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________________ कृपणं बत यूथलालसो महतो व्याधभयात् विनिःसृतः । प्रविवक्षति वागुरां मृगश्चपलो गीतरवेण वञ्चितः।।" अश्वघोष के महाकाव्यों की प्रयोजनवत्ता 109 अर्थात् वह मनुष्य उस चपल मृग के समान है जो बहेलिये के भयङ्कर भय से निकल कर गीत की ध्वनि से वञ्चित होकर जाल में स्वयं फंसना चाहता है। (वाहिंसने उरच्गन् च) कवि अलंकारों के प्रयोग में अत्यधिक कुशल है । जरारूपी यन्त्र से सन्त्रस्त होकर मृत्यु की प्रतीक्षा करने वाले सारहीन शरीर की रस निचोड़े गये तथा जलाने के लिए सुखाये जा रहे ईख से की गयी उपमा कितनी प्रभावोत्पादक है - यथेक्षुरत्यन्तरसप्रपीडितो भुवि प्रविद्धो दहनाय शुष्यते । तथा जरायन्त्रनिपीडिता तनुर्निपीतसारा मरणाय तिष्ठति । । 7 इस प्रकार महाकवि अश्वघोष की अमृत निष्यन्दिनी लेखनी से प्रसूत बुद्धचरित और सौन्दरनन्द महाकाव्य में अवगाहन करने पर यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने जिन प्रयोजनों को ध्यान में रखकर इन काव्यों का प्रणयन किया है वे उनमें पूर्ण सफल हुए हैं। इन दोनों ही काव्यों के स्वाध्याय से अश्वघोष की वैदिक यज्ञानुष्ठान में प्रवीणता, अराड् द्वारा किया गया गौतम को उपदेश, महाभारत के सांख्य सिद्धान्तों में निष्णातता, तत्कालीन नीतिशास्त्र, कौटिल्य के अर्थशास्त्र, वैद्यक शास्त्र आदि उपयोगी विद्याओं में दक्षता का पता तो चलता ही है, मुख्य रूप से शील, समाधि और प्रज्ञा के द्वारा चित्तशुद्धि करके सभी समस्याओं के मूल तृष्णा से रहित होकर जीवन के परमपुरुषार्थ मोक्ष को किस प्रकार प्राप्त कर बुद्धत्वस्वभाव में पहुंचा जा सकता है, इसे समझाने में कवि अश्वघोष पूर्ण सफल हुए हैं। 16. सौन्दरनन्द 8.15 17. सौन्दरनन्द 9.31 Jain Education International - संस्कृत विभाग, जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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