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________________ 134 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला वाला व्यक्ति ही तथागत या बुद्ध कहलाता है। परमार्थ संवृति से विलक्षण होता है। त्रिकाल में अबाधित होने से शून्य तथा निर्वाण परमार्थरूप माने जाते हैं। शून्य को ही तथता कहा जाता है। इसके आलम्बन के बिना न आत्मकल्याण और न ही परकल्याण हो सकता है। अविद्या के द्वारा अस्पृष्ट होने से इसमें समस्त मलों का अभाव रहता है। उभयविध क्लेशावरण तथा ज्ञेयावरण से यह उन्मुक्त रहता है। सम्यक् सम्बोधि के बिना इस अद्वैततत्त्व की उपलब्धि नहीं हो सकती। सम्यक् सम्बोधि की प्राप्ति के लिये षट् पारमिताओं दान, शील, शान्ति, वीर्य, समाधि और प्रज्ञा की उपलब्धि नितान्त आवश्यक है। शून्य अर्थात् बुद्धत्व ही प्रज्ञा का अन्तिम लक्ष्य है। उस समय द्वैतज्ञान का सर्वथा अभाव हो जाता है। इस दशा में स्वदुःख और परदुःख सदा के लिये निवृत्त हो जाते हैं। शून्यता सम्पन्न मनुष्य ज्ञानी कहलाता है। क्लेशों का क्षय हो जाने पर ज्ञानी नित्य शान्ति प्राप्त करता है। अश्वघोष ने भी कहा है - दीपो यथा निर्वृत्तिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम्। दिशं न काञ्चिद् विदिशं न काञ्चित् स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम्।। तथा कृती निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम्। दिशं न काञ्चिद् विदिशं न काञ्चित् क्लेशक्षयात्केवलमेति शान्तिम् ।। जिस प्रकार दीपक बुझकर न तो पृथ्वी पर नीचे जाता है और न ही अन्तरिक्ष में ऊपर जाता है, न किसी दिशा में जाता है न विदिशा में जाता है, वह तो तेल बीत जाने से केवल शान्त हो जाता है। इसी प्रकार पुण्यशाली व्यक्ति निर्वाण को प्राप्त कर न पृथ्वी पर नीचे जाता है न अन्तरिक्ष में ऊपर जाता है, न अन्य दिशा-विदिशा में जाता है। वह तो क्लेश का क्षय होने से केवल शान्ति को प्राप्त हो जाता है। बौद्ध दर्शन के शून्यतावाद, त्याग, अनासक्ति, सर्वभूतदया प्रभृति विचारों का तत्कालीन नाटककारों पर भी अत्यधिक प्रभाव पड़ा। पञ्चम शताब्दी के कवि विशाखदत्त ने मुद्राराक्षस में राक्षस के मुख से चन्दनदास के त्यागमय आचरण को तथागत तुल्य कहा है।" __ - संस्कृत विभाग जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर 10. अश्वघोष सौन्दरनन्द 16.28-29 11. दुष्कालेऽपि कलावसज्जनरुचौ प्राणैः परं रक्षता नीतं येन यशस्विनातिलघुतामौशीनरीयं यशः।। बुद्धानामपि चेष्टितं सुचरितैः क्लिष्टं विशुद्धात्मना। पूजार्होऽपि स यत्कृते तव गतो वध्यत्वमेषोऽस्मि सः।।-विशाखदत्त, मुद्राराक्षस, 7.5 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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