प्राप्त करने के पश्चात् मनुष्य में निहित आसक्ति, दुष्टाचरण एवं अनिष्ट-चिन्तन रूपी विद्वेष पूर्णतः छूट जाते हैं।" जिस तरह स्वर्णकार धूल से ढके सोने को क्रमशः पानी से बार-बार धोकर एवं अग्नि में पुनः पुनः तपाकर पहनने योग्य आभूषणों में परिवर्तित करता है, उसी तरह इन्द्रिय-निग्रही एवं योगाभ्यासी मनुष्य दोषयुक्त चित्त को दोषों से अच्छी तरह परिमार्जित कर अपने मन को शान्त एवं संकुचित करता है। जो मनुष्य निर्वाण की स्थिति में पहुँच जाता है, वह अपनी प्रज्ञा द्वारा अपने में विद्यमान सम्पूर्ण दुर्गुणों को उसी प्रकार नष्ट कर देता है, जिस प्रकार बरसाती नदी किनारे पर उगे वृक्षों को अपने में विलीन कर लेती है और वज्र की आग अपने समीपस्थ वनस्पतियों को पनपने नहीं देती। शील, समाधि और प्रज्ञा रूपी स्कन्ध-त्रय वाले आष्टांगिक मार्ग पर चलकर कोई भी मनुष्य दुःखों के हेतु रूपी उन दोषों को छोड़करअनामय पद 'निर्वाण' को पा लेता है, जिससे उसके मन में विद्यमान तृष्णा और आसक्ति का पूर्णतः विनाश हो जाता है। जब आत्मा मुक्ति की ओर अग्रसर होती है, तो वह न तो पृथ्वी की ओर जाती है, न अन्तरिक्ष की ओर, न किसी दिशा में, न किसी विदिशा में, अपितु क्लेश-क्षय होते ही वह स्वतः शान्त हो जाती है, इसी को बौद्धों ने 'निर्वाण' अथवा 'मोक्ष' कहा है। इस निर्वाण को अश्वघोष ने बड़े ही सरल ढंग से 'दीपकन्याय' से उपन्यस्त किया है दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम्। दिशं न कांचिद्विदिशं न कांचित् स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम्।।" एवं कृती निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावानिं गच्छति नान्तरिक्षम्। दिवं न कांचिद्विदिशं न कांचिद क्लेशक्षयात् केवलमेति शान्तिम्।।18 13. सौन्दरनन्द महाकाव्य 16.93 14. सौन्दरनन्द महाकाव्य 5.26 15. सौन्दरनन्द महाकाव्य 15.68,69 16. सौन्दरनन्द महाकाव्य 16.36 17. सौन्दरनन्द महाकाव्य 16.28 18. सौन्दरनन्द महाकाव्य 16.29 For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौन्दरनन्द महाकाव्य में जीवनोत्थान के सुत्र * 159 सांसारिक विषय-भोगों की निस्सारता के बारे में अश्वघोष अपना तुमुल-घोष करते हुए मानव को संदेश देते हैं कि "जिस प्रकार जलते हुए घर में कोई भी मनुष्य निश्चिन्त होकर नहीं सो सकता, उसी प्रकार मृत्यु, व्याधि और जरारूप आग से जलते जीवलोक में कोई भी निर्भय होकर नहीं रह सकता।" मनुष्य को जो काम-विकार और मानसिक-सन्ताप पीड़ित करते हैं, उन्हें कपड़े पर गिरे हुए धूलि-कणों की तरह झाड़ देना चाहिए। सांसारिक विषय भोगों में आसक्त मनुष्य बन्धन रूपी पिंजरे में पुनः पुनः उसी प्रकार प्रवेश करने की चेष्टा करता है, जिस प्रकार चालाक शिकारी के भय से बचकर भागा हुआ चंचल मृग-छौना अपने झुण्ड में प्रवेश करना चाहता है, किन्तु बहेलिये के मधुर गीत की ध्वनि से सम्मोहित होकर पुनः जाल में फँसता चला जाता है 'कृपणं बत यूथलालसो महतो व्याधभयाद्विनिःसृतः। प्रविविक्षति वागुरां मृगश्चपलो गीतरवेण वंचितः।।20 अपि च - विहगः खलु जालसंवृतो हितकामेन जनेन मोक्षितः। विचरन् फलपुष्पवद्वनं प्रविविक्षुः स्वयवमेव पंजरम्।।" निश्चय ही जाल में फँसो चिड़िया किसी हितैषी के द्वारा मुक्त कराये जाने के उपरान्त, फल-फूलों से लदे वन में भ्रमण करती हुई स्वतः पिंजरे में घुसने की इच्छा रखती है। धनों में श्रद्धा रूप धन ही सर्वोत्कृष्ट है। रसों में प्रज्ञारस ही तृप्तिकर है, सुखों में अध्यात्म-सुख ही मुख्य सुख है, उसी प्रकार अविद्या रूपी दुःख ही सर्वाधिक दुःखदायी माना गया है। इसलिए अनेक राजा-महाराजा भी अपने परिवार, परिजनों और बन्धु-बान्धवों को छोड़कर चले गये, चले जायेंगे और चले जा रहे हैं, अतः नश्वर-क्षणिक वस्तुओं के प्रति मनुष्य को मोह नहीं करना चाहिए।22 इस प्रकार अश्वघोष ने अपने महाकाव्य में जीवनोत्थान के अनेक सूत्रों का उल्लेख किया है, जिनके द्वारा मनुष्य त्याग, तपस्या, ब्रह्मचर्य एवं विषयोपभोग के अभाव द्वारा तपोमय जीवन जी सकता है और उस परम तत्त्व 'निर्वाण' को प्राप्त कर सकता है, जिसके द्वारा अपने साथ सम्पूर्ण विश्व को 'ज्ञान-दीप' रूपी निश्रेयस् की ओर ले जा सकता है। -संस्कृत विभाग ___ जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर 19. सौन्दरनन्द महाकाव्य 14/30, 15/3 20. सौन्दरनन्द महाकाव्य 8/15 21. सौन्दरनन्द महाकाव्य 8/16 22. सौन्दरनन्द महाकाव्य 5/43 For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसाद-साहित्य में बौद्ध दर्शन डॉ. कैलाश कौशल हिन्दी जगत् के देदीप्यमान कवि जयशंकर प्रसाद पर बौद्ध-दर्शन का गहरा प्रभाव दृग्गोचर होता है। बुद्ध की परदुःखकातरता ने उन्हें विशेष रूप से प्रभावित किया है। प्रत्येक व्यक्ति का अपना सुख समष्टिगत आनंद के साथ मिल कर उसका पूरक बन जाये ऐसी मानव-मन की प्रवृत्ति होनी चाहिए। प्रसाद की यह सांस्कृतिक चेतना भारतीय संस्कृति की मानवतावादी दृष्टि के अनुरूप है जो अद्वैतवाद की आधारशिला पर खड़ी है। बौद्ध दर्शन प्रमुखतः आचारपरक है। वह व्यावहारिक शिक्षाएँ देता है। बुद्ध के अनुसार संसार दुःखमय है, इससे मुक्ति पाना परम पुरुषार्थ है। आष्टांगिक मार्ग दुःख निरोध का मार्ग है। संसार की सभी वस्तुएँ अनित्य हैं। आत्मा भी अनित्य परिणामशील है। वह दैहिक तथा मानसिक प्रक्रियाओं का संघातमात्र है। मोक्ष-दशा को 'निर्वाण' कहा गया है। इस प्रसंग में बोधिसत्त्व परमादर्श हैं। प्रसाद-साहित्य में बौद्ध-दर्शन की प्रमुख विचारधाराओं के अनेक चित्र अंकित हैं1. दुःखवाद बौद्ध दर्शन में संसार को दुःखपूर्ण बताया गया है। महात्मा बुद्ध ने चार आर्य सत्य बताए हैं जिनका मूल आधार दुःख है। ये चार आर्य सत्य क्रमशः दुःख, दुःख-समुदय, दुःख-निरोध और दुःख निरोध-गामिनी प्रतिपद कहलाते हैं। गौतम बुद्ध इस दुःख का वर्णन करते हुए कहते हैं कि “हे भिक्षुओं! दुःख प्रथम आर्यसत्य है। जन्म भी दुःख है, वृद्धावस्था भी दुःख है, मरण भी दुःख है। शोक, परिवेदना, दौर्मनस्य, उपायास (हैरानी) भी दुःख है। अप्रिय से संयोग होना भी दुःख है, प्रिय से वियोग भी दुःख है। ईप्सित वस्तु का न मिलना भी दुःख है। संक्षेप में यह कह सकते हैं कि राग द्वारा उत्पन्न पाँचों स्कन्ध (रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान) भी दुःख हैं। इस प्रकार गौतम बुद्ध संसार के प्रत्येक कार्य एवं प्रत्येक गतिविधि को दुःखपूर्ण मानते हैं। 1. बौद्धदर्शन, पृ. 64 For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसाद साहित्य में बौद्ध दर्शन * 161 जयशंकर प्रसाद भी दुःख को जीवन-सत्य के रूप में देखते हैं, किन्तु वे इसके निषेधमूलक रूप को नहीं विधिमूलक स्वरूप को स्वीकार करते हैं। इसे वे ईश्वर के रहस्यमय वरदान के रूप में ग्रहण करते हैं। बौद्धों की विचारधारा से प्रभावित होकर ही प्रसाद ने 'अजातशत्रु' में 'दुःख का भँवर चला कराल चाल में लिखा है। 'स्कन्दगुप्त' में वे कहते हैं कि 'उमड़ रहा इस भूतल पर दुःख का पारावार और 'आँस' में तो वे स्पष्ट कह देते हैं कि 'वेदना विकल फिर आई मेरी चौदहों भुवन में, सुख कहीं न दिया दिखाई विश्राम कहाँ जीवन में"। इतना ही नहीं चंद्रगुप्त' में वे स्पष्ट ही लिख गये हैं कि 'मैं स्वयं हृदय से बौद्ध मत का समर्थक हूँ, केवल उसकी दार्शनिक सीमा तक - इतना ही कि संसार दुःखमय है।' _ 'कामायनी' महाकाव्य में प्रत्यभिज्ञा-दर्शन प्रमुख है, पर वहाँ भी इस दुःखवादी विचारधारा का यत्र-तत्र संकेत है। यहाँ जयशंकर प्रसाद सुख और दुःख को दिन एवं रात की भाँति निरन्तर आने-जाने वाला बताते हैं, परन्तु वे संसार में दुःख की प्रबलता स्वीकार करते हैं, इसी कारण कभी 'दुःख जलधि का नाद अपार'' सुनते हैं तो कभी 'व्यथा की नीली लहरों बीच बिखरते सुख मणिगण द्युतिमान' कहते हैं, ऐसे ही कभी उन्हें 'नभ-नील लता की डालों में इस दुःखमय जीवन का प्रकाश'' उलझा हुआ दिखाई देता है तो कभी 'कलियाँ जिनको मैं समझ रहा वे काँटे बिखरे आस-पास' 10 प्रतीत होते हैं। इसी भाँति कभी उन्हें यह विश्व हलचल से विक्षुब्ध दिखाई देता है' ", तो कभी इस विश्व में 'दुःख की आँधी' एवं पीड़ा की लहरें उठती हुई दिखाई देती हैं। इसी प्रकार कभी उन्हें जीवन एक 'विकट पहेली' जान पड़ता है, तो कभी संसार इंद्रजाल प्रतीत होता है, जिसमें अपार व्यथा है। वैसे प्रसाद बौद्धों की भाँति संसार में केवल दुःख ही दुःख नहीं मानते, वे संसार को सुख-दुःखमय मानते हैं - 2. अजातशत्र, जयशंकर प्रसाद, पृ. 93 3. स्कंदगुप्त, जयशंकर प्रसाद, पृ. 41 4. आँसू, पृ. 55 5. चन्द्रगुप्त, जयशंकर प्रसाद, साहित्यागार, जयपुर, 1994 पृ. 71 6. कामायनी, जयशंकर प्रसाद, पृ. 53 7. वही, पृ.8 8. वही, पृ: 54 9. वही, पृ. 185 10. वही, पृ. 158 11. वही, पृ. 221 12. वही, पृ. 223 13. वही, पृ. 229 For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला विषमता की पीड़ा से व्यस्त हो रहा स्पंदित विश्व महान् यही दुःख-सुख विकास का सत्य यही भूमा का मधुमय दान , इतना अवश्य है कि उनकी दृष्टि में संसार के अन्तर्गत सुख की अपेक्षा दुःख का आधिक्य है और ऐसे दुःखमय संसार में बुद्ध ही सतत व्याकुलता के विश्राम' हैं। प्रसाद के 'लहर' काव्य संग्रह की कविता 'वरूणा की शांत कछार' में बुद्ध को सांसारिक दुःख का निदान कर प्राणियों का उद्धार करने वाला कहा गया है "दुःख का करने सत्य निदान, प्राणियों का करने उद्धार। सुनाने आवश्यक संवाद, तथागत आया तेरे द्वार।14 2. क्षणिकवाद : बौद्ध दर्शन क्षणिकवाद का प्रबल प्रचारक है क्योंकि वहाँ संसार के साथ ही आत्मा को भी क्षणिक एवं परिवर्तनशील बताया गया है और इसकी तुलना दीपशिखा से की गई है। 'मिलिंद प्रश्न' में राजा मिलिंद नागसेन से प्रश्न करते हैं- 'जो उत्पन्न होता है, क्या यह वही व्यक्ति है या दूसरा? इस पर नागसेन उत्तर देते हैं, 'न वही है और न दूसरा।' इस बात को वे 'दीप-शिखा' के उदाहरण से समझाते हैं- 'जो दीपक रात के प्रथम प्रहर में जलता है, क्या रातभर वही दीपक जलता रहता है? साधारण दृष्टि से यही दिखाई देता है कि रातभर दीपक की एक ही लौ विद्यमान रहती है, परन्तु वस्तुस्थिति यह है कि दीपशिखा का आकार-प्रकार बदलता रहा, उसकी शिखा प्रतिक्षण अपना रूप बदलती रही, यही दशा आत्मा की भी है।"5 प्रसाद ने अशोक की चिन्ता' नामक कविता में संसार के संपूर्ण वैभव की क्षणभंगुरता की ओर संकेत किया है। यह क्षणिक चल रहा राग-रंग' कहकर सांसारिक सुखों की क्षणिकता और 'देखा क्षणभंगुर है तरंग' के माध्यम से सांसारिक उपादानों की नश्वरता प्रतिपादित की गई है। 'अजातशत्रु' नाटक में प्रसाद गौतम बुद्ध का प्रवेश कराते हुए उनके माध्यम से द्वंद्वपूर्ण जगत् का विश्लेषण इस प्रकार करते हैं "अणु-परमाणु, दुःख-सुख, चंचल, क्षणिक सभी सुख-साधन हैं दृश्य सकल नश्वर परिणामी- किसको दुःख, किसको धन है क्षणिक सुखों को स्थायी कहना दुःख-मूल यह भूल महा चंचल मानव! क्यों भूला तू, इस सीठी में सार कहाँ ?" 16 14. लहर, पृ.१ 15. बौद्ध दर्शन, पृ. 104-105 16. अजातशत्रु, प्रथम अंक, पृ. 42 For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसाद साहित्य में बौद्ध दर्शन * 163 'स्कंदगुप्त' में भी यही विचारधारा है, प्रसाद इस नाटक में लिखते हैं- 'मनुष्य की अदृश्य लिपि वैसी ही है, जैसी अग्नि रेखाओं से कृष्ण मेघ में बिजली की वर्णमाला- एक क्षण मेघ में बिजली की वर्णमाला- एक क्षण में प्रज्वलित, दूसरे क्षण में विलीन होने वाली। 'आँसू' में इस क्षणिकता की ओर संकेत करते हुए मानव-जीवन को दो घड़ियों का बताया गया है।18 । कामायनी में भी इस क्षणिकवाद के संकेत मिलते हैं, किन्तु यहाँ आकर प्रसाद बौद्धों की भाँति जीवन को तो क्षणिक मानते हैं, पर विश्व को क्षणिक नहीं मानते। उसे नित्य एवं सत्य बतलाते हैं जिसमें मिलन-विरह सुख-दुःख आदि बने रहते हैं। हाँ, इतना अवश्य है कि यह विश्व चिति की इच्छानुसार निरन्तर रूप बदलता रहता है और इसी कारण क्षणिक दिखाई देता है। 3. करुणा __प्रसाद की दार्शनिक विचारधारा में करुणा' का विशेष स्थान है। प्रसाद पर इस विचारधारा का प्रभाव बौद्ध एवं वैष्णव दोनों दर्शनों से पड़ा है। बौद्ध-दर्शन में बोधिसत्त्व का चरम लक्ष्य 'महाकरुणा' की प्राप्ति बताया गया है। महायान संप्रदाय के अनुसार बुद्ध वही प्राणी बन सकता है जिसमें प्रज्ञा के साथ 'महाकरुणा' का भाव विद्यमान रहता है। 'बोधिचर्यावतार-पंजिका' के अनुसार महाकरुणा की प्राप्ति से ही बुद्धत्व की प्राप्ति हो जाती है, मनुष्य के 'स्व' की परिधि में संसार के सभी प्राणी आ जाते हैं। जीवात्मा के जीवन का उद्देश्य जगत् का परम मंगल साधन हो जाता है। इसके अतिरिक्त बौद्ध तंत्रों में आदि बुद्ध की चार भावनाएं बताई गई हैं- 1. मैत्री, 2. करुणा, 3. मुदिता, और 4. उपेक्षा। इनमें भी करुणा सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि इसी भावना के साथ विशुद्ध योग की प्राप्ति होती है। इन चारों का उल्लेख पातंजल- योगदर्शन में भी मिलता है- सुखी व्यक्ति में मैत्री की भावना करने से, दु:खी व्यक्ति में करुणा की भावना से, पुण्यवान व्यक्ति में मुदिता (प्रसन्नता) की भावना से तथा अपुण्यवान व्यक्ति में उपेक्षा की भावना रखने से चित्त का प्रसादन अथवा परिष्कार होता है। श्रीमद्भगवद्गीता में करुणा को शान्ति प्राप्त. योगी का एक लक्षण माना गया है और कहा गया है कि जो व्यक्ति परमशांति को प्राप्त कर लेता है वह समस्त प्राणियों से द्वेष रहित हो जाता है, सबके साथ मित्रवत् आचरण करता है और सभी के प्रति करुणा-भाव रखता है।20 नरसी मेहता भी कहते हैं- 'वैष्णव जन तो तेने कहिए जो पीर पराई जाने रे', महात्मा गाँधी को भी यह गीत बहुत प्रिय था। अतः बौद्ध एवं वैष्णव सभी भारतीय 17. स्कन्दगुप्त, पृ. 126 18. आँसू, पृ. 45 19. पातंजल योगसूत्र, 1/33 20. श्रीमद्भगवद्गीता, 12,13 . For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला विचारकों ने करुणा को एक ऐसा उदारभाव बताया है, जिसके उदय होते ही व्यक्ति के हृदय में सर्वभूतहित की भावना जागृत होती है। करुणा की यही उदारभावना प्रसाद की सभी रचनाओं में मिलती है। 'अजातशत्रु' में गौतम बुद्ध का प्रवेश इसी मंगल-गीत से होता है। वे कहते हैं- विश्व-भर में यदि कुछ कर सकती है तो वह करुणा ही है, जो प्राणिमात्र में समदृष्टि रखती है निष्ठुर आदि पशुओं की विजित हुई इस करुणा से मानव का महत्त्व जगती पर फैला अरुणा करुणा से .. इसी नाटक के द्वितीय अंक में भी गौतम बुद्ध का कथन है, “विनय और शील की रक्षा करने में सब दत्तचित्त रहें, जिससे प्रजा का कल्याण हो- करुणा की विजय हो।" ....भूमंडल पर स्नेह का, करुणा का, क्षमा का शासन फैलाओ। प्राणिमात्र में सहानुभूति को विस्तृत करो, इन क्षुद्र विप्लवों से चौंककर अपने कर्म-पथ से च्युत न हो जाओ।"22 यह करुणा ही मानव-हृदय को द्रवीभूत करके अन्य दुःखी हृदयों की पुकार सुनने के लिए बाध्य करती है। कारण यह है कि दुःखी हृदय के नीरव क्रन्दन का सुनना ही वास्तव में करुणा है। 'कामायनी' में श्रद्धा का चरित्र करुणा की भित्ति पर ही निर्मित है, स्वयं कवि ने उसे 'हृदय की अनुकृति बाह्य उदार' कहा है जो समस्त मानवता के प्रति करुणा भाव से आप्लावित है, प्रेम, दया, सहानुभूति उसके चरित्र के प्रमुख गुण हैं। 'तुमुल कोलाहल कलह में' वह हृदय की बात के समान विश्वसनीय है। वह दूसरों की हँसी में अपने सुख का विस्तार देखती है "औरों को हँसते देखो मनु, हँसो और सुख पाओ। अपने सुख को विस्तृत कर लो सबको सुखी बनाओ।"24 इस प्रकार श्रद्धा विश्व की करुण-कामना-मूर्ति का साकार रूप है जो मनु को पशुत्व-पाश से मुक्त कर एक सच्चा मानव बनाती है और अपने त्याग, तपस्या एवं बलिदान भावना द्वारा जगत का कल्याण करती है। 