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वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पंचशील की प्रासंगिकता
डॉ. प्रभावती चौधरी
मनो पुब्बंगमा धम्मा मनो सेट्ठा मनोमया मनसा च पदुद्वेन भासति वा करोति वा। ..
ततो दुक्खमन्वेति चक्क व वहतो पदं। 1 भगवान् बुद्ध ने चित्त या मन को समस्त साधनाओं का केन्द्र बिन्दु माना। चित्त साधना का पूर्वघटक एवं पूर्वगामी है, अतः वह साधना को प्रभावित करता है। चित्त समस्त मानसिक क्रियाओं का उत्पत्ति स्थल है। संसार में प्रवृत्ति का कारक भी मन ही है, इसी का विचार ब्रह्मबिन्दूपनिषद् में भी प्राप्त होता है -
न देहो न जीवात्मा नेन्द्रियाणि परन्तप।
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः। इन्द्रियाँ, देह आदि कोई भी मनुष्य के बन्ध एवं मोक्ष में कारण नहीं हैं, अपितु मन ही बन्धन एवं मुक्ति का हेतु है।
बुद्ध ने समाधि और शील द्वारा मन को वश में करना सिखाया, ताकि जब-जब मन में दुराचरण के भाव जागें तब तब मन को नियंत्रित करके उसे बुरे मार्ग पर जाने से रोकें। मन के संयमन के लिए शील का पालन वैसे ही आवश्यक है जैसे जीवन के लिए प्राण वायु। शील (सदाचार) हमारे जीवन में क्या स्थान रखता है, इसको पद्य रूप में इस प्रकार व्यक्त किया गया है -
सीलं बलं अप्पठिमं, सीलं आयुधमुत्तमं।
-सीलमाभरणं सेट्ठं, सील कवचमब्भुतं।। अप्रतिम है शील का बल, उत्तम है शील आयुध, श्रेष्ठ है शील का आभरण और
1. धम्मपद 1.1 2. धम्मवाणी संग्रह, विपश्यना विशोधन विन्यास, इगतपुरी,शील की महिमा, श्लोक 1
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