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________________ वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पंचशील की प्रासंगिकता * 111 अद्भुत है शील का कवच। __ शील का अर्थ है - 'सब्बपापस्स अकरणं' अर्थात् सभी पाप कर्मों को नहीं करना। धर्म मार्ग में अग्रसर होने के लिए शील धारण करना आश्यक है। शील को धारण करने से दुर्वासनाओं से जन्य दुष्कर्मों से दूर रहने के कारण भय और चिन्ता से मुक्ति होती है। शील के पश्चात् समाधि की क्रिया प्रारम्भ होती हैं। समाधि के द्वारा पुराने क्लेश नष्ट होते हैं और प्रज्ञा प्रकट होती है। प्रज्ञा द्वारा तृष्णा और वासनाओं से मुक्ति मिलती है। बौद्ध धर्म में भिक्षु और गृहस्थ दोनों के लिए शील का विधान है, जिनका पालन करना उनका पहला कर्त्तव्य है। वे पञ्चशील निम्नलिखित हैं - 1. पाणातिपाता वेरमणी -प्राणिहिंसा से विरत रहना। 2. अदिन्नादाना वेरमणी - अदत्तादान (चोरी) से विरत रहना। 3. कामेसु-मिच्छाचारा वेरमणी - व्यभिचार से विरत रहना। 4. मुसावादा वेरमणी - मिथ्यावचन से विरत रहना। 5. सुरा-मेरय-मज्ज-पमादट्ठाना वेरमणी - शराब, मदिरा आदि नशे तथा प्रमादकारी वस्तुओं से विरत रहना। पञ्चशील के अतिरिक्त भिक्षुओं के लिए अन्य पाँच शील का भी उपदेश है - 1. अपराह्न में भोजन ग्रहण, 2. मालाधारण का त्याग, 3. संगीत का त्याग, 4. सुवर्ण, रजत का त्याग, 5. महार्घ शय्या का त्याग। इस प्रकार भिक्षु के लिए 10 शीलों का प्रावधान है। चतुर्थ आर्य सत्य के रूप में तथा प्रज्ञा शील-समाधि रूपी त्रिशिक्षा के रूप में कथित आष्टांगिक मार्ग में भी 'शील' का समावेश है। इनमें सम्यक् वाक्, सम्यक् कर्मान्त और सम्यक् आजीव शीलाचार में परिगणित है। उसका स्वरूप इस प्रकार है. सम्यक् वाक् - हमारी वाणी सम्यक हो। सम्यक् से तात्पर्य है असत्य से दूर रहना, किसी की निन्दा न करना, सदा सत्य बोलना, कठोर भाषा का प्रयोग न करना, निरर्थक वार्तालाप से दूर रहना। अर्थात् वाणी के चार प्रकार के दोषों - 1. मिथ्यावादिता 2. निन्दा 3. अप्रिय वचन एवं 4. वाचालता से दूर रहना एवं मंगलमय, मित तथा मधुर वचनों का प्रयोग सम्यक वाक् है। सम्यक कर्मान्त - मन, वचन व शरीर के द्वारा किए जाने वाले कार्य सम्यक रहें, अर्थात् सम्यक् संकल्प केवल मानसिक एवं वाचिक न हो, अपितु कर्मरूप में परिणत हो। प्राणियों को हिंसा, चोरी, व्यभिचार व छल-कपट का मार्ग छोड़कर शुभ कमों का आश्रय 3. खुद्दक पाठ 2.2, दससिक्खापदं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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