4. अहिंसा - बौद्ध-दर्शन में अहिंसा को व्यापक अर्थ में ग्रहण किया गया है। बौद्ध-मत में बुद्ध ने कृत, दृष्ट और उद्दिष्ट- इन तीन प्रकारों की हिंसाओं का निषेध किया था। मनसा, वाचा, कर्मणा- इन तीनों प्रकारों से हमें अहिंसात्मक प्रणाली अपनाते हुए असत्य 21. अजात शत्रु, प्रथम अंक, पृ. 28 22. अजात शत्रु, द्वितीय अंक, पृ. 104-105 23. प्रतिध्वनि, पृ. 39 24. कामायनी, कर्म सर्ग, पृ. 55 For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसाद साहित्य में बौद्ध दर्शन - 165 या अनुचित कार्य का विरोध करना चाहिए। जयशंकर प्रसाद की कविता 'अशोक की चिन्ता' में सम्राट अशोक कलिंग-युद्ध की बर्बरता, क्रूरता एवं पैशाचिक निर्दयता देखकर द्रवित हो उठते हैं और सदा-सदा के लिए शस्त्र का परित्याग कर देते हैं। यही नहीं, वे बौद्ध भिक्षु उपगुप्त से बौद्ध धर्म की दीक्षा लेकर प्रेम द्वारा मानव-हृदय पर विजय पा लेने का बीड़ा उठाते हैं। प्रसाद शोकाकुल अशोक के चिन्तन-मनन द्वारा युद्ध की भर्त्सना कर प्रेम-पूर्वक मन पर शासन करने का आग्रह करते हैं। 'अजातशत्रु' नाटक में 'अहिंसा' की विशेष रूप से प्रतिष्ठा हुई है। मृग-शावक का शिकार न करने देने पर जब छलना पद्मावती को धिक्कारते हुए कहती है कि 'तुम राजा (अजातशत्रु) को अहिंसा सिखाती हो? जो भिक्षुओं की भद्दी सीख है' तब पद्मावती का कथन है, 'मेरी समझ में तो मनुष्य होना राजा होने से अच्छा है।"25 यही नहीं गौतम बुद्ध इस नाटक में कहते हैं, "दूसरे के मलिन कर्मो को विचारने से भी चित्त पर मलिन छाया पड़ती है" और “आनन्द, दूसरों का अपकार सोचने से अपना हृदय भी कलुषित होता है।"26 'कामायनी' में भी इसी अहिंसा-सिद्धान्त का अनुसरण करते हुए श्रद्धा अपने प्रेम, स्नेह, धैर्य, औदार्य आदि के द्वारा हिंसक, विलासप्रिय, छली एवं अनाचार में अनुरक्त मनु के हृदय का परिष्कार करती है। श्रद्धा द्वारा किलात आकुलि के पशु-बलि का विरोध भी बुद्ध के अहिंसा-सिद्धान्त से प्रेरित है। 5. विश्वनीड़ की परिकल्पना बौद्ध-दर्शन में असहिष्णुता, स्वार्थ-भावना, वैमनस्य, भेद-भाव, संकीर्णता आदि को त्याग कर विश्वजनीन धर्म को अपनाने तथा समस्त विश्व को अपना घर समझने का प्रबल आग्रह है। 'अजातशत्रु' नाटक में मागन्धी का मान-मर्दन होने पर गौतम बुद्ध उसे समझाते हुए कहते हैं, "क्षणिक विश्व का यह कौतुक है देवि! अब तुम अग्नि से तपे हुए हेम की तरह शुद्ध हो गई हो! विश्व के कल्याण में अग्रसर हो। ..... ....इस दुःख-समुद्र में कूद पड़ो, यदि एक भी रोते हुए हृदय को तुमने हँसा दिया, तो सहस्रों स्वर्ग तुम्हारे अंतर में विकसित होंगे। ..........विश्व-मैत्री हो जायेगी - विश्व भर अपना कुटुंब दिखाई पड़ेगा।"27 'आँसू' काव्य में कवि संसार के सभी प्राणियों की पीड़ा से भर कर अपने आँसू को विश्व-सदन में बरसने के लिए प्रेरित करता है, जिससे सम्पूर्ण जगती के साथ जुड़ाव हो। 'कामायनी' में बुद्धि के निर्मम व निरंकुश राज्य में प्यासा बन कर ओस चाटने वाले मनुष्य को उन्होंने बुद्धि व हृदय में सम्यक् संतुलन स्थापित करने का संदेश दिया है, जिससे वह भौतिकता और आध्यात्मिकता एवं प्रवृत्ति और निवृत्ति से समन्वित जीवन को साधे। इस महाकाव्य के अंत में प्रसाद ने 25. अजातशत्रु, प्रथम अंक, पृ. 24 26. अजातशत्रु, द्वितीय अंक, पृ. 81 27. अजातशत्रु, तृतीय अंक, पृ. 108-109 For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला सभी पात्रों को कैलाश-शिखर' पर मिलाकर एक सम्मिलित कुटुम्ब का रूप दे दिया है जो बौद्ध-दर्शन के विश्व-मैत्री के भाव से प्रभावित है। 'लहर' काव्य की कविताओं 'अरी वरुणा की शांत कछार' और 'जगती की मंगलमयी उषा बन' में 'सारनाथ की पवित्र भूमि को विश्ववाणी का विहार' बनाने की कामना है और महात्मा बुद्ध को करुणा की साकार प्रतिमा तथा ऋषिपत्तन को आनंद से विभोर करने वाला कहा है। उन्हें तप की तारुण्यमयी प्रतिभा तथा प्रज्ञा-पारमिता की गरिमा कहा है तथा इस व्यथित-विश्व की चेतना की साकार-मूर्ति एवं मानवता-प्रेम का संदेशवाहक कहा है। __इस प्रकार प्रसाद-साहित्य में बौद्ध-दर्शन के कई मर्म अनुस्यूत हैं जो अनन्त कोलाहल में फंसी संकुचित दृष्टि वाली आधुनिक युग की इस 'अभिनव मानव प्रजा-सृष्टि को 'भूमा' के मधुमय दान' की ओर बढाते हैं, और 'शक्ति के समस्त बिखरे हए कणों को संकलित कर मानवता को विजयिनी बनाने की ओर अग्रसर करते हैं। निश्छल प्रेम-कथा कहते हुए मानवता का जयघोष करने वाले महाकवि प्रसाद जीवन की सुदृढ़ भाव-भूमि पर स्थित होकर मानस की गहराई से दर्शन. की व्यावहारिकता सिद्ध करते हैं। “उनके बुद्ध इसलिए बुद्ध है, कि वे मानवता के आदर्शो की पूर्ण मूर्ति हैं।'' प्रसाद ने जिन दार्शनिक विचारों को मानवता के अनुकूल एवं समाज हेतु समीचीन समझा है, उन्हें अपने साहित्य में समाहित किया है। उनकी प्रत्येक विचारधारा व्यावहारिक जीवन पर आधारित है और मानवता के चरम उत्कर्ष की विधायक है। - हिन्दी विभाग जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर 1. अजातशत्रु, भूमिका, पृ. 3 For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध धर्म-दर्शन में कर्म की अवधारणा डॉ. हरिसिंह राजपुरोहित भारतीय दार्शनिक परिप्रेक्ष्य में भगवान् गौतम बुद्ध का आविर्भाव काल अर्थात् छठी शताब्दी ई.पू. एक धार्मिक, सांस्कृतिक एवं दार्शनिक संक्रमण का काल था। वस्तुतः वह एक बौद्धिक और आध्यात्मिक क्रान्ति के सूत्रपात का युग था। अनेक ब्राह्मण एवं श्रमण आचार्य तथा भिक्षु नाना दार्शनिक सिद्धान्तों की उद्भावना और नाना नवीन मार्गों तथा धर्म सम्प्रदायों के प्रतिष्ठापन में निरत थे। सामञफलसुत्त में बुद्धकालीन छह दार्शनिक सिद्धान्तों का उल्लेख भी इसी तथ्य को प्रमाणित करता है।' बुद्धकालीन दार्शनिक सिद्धान्तों में पूरण कस्सप का अक्रियावाद, मक्खलि गोसाल का नियतिवाद (दैववाद), अजित केशकम्बल का उच्छेदवाद कात्यायन का अकृततावाद, निगण्ठनाथपुत्त का चातुर्याम संवर तथा संजय वेलट्ठिपुत्त का अनिश्चितता वाद प्रमुख था। - पूर्व प्रचलित मतों में जैन दर्शन के अन्तर्गत कर्म का सिद्धान्त विशेष विकसित था। तदनुसार जीवों की सांसारिक गति कर्म के अधीन स्वीकृत है। कर्म के कारण ही उनके जीवन पृथक्-पृथक् नियन्त्रित हैं। संसार एक अनादि दुःख प्रवाह है, जिसमें कर्मबन्धन से विवश, अज्ञान से विचेष्टमान असंख्य जीव बहे जा रहे हैं। संसार से मुक्ति के लिए नवीन कर्म के आस्रव का निरोध और पूर्व कर्म का अपसारण नितान्त आवश्यक है। नवीन कर्म के आस्रव का निरोध 'संवर' कहलाता है। जबकि पूर्वकर्म का अपसारण 'निर्जरा'। भगवान बुद्ध चैतसिक कर्म को.महत्त्व देते हैं। वे कर्म का सार मानसिक संकल्प अथवा कर्म करने के मानसिक निर्णय को मानते हैं, जिसे चेतना कहा जाता है। 1. दीघनिकाय 1.2 For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला संयुत्तनिकाय में भगवान् बुद्ध कहते हैं “भिक्षुओं, मैंने चेतना को कर्म कहा है, चेतना पूर्वक कर्म किया जाता है, शरीर से, वाणी से, मन से । 2 प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन ने भी इसी तथ्य का विश्लेषण माध्यमिककारिका में किया है। भगवान् बुद्ध कर्म को दुःख की उत्पत्ति का प्रधान कारण मानते थे तथा बौद्ध धर्म-दर्शन में संसार मीमांसा में कर्म की प्रमुखता सर्वदा वर्तमान रही है। बुद्ध कहते हैं "मैं चेतना पूर्वक किये और संचित कर्मों के फल को प्रतिसंवेदन किये बिना उनके और दुःख का अन्त नहीं बताता हूँ । प्रत्येक के लिए दुःख का अन्त बोधपूर्वक किये गये कर्मों के क्षीण होने पर ही सम्भव है । "4 इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध दर्शन में कर्म को संसार का आसन्न कारण स्वीकार किया गया है, किन्तु मानसिक या चैतसिंक कर्म को कर्म की परिभाषा में आबद्ध करने वाले बौद्धों का कर्म जैनों के कर्म से भिन्न है, क्योंकि जैन कर्म को पौद्गलिक मानते हैं। वेदानुसारी मत से भी इस प्रसंग में बौद्धों का भेद है, क्योंकि वैदिक मत में कर्म को जीव रूपी कर्त्ता का व्यापार और उससे उत्पन्न अदृष्ट शक्ति माना जाता है, किन्तु बौद्ध धर्म-दर्शन में कर्म को किसी सतत अनुवर्तमान कर्ता का धर्म नहीं माना गया है। भगवान् बुद्ध के अनुसार कर्म और कर्मफल की एक अनादि और अविच्छिन्न परम्परा है, जिससे कर्म का करना और उसके फल का भोगना, दोनों समान प्रवाह में आपतित घटना मात्र है। उन्होंने किसी अनुगत और स्थायी कर्ता या भोक्ता को स्वीकार नहीं किया है। इससे यह स्पष्ट है कि बौद्धमत ने बाह्य क्रियाओं के स्थान पर मानसिक संकल्प को नैतिक निर्णय का आधार बनाकर कर्म - सिद्धान्त का कायाकल्प ही कर दिया है। अट्ठसालिनी में कहा गया है - "चेतनाहं भिक्खवे कम्मं वदामि चेतयित्वा कम्मं करोति, कायेन वाचा य, मनसा मनसा, वाचा, कर्मणा (कायेन) किये गये कार्य को 'कर्म' कहा जाता है ' किन्तु यहाँ यह ध्यातव्य है कि कायिक या वाचिक कर्म अनुष्ठित किया गया हो या नहीं, 2. संयुक्तनिकाय (रो) जि. 2, पृ: 39 3. चेतना चेतयित्वा च कर्मोक्तं परमर्षिणा तस्यानेकविधो भेदः कर्मणः परिकीर्तितः । । तत्र यच्चेतनेत्युक्तं कर्म तन्मानसं स्मृतम् । चेतयित्वा च यत्तूक्तं तत्तु कायिक- वाचिकम् ।। 4. बौद्धधर्म के विकास का इतिहास, डॉ. गोविन्दचन्द्र पाण्डे, पृ. 65-66 5. अट्ठसालिनी, पृ. 82 - माध्यमिककारिका, 17.2-3 For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध धर्म-दर्शन में कर्म की अवधारणा 169 मनसा, संकल्पित कार्य मात्र भी कर्म बन जाता है, क्योंकि मन के बिना कर्मो का प्रवर्तन नहीं होता है। शुभ तथा अशुभ उभयविध अवस्थाओं में जिसका चित्त व्यवस्थित रहता है, उसमें विकृति उत्पन्न नहीं होती है। उपर्युक्त चिन्तन का बीज यदि हम देखना चाहें तो वाल्मीकि रामायण के सुन्दरकाण्ड में हनुमान द्वारा रावण के अन्तःपुर निरीक्षण प्रकरण में देख सकते हैं जहाँ हनुमान परदारावरोध के अवलोकन के कारण अपने धर्मलोप की शंका उद्भावित कर उसका निर्मूलन करते हैं - - कामं दृष्टा मया सर्वा विश्वस्ता रावणस्त्रियः । न तु मे मनसा किञ्चिद् वैकृत्यमुपपद्यते ।। मनो हि हेतुः सर्वेषामिन्द्रियाणां प्रवर्तने । शुभाशुभास्ववस्थासु तच्च मे सुव्यवस्थितम् ।।' कर्म के विषय में भगवान बुद्ध के विचार हमें मज्झिम निकाय में भी दृग्गोचर होते हैं जहाँ बुद्ध कर्म का विश्लेषण करते हुए कहते हैं - "कम्मस्सका, माणव, सत्ता कम्मदायदा कम्मयोनि कम्मबन्धु कम्मप्पटिसरणा कम्म सत्तं विभजति यदिदं हीनपणीतता याति । 117 अर्थात् माणवक प्राणी कर्मस्वक हैं, कर्मदायाद, कर्मयोनि, कर्मबन्धु और कर्मप्रतिशरण हैं। कर्म ही प्राणियों को हीनता और उत्तमता में विभक्त करता है। अंगुत्तरनिकाय में भी इसी तरह का चिन्तन संलक्षित होता है - कम्मस्स कोम्हि, कम्मदायादो, कम्मयोनि, कम्मबन्धु, कम्मपटिसरणा य कम्मं करिस्सामि कल्याणं व पापकं व तस्स दायादो भविस्सामि । - कम्मनिबन्धना सत्ता का प्रतिपादन करते हुए सुत्तनिपात्त के वासेट्ठसुत्त में संसार और प्रजा का कर्म द्वारा चलायमान होना रथचक्र के दृष्टान्त से स्पष्ट किया गया है. कम्मुना वत्तति लोको कम्मुना वत्तति पजा । कम्मनिबन्धना सत्ता रथस्साणीव जायतो।।' बौद्ध धर्म दर्शन में पुनर्जन्म का मूल कारण कर्म को माना गया है, किन्तु कर्म के साथ विज्ञान (विञ्ञाण) तथा तृष्णा (तण्हा) का भी पूर्ण योगदान है। वस्तुतः कर्म खेत है, विज्ञान बीज तथा तृष्णा नमी है, इन तीनों के समवेतत्व में ही बीज का प्ररोहण 6. वाल्मीकि रामायण, सुन्दरकाण्ड 11.41-42 7. मज्झिमनिकाय, भाग - 3, पृ. 200 8. अंगतरनिकाय, भाग - 2, पृ. 336 9. सुत्तनिपात, वासेट्ठसुत For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला संभाव्य है, साथ ही जैसा बीज होगा वैसा ही फल अधिगत होगा। संयुक्त निकाय के समुद्दक सुत्त में स्पष्टतया समुद्घोषित किया गया है कि जैसा बीज वपन किया जाता है वैसा ही फल प्राप्त होता है। कल्याणकारी कल्याण कर्म करता है तथा पापकारी पापकर्म करता है - यादिसंवपते बीजं तादिसं हरते फलं। कल्याणकारी कल्याणं पापकारी च पापक।० पुनर्जन्म हेतु कर्म और विज्ञान के होने पर तृष्णारूपी आर्द्रता का होना अपेक्षित है अर्थात् कर्मविज्ञान एवं तृष्णा का त्रिक पुनर्जन्म हेतु आवश्यक है। कर्म का मूल तृष्णा है तथा तृष्णा अविद्या पर आधारित है। तृष्णा की श्रृंखला में आबद्ध जीप का भविष्य में पुनर्जन्म होता है। भारहारसुत्त में स्पष्टतया प्रतिपादित किया गया है कि तृष्णा ही पुनर्भव की ओर पुरस्कृत करती है तथा तृष्णा एक ऐसा भाव है जो कि मन को वस्तुओं के प्रति अनुरक्त करता है। दीघनिकाय में बतलाया गया है कि जब ज्ञानेन्द्रियाँ बाह्य जगत् के सम्पर्क में आती हैं तो वेदना और उपादान होते हैं तथा अनियन्त्रित होने पर तृष्णा को उत्पन्न करते हैं। काम तृष्णा, भवतृष्णा तथा विभवतृष्णा ही दुःखों और जन्मों का कारण है। तृष्णा के कारण मानव कर्म में प्रवृत्त होता है तथा तृष्णा का कारण है आत्मभावना। बौद्ध धर्म-दर्शन में तृष्णा को ही आत्मवाद का कारण बतलाया गया है और तृष्णा के परिहार के लिए ही बुद्ध ने आत्मवाद (नैरात्म्यवाद) का उपदेश दिया है। बौद्ध दार्शनिकों ने आत्मवाद को संसारचक्र का कारण माना है। 'सर्वदुःखम्' 'सर्वं अनात्मम्' से यही व्यक्त होता है कि समस्त दु:खों का मूल आत्मवाद ही है। आम्रवों को भी दुःख का कारण कहा गया है, जो कि कामासव, भवासव, अविज्जासव तथा दिट्ठासव के रूप में चतुर्विध है अतः यथार्थ ज्ञान के लिए इनका निरसन आवश्यक है। ___मैं सुखो होऊँ " या 'मैं' दुःखी न हो होऊँ ' इत्यादि में ममत्व बुद्धि ही आत्मभाव सुखी भवेयं दुःखी वा मा भुवमिति तृष्यतः। यैवाहमिति धीः सैव सहजं सत्त्वदर्शनम्।।" इसी आत्मभाव के कारण प्राणी सुखावाप्ति तथा दुःख-निरोध का प्रयास करता है इसी से तृष्णा जन्म लेती है तथा जन्म-मरण का चक्र अव्याहत सञ्चालित होता है। 10. संयुत्तनिकाय, पृ. 229 11. न्यायवार्तिक तात्पर्यटीका For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध धर्म-दर्शन में कर्म की अवधारणा * 171 संस्कार और विज्ञान संस्कार का आशय चैतसिक संकल्प से है। इस तरह संस्कार कर्म का ही सूक्ष्म मानसिक रूप है, जिससे व्यक्ति के चरित्र का निर्माण और संधारण होता है। इसे संचेतना भी कहा गया है। संस्कार से विज्ञान का प्रादुर्भाव होता है। अविद्या से युक्त व्यक्ति जब कुशल या अकुशल कर्म करता है तो तदनुकूल विज्ञान की सृष्टि होती है। अविद्या से विमुक्त व्यक्ति संस्कार निर्माण नहीं करता है तथा संस्कार न होने के कारण वह परिनिर्वृत्त हो जाता है। आम्रवों के संक्षीण हो जाने पर संस्कार सम्पादन नहीं होता है, परिणामतः विज्ञान भी संभव नहीं हो पाता है तथा प्रतीत्यसमुत्पाद की सम्पूर्ण शृंखला निरुद्ध हो जाती है। अस्तित्व को निरन्तरता देने का श्रेय विज्ञान को ही है। मुक्त व्यक्ति के विज्ञान का अन्वेषण संभव नहीं है, क्योंकि विज्ञान तभी तक वर्तमान रहता है जब तक कि अविद्या, आस्रव और तृष्णा वर्तमान रहती है। ___ मज्झिम निकाय में इस बात को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि विमुक्त भिक्षु के विषय में इन्द्र, ब्रह्मा, प्रजापति सहित देव भी यह नहीं कह सकते कि यहाँ तथागत का विज्ञान प्रतिष्ठित है। बौद्ध धर्म-दर्शन में कर्म-विपाक - बौद्ध धर्म-दर्शन के अनुसार यदि कर्म उत्पन्न होता है तो उसका फल भी अवश्यमेव भोक्तव्य होता है। बौद्ध धर्म-ग्रन्थों में स्पष्टतया प्रतिपादित है कि जो जैसा बीज बोता है वह वैसे ही फल का आहरण करता है। बृहदारण्यकोपनिषद् भी इस सिद्धान्त की परिपुष्टि करता है। व्यक्ति जिस तरह का कर्म करता है। वह वैसा ही बन जाता है.