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________________ बौद्ध योग एवं उसकी उपादेयता * 137 आवास - जिसका चित्त किसी कारणवश अपने आवास में प्रतिबद्ध है उसके लिए आवास भी अन्तराय है। कुल - कुछ भिक्षु अपने तथा सेवक के कुल से विशेष संसर्ग की भावना रखते हैं। उनके लिए कुल अन्तराय है। लाभ - चीवर, पिण्डपात, शयनासन और ग्लान प्रत्यय भैषज - ये चार प्रत्यय लाभ हैं। भिक्षु को इन चार वस्तुओं की आवश्यकता रहती है। कभी-कभी ये भी अन्तराय हो जाते हैं। गण - गण में रहने से लोग अनेक प्रकार के प्रश्न पूछते हैं या पाठ के लिए आते हैं। अतः गण भी अन्तराय है। ___ कर्म - कर्म का अर्थ हैं, 'नवकर्म' अर्थात् विहार का अभिसंस्कार। जो विहार का अभिसंस्कार (नवकर्म) कराता है उसे श्रमिकों के कार्य का निरीक्षण करना पड़ता है। उसके लिए नवकर्म सर्वदा अन्तराय है। मार्ग - गमन भी कभी-कभी अन्तराय होता है। मार्ग में मिलने वाला लाभ-सत्कार जिनके चित्त को स्थिर नहीं रहने देता, उनके लिए मार्ग भी अन्तराय है। . ज्ञाति - विहार के आचार्य, उपाध्याय, अन्तेवासिक, माता-पिता आदि ज्ञाति हैं। वे जब बीमार पड़ते हैं तो ये अन्तराम होते हैं। क्योंकि इनकी सेवा करनी पड़ती है। जब तक ये नीरोग न हों, उनकी सेवा करना भिक्षु का कर्तव्य है। · आबांध - भिक्षु को कोई रोग हुआ तो श्रमण धर्म के पालन में अन्तराय होता है। चिकित्सा द्वारा रोग का शीघ्र उपशम करना चाहिए। ग्रन्थ - भिक्षु की समाधि में कभी ग्रन्थ भी विघ्न बन जाते हैं। ऋद्धि - विपश्यना में ऋद्धि भी अन्तराय है, किन्तु समाधि में नहीं। इन विघ्नों का उच्छेद कर भिक्षु को 'कर्मस्थान' के ग्रहण के लिए कल्याण भिक्षु के पास जाना चाहिए। कर्मस्थान बौद्ध साहित्य में 40 कर्मस्थान स्वीकृत हैं, जिन्हें परिहारिय - कम्मट्ठान भी कहते हैं। इनमें से जो कर्मस्थान चर्या के अनुकूल हो उसका नित्य अभियोग अर्थात् ग्रहण करना चाहिए। ये 40 कर्म स्थान इस प्रकार है - दस कसिण, दस अशुभ, दस अनुस्मृति, चार ब्रह्म विहार, चार आरूप्य, एक संज्ञा, एक व्यवस्थान। दश कसिण - दस कसिण योग कर्म के सहायक आलम्बनों में से हैं। कसिणों पर चित्त को एकाग्र करने से ध्यान की प्राप्ति होती है। कसिण इस प्रकार हैं - पृथ्वीकसिण, अपकसिण, तेजकसिण, वायुकसिण, नीलकसिण, पीतकसिण, लोहितकसिण, अवदात कसिण, आलोककसिण, परिच्छिनाकाशकसिण। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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