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बौद्ध दर्शन में शून्यवाद एवं उसका प्रभाव 133
प्रमाणों द्वारा किसी अर्थ की सत्ता उपलब्ध नहीं होती और न ही किसी प्रमाण से किसी अन्य प्रमाण की सत्ता की सिद्धि सम्भव है । अग्निवत् प्रमाण स्वयं को और अन्य प्रमेयों को प्रकाशित नहीं कर सकते, क्योंकि अग्नि से अप्रकाशित घट अन्धकार में दिखाई नहीं देता और बाद में अग्नि से प्रकाशित होने पर वह दिखाई देने लगता है। यदि अग्नि स्वतः प्रकाशित करने का सामर्थ्य रखता, तो अग्नि से दूर अन्धकारगत घट को भी प्रकाशित कर देता, किन्तु ऐसा कभी नहीं होता । वस्तुतः न तो अग्नि में अन्धकार है, जहां अग्नि है वहां अन्धकार है । अन्धकार के नाश को प्रकाश कहते हैं । जब अग्नि
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अन्धकार नहीं है और न जहां अग्नि है वहां अन्धकार है, तो वह अग्नि किसका प्रतिघात करे कि जिसके प्रतिघात से स्वयं को तथा अन्य घटपटादि को प्रकाशित करे उत्पद्यमान अग्नि ही स्व या पर को प्रकाशित करता है, किन्तु यह आवश्यक नहीं कि उत्पद्यमान अग्नितम को दूर कर ही दे, यदि उस अग्नि को तम के पास न पहुंचा दिया जाय। जब तक अग्नि तम के समीप न पहुंचे तब तक तम का उपघात असम्भव है। यदि अग्नि तम के समीप बिना पहुंचे भी तमोनाशक हो जाये तब तो हमारे सम्मुख अग्नि से संसार के यच्च यावत् अन्धकार का नाश होना चाहिये, किन्तु ऐसा कदापि नहीं देखा गया । वस्तुतः तम, अग्नि इत्यादि प्रमेयों तथा प्रमाणादि की सत्ता ही नहीं है । ये सभी परस्पर सापेक्षभाव से स्थित हैं
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अथ ते प्रमाणसिद्ध्या प्रमेयसिद्धिः प्रमेयसिद्ध्या च । भवति प्रमाणसिद्धिर्नास्त्युभयस्यापि ते सिद्धिः।।'
आचार्य नागार्जुन के मतानुसार सत्यता के दो प्रकार हैं - लोकव्यावहारिक सत्य तथा वास्तविक सत्य । प्रथम व्यावहारिक सत्य है, द्वितीय पारमार्थिक सत्य है । व्यावहारिक सत्य को सांवृतिक सत्य कहते हैं । अनुत्पन्न, अनिरुद्ध, अनुच्छेद, अशाश्वत आदि विशेषणों से वर्णित शून्य ही पारमार्थिक सत्य है जो बुद्धि से अगोचर है। बुद्धिग्राह्य तो विकल्प होते हैं और विकल्प अवस्तुग्राही होने से अविद्यात्मक हैं। अतः बुद्धि में इतनी योग्यता नहीं है कि वह परम सत्य का यथार्थ ग्रहण कर सके । समस्त पदार्थों को ढकने वाला अज्ञान ही संवृति कहलाता है। इस जगत् की सत्ता अज्ञान के द्वारा ही है, इसलिये समस्त जगत की सत्ता सांवृतिक या व्यावहारिक है - समन्ताद्वरणं संवृतम् अज्ञानं हि समन्तात्सर्वपदार्थतत्त्वावच्छादनात्संवृतिरित्युच्यते ।'
संवृति सत्य पारमार्थिक सत्य की प्राप्ति के लिये एक साधनमात्र है। निर्वाण की दशा भी साधारण व्यावहारिक दशा से भिन्न होती है। जो साधारण उपायों द्वारा अविदित होता है, जो सर्वदा प्राप्त होता है, जिसका विनाश नहीं होता, जो निरुद्ध नहीं है और जो उत्पन्न भी नहीं है उसी का नाम निर्वाण है। निर्वाण को प्राप्त करने वाला और उसे जानने
8. विग्रहव्यावर्तनी, कारिका 46
9. माध्यमिककारिकावृत्ति 24.8
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