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अश्वघोष के महाकाव्यों की प्रयोजनवत्ता.
डॉ. सत्यप्रकाश दुबे
सुवर्णाक्षीपुत्र साकेतनिवासी आचार्य भदन्त आदि अनेक उपाधियों से मण्डित महाकवि अश्वघोष रचित 'बुद्धचरित' तथा 'सौन्दरनन्द' नामक महाकाव्यों की रचना का मुख्य प्रयोजन तथागत गौतम बुद्ध के अमर सन्देश का समाज में सम्प्रेषण है। चूंकि इन दोनों ही काव्यों में धर्मतत्त्व को आत्मसात् कराने का यत्न किया गया है। आज के इस भौतिकता से परिपूर्ण समाज में धर्म के स्वरूप को हृदयङ्गम कराना कड़वी औषधि के चूंट पिलाने के समान है, तथापि कवि के शब्दों में वह मोक्षधर्म के अङ्गभूत काव्यधर्म रूपी मधु से सम्पृक्त कर देने से सुगम हो चला है -
बुद्धानुरागादनुगम्य तस्य शास्त्रं च लोकस्य हिताय शान्त्यै। काव्यं कृतं ज्ञापयितुं निजस्य कला न काव्यस्य च कोविदत्वम्।।
इत्येषा व्युपशान्तये न रतये मोक्षार्थगर्भाकृतिः श्रोतृणां ग्रहणार्थमन्यमनसां काव्योपचारात् कृता। यन्मोक्षात् कृतमन्यत्र हि मया तत् काव्यधर्मात् कृतं
पातुं तिक्तमिवौषधं मधुयुतं हृद्यं कथं स्यादिति।।' मूलतः त्रयोदशसर्ग पर्यन्त उपलब्ध होने वाले बुद्धचरित महाकाव्य के प्रथम सर्ग में बौद्ध धर्म के उन तीन तत्त्वों का संकेत किया गया है जो कि बौद्ध धर्म में साधना के तीन अंगों के रूप में वर्णित हैं -
प्रज्ञाम्बुवेगां स्थिरशीलवप्रां समाधिशीतां व्रतचक्रवाकाम्। अस्योत्तमां धर्मनदी प्रवृत्तां तृष्णार्दितः पास्यति जीवलोकः।।
1. बुद्धचरित 28.78 2. सौन्दरनन्द 18.63 3. बुद्धचरित 1.71
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