SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बौद्ध धर्म-दर्शन में कर्म की अवधारणा 169 मनसा, संकल्पित कार्य मात्र भी कर्म बन जाता है, क्योंकि मन के बिना कर्मो का प्रवर्तन नहीं होता है। शुभ तथा अशुभ उभयविध अवस्थाओं में जिसका चित्त व्यवस्थित रहता है, उसमें विकृति उत्पन्न नहीं होती है। उपर्युक्त चिन्तन का बीज यदि हम देखना चाहें तो वाल्मीकि रामायण के सुन्दरकाण्ड में हनुमान द्वारा रावण के अन्तःपुर निरीक्षण प्रकरण में देख सकते हैं जहाँ हनुमान परदारावरोध के अवलोकन के कारण अपने धर्मलोप की शंका उद्भावित कर उसका निर्मूलन करते हैं - - कामं दृष्टा मया सर्वा विश्वस्ता रावणस्त्रियः । न तु मे मनसा किञ्चिद् वैकृत्यमुपपद्यते ।। मनो हि हेतुः सर्वेषामिन्द्रियाणां प्रवर्तने । शुभाशुभास्ववस्थासु तच्च मे सुव्यवस्थितम् ।।' कर्म के विषय में भगवान बुद्ध के विचार हमें मज्झिम निकाय में भी दृग्गोचर होते हैं जहाँ बुद्ध कर्म का विश्लेषण करते हुए कहते हैं - "कम्मस्सका, माणव, सत्ता कम्मदायदा कम्मयोनि कम्मबन्धु कम्मप्पटिसरणा कम्म सत्तं विभजति यदिदं हीनपणीतता याति । 117 अर्थात् माणवक प्राणी कर्मस्वक हैं, कर्मदायाद, कर्मयोनि, कर्मबन्धु और कर्मप्रतिशरण हैं। कर्म ही प्राणियों को हीनता और उत्तमता में विभक्त करता है। अंगुत्तरनिकाय में भी इसी तरह का चिन्तन संलक्षित होता है - कम्मस्स कोम्हि, कम्मदायादो, कम्मयोनि, कम्मबन्धु, कम्मपटिसरणा य कम्मं करिस्सामि कल्याणं व पापकं व तस्स दायादो भविस्सामि । - कम्मनिबन्धना सत्ता का प्रतिपादन करते हुए सुत्तनिपात्त के वासेट्ठसुत्त में संसार और प्रजा का कर्म द्वारा चलायमान होना रथचक्र के दृष्टान्त से स्पष्ट किया गया है. कम्मुना वत्तति लोको कम्मुना वत्तति पजा । कम्मनिबन्धना सत्ता रथस्साणीव जायतो।।' बौद्ध धर्म दर्शन में पुनर्जन्म का मूल कारण कर्म को माना गया है, किन्तु कर्म के साथ विज्ञान (विञ्ञाण) तथा तृष्णा (तण्हा) का भी पूर्ण योगदान है। वस्तुतः कर्म खेत है, विज्ञान बीज तथा तृष्णा नमी है, इन तीनों के समवेतत्व में ही बीज का प्ररोहण 6. वाल्मीकि रामायण, सुन्दरकाण्ड 11.41-42 7. मज्झिमनिकाय, भाग - 3, पृ. 200 8. अंगतरनिकाय, भाग - 2, पृ. 336 9. सुत्तनिपात, वासेट्ठसुत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy