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132 बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला
शून्यवाद के प्रसिद्ध बौद्ध आचार्य नागार्जुन, आर्यदेव, स्थविर बुद्धपालित, भावविवेक, चन्द्रकीर्ति तथा शान्तरक्षित हैं । इन विद्वानों ने स्वस्वशास्त्रों में कहा है कि इस जगत् से परे विद्यमान पारमार्थिक सत्ता वर्ण्यातीत है। उसके विषय में मानसिक या बाह्य होने का वर्णन असम्भव है । लौकिक विचारों से अवर्ण्य होने से उसे शून्य कहना चाहिये । शून्य वस्तुतः अभाव रूप नहीं है। 'अभाव' शब्द सापेक्ष है, क्योंकि भाव की कल्पना पर ही अभाव आश्रित है। परमतत्त्व या पारमार्थिक सत्ता सर्वथा निरपेक्ष है अर्थात् वह स्वसत्तार्थ किसी अन्य पर आश्रित नहीं है। किसी पदार्थ के स्वरूप का निर्णय चार कोटियों से किया जाता है- अस्ति, नास्ति, अस्ति नास्ति, और न अस्ति न च नास्ति। किन्तु परम तत्त्व का निर्णय इन चतुष्कोटियों से असम्भव है। वह मनोवाग्गम्य न होने से सुतरां अनिर्वचनीय है । उस परम तत्त्व की अनिवर्चनीयता की सूचना 'शून्य' शब्द से दी जाती है -
न सन्नासन्न सदसन्न चाप्यनुभयात्मकम्। चतुष्कोटिविनिर्मुक्तं तत्त्वं माध्यमिका विदुः । ।
वस्तु न तो ऐकान्तिक सत् है और न ऐकान्तिक असत्, अपितु उसका स्वरूप इन दोनों सत् तथा असत् के मध्य बिन्दु पर निर्णीत हो सकता है जो स्वयं शून्यरूप ही होगा। यह शून्य अभाव से नितान्त भिन्न है, क्योंकि अभाव की कल्पना सापेक्ष कल्पना है, किन्तु यह शून्य निरपेक्ष परम तत्त्व का सूचक है। शून्यवाद मध्यममार्ग कहलाता है। समाधिराज सूत्र में भी लिखा है
अस्तीति नास्तीति उभेऽपि अन्ता शुद्ध अशुद्धीति इमेsपि अन्ता । तस्मादुभे अन्ते विवर्जयित्वा ।
मध्ये हि स्थानं प्रकरोति पण्डितः ।।
शून्यता मध्यम मार्ग का ही नाम है। वस्तुओं के दो ही रूप हो सकते हैं - भाव तथा अभाव। जो वस्तु सदा विद्यमान रहे वह भावरूप कहलाती है और जो वस्तु विद्यमान नहीं रहती, वह अभावरूप होती है। वास्तव में वस्तु का न तो भाव है और न ही अभाव । अतः वस्तु शून्य कहलाती है अर्थात् वस्तु भाव तथा अभाव दोनों के बीच रहने वाली होती है, अतः मध्यम मार्ग का नाम ही शून्य है । आचार्य चन्द्रकीर्ति ने प्रसन्नपदा टीका में यही कहा है -
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अतो भावाभावान्तद्वयरहितत्वात्सत्स्वभावानुत्पत्तिलक्षणा शून्यता मध्यमा प्रतिपत् मध्यमो मार्ग इत्युच्यते।
7. नागार्जुन माध्यमिककारिका 1.7
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