पुण्य कर्म करने से पुण्य की परिलब्धि होती है तथा पापकर्म करने से पाप की प्राप्ति होती है। पापकर्मो का फल अवश्य ही प्राप्तव्य है, चाहे विलम्ब से ही हो। धम्मपद में उल्लिखित किया गया है कि जिस प्रकार ताजा दुग्ध शीघ्र नहीं जमता है उसी प्रकार पापकर्म भी शीघ्र फलित नहीं होता है, अपितु राख से आवृत्त अग्निपिण्ड की तरह जलता हुआ पीछा करता रहता है। पापकर्मा मनुष्य उसे समझ नहीं पाता और अपने ही पापकर्मों से अग्निदग्ध की भांति अनुतप्त होता रहता है - . अथ पापानि कम्मानि करं बालो न बुज्झति। से हि कम्मेहि दुम्मेधो अग्गिदइढो व तप्पति।।13 साथ ही वहीं धम्मपद में यह भी कहा गया है कि कोई प्राणी कर्म के कारण गर्भ 12. एवं विभुत्तचित्तं खो भिक्खवेसइन्दा देवा सब्रह्मका स पजापतिका अन्वै समाधिगच्छन्ति इदं निस्सितं तथागतस्य। 13. धम्मपद,136 . For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला में उत्पन्न होते हैं, पाप करने वाले नरक में जाते हैं, पुण्य करने वाले स्वर्ग को जाते हैं और जो अनास्रव हैं वे परिनिर्वाण को प्राप्त करते हैं।14 इससे स्पष्टतया प्रतिपन्न होता है कि कर्मानुसार विपाक अवश्यंभावी है। कर्म करने वाले का फल अनुगमन करता है। कर्म फल से तो स्वयं बुद्ध भी नहीं बच सके, उन्हें भी अपनी कर्मफलानुभूति करनी पड़ी - इत एकनवतेः कल्पे शक्त्या में पुरुषो हतः। तेन कर्म विपाकेन पादे विद्धोस्मि भिक्षवः।।15 कर्मफल का भोग हुए बिना मुक्ति संभव नहीं है। कम्मदायादा सत्ता के अनुसार सत्त्व अपने ही कर्मों का उत्तराधिकारी है तथा वह अपने कर्मों से उसी तरह अनुबद्ध है जैसे रथचक्र से आणी। । विख्यात दार्शनिक बुद्धघोष ने विसुद्धिमग्ग में लिखा है - ... कम्मा विपाका वत्तन्ति विपाका कम्मसंभवा। कम्मा पुनभवो होति एवं लोको पवत्तति।।16 कर्म से विपाक होता है और विपाक से कर्म तथा कर्म से पुनर्जन्म, इस प्रकार यह लोक प्रवर्तमान है। कर्मविपाक का अनात्मवाद के साथ संगतीकरण - ___ चूंकि बौद्ध दर्शन आत्मा नामक किसी शाश्वत सत्ता को नहीं मानता है, अतः कर्मफल का भोक्ता कौन है तथा कर्म किस तरह एक जन्म से दूसरे जन्म में संक्रमित होते हैं इस विषय में शंका उत्पन्न होना स्वाभाविक है। क्योंकि जिसने कर्म किया वह अतीत में लीन हो जाता है और जो नवीन जन्मता है उसने वे कर्म ही नहीं किये, जिसके फल भोगने के लिए नये जन्म की आवश्यकता पड़ती है। ___ बौद्ध दर्शनानुसार देहेन्द्रिय, बुद्धि आदि का संघात क्षणिक है, क्षण भर में ही विनष्ट होने वाला है। जो संघात कर्म करता है वह कर्म करके विनष्ट हो जाता है तथा फल भोग के क्षण दूसरा हो जाता है। “कर्तृत्वभोक्तृत्वयोः समानाधिकरणनियमः" की सामान्य अवधारणा के अनुसार कर्ता तथा भोक्ता को एक ही व्यक्ति होना चाहिए। क्षणिकता का सिद्धान्त स्वीकार करने वाले बौद्ध दार्शनिकों के समक्ष कठिनाई यह है कि प्रत्येक वस्तु के क्षणिक होने पर कर्म क्षण तथा कर्म फल के सर्वथा भिन्न होने पर दोनों क्षण एक नहीं हो सकते हैं। ऐसी स्थिति में कर्म क्षण को कर्मफल के साथ प्रत्यभिज्ञात 14. धम्मपद, 126 15. षड्दर्शनसंग्रह - 6 16. विसुद्धिमग्ग, भाग - 2, पृ. 25 For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध धर्म-दर्शन में कर्म की अवधारणा * 173 नहीं किया जा सकता है। चूंकि प्रत्येक क्षण विशिष्ट है और इस प्रकार भोग का क्षण फल के साथ एकात्मक नहीं हो सकता है। न्यायवार्तिक के अनुसार यहाँ कृतविनाश और अकृताभ्यागम दोष प्रसक्त होता है तदेवमकृतकृताभ्यागमविनाशदोषप्रसङ्गः? बौद्ध मतानुसार विज्ञानों के कारण कार्यभाव से जैसे स्मृति हो जाती है, उसी तरह कारण कार्यभाव से ही कर्तृत्व व भोक्तृत्व की व्यवस्था हो जाती है। जिस प्रकार धान के बीज से अंकुर पैदा होता है, बीज के नष्ट हो जाने पर भी पौधे आदि की उत्पत्ति होकर पुनः धान्यबीज का प्रादुर्भाव होता है; इसी प्रकार कारण-कार्य रूप से व्यवस्थित जो चित्त सन्तति है उसके चित्तों में विपाक दशा को प्राप्त हुए कर्मों से फलोत्पत्ति हो जाती है। अथवा जिस प्रकार लाक्षारस से भावित बीजों के वपन से उसके पुष्प फल और कपास आदि में रक्तता आ जाती है; इसी प्रकार एक चित्तसन्तति के किसी विज्ञान क्षण के कर्म का फल आगे वाले विज्ञान क्षणों को प्राप्त होता है। इसी तथ्य का समर्थन न्यायवार्तिक के तात्पर्यटीकाकार वाचस्पति मिश्र करते हैं कि जिस काया से उपलक्षित कोई चित्तसन्तान होता है वही दूसरी काया में जाकर फल भोगता है "येन कायेनोपलक्षितः कश्चिच्चित्तसन्तानः स कायान्तरवर्त्यपि फलं भुङ्क्त इत्यर्थः"118 निष्कर्षतः यह सिद्धान्तित होता है कि जिस काया में रहने वाली चित्त सन्तति के 'प्रवाह का कोई चित्त क्षण कर्म करता है उसी चित्त सन्तति का अन्य क्षण उस कर्म का फलभाक् बनता है। अतः जो चित्तसन्तति कर्म करती है वही फलभाक भी होती है, अन्य नहीं। अतः यहाँ कृतनाश या अकृताभ्यागम जैसा कोई दोष प्रसक्त नहीं होता है। ___विसुद्धिमग्ग में इसी प्रकार का मन्तव्य प्रकट करते हुए बुद्धघोष का कहना है कि कर्म के कारण स्कन्धों का जन्म होता है वे वहीं समाप्त हो जाते हैं। उनके स्थान पर अगले जन्म में पहले के कर्मों के कारण अन्य स्कन्धों का जन्म होता है। पूर्व जन्म से. इस जन्म में एक ही अवस्था नहीं आती है तथा कर्म के कारण उत्पन्न स्कन्ध पूर्ववत् विनाश को प्राप्त हो जाते हैं। आगामी जीवन में फिर भिन्न स्कन्ध जन्म लेंगे तथा एक भी अवस्था इस जीवन से आगामी जीवन में संक्रमित नहीं होगी। 17. न्यायवार्तिक, पृ. 350 18. न्यायवार्तिक तात्पर्यटीका, पृ. 506 19. विसुद्धिमग्ग For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला ___ कर्म की एक जन्म से जन्मान्तर में संक्रमण की स्थिति को अभिधर्मकोश में अधिक स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि कर्म तथा अविद्यादि क्लेशों से संस्कृत पञ्चस्कन्ध की सन्तति प्रवाहित होती रहती है। एक मृत शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को ग्रहण करने तक बीच में एक स्कन्ध सन्तति प्रवाहित रहती है जिसे अन्तराभव कहते हैं। यह स्कन्धसन्तति ही जन्म से जन्मान्तर में गमन करती है नात्मास्ति स्कन्धमात्रं तु कर्मक्लेशाभिसंस्कृतम्। अन्तराभवसन्तत्या कुक्षिमेति प्रदीपवत्।।२० बौद्ध धर्म-दर्शन में आवागमन के स्थान पर कर्म का जन्मान्तरण विवेचित है। भगवान बुद्ध के अनुसार प्राणी की मृत्यु के पश्चात् उसके कर्मों के व्यतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं रहता है। प्रत्येक व्यक्ति दीर्घकालिक श्रृंखला के कर्म का अन्तिम परिणाम होता है। इस सम्पूर्ण विवेचन से यह स्पष्ट प्रतिपादित होता है कि अनात्मवाद में भी कर्मफल की व्यवस्था संधारित होती है। - राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, जालोर (राज.) 20. अभिधर्मकोश - 3,18 For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक काल में बौद्ध धर्म-दर्शन : विहंगावलोकन डॉ. शैलेन्द्र स्वामी भगवान बुद्ध अध्यात्मशास्त्र की गुत्थियों को सुलझाने वाले शुद्ध तर्क की सहायता से आध्यात्मिक तत्त्वों का विवेचन करने वाले दार्शनिक थे। वे बोधि ज्ञान (पूर्ण ज्ञान) प्राप्त करके गौतम 'बुद्ध' कहलाये। बुद्ध के उपदेशों पर मंथन के फलस्वरूप बौद्ध धर्म एवं दर्शन का विकास हुआ। इसके विकास पर प्रकाश डालते हुए श्री सतीशचन्द्र चट्टोपाध्याय एवं श्री धीरेन्द्र मोहन दत्त लिखते हैं - "कालान्तर में महात्मा बुद्ध के अनुयायियों की संख्या बहुत अधिक बढ़ गई और वे कई सम्प्रदायों में विभक्त हो गये। धार्मिक मतभेद के कारण बौद्ध धर्म की दो प्रधान शाखाएँ कायम हुई जो हीनयान तथा महायान के नाम से प्रसिद्ध हैं। हीनयान का प्रचार भारत के दक्षिण में हुंआ। आजकल इसका अधिक प्रचार श्री लंका, बर्मा (म्यांमार) तथा स्याम (कम्बोडिया) में है। पालि-त्रिपिटिक ही हीनयान के प्रधान ग्रंथ है। महायान का प्रचार अधिकतर उत्तर के देशों में हुआ। इसके अनुयायी तिब्बत, चीन, कोरिया तथा जापान में अधिक मिलते हैं। महायान का दार्शनिक विवेचन संस्कृत में हुआ है। अतः इसके ग्रन्थों की भाषा संस्कृत है। इन ग्रन्थों का अनुवाद तिब्बती और चीनी भाषाओं में हुआ है। बौद्ध साहित्य के अनेक ग्रंथ जो भारत में अभी अप्राप्य हैं, चीनी और तिब्बती अनुवादों के द्वारा पुनः प्राप्त हो रहे हैं और उन्हें फिर से संस्कृत में अनूदित किया जा रहा है।" प्रो. हरेन्द्र प्रसाद सिन्हा के अनुसार भी बौद्ध धर्म भारत तक ही सीमित नहीं रहा, अपितु, नृपों एवं भिक्षुओं की सहायता से दूसरे देशों में भी फैला और यह धर्म विश्व-धर्म के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। उन्नीसवीं शती में जनरल कनिंघम और लार्ड कैनिंग के समय में प्राचीन बौद्ध धर्म-स्थलों पर पुरातत्त्व सर्वेक्षण हुए। सन् 1877 ई. से 1880 ई. के मध्य 2 लाख रुपये व्यय करके बोधगया में उत्खनन कार्य किया गया, जिससे बौद्ध धर्म से सम्बन्धित उपयोगी पुरातत्त्व सामग्री मिली। बौद्ध धर्म से सम्बन्धित अनेक मूर्तियों को बोधगया, . For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला कलकत्ता, पटना तथा मथुरा के संग्रहालयों में रखा गया। सन् 1915 ई. से 1930 ई. तक बिहार के नालन्दा क्षेत्र की खुदाई की गई, जिससे 9 प्राचीन बौद्ध-विहारों पर प्रकाश पड़ा। इन विहारों के सामने स्तूपों या चैत्यों के भग्नावशेष भी प्राप्त हुए। इन चैत्यों के भग्नावशेष पर मिट्टी की बनी बुद्ध की ध्यान मुद्रा वाली मूर्तियाँ भी प्राप्त हुईं। नालन्दा के संग्रहालय में आज भी अनेक बौद्ध मूर्तियां विद्यमान हैं। ये मूर्तियां अष्टधातु, कांसें, पीतल तथा पाषाण से बनी हुई हैं, नालन्दा विश्वविद्यालय बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार का केन्द्र रहा है। प्राचीन नालन्दा विश्वविद्यालय की मृत्तिका मुद्रा पर धर्म-चक्र का चिह्न बना है और चक्र के दोनों ओर शान्त मृग बैठे हुए दिखाए गए हैं। सन् 1915 ई. तथा सन् 1952-53 ई. में पाटलिपुत्र की खुदाई का कार्य किया गया। इस खुदाई में मौर्यकालीन तथा गुप्तकालीन सभा भवन प्राप्त हुए, जिसमें भिक्षु उपदेश देते थे, पाटलिपुत्र बौद्ध धर्म का गढ़ रहा। वर्तमान में पटना के संग्रहालय में बौद्ध धर्म से सम्बन्धित बहुमूल्य सामग्री संगृहीत है जिससे बौद्ध धर्म से सम्बन्धित वस्तुओं की समुचित रक्षा हुई है। यह संग्रहालय आज भी बौद्ध गौरव के गीत सुनाता है। आधुनिक काल में अनेक महापुरुषों ने भी बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार का कार्य किया है। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने अपनी लेखनी के माध्यम से हिन्दी और बौद्ध साहित्य की सेवा की है - यह स्तुत्य है, श्लाघनीय है। राहुलजी संस्कृत, हिन्दी, अरबी, फारसी, पालि, तिब्बती आदि भाषाओं के जानकार थे। राहुलजी ने लंका, नेपाल, तिब्बत, रूस, आदि देशों का अनेक बार भ्रमण किया तथा बौद्ध धर्म एवं दर्शन से सम्बन्धित दुर्लभ ग्रंथों का अनुवाद एवं सम्पादन किया। राहुलजी द्वारा लिखित एवं सम्पादित तथा अनूदित 125 ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। बौद्ध धर्म व दर्शन पर उनके जो ग्रंथ हैं, उनमें 'बुद्धचर्या' (1930 ई.) 'धम्मपद' (1933 ई.) 'अभिधर्मकोश' (1930 ई.) 'तिब्बत में बौद्ध धर्म' (1935 ई.) 'बौद्ध दर्शन' (1942 ई.) 'बौद्ध संस्कृति (1949 ई.) 'दोहाकोश' (1954 ई.) 'महापरिनिर्वाण सूत्र' (1951 ई.) तथा 'बुद्ध' (1956 ई.) प्रसिद्ध हैं। भिक्षु जगदीश कश्यप का नाम भी बौद्ध जगत् में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है। उन्होंने लंका, मलाया, बर्मा, चीन तथा सिंगापुर की यात्राएँ की तथा बौद्ध धर्म एवं दर्शन का प्रचार-प्रसार किया। कश्यपजी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय तथा वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय में पालि विभाग के अध्यक्ष रहे। बौद्ध धर्म के अध्ययन, मनन तथा चिन्तन के लिए 'पालि प्रतिष्ठान' की स्थापना हुई, जिसके निदेशक पद को भी आपने सुशोभित किया। कश्यप जी ने भदन्त आनन्दकौसल्यायन व महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के साथ खुद्दक निकाय', के 11 ग्रंथों का नागरी लिपि में सम्पादन किया। उन्होंने दीर्घ-निकाय 'संयुत्त निकाय' तथा 'मिलिन्दपञ्हो' का हिन्दी अनुवाद किया है। कश्यपजी के द्वारा लिखे गये मौलिक ग्रंथों - 'पालि भाषा का व्याकरण' (हिन्दी में) तथा 'बुद्धिज्म फॉर एवरी बॉडी' (अंग्रेजी में) का सम्मान भी विद्वत् जगत म है। For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक काल में बौद्ध धर्म-दर्शन * 177 नालन्दा का 'पालि-प्रतिष्ठान' वर्तमान में 'नवनालन्दा महाविहार' में परिणत हो गया है। यह संस्था पालि-भाषा, पालि साहित्य, बौद्ध धर्म व दर्शन के उच्च ज्ञान के आदान-प्रदान, सम्पादन एवं अनुसंधान के लिए स्थापित की गई है। यहाँ समस्त बौद्ध देशों की भाषाओं- तिब्बती, चीन, जापानी, सिलोनी, बर्मी, स्यामी में शोध अनुसंधान कराने का प्रबन्ध है। संस्थान के प्राध्यापकगण बौद्ध विद्वान् एवं बौद्ध देशों के निवासी हैं। इसमें अध्ययनार्थी भारत, श्रीलंका, स्याम, वियतनाम, फ्रांस, मंगोलिया, कोरिया, जापान, तिब्बत, म्यामांर आदि देशों के निवासी हैं। सन् 1956 ई. में बौद्ध निर्वाण की 2500वीं जयन्ती बोधगया में धूमधाम से मनायी गयी। पटना में 'महामहोपाध्याय डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल शोध प्रतिष्ठान' भी स्थापित किया गया है, जिसमें बौद्ध संस्कृति सम्बन्धित शोध-अनुसंधान भी हो रहा है। बिहार राष्ट्र भाषा परिषद् द्वारा आचार्य नरेन्द्र देव द्वारा विरचित महाग्रंथ 'बौद्ध धर्म-दर्शन' भी प्रकाशित किया गया, जो विलक्षण एवं अद्वितीय है। इस प्रकार अनेक संस्थाएँ आज भी बौद्ध धर्म एवं दर्शन के समुचित प्रचार-प्रसार हेतु विविध कार्य कर रही हैं। __ सभी भारतीय दार्शनिकों की तरह बौद्ध दर्शन का भी यही विचार है कि यह संसार दुःखालय है। सम्यक् ज्ञान से दुःखों की निवृत्ति व मोक्ष की प्राप्ति होती है। निर्वाण ही बौद्धों का परम तत्त्व है। बुद्ध का उद्देश्य निर्वाण की प्राप्ति है। डॉ. पारसनाथ द्विवेदी के शब्दों में "विभिन्न देशों में बौद्ध धर्म का पूर्ण प्रचार हुआ है और यह संसार के प्रमुख धर्मों में गिना जाता है। एक समय था जब संसार में बौद्ध का ही बोलबाला था। बुद्ध का अहिंसा का उपदेश देश के लिए बड़ा उपकारी रहा है। बौद्ध धर्म एवं दर्शन में आदर्शवाद एवं यथार्थवाद दोनों का समन्वय दृष्टिगोचर होता है।" बौद्ध धर्म-दर्शन के विकास में आधुनिक काल में डॉ. बी.आर. अम्बेडकर का योगदान भी अविस्मरणीय है। उनका ग्रन्थ 'द बुद्धा एण्ड हिज धम्मा' बुद्धिज्म को नये ढंग से स्थापित करता है। आज बौद्ध साहित्य तथा पालि साहित्य का समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से भी अध्ययन होने लगा है। डॉ. अम्बेडकर ने 1935 ई. में बौद्ध धर्म अंगीकार कर लिया था। उन्होंने भारत के इतिहास में बुद्ध तथा बौद्ध मत की क्रांतिकारिता का भी विशेष रूप से अध्ययन किया। उसके बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि बौद्ध मत और दर्शन की क्रान्तिकारिता आज भी देश की राजनीतिक क्रान्ति को सफल बनाने के लिए अनिवार्य सांस्कृतिक क्रान्ति की अगुवाई कर सकती है। बुद्ध का दर्शन इस दृष्टि से श्रेष्ठ है। सन् 1950 ई. से उन्होंने सार्वजनिक रूप से बौद्ध मत का समर्थन करना शुरू कर दिया था। उन्होंने महाबोधि सभा, कलकत्ता के 'महाबोधि' मासिक पत्र के लिए बौद्ध धर्म पर अनेक लेख भी लिखे। बुद्ध-जयन्ती के अवसर पर 1950 ई. में दिल्ली की एक सभा में बोलते हुए डॉ. अम्बेडकर ने कहा था - "बौद्ध धर्म से हमें रोशनी दिखाई देती है। बौद्ध धर्म के कारण ही भारत देश महान् होने की बात For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 • बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला सारी दुनिया को कह सकते हैं....