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________________ 108 बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला मानवता के समग्र अवदात गुणों के पुञ्ज शाक्यवंश का अवतरण अश्वघोष ने हिमालय के उस तपः पूत आंचल में किया है जहां की वायु में भी वदान्यता एवं महत्ता का सौरभ बहना स्वाभाविक है। कवि ने कपिलवस्तु के वर्णन में जिन तत्त्वों का समाहरण किया है, उसे पढ़कर यह प्रतीत होता है कि स्वयं धर्म मूर्तिमान होकर अवतरित हुआ है तथा उसकी सहचारिणी समस्त ऋद्धि-सिद्धियां उसकी सेवा में उपस्थित हुई हैं। यहां कपिलवस्तु के लिए चयनित शब्दों पर दृष्टिपात आवश्यक है - सन्निधानमिवार्थानामाधानमिव तेजसाम् । निकेतमिव विद्यानां सङ्केतमिव सम्पदाम् ।।12 यह नगर गुणवानों का वासवृक्ष तथा पक्षियों का रैन बसेरा है वासवृक्षं गुणवतामावासं शरणैषिणाम् । आनर्तं कृतशास्त्राणामालानं बाहुशालिनाम्।।13 यहां कवि ने ‘वासवृक्ष' शब्द के प्रयोग से यह ध्वनित किया है कि वस्तुत: यह रैन बसेरा - डेरा है। इसी प्रकार तृतीयपद में 'कृतशास्त्राणाम् आनर्तम्' कहकर प्राणियों के लिए दिये गये मञ्च पर अभिनय कला को प्रदर्शित करने का स्थान बतलाया है तथा कृतविद्य महाशास्त्रार्थियों को भी उनकी अनित्यता का ध्यान दिलाया है। जीवन की क्षण-भङ्गुरता पर चिन्तन करता हुआ कवि कहता है - - ऋतुर्व्यतीतः परिवर्तते पुनः क्षयं प्रयातः पुनरेति चन्द्रमाः। गतं गतं नैव तु सन्निवर्तते जलं नदीनां च नृणां च यौवनम् ।।4 बुद्ध नन्द को उसकी इच्छा के विरुद्ध धर्मदीक्षा देकर भिक्षु बना देते हैं, अनिच्छुक नन्द के सिर के बाल उतार दिये जाते हैं और वह आंसू गिराता रहता है। अतो रुतं तस्य मुख सवाष्पं प्रवास्यमानेषु शिरोरुहेषु । वक्राग्रनालं नलिनं तडागे वर्षोदकक्लिन्नमिवाबभासे ।। 15 संन्यासी बनकर पुनः गृहस्थ बनने की सुन्दरनन्द की भावना पर कुठाराघात करता हुआ कवि अपनी भाव शुद्धि तथा मनोहर अनुभूति को प्रस्तुत करता हुआ कहता है - 12. सौन्दरनन्द 1.53 13. सौन्दरनन्द 1.54 14. सौन्दरनन्द 9.28 15. सौन्दरनन्द 5.52 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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