________________
170 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला संभाव्य है, साथ ही जैसा बीज होगा वैसा ही फल अधिगत होगा। संयुक्त निकाय के समुद्दक सुत्त में स्पष्टतया समुद्घोषित किया गया है कि जैसा बीज वपन किया जाता है वैसा ही फल प्राप्त होता है। कल्याणकारी कल्याण कर्म करता है तथा पापकारी पापकर्म करता है -
यादिसंवपते बीजं तादिसं हरते फलं।
कल्याणकारी कल्याणं पापकारी च पापक।० पुनर्जन्म हेतु कर्म और विज्ञान के होने पर तृष्णारूपी आर्द्रता का होना अपेक्षित है अर्थात् कर्मविज्ञान एवं तृष्णा का त्रिक पुनर्जन्म हेतु आवश्यक है। कर्म का मूल तृष्णा है तथा तृष्णा अविद्या पर आधारित है। तृष्णा की श्रृंखला में आबद्ध जीप का भविष्य में पुनर्जन्म होता है। भारहारसुत्त में स्पष्टतया प्रतिपादित किया गया है कि तृष्णा ही पुनर्भव की ओर पुरस्कृत करती है तथा तृष्णा एक ऐसा भाव है जो कि मन को वस्तुओं के प्रति अनुरक्त करता है।
दीघनिकाय में बतलाया गया है कि जब ज्ञानेन्द्रियाँ बाह्य जगत् के सम्पर्क में आती हैं तो वेदना और उपादान होते हैं तथा अनियन्त्रित होने पर तृष्णा को उत्पन्न करते हैं। काम तृष्णा, भवतृष्णा तथा विभवतृष्णा ही दुःखों और जन्मों का कारण है। तृष्णा के कारण मानव कर्म में प्रवृत्त होता है तथा तृष्णा का कारण है आत्मभावना। बौद्ध धर्म-दर्शन में तृष्णा को ही आत्मवाद का कारण बतलाया गया है और तृष्णा के परिहार के लिए ही बुद्ध ने आत्मवाद (नैरात्म्यवाद) का उपदेश दिया है।
बौद्ध दार्शनिकों ने आत्मवाद को संसारचक्र का कारण माना है। 'सर्वदुःखम्' 'सर्वं अनात्मम्' से यही व्यक्त होता है कि समस्त दु:खों का मूल आत्मवाद ही है। आम्रवों को भी दुःख का कारण कहा गया है, जो कि कामासव, भवासव, अविज्जासव तथा दिट्ठासव के रूप में चतुर्विध है अतः यथार्थ ज्ञान के लिए इनका निरसन आवश्यक है। ___मैं सुखो होऊँ " या 'मैं' दुःखी न हो होऊँ ' इत्यादि में ममत्व बुद्धि ही आत्मभाव
सुखी भवेयं दुःखी वा मा भुवमिति तृष्यतः।
यैवाहमिति धीः सैव सहजं सत्त्वदर्शनम्।।" इसी आत्मभाव के कारण प्राणी सुखावाप्ति तथा दुःख-निरोध का प्रयास करता है इसी से तृष्णा जन्म लेती है तथा जन्म-मरण का चक्र अव्याहत सञ्चालित होता है।
10. संयुत्तनिकाय, पृ. 229 11. न्यायवार्तिक तात्पर्यटीका
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org