बुद्ध के दर्शन का मुख्य हेतु मानवीय समानता है, बुद्ध के दर्शन में सभी के लिए विचार स्वतन्त्रता प्रदान की गई हैं।" बुद्ध का दर्शन वास्तव में क्रान्तिकारी विचारधारा का दर्शन है। यह अपने समय के सर्वहारा वर्ग का दर्शन रहा है और आज भी यह दर्शन सर्वहारा समाज का सबल नेतृत्व प्रदान कर सकता है - इसमें सन्देह नहीं है। डॉ. अम्बेडकर ने बुद्ध की विचारधारा को आधुनिक सन्दर्भ में स्वीकार किया। बुद्ध की विचारधारा को स्वीकार करने में और सम्पूर्ण दलित समाज को ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण देशवासियों को बुद्ध के धम्म को स्वीकार करने के लिए आहवान करने में यही उद्देश्य था कि लोकतान्त्रिक मूल्य व आदर्श स्थापित हो तथा देश में समाजवादी समाज के निर्माण के लिए समाज में अनुकूल वातावरण तैयार हो। इस हेतु सन् 1950 ई. में बम्बई में 'बौद्ध जनसभा' की स्थापना की गई। डॉ. अम्बेडकर के निर्देशन में 14 अक्टूबर 1956 ई0 में नागपुर में बौद्ध भिक्षु चन्द्रमणि महास्थविर की उपस्थिति में एक साथ 7 लाख लोगों ने 'बौद्ध धम्म' की दीक्षा ली। इन नवदीक्षित बौद्धों में स्वाभिमान की चेतना जागृत हुई। कालान्तर में देश के अनेक स्थानों पर 'बौद्ध-दीक्षा' समारोह हुए, जिनमें भाग लेकर दलित समाज के लाखों लोगों ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया। इस प्रकार डॉ. अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म का सामान्यीकरण, समाजीकरण तथा आधुनिकीकरण करके बौद्ध धर्म के पुनरुत्थान में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने भारत में बौद्धधर्म को आम आदमी की मुक्ति के दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित किया। यही डॉ. अम्बेडकर की बौद्ध धर्म के लिए महत्त्वपूर्ण देन है। इस सम्बन्ध में डॉ. विमलकीर्ति के 'बौद्ध धर्म के विकास में डॉ. बी.आर. अम्बेडकर का योगदान' विषयक पुस्तक में लिखे विचार उल्लेखनीय हैं। वे लिखते हैं - "बुद्धिज्म को स्वीकार करके उन्होंने सामाजिक तथा धार्मिक क्रान्ति के स्वरूप को स्पष्ट कर दिया है। डॉ. अम्बेडकर यदि बौद्ध न होते और अपने अनुयायियों को बौद्ध बनने की सलाह नहीं दते तो दलित समाज में जो सामाजिक एकता है वह दिखाई नहीं देती....यदि बौद्ध न होते तो डॉ. अम्बेडकर की प्रेरणा से आज देशभर में फैलते दलित साहित्य का आन्दोलन ही पैदा न होता। दलित साहित्य का दार्शनिक आधार बुद्ध का दर्शन है।" इस प्रकार आधुनिक काल के साहित्य पर भी बौद्ध धर्म-दर्शन की अमिट छाप दर्शित होती है, जो बौद्ध धर्म-दर्शन के आधनिक काल में इसके महत्त्व को उद्घाटिक करती है। बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में डॉ. जगन्नाथ उपाध्याय, डॉ. रामशंकर त्रिपाठी, डॉ. गोविन्द्रचन्द पाण्डे, द्वारिका प्रसाद शास्त्री आदि विद्वज्जनों के भी नाम उल्लेखनीय हैं। - राजकीय दरबार आचार्य संस्कृत कॉलेज, जोधपुर (राजस्थान) For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Role of Buddhist Paintings in the Development of Modern Art Dr Renu Sharma Indian painting is a form of Indian art. The earliest Indian paintings were the rock paintings of pre-historic times, the petroglyphs as found in places like Bhimbetka, and some of them are older than 5500 BC. Such works continued and after several millennia, in the 7th century, carved pillars of Ellora, Maharashtra state present a fine example of Indian paintings, and the colours, mostly various shades of red and orange, were derived from minerals. Thereafter, frescoes of Ajanta and Ellora Caves appeared. India's Buddhist literature is replete with examples of texts which describe that palaces of kings and aristocratic class were embellished with paintings, but they have largely not survived. But, it is believed that some form of art painting was practiced during that time. : Indian paintings provide an aesthetic continuum that extends from the early civilization to the present day. From being essentially religious in purpose in the beginning. Indian paintings have evolved over the years to become a fusion of various cultures and traditions. The Indian painting was exposed to GrecoRoman as well as Iranian and Chinese influences. Cave paintings in different parts of India bear testimony to these influences and a continuous evolution of new idiom is evident. For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 alles t-axta, hitta site hell It is impossible to talk about Buddhism without mentioning its profound impact on the development of Central Asian art. It is through those art works that a fusion of eastern and western cultures was demonstrated. The art of Buddhism left the world the most powerful and enduring monuments along the Silk Road and among them some of the most precious Buddhist sculptures, paintings and murals. Furthermore the contact with Hellenized Gandharan culture resulted in the development of a new art form, the Buddha statue, sometimes referred as a Buddha image. Before Buddhism reached Gandhara in the 3rd century BC, there had been no representation of the Buddha and it was in the Gandharan culture that the use of Buddha images had begun. The earliest Buddha images resembled the Greek god Apollo. It has been suggested by the scholars that the earliest Buddha images in Gandhara were created by the local Greeks who carried their classic artistic conception and Indianized it by transforming it into the figure of greek-featured Buddha, dressed in the toga and seated in the yoga pose. The Gandhara style represented a union of classical, Indian and Iranian elements continued in Afghanistans and the neighbouring regions throughout most of the first millennium until the end of the 8th century. Though it was largely as a result of Greek influence that Gandhara became the center of development in Buddhist sculpture, it was on the Indian foundation from which Buddhist architecture evolved. The development of Buddhism along the Silk Road resulted in a proliferation of monasteries, grattoes, vishanas and stupas throughout the entire Buddhist communities. However, the cave temples hold the most unique position in the development of Buddhist architecture. The Buddhists devotion was deeply reflected by the wall paintings of its rock-cut caves. From Gandhara, Bamyin, Kumtura, Kizil to Bezeklik and Dunhuang the Buddhist artists with arduous labor, created the most impressive wall paintings of cave temples dedicated to the Buddha, his saints and his legend. They present us an astonishing pageant of local societies with kings, queens, knights, ladies, monks and artists. Aside from their artistic values, those cave temples provide us with an immense amount of historical information. The portraits of Kizil donors with light complexions, blue eyes and blond or reddish hair teach us they are more Indo-European than Mongol in appearance. The processions of Uighur For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Role of Buddhist Painting in the Development of Modern Art * 181 prince and princess from Dunhuang illustrate how Uighurs dressed in the 9th century. It is from these wall paintings that we can have a glance at the lives and cultures of these fascinating but vanished ancient peoples. Buddhist art developed to the north through Central Asia and into Eastern Asia to form the northern branch of Buddhist art. It had spread to South-East Asia to form the Southern branch of Buddhist art. Buddhist art is meant for those monuments and paintings whose main purpose is the edification of Buddhism. During the Vedic period, Hindu art was not found probably because of the perishability of the medium or because of absence of idol-worship. The art is non-Aryan which is mainly found in the Indus valley. This art is based on elements and materials of popular religion and folklore. The Indus art was represented by large towns, seals, sculpture, pottery, jewels and figurines. The early Buddhist art in India is represented by religious monuments which are of two kinds, namely, rock-cut and structural. The latter comprises of two principal varieties, the Stupa and the temple. There is no representation of Buddha himself. He is being represented by symbols like footprints. Structural monuments are found in Sanchi Stupa, Sarnath, Bharhut, Taxila, Amravati, and Nagarjunakonda. Rock-cut architecture in Barabar and Nagarjuni hills in Bihar, Bhaja, Bedsa, Elephanta Caves, Ajanta caves and Ellora caves in Western India, Mahabalipuram, Undavalli, and Bhairavakonda in Madras while those of the temple are found in Sanchi, Besanagar, Taxila, Deogarh, Bhitargaon, Badami, Bodh-Gaya and Nalanda. Asokan sculptures are the masterpieces in style and technique. · Buddhist styles are natural in design; with a distinct element of sensuousness, its wood-carving technique, and the general absence of foreign influences make it distinct. Animals are represented beautifully. In the Itushan phase there are controversies as to how the Buddha statue developed. The statue was a foreign importation or an indigenous evolution is doubtful. Lord Buddha was first represented by his relics, personal possessions and trees, then by his life and later through his material form. Mathura and Gandhara schools of art claim this honour and it may probably be the case that both developed this form For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला simultaneously. Buddha with a moustache as in the Gandhara style is Greek and unthinkable in the Indian system where Buddha the Yogi reminds one of the Vedic conceptions. The Mathura style resembles the forms of divinities as found in Bharhut. Thus the Buddha image is Indian in both conception and origin and is fashioned strictly according to the iconographic traditions embodied in the older indigenous works. In India, art has been so closely related to religion that for its proper understanding it is necessary to have some knowledge of various forms and symbols representing the supernatural powers in Hinduism, Buddhism and Jainism. The earliest phase of Buddhism- a period of atleast two centuriesis shrouded in almost impenetrable darkness. In the beginning the enlightened teacher Gautama, the Sakya sage was the object of veneration to the devotees. Early Buddhism centered round the story of his life and episodes in his career, his birth, his remuneration of wife and kingdom, his enlightenment and death as well as folk stories of his good deeds in former lives. These formed the subjects of the reliefs which decorate the railings and gateways enclosing the stupas or mounds erected over his relics at Sanchi, Bharhut and Bodh-Gaya. Here Buddha is not potrayed in human form and his presence is indicated by symbols. His actual likeness was regarded as too sacred to admit of representation. His presence was shown by a tree (the Bodh tree), a wheel (the wheel of the law set turning at Sarnath), Stupa (his burial moundm or else by the foot-prints, or an empty saddle or throne or even by his umbrella, for the umbrella had long been a symbol of royalty. The whole of Buddhism was composed of Trinity made up of the Buddha, Dharma (the law) and the Sangha (the monastic order). This was embodied in the triratna (three jewels) symbol. About the first century A.D. Buddhism had to bow before the carvings of the people for gods and objects of worship. Hinduism offered a religion where god was presented to the masses in the theistic form of Krishna, Vishnu or Mahadeva always ready and anxious to save genuine devotees, who threw themselves upon his mercy. This led to the rise of a new school in Buddhism in the form of Mahayana movement. The Arhat ideal, that of the human being who, by strenuous effort, acquired enlightenment, gave way to that of the Bodhisattva, the saviour For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Role of Buddhist Painting in the Development of Modern Art 183 of mankind and compassion replaced wisdom as receiving the greater emphasis. The three chief Bodhisattvas of the Mahayana Buddhism are Manjusri, Avalokitesvara and Vajrapani. They form a triad corresponding to the Hindu triad of Brahma, Vishnu, Shiva and each has his shakti or consort. Another Bodhisattva, a kindly one is Maitreya, who is the Buddha to be. The central concept of Mahayana Buddhism is the worship of Adi- Buddha, a self-created primordial being who, when all was perfect void, produced the three worlds by his meditation. From AdiBuddha's meditation were produced the five Dhyani Buddhas. According to this doctrine, the individual soul is an emanation of the mystic substance of Adi- Buddha and will return to him when cycle of transmigration is complete. The historical Buddha was distinguished from the Adi-Buddha and the Dhyani Buddhas. He was clearly deified and appeared in this great pantheon as a supreme god. In the re-edited form of Buddhism, Buddha ceased to be the teacher and was slowly transformed into a transcendental God head with the recognition of the Buddha as a God, the only proper approach to him was through Bhakti and so art, in all its form became as means of adoration and glorification of this new God head. It grew and flourished as the god head became more and more popular. With the rise of the Gupta dynasty in the fourth century, the Indian sculpture entered a new epoch'. The Gupta period witnessed glory and greatness in every branch of national life. Plastic art reached a stage of beauty and completeness, it never had before. A style was evolved which combined the various elements of earlier Indian art traditions, eliminating or modifying features which indicated foreign origin. There emerged an element of refinement in the sculpture with a highly developed sense of rhythm and beauty. The artist guided by subline idealism carved out images, full of charm and dignity, irradiating a spiritual joy. The main interest of the Indian artist was the human form, and during this period, he succeeded in carving out a figure more graceful in proportion and more balanced than hitherto and also in investing it with the highest spiritual values. The indigenous art of making images of 1. Sculpture in India: its History & Art, p.19. 