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________________ 172 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला में उत्पन्न होते हैं, पाप करने वाले नरक में जाते हैं, पुण्य करने वाले स्वर्ग को जाते हैं और जो अनास्रव हैं वे परिनिर्वाण को प्राप्त करते हैं।14 इससे स्पष्टतया प्रतिपन्न होता है कि कर्मानुसार विपाक अवश्यंभावी है। कर्म करने वाले का फल अनुगमन करता है। कर्म फल से तो स्वयं बुद्ध भी नहीं बच सके, उन्हें भी अपनी कर्मफलानुभूति करनी पड़ी - इत एकनवतेः कल्पे शक्त्या में पुरुषो हतः। तेन कर्म विपाकेन पादे विद्धोस्मि भिक्षवः।।15 कर्मफल का भोग हुए बिना मुक्ति संभव नहीं है। कम्मदायादा सत्ता के अनुसार सत्त्व अपने ही कर्मों का उत्तराधिकारी है तथा वह अपने कर्मों से उसी तरह अनुबद्ध है जैसे रथचक्र से आणी। । विख्यात दार्शनिक बुद्धघोष ने विसुद्धिमग्ग में लिखा है - ... कम्मा विपाका वत्तन्ति विपाका कम्मसंभवा। कम्मा पुनभवो होति एवं लोको पवत्तति।।16 कर्म से विपाक होता है और विपाक से कर्म तथा कर्म से पुनर्जन्म, इस प्रकार यह लोक प्रवर्तमान है। कर्मविपाक का अनात्मवाद के साथ संगतीकरण - ___ चूंकि बौद्ध दर्शन आत्मा नामक किसी शाश्वत सत्ता को नहीं मानता है, अतः कर्मफल का भोक्ता कौन है तथा कर्म किस तरह एक जन्म से दूसरे जन्म में संक्रमित होते हैं इस विषय में शंका उत्पन्न होना स्वाभाविक है। क्योंकि जिसने कर्म किया वह अतीत में लीन हो जाता है और जो नवीन जन्मता है उसने वे कर्म ही नहीं किये, जिसके फल भोगने के लिए नये जन्म की आवश्यकता पड़ती है। ___ बौद्ध दर्शनानुसार देहेन्द्रिय, बुद्धि आदि का संघात क्षणिक है, क्षण भर में ही विनष्ट होने वाला है। जो संघात कर्म करता है वह कर्म करके विनष्ट हो जाता है तथा फल भोग के क्षण दूसरा हो जाता है। “कर्तृत्वभोक्तृत्वयोः समानाधिकरणनियमः" की सामान्य अवधारणा के अनुसार कर्ता तथा भोक्ता को एक ही व्यक्ति होना चाहिए। क्षणिकता का सिद्धान्त स्वीकार करने वाले बौद्ध दार्शनिकों के समक्ष कठिनाई यह है कि प्रत्येक वस्तु के क्षणिक होने पर कर्म क्षण तथा कर्म फल के सर्वथा भिन्न होने पर दोनों क्षण एक नहीं हो सकते हैं। ऐसी स्थिति में कर्म क्षण को कर्मफल के साथ प्रत्यभिज्ञात 14. धम्मपद, 126 15. षड्दर्शनसंग्रह - 6 16. विसुद्धिमग्ग, भाग - 2, पृ. 25 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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