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• 116 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला
परविवाहकरण, इत्वरपरिगृहीतागमन, अपरिगृहीतागमन, अनङ्गक्रीडा, तीव्रकामाभिनिवेश ये पाँच अतिचार ब्रह्मचर्य रूप व्रत के पालन में बाधा है। पुरुषार्थ चतुष्टय में धर्मपूर्वक अर्थ एवं काम का सेवन वस्तुतः गृहस्थ जनों के लिए इन अतिचारों से निवृत्ति का मार्ग है। अपनी पत्नी के अतिरिक्त प्रत्येक स्त्री को मातृवत् समझें। महाभारत का यह वचन भी ब्रह्मचर्य के अतिचारों से बचने का उपाय है। अपरिग्रह
ईशावास्योपनिषद् का प्रथम मन्त्र भारतीय संस्कृति में अपरिग्रह के स्वरूप को निर्दिष्ट करता है -
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।। इसका तात्पर्य है कि सम्पूर्ण वस्तुओं पर उस परमात्मा का स्वामित्व है, अतः किसी भी वस्तु का अपनी आवश्यकता के अनुसार ही उपभोग करें तथा उसे ईश्वर का ही अनुग्रह समझें। अन्य के धन का लोभ न करें। वस्तुत: उपर्युक्त मन्त्र अपरिग्रह एवं अस्तेय दोनों व्रतों के पालन का स्वरूप प्रस्तुत करता है।
क्षेत्र और वास्तु, हिरण्य और सुवर्ण, धन और धान्य, दासी व दास, कुप्य के प्रमाण का अतिक्रमण ये पाँच अपरिग्रह परिमाण के अतिचार हैं।6 -
तत्त्वार्थसूत्र (7.12) में परिग्रह का लक्षण - 'मूर्छा परिग्रहः' भी परिग्रह के स्वरूप को व्यक्त करता है। मूर्छा का तात्पर्य है आसक्ति। अतः आसक्तिवश अर्थ की ओर प्रवृत्ति परिग्रह है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि इन पाँच प्रकार के अणुव्रतों के पालन से न केवल मोक्ष का मार्ग प्रवृत्त होता है, अपितु सामाजिक, आर्थिक व्यवहार भी सम्यक् रूप से परिचालित होता है। आज समाज में आचार की प्रतिष्ठा आवश्यक है। यदि आचार की पालना हो या विद्यालय स्तर पर आचार-शिक्षा का समुचित अध्ययन हो तो समाज में निरन्तर वृद्धि को प्राप्त काम, क्रोध, हिंसा पर अंकुश संभव है। श्री कृष्ण ने गीता में कहा है -
ध्यायतो विषयान् पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् संजायते कामः कामात् क्रोधोऽभिजायते।। 7 शील का महत्त्व
वस्तुतः उच्च तकनीकी तन्त्र ने जब वैश्वीकरण को बढ़ावा देकर सकल विश्व
16. तत्त्वार्थसूत्र 7.24 17. श्रीमद्भगवद्गीता, 2.62
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