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बौद्ध धर्म-दर्शन में कर्म की अवधारणा * 171 संस्कार और विज्ञान
संस्कार का आशय चैतसिक संकल्प से है। इस तरह संस्कार कर्म का ही सूक्ष्म मानसिक रूप है, जिससे व्यक्ति के चरित्र का निर्माण और संधारण होता है। इसे संचेतना भी कहा गया है। संस्कार से विज्ञान का प्रादुर्भाव होता है। अविद्या से युक्त व्यक्ति जब कुशल या अकुशल कर्म करता है तो तदनुकूल विज्ञान की सृष्टि होती है। अविद्या से विमुक्त व्यक्ति संस्कार निर्माण नहीं करता है तथा संस्कार न होने के कारण वह परिनिर्वृत्त हो जाता है। आम्रवों के संक्षीण हो जाने पर संस्कार सम्पादन नहीं होता है, परिणामतः विज्ञान भी संभव नहीं हो पाता है तथा प्रतीत्यसमुत्पाद की सम्पूर्ण शृंखला निरुद्ध हो जाती है। अस्तित्व को निरन्तरता देने का श्रेय विज्ञान को ही है। मुक्त व्यक्ति के विज्ञान का अन्वेषण संभव नहीं है, क्योंकि विज्ञान तभी तक वर्तमान रहता है जब तक कि अविद्या, आस्रव और तृष्णा वर्तमान रहती है। ___ मज्झिम निकाय में इस बात को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि विमुक्त भिक्षु के विषय में इन्द्र, ब्रह्मा, प्रजापति सहित देव भी यह नहीं कह सकते कि यहाँ तथागत का विज्ञान प्रतिष्ठित है। बौद्ध धर्म-दर्शन में कर्म-विपाक - बौद्ध धर्म-दर्शन के अनुसार यदि कर्म उत्पन्न होता है तो उसका फल भी अवश्यमेव भोक्तव्य होता है। बौद्ध धर्म-ग्रन्थों में स्पष्टतया प्रतिपादित है कि जो जैसा बीज बोता है वह वैसे ही फल का आहरण करता है। बृहदारण्यकोपनिषद् भी इस सिद्धान्त की परिपुष्टि करता है। व्यक्ति जिस तरह का कर्म करता है। वह वैसा ही बन जाता है.पुण्य कर्म करने से पुण्य की परिलब्धि होती है तथा पापकर्म करने से पाप की प्राप्ति होती है। पापकर्मो का फल अवश्य ही प्राप्तव्य है, चाहे विलम्ब से ही हो।
धम्मपद में उल्लिखित किया गया है कि जिस प्रकार ताजा दुग्ध शीघ्र नहीं जमता है उसी प्रकार पापकर्म भी शीघ्र फलित नहीं होता है, अपितु राख से आवृत्त अग्निपिण्ड की तरह जलता हुआ पीछा करता रहता है। पापकर्मा मनुष्य उसे समझ नहीं पाता और अपने ही पापकर्मों से अग्निदग्ध की भांति अनुतप्त होता रहता है - . अथ पापानि कम्मानि करं बालो न बुज्झति।
से हि कम्मेहि दुम्मेधो अग्गिदइढो व तप्पति।।13 साथ ही वहीं धम्मपद में यह भी कहा गया है कि कोई प्राणी कर्म के कारण गर्भ
12. एवं विभुत्तचित्तं खो भिक्खवेसइन्दा देवा सब्रह्मका स पजापतिका अन्वै समाधिगच्छन्ति इदं निस्सितं
तथागतस्य। 13. धम्मपद,136 .
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