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________________ वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पंचशील की प्रासंगिकता * 117 को एक धरातल पर उपस्थित कर दिया है, ऐसे समय में बाजारवाद ने उपभोक्तावाद को अत्यधिक प्रश्रय दिया है। घर में बैठे बाल-मन को भी इस बाजारवाद ने अपने वशीभूत करके कामनाओं की एक अविच्छिन्न परम्परा को उत्पन्न किया है, जिसके कारण निरन्तर विषयों का चिन्तन एवं उन विषयों की प्राप्ति के प्रति अन्धता ने हिंसा, द्रोह, असन्तोष, मर्यादा-उल्लंघन जैसे दोषों की श्रृंखला का निरन्तर प्रसार किया है, अतः समय रहते आचार-प्रतिष्ठा युगीन आवश्यकता है। धम्मपद में कहा गया है है कि दुराचार अथवा दुश्शील और असंयत जीवन के सौ वर्षों से तो सदाचार एवं संयत जीवन का एक दिन भी श्रेष्ठ है। इसलिए वृद्धावस्था तक शील का पालन ही उचित है - सुखं याव जरा सीलं। 18 एक बार स्थविर आनन्द ने भगवान बुद्ध से पूछा कि ऐसी कोई गन्ध है जो वायु के विपरीत जाती है? तो भगवान ने कहा - चन्दनं तगरं वा पि उप्पलं अथ वस्सिकी। एतेसं गन्धजातानं सीलगन्धो अनुत्तरो।।१ अप्पमत्तो अयं गन्धो यो यं तगरचन्दनो। यो च सीलवनं गन्धो वाति देवेसु उत्तमो।।२० इसका तात्पर्य है कि तगर या चन्दन, कमल या जूही की गन्ध तो अल्पमात्र है। इन सभी सुगन्धों से शील की सुगन्ध उत्तम है। शीलवान की उत्तम गन्ध देवी-देवताओं में फैलती है। अतः ठीक ही कहा गया है कि शील पर प्रतिष्ठित होकर ही विकारों को नियन्त्रित किया जा सकता है। पञ्चशील नैतिकता का आधार है, विकार रूपी मल को शील पारमिता के अभ्यास से दूर किया जा सकता है, अतः कहा गया है कि शीलपालन के बिना गृहस्थ या उपासक, धर्म के किसी भी गुण का अधिकारी नहीं बन सकता। शीलवान् पुरुष को काम भी पीड़ित नहीं कर सकता - 'तेसं संपन्नसीलानं... मारो मग्गं न विन्दति' अज्ञान के नाश के लिए कठोर नैतिकता आवश्यक है। शील और प्रज्ञा, सदाचार व अन्तर्दृष्टि में ऐक्य है। विचार व आचार की निर्मलता उनके धर्म का आधार है। बुद्ध बहुधा यह कहते सुने जाते हैं - शिष्यों, आओ! दुख से निवृत्ति के लिए पवित्र जीवन का निर्वाह करो।' . 18. धम्मपद,333 19. धम्मपद,55 20. धम्मपद, 56 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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