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बौद्ध दर्शन में शून्यवाद एवं उसका प्रभाव
डॉ. मंगलाराम
बौद्ध दर्शन में शील, समाधि और प्रज्ञा को निर्वाण अर्थात् मोक्ष का हेतु माना गया है। बुद्ध के समस्त उपदेश पाप-अकरण, पुण्य-सञ्चय तथा चित्तपरिशुद्धि के लिये हैं। धम्मपद में स्पष्ट लिखा है -
सब्बपापस्स अकरणं कुसलस्स उपसम्पदा।
सचित्तपरियोदपनं एतं बुद्धानं सासनं।।।। बौद्ध दर्शन में रूप, वेदना, सञ्ज्ञा, संस्कार और विज्ञान इन पांच स्कन्ध अर्थात् समुदाय का पुञ्ज मात्र ही आत्मा है। आत्मा और जगत् दोनों अनित्य हैं। रूपादि पञ्च स्कन्ध क्षण-क्षण परिवर्तनशील हैं अर्थात् आत्मा प्रतिपल परिणामी है। यही स्थिति जगत् की भी है। किसी वस्तु के अस्तित्व के प्रवाह में एक अवस्था उत्पन्न होती है और एक अवस्था लय होती है। अनुभूत वस्तु क्षण-क्षण में परिणाम को प्राप्त हो रही है। वस्तु की एकता तदाकार वस्तु की एक वीथि है। वस्तुतः एकता जगत् में अलभ्य वस्तु है। बुद्ध सत्ता और असत्ता के बीच परिणाम के सिद्धान्त को मानते हैं। जगत् के सत्य रूप की अवहेलना न करते हुए भी वे उसकी परिणामात्मक व्याख्या करते हैं। इस विश्व में परिणाम ही सत्य है, किन्तु इस परिणाम के भीतर विद्यमान किसी परिणामी पदार्थ का अस्तित्व सत्य नहीं है। सभी पदार्थ वस्तुतः स्वभावरहित हैं। आचार्य नागार्जुन ने स्पष्ट शब्दों में कहा है -
हेतु प्रत्ययसामग्र्यां च पृथक् चापि मद्वचो न यदि।
ननु शून्यत्वं सिद्धं भावानामस्वभावत्वात् ।। बुद्ध के अनुसार जीव को परमुखापेक्षी होने की आवश्यकता नहीं है। यदि वह
1. धम्मपद, 14.5 2. नागार्जुन, विग्रहव्यावर्तनी, कारिका 21
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