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106 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला
"प्रज्ञामयं यस्य हि नास्ति चक्षुश्चक्षुर्न तस्यास्ति सचक्षुषोऽपि बौद्ध धर्म में तृष्णा को ही सभी दु:खों का मूल माना गया है। यह तब होती है जब हम किसी अभीष्ट वस्तु को मूल्य प्रदान करते हैं -
अज्ञानं कर्म तृष्णा च ज्ञेयाः संसारहेतवः। .. स्थितोऽस्मिंस्त्रितये जन्तुस्तत्सत्त्वं नातिवर्तते।।' यत्कर्माज्ञानतृष्णानां त्यागान्मोक्षश्च कल्प्यते।
अत्यन्तस्तत्परित्यागः सत्यात्मनि न विद्यते।। ... उपादान का कारण तृष्णा है। जैसे हवा का साथ पाकर थोड़ी सी आग से जंगल प्रज्वलित हो जाता है वैसे ही तृष्णा से काम आदि महापाप वृद्धिंगत होते हैं। तृष्णा का कारण वेदना है।'
बौद्धदर्शन में अन्यत्र भी दुःख के निरूपण में तृष्णा को ही मूल बताया गया है -
इदं खो पन भिक्खवे, दुक्खं अरियसच्चं। जातिपिदुक्खा जरापि दुक्खा, मरणम्पि दुक्खं, सोकपरिदेवदोमनस्सुपामासादिदुक्खा, अप्पियेहि सम्पयोगो दुक्खो, पियेहि विप्पयोगो दुक्खो, यं पिच्छं न लभति तम्पि दुक्खं संख्यित्तेन पञ्चूपादानक्खन्धापि दुक्खा।
.. ___ इदं खो पन भिक्खवे, दुक्खसमुदयं अरियसच्चं यो यं तण्हापोनव्भविका नन्दिरागसहगता तत्र तत्राभिनन्दिनी, सेयमीदम् कामतण्हा,भवतण्हा विभवतण्हा...। इसके पश्चात् “इदं खो पन भिक्खवे, दुक्खनिरोधं अरियसच्चं सो तस्सायेव तण्हाय असेसविरागनिरोधो चागो परिनिस्सागो मुत्ति अनालयोno आदि वचनों के द्वारा तृष्णात्याग को दुःखनिवृत्ति का हेतु बतलाया गया है।
अश्वघोष ने अपने दोनों ही महाकाव्यों में सरल, प्रसादगुणोपेत और वैदर्भी रीति के माध्यम से संयतपदसन्निवेश किया है। दोनों ही रचनाओं में नायक का प्रतिद्वन्द्वी 'मन्मथ' अपनी उन्मादक वासना का जाल बिछाता है। राजकुमार सिद्धार्थ को सांसारिक पाश में बांधे रखने के लिए शुद्धोधन शृंङ्गार का मादक चन्दोआ तान देते हैं - ललनाएं अपना लालित्य एवं लास्य प्रकट करती हैं, अनवद्य वनितायें अपनी छवि बिछा देती हैं, तथापि गौतम स्वरूप में ही अवस्थित रहते हैं और कहते हैं कि प्रजाओं की इस रोगरूप
6. सौन्दरनन्द 18.35 7. बुद्धचरित 12.23 8. बुद्धचरित 12.73 9. बुद्धचरित 14.60, 61, 62 10. संस्कृति - डॉ. आदित्यनाथ झा अभिनन्दन ग्रन्थ 1969, दिल्ली
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