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136 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला
1. शमथ और 2. विपश्यना शमथ
इसे लौकिक समाधि भी कहते हैं, क्योंकि इसमें ध्यान का विषय काम, रूप और अरूप भूमियाँ बनती हैं। शमथ का अर्थ है - पाँच नीवरणों अर्थात् विघ्नों का उपशम। इन विघ्नों के शमन से चित्त की एकाग्रता होती है।
. पञ्च नीवरणानं समनटेन समथं। इसलिए शमथ का अर्थ चित्त की एकाग्रता भी है।' ___ पाँच नीवरण या विघ्न इस प्रकार हैं1. कामच्छन्द - विषयों के अनुराग को कामच्छन्द कहते हैं। इसमें चित्त नाना
विषयों से प्रलोभित होता है। 2. व्यापाद - हिंसा को व्यापाद कहते हैं। यह प्रीति का प्रतिपक्षं है। 3. स्त्यान - चित्त की अकर्मण्यता स्त्यान है। 4. मिद्ध - आलस्य को मिद्ध कहा गया है। 5. औद्धत्य-कौकृत्य - औद्धत्य का अर्थ है अव्यवस्थित चित्तता और कौकृत्य का
अर्थ खेद या पश्चात्ताप है। सुख औद्धत्य-कौकृत्य का प्रतिपक्ष है। 5. विचिकित्सा - संशय को विचिकित्सा कहते हैं। विचार विचिकित्सा का
प्रतिपक्ष है।
ये नीवरण चित्त की एकाग्रता के बाधक हैं, अतः इन विघ्नों का नाश होने पर ६ यान एवं ध्यान के पांच अंगों का प्रादुर्भाव होता है। .. ध्यान के पांच अंग हैं - 1. वितर्क 2. विचार 3. प्रीति 4. सुख एवं 5. एकाग्रता। दश पलिबोध अथवा अन्तराय
जिसको लौकिक समाधि अभीष्ट हो उसको परिशुद्ध शील में प्रतिष्ठित होकर सबसे पहले विघ्नों (पलिबोध) का नाश करना चाहिए। ये पलिबोध हैं - आवास, कुल, लाभ, गण, कर्म, मार्ग, ज्ञाति, आबाध, ग्रन्थ और ऋद्धि।
1. समथो हि चित्तेकग्गता, अंगुत्तर निकायट्ठकथा, बालवग्ग, सुत्त 3, 2. योग-दर्शन में अन्तरायों का उल्लेख है - व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्ध
भूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः। - योगसूत्र, समाधिपाद, सूत्र 30 3. योगदर्शन में - वितर्कविचारानन्दास्मितारूपानुगमात्सम्प्रज्ञातः। (योगसूत्र, समाधिपाद, 17)
आनन्द में प्रीति को, अस्मिता में सुख को समाविष्ट जानना चाहिए।
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