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अश्वघोष के महाकाव्यों की प्रयोजनवत्ता * 107 विपत्ति को देखते हुए भी संसार निर्भीक रहता है, अरे कितना अज्ञान है, इन मनुष्यों का, जो रोगभय से अमुक्त होकर भी हँस रहे हैं -
इदं च रोगव्यसनं प्रजानां पश्यंश्च विश्रम्भमुपैति लोकः।
विस्तीर्णमज्ञानमहो नराणां हसन्ति ये रोगभयैरमुक्ताः।। राजा के द्वारा नियुक्त विषयोपभोग का ख्यापन करने वाले उदायी के वचनों को सुनकर गौतम स्पष्ट कह उठते हैं -
नावजानामि विषयान्, जाने लोकं तदात्मकम्।
अनित्यं तु जगन्मत्त्वा नात्र मे रमते मनः।। मैं विषयों की अवज्ञा नहीं करता हूँ, संसार को उनमें रत जानता हूँ, किन्तु जगत् को अनित्य मानकर मेरा मन इसमें नहीं रम रहा है। राजा बिंबिसार के द्वारा त्रिवर्ग-प्राप्ति उपदेश पर गौतम कह उठते हैं - त्रिवर्गसेवां नृप यत्तु कृत्स्नतः परो मनुष्यार्थ इति तत्वमात्थ माम्।
अनर्थ इत्येव ममात्र दर्शनं क्षयी त्रिवर्गो न चापि तर्पकः।। पूरा त्रिवर्गसेवन परमपुरुषार्थ है। हे राजन्! यह जो आपने हमें कहा, इसमें मैं अनर्थ ही देखता हूँ। क्योंकि त्रिवर्ग नाशवान है और तप्तिदायक भी नहीं है। ...यज्ञों को प्रणाम है। मैं वह सुख नहीं चाहता जो दूसरों को दु:ख देकर प्राप्त होता है - ... नमो मखेभ्यो न हि कामये सुखं परस्य दुःखक्रियया यदिष्यते। . सौन्दरनन्द की कथा में बुद्धचरित से अधिक लौकिकता दिखाई पड़ती है, इसका एकमात्र प्रयोजन है - सांसारिक भोगविलास की नश्वरता दिखाकर बुद्धमार्ग की श्रेष्ठता का उपस्थापन। कथा एकदम सीधी है। अपनी प्रेयसी को जीवनसर्वस्व मानने वाले नन्द का प्रमुख शत्रु वही मन्मथ है जिसे अवाङ्मुख बनाकर गौतम बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्त किया था। अब गौतम बुद्ध नन्द को ज्ञानदीप द्वारा कामकर्दम से उबारते हैं। इस प्रसंग में एक ओर पत्नी के प्रति वज्र कीलायित अनराग और दूसरी ओर बुद्ध का दैवी आकर्षण नन्द को द्वन्द्व में डाल देते हैं। उसकी इस मन:स्थिति का वर्णन करते हुए कवि कहता है -
. तं गौरवं बुद्धगतं चकर्ष भार्यानुरागः पुनराचकर्ष।
सोऽनिश्चयान्नापि ययौ न तस्थौ तरंस्तरङ्गेष्विव राजहंस।।" यहां नन्द के हृदयगत भावों के मुखरण में कविवर्य ने अपनी मानव हृदय सम्बन्धी चुभती परख का परिचय दिया है।
11. सौन्दरनन्द 4.42
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