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138 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला
दश-अशुभ - उद्घमातक, विनीलक, विपुब्बक, विच्छिद्दक, विक्खायितक विक्खित्तक, हतविक्खित्तक, लोहितक, पुलुवक, अट्ठिक ये 10 अशुभ है। उपस्थितस्मृति से, संवृत्त-इन्द्रियों से, एकाग्रचित्त से जैसे निर्धन निधि-स्थान की ओर, या यजमान यज्ञशाला में जिस सौमनस्य से जाता है उसी प्रकार योगी को अशुभ कर्मस्थान के पास जाना चाहिए और उस अशुभ निमित्त को अमूल्य रत्न के समान देखकर उस आलम्बन पर ध्यान एकाग्र करना चाहिये। इस कर्मस्थान में प्रथम ध्यान से आगे नहीं बढ़ा जा सकता है। इसलिए इनकी वृद्धि नहीं करनी चाहिए।
दश अनुस्मृति - पुनः पुनः होने वाली स्मृति ही अनुस्मृति है। प्रवर्तन के योग्य स्थान में ही प्रवृत्त होने के कारण अनुरूप स्मृति को भी अनुस्मृति कहते हैं। ये दस अनुस्मृतियां इस प्रकार हैं -
बुद्धानुस्मृति, धर्मानुस्मृति, संघानुस्मृति, शीलानुस्मृति, त्यागानुस्मृति, देवतानुस्मृति, कायानुस्मृति, मरणानुस्मृति, आनापानस्मृति, उपशमानुस्मृति। . . ..
इन दस स्मृतियों में आनापान स्मृति का विशेष महत्त्व है। पातञ्जल योग में इसे प्राणायाम' कहते हैं। यह एक प्रकृष्ट कर्म स्थान है। आचार्य बुद्धघोष ने इसे 40 कर्मस्थानों में शीर्ष स्थान पर रखा है, क्योंकि यह कर्मस्थान किसी भी दृष्टि से अशान्त और अप्रणीत नहीं है।
चार ब्रह्म विहार - मैत्री,करुणा, मुदिता, उपेक्षा ये चार ब्रह्मविहार हैं। चित्त विशुद्धि के उत्तम साधन हैं। जीवों के प्रति किस प्रकार सम्यक् व्यवहार करना चाहिये इसका भी यह निदर्शन है। इन चार भावनाओं द्वारा राग, द्वेष, ईर्ष्या, असूया, आदि चित्तमलों का अपाकरण होता है। योग के अन्य कर्म आत्महित के साधन हैं, किन्तु ये चार ब्रह्म-विहार पर-हित के भी साधन हैं। प्रथम तीन ब्रह्म विहार तीन ध्यानों का ही उत्पाद करते हैं और चौथा ब्रह्म विहार अन्तिम ध्यान का उत्पाद करता है। ___चार आरूप्य - आकाशानन्त्यायतन, विज्ञानानन्त्यायतन, आकिञ्चन्यायतन और नैवसंज्ञानासंज्ञायतन ये चार अरूप ध्यान है। चार रूप ध्यानों की प्राप्ति होने पर उनमें दोष देखकर रूप का समतिक्रम करने के हेतु यह ध्यान किया जाता है। ये चार ध्यान क्रम से शान्ततर, प्रणीततर और सूक्ष्मतर होते हैं।
__ संज्ञा - आहार में प्रतिकूल संज्ञा नामक एक संज्ञा है। चतुर्विध आहारों में से कवलीकार (खाद्य पदार्थ) आहार में चित्त को एकाग्र किया जाता है तथा आहार में अशुचिभाव का विचार किया जाता है, जिससे आहार में प्रतिकूल संज्ञा उत्पन्न होती है। इस संज्ञा से योगी की रस-तृष्णा नष्ट होती है। योगी केवल दुःखनिस्सरण के लिए ही 4. प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य। - योगसूत्र समधिवाद, सूत्र 34 5. मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्। - योगसूत्र
समाधिपाद, सूत्र 33
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