2. Ibid p.19. For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 • alese festa, ftala 37e ACT * men and deities reached its highest water mark. No art in the world can be compared with the Gupta art in the revelation of the majesty and sublimity, charm and tenderness of the human figures. Gupta sculpture reflects the high accomplishment and depth of human insight of the artist. The notable qualities of the art of the Gupta age have been assessed by Coomaraswamy, thus: “Earlier Indian art is, so to speak a product of nature, rather than of artifice and characterized by naturalism and simplicity. Gupta art is the flower of an established tradition, a polished and perfected medium like the Sanskrit language, for the statement of thought and feeling ....its character is self-possessed, urbane, at once exuberant and formal.......Philosophy and faith possess a common language in this art that is at once abstract and sensuous, and reserved and passionate. . The art of the period shows greater vitality. The examples are intensely lively; powerful and human. The artist derived inspiration from the day to day life, imparting into the sculpture rhythm and dynamism. • At last I would like to conclude that the modern art in India is a dynamic art form that has been flourishing for decades. Indian paintings provide an aesthetic continuum that extends from the early civilization to the present day. From being essentially religious in purpose in the beginning. Indian painting has evolved over the years to become a fusion of various cultures and traditions. The cave paintings in different parts of India bear testimony to these influences and a continuous evolution of new idioms is evident. Reference Books 1. Coomaraswamy, A : (i) History of Indian and Indonesian Art, London, 1927. (ii) Introduction to Indian Art, Madras, 1956. 2. Chandra, Moti : Indian Art, Bombay, 1964. 3. Coomaraswamy, India and Indonesian Art, p. 174. 4. Introduction to Indian Art, p.34. For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला 185 3. Gupta, R.S. and Mahajan, B.B. : Ajanta, Ellora and Aurangabad Caves, Bombay 1962 4. Havell, E.B: Ancient and Medieval Architecture of Indian, London, 1915. 5. Joshi, N.P. Mathura sculptures, Mathura, 1966. 6. Mathur, N.L. Sculpture in India, New Delhi, 1976. 7. Satish Grover, The Architecture of India: Buddhist and Hindu, New Delhi, 1980. 8. Dharmanand Kosambi, Bhagwan Buddh: Jeevaan Aur Darshan, Lokbharti Prakashan Allahabad on behalf of Sahitya Akademi, New Delhi, 2009. - Deptt. of Fine Arts and Painting, Jai Narain Vyas University, Jodhpur. For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Buddhism & Social Justice : Some Reflections : Dr S.P. Gupta : The Concept of Social Justice go back to the origin of civilised human society and is at the back of all human vlaues. Social justice is an abstraction that originates from an innate urge embedded in human nature that in any interaction among humans, a person should get what he/she deserves as a fellow member. The concept of social justice is based on postulate that society is responsible for the under served suffering of its members and as such society as a whole should repair the deprivation and should construct social means to ensure that such harm is avoided (Nayar 2008 : 5) Coming to the Indian Society, we find that our society was shown deep concern for social justice. The vedic connotation of Dharma which is the base of justice means that which helps the upliftment of living being. We are embedded in a wider and vast network of mutual responsibility in which empathy and compassion call for the minimisation of human suffering. In the revolt against the Vedic religion of sacrifices and caste system in India by Buddha, developed an independent religon. It upholds the concept of social justice and ethical practice to personal and social life. In Indian society the idea of libery, equality and fraternity were core issues of social justice and Buddhism was oriented towards - (a) Challenging the authority of Vedas (b) Favouring admission of persons irrespective of their caste and gender into their gaña or Sangha (c) Observance of ethical norms. While we talk of social justice in Buddhism, it forms one of the three principles of Buddhism. For Personal & Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Budhism & Social Justice • 187 Prajñā (against superstitions and super nationalism), Karuņā (Love) and Samtā (eqality). According to Ambedkar, 'The history of India is nothing but a hisotry of a moral conflict between Buddhism and Brahmnism '(Ambedkar, 1987 : 267). In this context Buddha was a great social reformer and propagator of equality of all human beings, and worked for the emancipation of women and lower castes. No doubt Buddha was in favour of equality and emancipation of lower caste and women. Rhys Davids explains that Buddhism ignores completly and absolutely all advantages and disadvantages arising from birth, occupation and social status. He sweeps away all barriers and disabilities arising from the arbitrary rules of mere ceremonial or social impurity (Rhys, 1926) While going through hisotrical records however one can find that though Buddha opposed the caste hirarchy based on birth as advocated by Vedic relgion, he did not reject the notion of caste or Varna system. Hence, he rejects the divine theory of the origin of the caste system and favours for evolutionary theory where he prpounds that all castes originated because of laziness and greed of men. If he was at all opposed to caste system, then why did he talk of his own classifcaiton khattiya Brahmins, vessas and the Suddas. He considers Kshatriya superior to Brahmins. Many scholars view that Buddha himself was born in Kshatriya caste, he must be biased towards it. Similary because of higher intellectual level and political power. Kshatriya had higher prestige in the society. In the Jataka stories too, Kshatriyas of degraded character are rarely mentioned, it is only Brāhmaṇas who are termed as men of mean character. In many cases the Brāhmaṇas are pictured as greedy, shameless and immoral and serve as a foil to the Khattiyas who play the part of virtuous and noble humanity (fick 1920; 183), As the Buddha does not give empahasis on the qualities necessary for the Kshatriyas and the other social groups, but his repeated attempts to denounce his Brāhmaṇa counterpart by comparing their ‘real character with the ‘Ideal character shows his partiality forwards the Kshatriya. Though in the caste system he defines caste with reference to one's qualities, inclination and vocation and not with reference to birth. The above mentioned instances show somewhat contradictory thought on caste by Buddha. He For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 alles erf-asta, hala ante hell was not in favour of caste system which favoured birth, but he has not been successfull in maintianing an egalitarian concepts as one can see that the opening of the avenues of the Buddhist church for the Sudras and others did not pay much significance. Since the lower castes acquired reverence not as a member of a lower caste but as a monk. One can also find illustration where Buddhist churches themselves were greatly influenced by the caste system for their monks as they usually failed to forget their caste antecedents, for example, Upali ( à monk) was refused to pay homage by Devadatta. Yaśa a minister of Asoka (though a Buddhist) 'suggested him to discriminate among the monks according to their original castes. Similarly the attitude of Buddhist laity cannot be called towards establishing an anti-caste society. One can witness inequality, discrimination and opperssion in Buddhism too. Hence we can not clearly generalise that there was no inequality and discrimination among caste during the time of Buddha. Besides caste justice as category in Indian society, gender justice is also an important one-Gender inequality, injustice and discrimination existed in Hindu society and Buddhists say the status of women was elevated by admiting them in the community of Bhikkus (Priests) and allowing them to gain and impart religious knowledge. They come to enjoy more equality and greater respect and authority as compared to their earlier situations. Many Buddhist scholars alongwith Ambedkar say Buddha was an upholder of the doctrine of equality of sexes (Homer, 1975;; Narasu, 1976; Joshi, 1970). However it was not true. As Altekar highlights that before 500 B.C. the position of Indian women was comparatively better as compared to what it became in subsequent centuries. Critiques say that Buddha's attitude was sympathetic to women, there is a question - mark. Instances show that he was not in favour of admitting as nuns in his church. He however agreed to do so most reluctantly only after the request of foster-mother Mahaprajāpati supported by Ananda after laying down eight special rules for their admission which may not show equalitarian attitude towards women. Some of these rules were subscribed to the notion of innate superiority of males over females. He was also of opinion that the nuns should not be independent of monks, instead they were ever to remain dependent upon them for the performance of most of their ceremonies and for the . For Personal & Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Budhism & Social Justice 189 authorisation of them all. No doubt, these rules were enough to make nuns remebmer that they were inherently inferior to monks because of their gender. In an instance, Mahaprajapati Gotami requested the Buddha to apply the rule of seniority for the monks and nuns according to the relative statuses and not according to their sexes, it was turned down by Buddha. Buddha's attitude towards women is observed in Vinaya, where the Bhikkhus are represented as bringing their questions and defficulties directly to him but the nuns had to represent through the bhikkhus. The number and position of nuns were fast declining in the Kuśāņa period (Chakraborthy 1973:222). Not only this, in early Buddhism women were generally regarded as unreliable faithless and no better than household possessions. It can be seen while advocating the cult of asceticism, where women are considered as the greatest obstacle in the path of virtue. The Saundarananda of Ashvaghosha makes Buddha pronounce that women are like envenomed creepers, like unsheathed swords and like dens of horribe reptiles. It is also to note that in early Mahāyāna female Bodhisattvas were very rare. In the Mahavagga the Buddha advises Ānanda not to see women, and if it beomes necessary then not to speak to them; and if it become necessary to speak, then to keep wide awake (Indra 1940:223) Buddha cherished the ideal of the subservience of wife as he had described seven kinds of wives. Four of these as virtuous, who act as mother, sister, companion and slave, they go to heaven, the remaining three kinds of non-virtuous wives behave like slayer, robber or mistress, they go to hell. As a result of his teaching, Sujata, the daughter-in-law of Anādhapindika chose to become a slave like wife. These are few instances which focus on the status of women in Buddhism. One can not firmly say that women really were as equal as men. The motion of social justice to women thus, is not very clear. Let us now turn to the social justice towards slaves in the society, Buddhist literature is full of references to the existence of slavery as a social institution. He himself was served by slaves and suggested a code of conduct for them too. These codes merely exhorted the master to be merciful to their slaves (Sinha 1983 : 83) The entire Triptaka is free from any suggestion for their betterment. Rather he is said to have For Personal & Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 * als 9f-esta, Heala sie beill consoled them that their pitiable condition was because of their past deeds. Though Buddha had suggested some rules to elevate the conditions of slaves and also expected slaves to be loyal towards there masters. In this way he had been instrumental in suppressing social discontent instead of really bothering for the eradication of slavery. The foregoing discussions suggest us to believe that although Buddhsism focused on liberty, equality and fraternity, it could not take proper shape in the society. It seems that Buddha had been much more concerned about the ethical betterment of his followers and not in the social problems of the day. To him, suffering and 'pain'in caste system, slavery status of women and other deformed social insitutitons were not individual or social in nature, but it was spirtual in nature which need to be resolved spritually. On social ground his concept of social justice was confined duly towards social forces in the struggle against Brahminism and not towards wider realm of social justice in the society.. . References Nayar, P.K.B. 2008 Social Justice in a Globalised world : Encounters with state and civil society', Sociological Bulletin Vol 57 No. 1. Rhys, Davids 1926, Buddhism : Its History & Literture, London Ambedkar, B.R. 1987 Dr Babasaheb Ambedkar : Writings and speeches (Vol. 1-V) Mumbai, Govt. of Maharashtra Fick, R., 1920 The social organization in North-East India in Buddha's Time, Calcutta Horner, I.B. 1975 Women under Primitive Buddhism, Delhi. Narasu P. Lakshmi. 