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बौद्ध दर्शन में शून्यवाद एवं उसका प्रभाव 131 स्वयं आर्य अष्टांगिक मार्ग का अनुकरण यथावत् करे तो संसार की रागद्वेषमयी विषयवागुरा से मुक्ति पा सकता है। लोकव्यवहार में घटपटादि पदार्थों के प्रति आसक्ति सापेक्षभाव के कारण होती है। 3 -
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चित्त की नदी उभयतो वाहिनी है' अर्थात् वह पाप की ओर भी बहती है तथा कल्याण की ओर भी बहती है, अतः कल्याणगामी प्रवाह में चित्त को डाल देना ही श्रेयस्कर है। संसार के प्रपञ्च में अज्ञानपूर्वक जीवनयापन करने वाला व्यक्ति पृथक् जन कहलाता है। निर्वाण मार्ग पर आरूढ व्यक्ति आर्य कहलाता है । जब आर्य अर्हत् बनकर स्वकीय व्यक्तिगत कल्याण साधन में तत्पर हो जाता है तब उसे दूसरों को निर्वाण प्राप्त करवाने की आवश्यकता भी नहीं होती, क्योंकि जगत्शून्यता ही यथार्थ है। जगतशून्यता का अर्थ है भाव शून्यता ।
बौद्धदर्शन के चार प्रमुख सम्प्रदाय हैं - वैभाषिक, सौत्रान्तिक, योगाचार और माध्यमिक । बाह्य अर्थों को प्रत्यक्षरूपेण सत्य मानने वाले बौद्ध वैभाषिक कहलाते हैं। बाह्य अर्थों को प्रत्यक्ष सिद्ध न मानकर अनुमेय मानने वाले सौत्रान्तिक कहलाते हैं। बाह्य भौतिक जगत् का नितान्त मिथ्यात्व स्वीकार करके चित्त अथवा विज्ञान को ही एकमात्र सत्य मानने वाले बौद्ध योगाचार कहलाते हैं । माध्यमिक बौद्धों के अनुसार शून्य ही परमार्थ सत्य है । शून्य का अर्थ अभाव नहीं है, अपितु शून्य शब्द अनिर्वचनीय का द्योतक है जो न सत् है न असत् है न सदसत् है और न इन दोनों से भिन्न है । शून्य से तात्पर्य अलक्षण या निःस्वभाव है। उसके अनुसार समस्त जगत् विवर्त है। शून्यवाद एवं बौद्ध सम्प्रदायों का संक्षिप्त कथन करने वाला प्रसिद्ध श्लोक इस प्रकार है -
मुख्यो माध्यमिको विवर्तमखिलं शून्यस्य मेने जगद् योगाचारमते तु सन्ति मतयस्तासां विवर्तोऽखिलः। अर्थोऽस्ति क्षणिकस्त्वसावनुमितो बुद्ध्येति सौत्रान्तिकः, प्रत्यक्षं क्षणभङ्गुरं च सकलं वैभाषिको भाषते।।
माध्यमिक सम्प्रदाय समस्त जगत् को शून्य का विवर्त मानता है। योगाचार मत में
ज्ञान ही सत् है तथा सब उसका विवर्त है। सौत्रान्तिक दर्शन के अनुसार पदार्थ क्षणिक है
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तथा उसे अनुमान से जाना जाता है। वैभाषिक उसे क्षणिक एवं प्रत्यक्ष द्वारा ज्ञेय कहते
हैं।
3. यश्च प्रतीत्यभावो भावानां शून्यतेति सा प्रोक्ता ।
यश्च प्रतीत्यभावो भवति हि तस्यास्वभावत्वम् ।। - वही, कारिका 22
4. चित्तनदी नामोभयतो वाहिनी वहति कल्याणाय वहति पापाय च ।
5. नैः स्वाभाव्यानां चेन्नैःस्वाभाव्येन वारणं यदि हि ।
नै:स्वाभाव्यनिवृत्तौ स्वाभाव्यं हि प्रसिद्धं स्यात् । । - विग्रहव्यावर्त्तनी, कारिका 26
6. सर्वदर्शन संग्रह, माधवाचार्य, बौद्धदर्शन निरूपण
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- योगसूत्रवृत्ति 1.12
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