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________________ अश्वघोष के महाकाव्यों की प्रयोजनवत्ता * 105 अर्थात् प्रज्ञा ही जिसका जलप्रवाह है, स्थिर शील ही जिसके तट हैं, समाधि ही जिसकी शीतलता है और व्रत ही जिसके चक्रवाक हैं, उस प्रवृत्त उत्तम धर्म नदी के जल का वह प्रवर्तन करेगा और तृष्णा से पीड़ित जीवलोक उसके जल को पीयेगा। यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि बौद्ध धर्म उद्गम के सैकड़ों वर्ष पूर्व ही जैनधर्म के साथ श्रमणसंस्कृति का अवतरण हो चुका था और ये दोनों ही धर्म सम्प्रदाय मात्र तक सीमित न रहकर सर्वत्र भूमण्डल पर मानव जीवन के पथ-प्रदर्शक बने थे। जैसा कि नैषधीय चरित में जैन धर्म के प्रमुख विचारों 'सम्यक् दर्शन', 'सम्यक् ज्ञान' और 'सम्यक् चारित्र' में से सम्यक् चारित्र के अन्तर्गत सती धर्म का वर्णन करती हुई दमयन्ती कहती है - न्यवेशि रत्नत्रितये जिनेन यः स धर्म चिन्तामणिरुज्झितो मया। . कपालिकोपानलभस्मनः कृते, तदेव भस्म स्वकुले स्तुतं तया।। बौद्ध धर्म में साधना के तीन अंगों को प्रमुख स्थान दिया गया है - शील, समाधि और प्रज्ञा। इनमें शील का आधार नैतिकता -सदाचरण है जैसा कि बुद्धचरित के अराड् दर्शन नामक बारहवें सर्ग में कहा गया है - ... अयमादो गृहान्मुक्त्वा भैक्षाकं लिंगमास्थितः। समुदाचारविस्तीर्णं शीलमादाय वर्तते।।' समाधि में मानसिक विक्षेपों को दूर किया जाता है जैसा कि इसी महाकाव्य के छब्बीसवें सर्ग के 64 वें श्लोक में वर्णित है कि अपने भावों को सम तथा चित्त को नियन्त्रित करते हुए संसार के उदय और व्यय को जानो और समाधि का अभ्यास करो, क्योंकि जिसने मानसिक समाधि प्राप्त कर ली है उसे कोई आधियां स्पर्श नहीं करतीं। यह समाधि तो वह बोध है जिसके द्वारा विचाररूपी जल स्थिर किया जाता है। इस प्रकार मानसिक विक्षेपों के दूर होने पर चित्त में निर्मलता आती है, उसी का नाम प्रज्ञा है। जैसा कि बुद्धचरित के छब्बीसवें सर्ग के 67 वें श्लोक का भाव है - प्रज्ञा जरामरण रूपी महासागर में एक नौका है, मोहान्धकार में मानो एक प्रदीप है, समस्त व्याधियों को दूर करने वाली औषधि है, दोष रूपी वृक्षों को काटने वाली कुल्हाड़ी है। इसलिए प्रज्ञा की वृद्धि के लिए विद्या, ज्ञान और भावना का अभ्यास करो। क्योंकि जिसके पास प्रज्ञा रूपी चक्षु है उसे ही वास्तविक दृष्टि प्राप्त है। यद्यपि उस चक्षु में स्थूल पदार्थों को देखने की शक्ति नहीं होती। इसे सौन्दरनन्द महाकाव्य में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है - 4. नैषधीय चरित, 9.72 5. बुद्धचरित 12.46 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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