1976, The essence of Buddhism, Delhi Joshi, L.M. 1970 Brahmanism, Buddhism & Hinduism, Kandy Chakraborty, H. 1973 Asceticism in Ancient India, Calcutta. Indra , 1940 The Status of Women in Ancient India, Lahore Sinha, B.P. 1983, 'Early Indian Buddhism as a factor of social change' in Madhu Sen (ed.) Studies in Religion & Change, Delhi. - Department of sociology J.N. Vyas University, Jodhpur For Personal & Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Four Brahmvihāras of Buddhists: An Excellent Portrayal of Sublime Human Psychology Dr Kamla Jain Buddha has talked about four sublime states of mind of chitta which are great helping deviced of the purification and upliftment of the individual. They are called 'Brahmavihāras' which if practised fully well, help the individual to achieve the highest goal of Nirvāna. These are (i) Maitri (friendliness) (ii) Karuņā (compassion) (iii) Muditā (good will, joy or delight) and (iv) Upekṣā (indifferences). In the Buddhist ethics non-voilence or ’Pāņātipātata-veramanī' tops the list of pañcaśīlas called gahattha śīlas (those meant for householders). These śīlas from the essence of Buddhist ethics. The principle of non-violence has two sides. The positive and negative. The positive side of non-violence is very strongly reflected in the practice of these Brahmvihāras. They are infact, the psychological reasons behind non-violence. Sublime or Sublimated psychology is fundamental to ethics, more so to the ethics of non-violence. To put it succinctly, these Brahmavihāras are the best human disposition that we can discover in the very basic nature of human being. And when we develop them with the conscious efforts they take the form of ethical principles. In fact, from 'is' the 'ought grows or develops. The positive aspect is so essential or fundamental that the negative aspect emerges to protect the positive aspect. It grows in the form of the ability to discriminate the right from the wrong, And, thus both sides of non-violence i.e. the positive and negative become equally significant for our moral existence. The Brahmavihras are the greatest expression of positive aspect and of goodwill towards For Personal & Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192 • alles gof-esta, Hecklat oite one men or rather living beings which consist of four different levels or stages of mind. In our Indian ethical tradition they are also called bhāvanās. For a clearer picture of these 'Bramvihāras'a little discussion is required as to what they actually are and how they are termed as ethical principles and rightly so. However, as mentioned earlier, underneath them are the hidden psychological dispositions which come wrapped in the form of ethical virtues, which at a even higher stage are exalted spiritual qualities culminating in the ultimate spiritual goal of liberation, nirvāņa or nibbāņa. I intend to call it a journey (vihāra) from psychological make up to socio ethical ideal climaxing into the final stage of the spiritual goal. Maitrī is friendliness in positive terms and adosa or non-enmity in negative terms. Very simply it is directing or bestowing love to living creatures. It helps ones own self because it reduces adosa or hatred. It helps others on whom it is bestowed because he gets the feeling of satisfaction of being loved. Friendliness is a refined expression of the feeling of love and of gregarious instinct which involves (perhaps) a certain amount of choice but a choice not governed by self-interest. Thus, the ethical concept of maitri is distinguished from "rāga" or attachment which Indian moral thinkers including Buddhists would reject and call it a form of hindrance in proper ethical upliftment of the individual. Though rāga or attachment may show similar characteristics signs in appearance, but they lack what in Buddhism called 'right knowledge' or 'sammāditthi'. Buddhist philosophers point out that cultivation of this moral virtue. necessitates a great amount of constant alertness which is succintly put in one word sammādithi'. The second Brahmavihāra is ‘Karuņa' or compassion. It is aroused by seeing someone in distress. It means identifying one-self with another one who is in distress. In common parlance it is called 'softening of heart'. This is a stage of mind in which attitude of violence automatically subsides. Psychologically, it is an expression of the instict of racepreservation. An individual (not only human) psychologically grows with two equally important and simultaneous instincts of self-preservation and race - preservation. The term race is need not be understood and interpreted in sociological sense of class identify. Here, it simply means any one whom one can identify with at a particular time and place. It is For Personal & Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Four Brahmvihāras of Budhist ❖ 193 this compassion, sympathy, pity or empathy for those who need us at a particular moment of distress. Further 'compassion' or 'pity' is not to be understood in any sense which may justify in-equality in our socioeconomic world. It is simply an acceptance of a factual reality at a particular time which leads to arousal of a sublime emotion in individual that is not in use at that point of time. It is this, which takes the form of an ethical quality when there is conscious effort by an individual to cultivate it and sustain it. It requires a careful check and a balanced attitude by the individual lest it changes into śoka or avasāda (sorrow) which may lead his mind towards dullness or inability to act. This is a state of mind which is again a form of hinderance in the practice of genuine ethical principle. Such negative states of mind such as räga or attachment in context of maitri or śoka or avasāda in context of karuņā are only obstacles in the smooth journey of the individual from the psychological realistic behaviour to a chosen path of ethical conduct. "There is suffering'-the first noble truth of Buddha is the generative organ of this the feeling or virtue of compassion or karuņā for all sattvas (living beings) which is called sattvālambana karuņā by the Buddhists. The mahāyāna school goes further in enlogizing the concept of karuna or compassion which is a part of Bodhi or supreme knowledge. It takes the status of supramundane and is called Mahakaruṇā. Here from the ethical stage it reaches the metaphysical stage. Buddhist Sanskrit literature makes ‘karuņā' as powerful as bhakti is in Bhagvata cult. Just as bhakti is a means to attain liberation, so is karuņā essential to Mahabodhi. The third Brahmavihāra is mudită. Mudita may not appear very explicitly as a form of non-violence as the first two Brahmavihāras of maitri and karuņā do. Mudita means an expression of joy or delight. Joy is an emotion which is an expression of pleasantness indicating the existence of an attitude of acceptance and unpleasantness as an attitude of rejection. Pleasantness is prelude to joy or elation. Mudită in its ethical connotation is the expression of unselfish love. When one sees the achievements and the corresponding happiness of others, he feels one with them, rather than feeling jealous or envious of them. He feels he is sharing their happiness and feels as if their happiness is his own happiness, and also enhancing a kind of respect for respectables and virtuous. He wants to maintain others' happiness and thereby preserving For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 - alese erfesta, Hipla site chell and enhancing his own happiness. This is clearly a reflection of 'nonviolent attitude or an attitude of peace and solidarity. The ill-passion of hatred in this mental state naturally gets buried or at least gets suppressed, and soft-heartedness takes a front seat. It is a kind of behaviour / conduct partly unlearnt and partly acquired. One does not learn to feel joyous, it is somehow inborn. And it is in this sense that it is said that it is rooted in our psychological nature. But when we tame it and channelize it in proper context and deliberately guide and direct ourselves to feel joyous or delighted on others happiness or their acheivements it does not remain in its pure psychological form but changes into an ethical endeavour. And it is here, that we consciously decide to be away from attachment or ‘rāga' or 'arati' - which is the direct opposite of muditā. Thus, the sublime human emotion of joy reaches a higher stage of moral virtue or Brahmavihāra called muditā - The last one of the Brahmavihāras is upekṣā -(upekkhā). or indifference. At the very outset it may appear as a negative state of mind in the sense that it seems like lack of concern (or no concern at all) about everything including human beings. Can we call such a state as the acme of human virtues? The answer is ‘no'. Infact it is the culmination of positive effort of earlier stages, where the distinction of favourableness and unfavourableness does not remain even in the most extreme circumstances of sorrow or misery one remains absolutely unperturbed and remains at peace. Psychologically, it is not a state of lethargy or inactivity but a mental state of balance by which one is able to ignore the weakness of others. Thus, upekṣā is to be distinguished from indifference of those who lack right attitude and are unaware of the difference of right and wrong, or in other words are selfish or egotist. This is certainly a state of strong psychological preparedness leading towards greater ethical and spiritual endeavour. Hence, it is rightly, the last one in the four Brahmavihāras. Mahāyāna sect has discussed them in great details. As Sāntideva in Bodhicaryāvatāra has discussed them at great length. Buddhaghoșa has discussed them among forty 'kammatthānas' or the objects samādhi (concentration) in his Visuddhimaggo. An adept begins with concrete objects such as water, earth etc. which are called kasiņas, He then proceeds on to more abstract concepts like mettā, karuņā etc. this For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Four Brahmvihāras of Budhist, 195 suggests that they become objects of concentration only when the adept is more matured and is capable of higher level of concentration. To briefly summarize, these four Brahmavihāras are states of mind that erase ill mental modifications of rāga (attachment), dosa (hatred), īsāljealously) and asāyā (intolerance). Thus, they are the crucial stages in the ethical and spirtual ladder. It seems important, here to mention that these Brahmavihāras are not unique to Buddhists, though, as said earlier they are discussed at great length in Buddhism, but they very clearly occur in the same terminology in other systems of Indian thought especially in Jaina texts and Pātañjala yoga system. Among the Jaina texts Umāsvati's Tattvārthasūtra', Hemcandra's Yogaśāstra’, Haribhadra's Yogaśataka need mention. They are called bhāvanās which have very important role to play in stability of the principle of non-violence. Therefore they need to be cultivated and practised. In the main Agama texts also they are found scattered in various places. Likewise Pātñjala Yógasūtras also discuss these bhāvanās with the same terminology. Thus, it is clear that these Bhāvanās or Brahmavihāras have a place of universal acceptance in the ethics of Indian tradition showing that they have the same originating source. In the end, I would like to re-emphasize that unless we psychologically feel and are strongly inclined to do a moral act, we will not do it. Thus, psychological and moral conduct are so intertwined that it is difficult to separate the two. However, they are still two separate entities. Moral conduct always begins with a mental state of awareness of “whether I do it or not. but lought to do it.” This is only to reassure us about the fact that how nature and nurture completes an individual being and how they are complimentary to each other. -B 5/52 Azad Apartments Shri Aurbindo Marg Opp. IIT Gate, Delhi-110 016 1. Tattvarthasūtra 7.6 2. Yogaśāstra - 4.1.17 · 3. Pātañjala Yogasūtras - 1.33 For Personal & Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dharmakīrti : The Advocate of . Bāhyārtha-Astitva-Vāda Dr Sushma Singhvi The Paper examines whether Dharmakirti was an advocate of Vijñāna-Vāda like his own teacher Dharma-pāla or a follower of the Šunya-vāda of Mādhyamikas. The four causes of perceptual cognition as propounded in the Nyāya-bindu by Dharmakirti have been well considered in order to substantiate his belonging to the school of BĀHYĀRTHA-ASTITVA-VĀDA-External objects existence. It is further established that although the Yogācāra school accepts only consciousness and not the existence of external objects, yet it does accept such an existence through implication or upacăra. The definition of valid - cognition as ‘Pramāņam avisamvādi-jñānam'given in Pramāņa-Värttika proves the above hypothesis because without accepting the existence of external objects the non in-consistency of object remains an impossibility. Dharmakīrti, in the Pramāņa vārtika, has spoken of svalkşaņa as parmārtha sat because of Artha-kriya-saktatva; this is also an additional proof. The attemps made by Indian tradition, to assess Dharmakirti as Mādhyamika, have not produced sufficient evidence to prove their point. One of the reasons for Dharmakīrti's being follower of external object's existence may be his belonging to the Tīrha-mata and his deep knowledge of Vaiśeșika philosophy. Inspite of the fact that Dharmakirti was desciple of Dharma-pāla, who advocated the Yogācāra system i.e. Vijñānavāda and therefore many scholars opined that Dharmakīrti was also a follower of Vijñānavāda as For Personal & Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dharmakīrti, The Advocate of Bāhyārtha-Astitva-Vāda • 197 his guru, yet I would like to place that Dharmakīrti was neither a Vijñānavādin of Yogācāra system nor a Sūnyavādin of Madhyamika system, but he was a follower of external objects' existence (BāhyārthaAstitva-Vādin). Dharmakirti accpet four basic forms of perceptual cognition :-(1) Indriya-Jõānam-Perceptual cognition through sense-organs. When we perceive an object such as ‘Jar', the jar (object) itself is the cause of perception. This type of perception is known as Ālambana pratyaya because of the fact that it depends on external objects. Light is the second cause of eye perception, because in the absence of the light eye cannot perceive a jar. Light is consdiered as an auxiliary cause Sahkāri Pratyaya. Third reason is the sense organ. This is known as Adhipatipratyaya. Aceptence of Alambana-pratyaya proves our hypothesis. According to vijñānavādin ‘Jar' object is not real and independent to the experience i.e.'objects are Vijñānākāravićeśāsḥ', but Dharmottar explains - 'grāhyo hi artho vijñānam janayan-niyatapratibhāsam Kuryāt.' The form of object limits the image of vijñana hence the object is the cause for ‘sādņśya’or 'vijñānākāratā'because object is having real external existence. (i) Mano-vijñānam - Mano-vijñānam means Manaḥ pratyakşa or mental-perceptual-cognition. The difference between mano-vijñāna and indriya-jñāna is that in mano-vijñāna conciousness of senses becomes the Alambana while in Indriya-Jñāna jar etc. Object becomes Alambana. The potentiality of our thinking capacity, without which we do not perceive, inspite of our open eyes, is the fourth cause. This is known as ‘manas' in comparison to the other non Buddhist school of Indian philosophy. This mano-vijñāna is also known as Samanantara pratyaya. (iii) Atma-Samvedanam or Sva-Samvedanam-It amounts to the manifestation of all cittas (which accept the objects) as well as caittas (which accept the happiness etc. instincts.) I may mention that belonging to the school of Bāhyārtha-Astitvavāda Dharmakīrti accepts two divisions of each object - (a) External (b) Internal. When an external reality such as a patch of colour is apprehended, . For Personal & Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 • ales festa, wiela Bite till we at the same time feel something internally in the shape of well being which is different from the object or patch of colour. It is not that blue colour is felt as being itself the pleasure ( it affords us.).' The external object is further divided into two - (1) Bhūta : (First four substances : earth etc. are of atoms). (2) Bhautika : (the form, colour as well as an eye etc.) Internal object is divided into two :(1) Citta :( It stands for Vijñāna or conciousness) (2) Caitta (It stands for Pañca Skandha:Rupa, Vedanā, Vijnăna sanjñā, Samskāra). The vijñāna of Panca Skandha is of two types-first (Alaya-Vijñna. i.e. the idea of I (aham) and the second is Pravșttivijñāna-which is produced from the sense organ and makes rūpa etc. as its object. (iv) Yogi-Jõānam : The knwoledge of a yogin culminates to the highest degree of perception of existent object only (Sad-bhūta-padārtha). 'bhutaḥ sadbhuto (a) rthaḥ’, Reality is something really existing.' 'Tasmāt paryantād yajjāte bhāvyamānasya arthasya sannihitasya iva sphuţatarākāra grāhijñānam yoginaḥ pratyakşam.? The culminating point of such contemplation means the point when our mind containing the image of contemplated object begins to reach a condition of clarity as though the facts were present before the meditator. The perception of non existent objects (Asadbhūta padārtha) remains an absolute impossibility for yogi-prtyakṣa in Buddhism. In this connection I put forward four textual evidences from the Nyaya-bindu of Dharmakīrti : (i) “Indriya-jñānam” (ii) “Svaviṣayānantara-visaya-sahakāriņendriya-jñānena samanantarapratyayena janitam tanmanovijñānam." (iii) “Sarva-Citta-Caittānām ātmasamvedanam" (iv) 'Bhūtārtha-Bhāvanā-prakarsa paryantajam yogi-jñānam ceti." The above mentioned statements of Nyāyabindu pose a question whether Dharmakīrti was Vijñānavādin or Bāhyārtha-astitva-vādin? It's 1. NBT 1.11, p. 65. 2. NBT 1.11, p. 65. 3. NB Sutra 1.8-11, p. 55-62 For Personal & Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dharmakirti, The Advocate of Bāhyārtha-Astitva-Vāda • 199 true that the Yogācāra school of Buddhism accepts only the conciousness (Vijñāna) and not the existence of external objects. However Yogācāra school does accept the existence of external objects through implication (upacāra/lakṣaṇa). Even if for the sake of argument we accept Dharmakirti as a follower of Vijñānavāda, We are left with no other choice, but to accept all the words of Nyaya-bindu denoting the existence of external objects as implied ones, but from all the four statements mentioned above, it does not so appear. In the whole text of Nyayabindu we do not find a single reference to the word upacāra. Therefore it does not seem reasonable to accept that Dharmakīrti was a Vijñānavādin. The Satement about perceptual cognition given by Dharmkīrti in Nyayabindu clearly indicates that perceptual cognition is free from the impact of Kalpanā or ākāra or pratīti and it is reliable "Tatra pratyaksm kalpanāpoďhamabhrāntam”.4 Without accepting objects as real and external, perceptual cognition mentioned here cannot be reliable and free from the impact of Kalpanā. If the object perceived is taken as only vijñānākāraviśeșa and not real external by Dharmakīrti, he would not have stated as above. When one perceives a jar then awareness of a jar object as well as awareness of one self (adhyavasāya) remains there; he experiences ‘ghațamaham jānāmi'. Therefore svasmvitti also culminates to the dvaita of subject and object's different entity : 'Yatra hi vyavahartsņām arthādhyavasāyaḥ so'rtham svalaksaņam sāmānyam vā syāt.' .. The definition of valid cognition as 'Pramāņam avisamvādi jñānam's, stated in pramāņavārttika text proves that Dharmakīrti was a follower of external objects' existence, because without accepting the existence of external objects the non-inconsistency of objects remains an impossibility. ‘pramāṇamavisamvādi-jñānam' this definition is famous and sāmvyavahārika (not pāramārthika) in Bauddha Pramāņaśāstra. Avisamvādi does not mean ‘abhrānta'. In Dharmakirti's opinion 4. NB 1.4, p. 325. PV I.1. p. 3 For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 • ales of-eata, pitala Site Spell 'bhrāntajñāna' may be ‘avisamvādi as in inference. In Dharmakīrti's opinion 'avismvādana' means 'arthakriyāsthitih” Dharmottar, the commentator of Nyaya-bindu has explained ‘avisamvādakatva' in detail. He puts simily that as a person is called 'samvādaka' when he perceives an object already put to be known, in the same way cognition is also 'samvādaka' due to its capability to put to know the object by an observer. Capability means cognition is only an instrument in inspiring the person to perceive the object shown/known by cognition itself. Cognition does not create any object and cannot compell forcefully to an observer to perceive, yet it is a cause. This is called the 'prāpakatā or prakāśarūpatā or jñāpkatā of jñāna. Explaination on arthkriyāsthiti. in pramāņavārtikabhāșya by Prajñākaragupta also confirms that non-inconsistency of jñāna is cognition which is not possible without accepting bāhyārtha-existence. Manorathanandi, the vșittikāra of Pramāņavārttika says that state of action according to known/shown object is non-inconsistency, and this is the validity of cognition; because it is neither necessary that a person will work accordingly after knowing the object and nor while working for the object, due to any obstacle, he will have the same, hence jñāna is pramāņa, because it shows the known object, this is treated as the proof for non-inconsistency of pramāņa. According to Manorathnandin, this ‘non-inconsistency' definition of pramāņa is accepted equally by both the Bauddhas, one who advocate external object's existence and another Vijñānavādins - who deny external object's existence - "etatccāvisaṁvādanam bāhyarthetaravādayoḥ samānam pramāṇalakṣaṇam vijñānanaye-pi sādhananirbhāsa jñānāntaramarthakrityanirbhāsajñānameva samvādah." Durveka Misra has also supported Dharmottar's view." 6. ayathābhiniveșeņa dvitīyā bhrantirișyate', PV II/55 (7. arthakriyāsthitiḥ avisamvādanam', PVI/3 8. .....na hi purusam hathāt pravartayitum saknoti vijñānam.', NBT I.1 9. ...pramāņayogyatālakṣaṇasyāvisam vādasya satvāt', • Prmāņavārttika (Manorathanandi), 1/3. 10. Pramāņvärttika, (M.N.) 1.3. 11. Avisamvādakam Pravștti vişayavastuprarūpakam samyagjñānmiti Dharmottarpradipa, P. 17 For Personal & Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dharmakirti, The Advocate of Bähyärtha-Astitva-Väda 201 In Dharmakirti's opinion unknown object is the subject of pramāṇa'ajñātārthaprakāśo vā" This also proves that he was the follower of the doctrine of the external objects existence. Even if we trace back to Dharmakirti's statement on the twofoldness of cognition, it is related to the two-foldness of the respective objects, 'mānam dvividham viṣayadvaividhyāt" i.e. svalakṣaṇa sāmānyalakṣaṇa. In Nyaya-Bindu, the description about svalakṣaṇa and sāmānyalakṣaṇa is given in the form of 'Bahyartha'." 13 Sva-lakṣaṇa is stated as pramartha-sat due to artha-kriyaśaktatva. "arthakriyāsamartham yat tadatra pramarthasat anyat samvṛtisat proktam te sāmānasvalakṣṇe. "14 Prameya is devided into two śakta and aśakta. Śakta is reffered to paramartha sat and aśakta is as samvṛtisat. Pramāņa-Vārtika describes two types of ojbects according to arthakriyāśakti and its absence: "mānam dvividham viṣayadvaividhyāt. arthakriyāyām saktyasaktitaḥ."15 Here it is important that Dharmkirti does not emphasize the twofoldness of objects on the basis of two-foldness of valid cognition rather, on the contrary to this, he has stated two foldness of valid cognition due to the twofoldness of objects. It clearly indicates the belief of Dharmakirti in external objects existence. Svakṣaṇa as an object is comprehended through perceptual cognition while sāmānya-lakṣaṇa as an object through inference. Here it will be important to note that Naiyayikas hold the view of pramāṇa-samplava i.e. no valid cognition is isolated from each other. Though each type of valid cognition is generally to enable us to comprehend some particular feature/object yet Naiyayikas beleive that the same kind of comprehension be made through alternative type of valid cognition also "Pramātuḥ pramātavya arthe pramāṇānām sambhavo abhisamplavaḥ, asambhavo vyavasthiti" (Vātsyāyana, 12. NB, II. 1, p. 98. 13. (a) Yasyarthasya Sannidhänäsannidhānābhyām jñānapratibhasabhedastat svalakṣaṇam, NB, I.13. (b) 'anyat samanyalakṣaṇam', NB, 1.16. 15. PV, II. 1, p. 98. 14. PV, II.3. - For Personal & Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 altese ef-esta, fiipra site hell Nyāyabhāșya) Dharmakīrti has ruled out the possiblity to know any type of object with the help of any type of valid cognition, because it is redundant and dispensable.. A second thought should be given for deciding the school of Dharmakīrti, to which he belonged to, Nyāya-bindu should not be ignored. Categorical presentation is made as under :Vijñānavadin's objection: Existence of the external object, independent to the subject or vijñāna, is known when it is perceived hence external objects existence is not real. It is the reality of experience of knowing only. The Objects exist because they are knwon. Dharmakīrti answers: 1. 