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आधुनिक परिप्रेक्ष्य में बौद्ध धर्म-दर्शन के कतिपय सिद्धान्तों की नवीन व्याख्या 85 अनित्यता में निर्वाण भी स्वतः ही अनित्य और निरर्थक हो जाता है । (द्रष्टव्य, आगे उन्मेष 'ब')
13 'स्वलक्षणता' (unique-particularity) के साथ-साथ 'व्यावहारिक - सामान्य ' (Universality) को स्वीकार करना भी आवश्यक है, केवल स्वलक्षणता से व्यवहार नहीं चलता ।
14 'दुःख' है लेकिन 'सर्वं दुःखम् ' कैसे ? सुख भी तो है । यदि सुख अस्थायी है तो दुःख भी अस्थायी है। तदनुरूप दुःख का अभाव है, अतः 'सर्वं सुखम् ' भी है। टैगोर कहते ही हैं, 'सर्वम् आनन्दम्'।
15 मध्यम मार्ग निरपेक्ष नहीं हो सकता । घृणा के प्रति मध्यम मार्ग, 'पूर्ण- घृणा' और 'अघृणा' के मध्य 'कुछ-कुछ घृणा' करना हो सकता है क्या ? अशुभ से तो ऐकान्तिक / पूर्ण रूप से घृणा करनी ही होगी 'माध्यमिक - घृणा' नहीं ।
16 'विपश्यना' केवल निरन्तर परिवर्तनशीलता, श्वास-प्रश्वास व 'नाम-रूप' को ही देखना नहीं, वरन् इनके भी आधार 'नित्य - चेतन' को भी देखना है।
17 बौद्ध 'वेदों' की निंदा चार्वाक की भांति नहीं करते हैं, वरन् बौद्ध दर्शन में तो चार्वाक एवं आजीवकों की वेदों से भी ज्यादा निंदा और प्रतिकार है। वेदों का प्रतिकार मुख्यत: उनके हिंसावाद रूप विकृति के कारण है। उसे अप्रामाणिक कहना, संदर्भ की मांग थी । यह सामयिक प्रसंग मात्र है।
बौद्ध-धर्म में ईश्वरवाद भी तदनुरूप पूर्णतः फलित होता है । मेरा मानना है कि वस्तुत: अनीश्वरवादी - धर्म तो असम्भव ही है । बुद्ध, बोधिसत्त्व, भगवान के रूप 'में भगवान के सभी गुणों के साथ उपास्य हैं। ईश्वर की स्वीकृति मानव की मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक आवश्यकता है। मनुष्य को भाग्यवादी, अकर्मण्य, अश्रमवाद से ' श्रमण' बनाने का प्रयास है।
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18. इस प्रकार क्रमशः विश्लेषण करने पर सिद्ध होता चला जाता है कि बुद्ध प्रमुख सिद्धान्तों का आधार Pragamatic या व्यावहारिक है 'तात्त्विक' नहीं है। तात्त्विक प्रश्नों को तो वे स्वयं अव्याकृत (अवक्तव्य ) कहकर इस वाद-विवाद को निरर्थक मान लेते हैं और इस संदर्भ में उनका 'मौन' ही बताता है कि तात्त्विक और सैद्धान्तिक प्रश्नों में उलझने के स्थान पर मौन श्रेष्ठ है, इनसे उलझना निरर्थक है, क्योंकि इनका निश्चित निर्धारण इनके चतुष्कोटि - विलक्षण होने के कारण कम से कम भाषा में तो संभव नहीं है । अतः इस विवाद के स्थान पर मानव मात्र की प्रमुख व्यावहारिक समस्या 'दुःख - समुदय' की निवृत्ति का ही प्रयास होना चाहिए और उनके सभी प्रमुख सिद्धान्तों की स्थापना को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए और उससे यह भी स्पष्ट हो जाना चाहिए कि यदि किसी
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