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84 बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला
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इस प्रकार बौद्ध दर्शन के अनेक सिद्धान्त प्रतिकार के रूप में आये हैं। बुद्ध को लगा यदि छह मत पूर्णतः दुख निवृत्ति नहीं कर सकते, तो हो सकता है इनका प्रतिकार दुःख - निवृत्ति का हेतु बने। इसलिए यह प्रयोग उनके लिए आवश्यक हो
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प्रतिवाद | अक्रियावाद - पूर्णकश्यप
संवाद
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चातुर्याम - संवरवाद / अनेकान्तवाद, सापेक्षवाद - महावीर स्वामी - निगंठनाथपुत्त
• अर्थक्रियाकारित्व.
अनात्मवाद, ऐकान्तिकवाद
निरपेक्षवाद
गया था ।
धर्म का आधार एवं सिद्धान्त 'दर्शन' होता है जबकि दर्शन का आधार एवं व्यवहार 'धर्म' होता है।
दर्शन के बिना धर्म खोखला है। दर्शन का आधार उसकी 'तत्त्वमीमांसा' (Metaphysics) होती है और तत्त्वमीमांसा का आधार सत्ता (Reality) का लक्षण होता है। जैन दर्शन में सत्ता का लक्षण उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य है। अद्वैत वेदान्त में त्रिकालाबाधितता है । बौद्ध दर्शन में सत् का लक्षण है 'अर्थक्रियाकारित्व' जिसका तात्पर्य है कार्य उत्पन्न करने की शक्ति । अर्थक्रियाकारित्व की तार्किक परिणति प्रतीत्यसमुत्पादवाद, क्षणिकवाद, स्वलक्षणता, अद्रव्यवाद, मध्यमवाद, अनात्मवाद, अपरमात्मवाद आदि हैं। कार्य उत्पन्न करने की शक्ति का अर्थ 'सामर्थ्य' (Potentiality) है, अतः उत्पत्ति हो भी सकती है और नहीं भी, बीज है तो पौधा उत्पन्न हो भी सकता है और नहीं भी, उत्पन्न हो ही यह आवश्यक नहीं होता, अतः अर्थक्रियाकारित्व 'परिवर्तनशीलता' तो फलित कर सकता है, लेकिन 'निरन्तर परिवर्तनशीलता' या 'क्षणिकवाद' नहीं, दोनों में महत्त्वपूर्ण अन्तर है।
10 क्षणिकता भी निरपेक्ष नहीं सापेक्षिक होती है। पूरा जीवन भी क्षणिक कहा जाता है । (अधिक विवरण के लिए आगे देखें उन्मेष 'स')
11 प्रतीत्यसमुत्पादवाद असत्कार्यवाद नहीं है। कार्य का सदैव (अ) एक ही कारण हो। (ब) निश्चित ही कारण हो । यह दोनों ही आवश्यक नहीं हैं। भिन्न संदर्भ में (अ) अनेक कारण (ब) अनिश्चित कारण भी हो सकते हैं। क्रोध आने का सदैव एक व निश्चित कारण ही नहीं होता है । अनेक, भिन्न-भिन्न व अनिश्चित कारण भी होते हैं । (द्रष्टव्य आगे उन्मेष 'अ')
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12 'अनात्मवाद' दुःख के प्रमुख कारण, आसक्ति के प्रतिकार हेतु 'मन' की अनित्यता का निष्पादन है, न कि आत्मा की अनित्यता का, अन्यथा आत्मा की भी
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