'ete niyatasya arthasya pradarsake tena te (pratyakşamanumānam-ca) pramāņe nanyd vijñānam. 16, 2. ‘arthasya ca pratibhāsahetutvāt niyatam pratibhāsam.'17 3. ‘arthasarupyamasya prmāņam'18 4. 'tat sārūpyatadutpattibhyām viņayatvam'. There are two things - (a) cause of the knowledge (b) cause of the existence of the object (thing) itself. Reality of external objects common to all minds is easily proved. Cognition and object are two different identities. 4. 'jñānasahaburevārtho bhogyatvāt sukhādivat'-external objects are also co-existentive with their cognitions. Above references prove that Dharmakīrti was an advocate of 'Bahyārtha-Astitva-Vāda' and not of Vijñānavāda. There is not a single passage in Dhramakīrti's works that should be understood as a statement of unmistakably Madhymika character and content. Ernest steinkeliner (vienna)" also concludes that there is no sufficient evidence to prove Dharmakīrti as a Madhyamika. 16. NBT, I.1;12 17. NBT,1.5 18. NB, 1.20 19. "Is Dharmakirti a Madhyamika", Earliest Buddism and Madhymika (Ed.) Davidseyfort ruegg and Lambest schmithausem. Leiden, 1990, p. 92 For Personal & Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dharmakirti, The Advocate of Bāhyārtha-Astitva-Vāda 203 The statement of Jitari and Mokşakaragupta and their quotations from Dharmakīrti are being examined first for assessing the assumptiom for Dharmakirti being Mädhyamika “Astu atha Tatha" This phrase of admittance in the resignatory mode and with the purpose to avoid the ration of a new theme, must have been understood by Jitari as a statement affirmative to the Mādhyamika ways of defining the two realities (Satyadvya). "asaktam sarvam iti cet bījāderankurādișu. dệstā saktirmatā sā cet samvartyastu yathā tathā.20 Objection : everything is inefficient. Answer : The efficiency of the seed and other (Causes) is seen in the sprout and other (effects). Objection : This (efficiency is understood in terms of the conventional (truth). Answer : Be it as it may (we are not interested in discussing this here). In conclusion it can be stated that clear admittence of a Mādhyamika interpretation of reality cannot be found in Dharmakīrti and he is not a staunch follower of Vijñānavād. On the contrary to this, the text of Pramaña-vārttika and Nyāya-bindu are full of statements which prove Dharmkīrti as a follower of the doctrine of external objects' existence. . Bibliography Primary Literature NB: Nyaya-bindu' (Dharmakirti) : (ed.) Shrinivasa Shastri, Sahitya Bhandara, meerut, 1975 NBT Nyaya-bindu-tika (Dharmottara): (ed.) Shrinivasa Shastri, Sahityagara meerut, 1975 DP Dharmottara-pradeep (Durvekamisra): KPJ Res. Ins. Patna, 1955. · Pramana-vārttika (Dharmakirti) : (ed.) D.D. Shastri, Bauddha Bharti, Varanasi, 1931. PVT ... Pramāņa-vārttika-vịtti (Monorathanandi): (ed) D.D. Shastri Bauddha Bharati, 20. PV,1.4. For Personal & Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 alles ef-eta, hala Bite Sac Varanasi, 1984 BLI & II Bauddhist Logic (Th. Stcherbatsky), Vol. I & II Dover Publications, New York, 1962. DN (2) Dharmakirti Nibandhavali (2) : Vada-Nyaya Sambhandha Parīksā ca (Dharmakirti) : (Ed.) D.D. Shastri Bhaddha Bharati, Varanasi, 1972 TS I&II Tatva-Samgraha (Santarksita): Part 1& II (ed.) D.D. Shastri, Bauddha Bharati, Varanasi, 1981. PM Pramana-Mimāmsā (Hemacandra): (Ed) Sukh lal Sanghavi, Bhartiya Vidya Bhawan, Bombay, 1939 Modern litrature Buddhist Logic: A fresh study of Dharmakirti's philosophy (Dr. Lata S. Bapat) Bhartiya Vidya Praksana Delhi 1989 The Philolsopy of Nyāya Vaisesika and its conflict with the Buddhist Dignāga school (D.N. Shastri) : Bhartiya Vidya Prakasana Delhi 1964 Earliest Buddhism and Mādhyamika (ed.) D.S. Ruegg & L. Schmithausen, New York, 1990. Studies in the Buddhist Epistemological Tradition (Ed.) Ernst Steinkellner, wein, 1991. - Director, Vardhmana Mahavir Open University, Regional Centre, Jaipur For Personal & Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्धरणानुक्रमणिका 40 106 162 94 132 108 १० 28 133 152 105 127 1. अकोच्छि मं अवधि मं, अजिनि मं 2. अज्ञानं कर्म तृष्णा च ज्ञेयाः 3. अणु-परमाणु दुःख-सुख, चंचल 4. अतीतयोब्बनो पोसो, आनेति । 5. अतो भावाभावान्तद्वयरहितत्वात् 6. अतो रुतं तस्य मुख सवाष्पं 7. . अत्तना चोदयत्तानं पटिमसेथ 8. अत्ता हि अत्तनो नाथो, अत्ता हि अत्तनो गति 9. अत्ता हि अत्तनो नाथो, को हि नाथो परो सिया 10. अथ ते प्रमाणसिद्धया प्रमेयसिद्धिः 11. अनिक्षिप्तोत्साहो यदि खनति . 12. अयमादो गृहान्मुक्त्वा भैक्षाकं 13. असुभा भावेतब्बा रागस्स पहानाय 14. असेखेन च सीलेन, असेखेन समाधिना 15. अस्ति ह्यालोचनाज्ञानं प्रथमं . 16. अस्तीति नास्तीति उभेऽपि अन्ता 17. आकाशयोनिः पवनो यथा 18. आचारः परमो धर्मः . 19. आत्मेति प्रज्ञपितमनात्मेत्यपि 20. आ पुत्रांसो न मातरं विमृताः 21. इति पि सो भगवा अरहं 22. इदं खो पन भिक्खवे, दुक्खं अरियसच्चं । जाति पिदुक्खा 23. इदं च रोगव्यसनं प्रजानां पश्यंश्च 24. इत्थिया हि सामिको अच्छादनं 25. . इत्येषा व्युपशान्तये न रतये 26. इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि 27. उट्ठानवतो सतिमतो . 142 63,65 132 156 113. 106 107 93 104 For Personal & Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला 28. ऋतुर्व्यतीतः परिवर्तते पुनः क्षयं 29. एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा 30. एथ तुम्हे कालामा, मा अनुरसवेन 31. एवमेसा कसी कट्ठा 32. एवं पस्सं, भिक्खवे, सुतवा 33. एवं पियो पृथु अत्ता परेसं, तस्मा न हिंसे 34. औरों को हंसते देखो 35. कम्मस्सका, माणव, सत्ता कम्मदायदा कम्मुना वत्तति लोको 36. 37. कल्याणमित्तो कल्याणसहायो, कल्याण सम्पवङ्को 38. कामं दृष्टा मया सर्वा 39. काले गाव : प्रसूयन्ते नार्यश्च 40. कृपणं बत थूथलालसो महतो व्याधभयात् 41. चक्षुर्विज्ञानसमंङ्गी नीलं विजानाति 42. चन्दनं तगरं वा पि उप्पलं अथ 43. चित्तनदी नामोभयतो वाहिनी वहति 44. चेतना चेतयित्वा च कर्मोक्तं 45. जायेदस्तं मघवन्त्सेदु योनिस्तदितवा 46. तं खो पन ते एतं पापकम्म 47. तं गौरवं बुद्धगतं चकर्ष भार्यानुरागः 48. तदेवमकृताकृताभ्यागमविनाशदोषप्रसंङ्ग 49. त्रिवर्गसेवा नृप यत्तु कृत्सनतः परो मनुष्यार्थं 50. तस्मा सक्खिभावत्थं पठमं अत्तान 51. दीपो यथा निर्वृत्तिमभ्युपेतो नैवावनिं 52. दुःख का करने सत्य निदान 53. दुर्लभं शान्तमजरं 54. दुष्कालेऽपि कलाव सज्जनरुचौ 55. द्वे मे भिक्खवे, अन्ता पब्बजितेन 56. धनिय, त्वं कुल्लं बन्धित्वा, महिं तरित्वा 57. न अत्तहेतु न परस्स हेतु न पुत्तमिच्छे 58. न खो सुखेन सुखं अधिगन्तब्बं 59. न जच्चा वसलो होति 60. न जातु कामः 61. नत्थि रागसमो अग्गि 621 नत्थि लोके रहो नाम 63. न देहो न जीवात्मा नेन्द्रियाणि For Personal & Private Use Only 108 25 11 20 25 125 164 169 169 101 169 114 ៩៩ ១៩ ៩៨៥ ៦៩ នឹ៩៩ ១៨ ខ្លី ៖ ៩៤ជន ទីជ 109, 159 64 .117 131 168 107 173 126 134, 158 162 144 134 156 102 110 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्धरणानुक्रमणिका - 207 132 40, 120 19 174 144 144 64 144 63 15 105 136 127 57 106 104 64. न सन्नासन्न सदसन्न चाप्यनुभयात्मकम् 65. न हि वेरेन वेरानि 66. ने हेते पोट्ठपाद, अत्थसंहिता 67. नात्मास्ति स्कन्धमात्रं 68. नामरूपनिरोधे च षडायतनसंक्षयः 69. नामरूपस्मिं असज्जमानं 70. नार्थं शब्दाः स्पृशन्त्यपि 71. नावजानामि विषयान् जाने लोकं 72. निब्बानं परमं वदन्ति 73. निर्विकल्पकं नामजात्यादियोजनाहीनं 74. निष्ठुर आदि पशुओं की विजित 75. नैःस्वाभाव्यानां चेन्नैः 76. न्यवेशि रत्नत्रितये जिनेन यः 77. पञ्च नीवरणांन समनद्वेन समर्थ 78. परदुक्खे सति साधूनं 79. पाचीनेक च चतुरो चतुरो 80. प्रज्ञामयं यस्य हि नास्ति 81. प्रज्ञाम्बुवेगां स्थिरशीलवप्रां समाधिशीतां 82. प्रत्यक्षं कल्पनापोढं नामजात्याद्यसंयुतम् . 83. प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं 84. प्राप्यते च यथा सत्यं तच्च 85. बुद्धानुरागादनुगम्य तस्य शास्त्रं च लोकस्य 86. भगवा जानं जानाति 87. मनो पुब्गमा धम्मा मनो सेट्ठा मनोमया . .88. मम कसिफलं भुजित्वा अपरज्जु 89. ममं वा, भिक्खवे, परे अवण्णं भासेय्यु 90. मुख्यो माध्यमिको विवर्तमखिलं 91. मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां 92. यत्कर्माज्ञानतृष्णानां त्यागान्मोक्षश्च 93. यत्रैषा कल्पना नास्ति 94. यथा पि कुम्भकारस्य कतं 95. यथा हि अंगसम्भारा 96. यथेक्षुरत्यन्तरसप्रपीडितो भुवि प्रविद्धो 97. यदा मम परेषां च भयं. 98. यदृच्छाशब्देषु नाम्ना विशिष्टोऽर्थ उच्चते 99. य पनानिच्चं, दुक्खं वा तं सुखं वा ति 63 114 114 • 104 18 110 120 131 . '138 106 64 126 For Personal & Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला 173 112 112 105 113 100. यं लोके पियरूपं एत्थेसा तण्हा 101. यश्च प्रतीत्यभावो भावानां शून्यतेति 102. यस्मा च, भिक्खवे, भिक्खु अत्तानं 103. यादिसं वपते बीजं तादिसं 104. यावदेव जाणमत्ताय पटिस्सतिमत्ताय 105. ये च खो केचि कायेन 106. येन कायेनोपलक्षितः कश्चिच्चित्तसन्तानः 107. यो च वस्ससतं जीवे दुस्सीलो 108. यो पाणमतिपातेति मुसावादं च 109. वासवृक्षं गुणवतामावासं 110. विकल्पयोनयः शब्दाः शब्दाः 111. विज्जाचरणसम्पन्नो, सो सेट्ठो 112. विहगः खलु जालसंवृतो 113. वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च 114. वेरं जयं पसवति, दुक्खं सेति 115. व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरति 116. सचे पिस्स सो सोण्डसहायो वा 117. सत्तेसु मज्झत्ताकारप्पवत्ति 118. सन्निधानमिवार्थानामाधानमिव 119. सब्बा दिसा अनुपरिगम्म चेतसा 120. सर्वत्यागश्च निर्वाणं निर्वाणार्थि 121. सर्वासु दिक्षु यावन्तः कायचित्तव्यथातुराः 122. सविकल्पकं नामजात्यादियोजनात्मकं 123. सव्वपापस्स अकरणं कुसलस्स 124. सीलेन च कामसुखल्लिकानुयोगसंखातस्स 125. सीलं बलं अप्पठिमं सीलं आयुधमुत्तमं 126. सुखी भवेयं दुःखी 127. सुप्पटिप्पन्नो भगवतो सावकसङ्घो 128. सेलो यथा एकघनो वातेन न 129. स्वाक्खातो भगवता धम्मो सन्दिट्ठिको 130. हिताकारप्पवत्तिलक्खणा मेत्ता 131. हेतु प्रत्ययसामग्र्यां चं पृथक् 128 128 108 24, 27, 36 ., 144 62 112,130 For Personal & Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादक - परिचय डॉ. धर्मचन्द जैन, जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर के संस्कृत-विभाग में सन् 2001 से आचार्य हैं। वे बौद्ध अध्ययन केन्द्र के संस्थापक निदेशक (2006-2011 ) एवं संस्कृत विभाग के अध्यक्ष (2009-2012 ) रहे । डॉ. जैन ने बी. ए. ऑनर्स (संस्कृत) तथा एम. ए. (संस्कृत) की परीक्षाएं राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से स्वर्णपदक के साथ उत्तीर्ण की। शोधकार्य भी इसी विश्वविद्यालय से पूर्ण किया । आप सन् 1981 से राजकीय महाविद्यालयों में तथा 1992 से जोधपुर विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य कर रहे हैं। भारतीय दर्शन एवं जैन विद्या के साथ प्राकृतभाषा आपके विशिष्ट क्षेत्र हैं। आप राजस्थान संस्कृत अकादमी के अम्बिकादत्त व्यास पुरस्कार (1991), युवा प्रतिभा शोध सम्मान (1994), चम्पालाल साण्ड स्मृति पुरस्कार (1997) आचार्य हस्ती स्मृति सम्मान (2001) आदि पुरस्कारों से सम्मानित हैं । 'बौद्ध न्याय पर आपकी पुस्तक 'बौद्ध प्रमाणमीमांसा की जैन दृष्टि से समीक्षा' 'बौद्ध दर्शन में प्रमाणमीमांसा' प्रकाशित हैं तथा अनेक पुस्तकें सम्पादित हैं, यथामानवजीवन और स्मृतिशास्त्र, बौद्धदर्शन के प्रमुख सिद्धान्त, बौद्धेतर दर्शनग्रन्थों में बौद्धदर्शन, अंतगडदसासूत्र, बृहत्कल्पसूत्र, जीव- अजीव तत्त्व, पुण्य-पाप तत्त्व, आस्रव - संवर तत्त्व, बन्ध-तत्त्व, निर्जरा - तत्त्व, मोक्षतत्त्व, दुःखरहित सुख, सकारात्मक अहिंसा, सम्यग्दर्शन : शास्त्र और व्यवहार, क्रियोद्धार अंक, जैनागम विशेषांक, प्रतिक्रमण विशेषांक (जिनवाणी पत्रिका), नमो पुरिसवरगंध ( आचार्य हस्ती - जीवनग्रन्थ), गुरुगरिमा और श्रमणजीवन ( जिनवाणी विशेषांक), अहिंसा निउणा दिट्ठा, नमो गणिगजेन्द्राय आदि। आप सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर से प्रकाशित जिनवाणी मासिक पत्रिका के मानद् सम्पादक हैं। आपके लगभग 50 शोधालेख प्रकाशित हैं तथा देश के विभिन्न नगरों में जैनदर्शन पर आपके व्याख्यान होते रहते हैं। आपने हांगकांग (1995), लन्दन (2006 एवं 2013) तथा नेपाल (2013) की अकादमिक यात्राएं की हैं। आपने हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी एवं प्राकृत भाषाओं में लेखन किया है। For Personal & Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्ध-वाणी यदा तुम्हे कालामा, अत्तनाव जानेय्याथ-इमे धम्मा अकुसला, इमे धम्मा सावज्जा, इमे धम्मा वि गरहिता, इमे धम्मा समत्ता समादिन्ना अहिताय दुक्खाय संवत्तन्ती ति अथ, तुम्हे कालामा पजहेय्याथ। - केसमुत्ति सुत्त जब तुम स्वानुभव से अपने आप ही यह जानो कि ये बातें अकुशल हैं, ये बातें सदोष हैं, ये बातें विज्ञपुरुषों द्वारा निन्दित हैं, इन बातों पर चलने से अहित होता है, दुःख होता है-तब हे कालामो! तुम उन बातों को छोड़ दो। ___ममं वा, भिक्खवे, परे अवण्णं भासेय्युं, धम्मस्स वा अवण्णं भासेय्यु, संघस्स वा अवण्णं भासेय्यु, तत्र तुम्हेहि न आघातो न अप्पचयो न चेतसो अनभिरद्धि करणीया। ममं वा, भिक्खवे, परे अवण्णं भासेय्युं, धम्मस्स वा अवण्णं भासेय्युं, संघस्स वा अवण्णं भासेय्युं, तत्र चे तुम्हे अस्सथ कुपिता वा अनत्तमना वा, तुम्हं येवस्स तेन अन्तरायो। __ - दीघनिकाय, सीलक्खन्धवग्ग, ब्रह्मजालसुत्त बुद्ध कहते हैं - हे भिक्षुओं! कोई मेरी या मेरे धर्म या संघ की निन्दा करे, इस कारण तुम्हें उसके प्रति न वैर करना चाहिए, न असंतोष और न क्रोध ही / हे भिक्षुओं! यदि कोई मेरी, धर्म तथा संघ की निन्दा करे, उस पर तुम वैर, असंतोष या क्रोध प्रकट करोगे तो इससे तुम्हारी धर्म साधना में विघ्न पड़ेगा। अतः तुम्हें निन्दा करने वाले की बात पर विचार करना चाहिए कि उसमें कितना सत्य है और कितना असत्य / सत्य को स्वीकार कर, असत्य को मिथ्या समझकर त्याग देना चाहिए। असुभा भावेतब्बा रागस्स पहानाय, मेत्ता भावेतब्बा व्यापादस्स पहानाय, अनिच्चसा भावेतब्बा अस्मिमानसमुग्घाताय। - विसुद्धिग्ग, कम्मट्ठ नग्गहणनिदेस व्यक्ति को राग के प्रहाण के लिए अशुभ की भावना करनी चाहिए, द्वेष के प्रहाण के लिए मैत्री की भावना करनी चाहिए और अभिमान अहंकार को दूर करने के लिए अनित्यसंज्ञा की भावना करनी चाहिए। परदुक्खे सति साधूनं हृदयकम्पनं करेतीति करुणा -विसुद्धिमग्ग, ब्रह्मविहारनिद्देसो पर दुःख को देखकर सत्पुरुषों के हृदय में जो कम्पन्न होता है, वही करुणा है। For Personal & Private Use Only