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बौद्ध योग एवं उसकी उपादेयता
डॉ. दीपमाला
योगविद्या भारत की अमूल्य निधि है। सम्पूर्ण भारतीय धर्म-दर्शन में योग-साधना को एक स्वर से स्वीकार किया गया है, चाहे वह वैदिक धर्म-दर्शन हो या जैन एवं बौद्ध धर्म-दर्शन। योग-साधना के बिना मुक्ति सम्भव नहीं है। योगदर्शन में चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहा है। जैन दार्शनिक आत्मा की शुद्धि करने वाली क्रियाओं को योग कहते हैं। बौद्ध बोधिसत्त्व की प्रापक क्रिया को योग कहते हैं। इस प्रकार योग को एक विशिष्ट क्रिया के रूप में स्वीकार किया गया है, जिसके अन्तर्गत अनेक प्रकार के यान तथा तप का समावेश होता है, जिनका एक मात्र लक्ष्य चेतना का विकास है। 'योग' शब्द का अर्थ
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योग शब्द के संयोग, सम्पर्क, युक्ति, ध्यान, चित्तवृत्तिनिरोध, निर्वाण, समाधि आदि अनेक अर्थ हैं। योग शब्द 'युज्' धातु से निष्पन्न है । पाणिनीय धातु - पाठ में तीन 'युज्' धातुएँ उपलब्ध हैं -
(i) युज् समाधौ (दिवादिगणीय, युज्यते)
(ii) युजिर् योगे ( रुधादिगणीय, युनक्ति, युङ्क्ते)
(iii) युज संयमने (चुरादिगणीय, योजयति, योजयते)
'योग' शब्द का समाधि अर्थ 'युज् समाधौ ' से 'घञ्' प्रत्यय होकर निष्पन्न होता है। बौद्ध साहित्य में प्रयुक्त योग शब्द 'युजिर् योगे' से निर्मित है। यहाँ योग का प्रयोग संयोजन अर्थ में हुआ है। साथ ही समाधि एवं क्रिया के रूप में भी अभिहित हुआ है।
बौद्ध-दर्शन में योग का अर्थ समाधि या ध्यान है। 'विसुद्धिमग्गो' में कुशलचित् की एकाग्रता को समाधि कहा गया है।
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बौद्धयोग का स्वरूप - बौद्ध योग-साधना का मुख्य सम्बन्ध समाधि से है। बौद्ध धर्मानुसार एक ही आलम्बन में समान तथा सम्यक् रूप से चित्त और चैतसिक धर्मों की प्रतिष्ठा समाधि है । समाधि के दो सोपान हैं -
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