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• 86 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला
विशिष्ट संदर्भ और परिप्रेक्ष्य में वे स्थापित हुए हैं तो बदले हुए संदर्भ व परिप्रेक्ष्य में नवीन व्याख्याएँ, परीक्षण स्वयं उनको भी स्वीकार होगी और हमें भी स्वीकार होनी चाहिये। 'लकीर के फकीर' बने रहना बुद्धत्व का लक्षण नहीं है।
जो संदर्भ बदलने पर भी नहीं बदले वह तो सोया हुआ
सा है और जो संदर्भ बदलने पर तदनुरूप बदल भी जाये, नवीनता ले आये (अवसरवादी नहीं) वही वस्तुतः 'जागा हुआ' या बुद्ध, Awakend, Enlightend है।
- कोटेशन-वेद, डॉ. दिलीप उन्मेष 'अ' बौद्धों का प्रतीत्यसमुत्पादवाद, असत्कार्यवाद नहीं है
दार्शनिक दृष्टि से कारण व कार्य के मध्य क्या सम्बन्ध है ? यह सिद्धान्त कारणतावाद कहलाता है। प्रत्येक दर्शन का कारणतावाद होता है। बौद्ध दर्शन का कारणतावाद, प्रतीत्यसमुत्पादवाद' कहलाता है। यदि 'अ' है तो 'ब' है अर्थात् कार्य, का कारण से ही होना एवं 'वही' कार्य होना ही निश्चित है। इसका एक अर्थ हुआ कि वह कार्य पहले से ही कारण में अव्यक्त रूप से विद्यमान है। यदि ऐसा है तो बौद्ध दर्शन का कार्य-कारण सिद्धान्त 'प्रतीत्यसमुत्पादवाद', 'सत्कार्यवाद' के अधिक समीप आ जाता है। क्योंकि कार्य के कारण में उत्पत्ति से पूर्व भी अव्यक्त रूप में विद्यमान रहने पर ही यह कहा जा सकता है कि वही निश्चित कार्य' उत्पन्न होगा। यद्यपि सत्कार्यवाद में यह उत्पत्ति आवश्यक नहीं है अर्थात् सत्यकार्यवाद उत्पत्ति से पूर्व कार्य की अव्यक्त अवस्था को तो स्वीकार करता है, लेकिन उसकी अभिव्यक्ति या उसका व्यक्त होना अपरिहार्य नहीं मानता, जबकि प्रतीत्यसमुत्पादवाद कारण होने पर कार्य की उत्पत्ति को अनिवार्य या अपरिहार्य भी मानता है, इसलिए यहाँ अव्यक्त का व्यक्त होना भी आवश्यक हो जाता है। इस दृष्टि से प्रतीत्यसमुत्पादवाद, सत्कार्यवाद का विकास कहा जा सकता है।
दूसरी ओर असत्कार्यवाद तो कार्य को उत्पत्ति से पूर्व, अपने कारण में किसी भी रूप में सत् नहीं मानता और उत्पन्न कार्य को एक नया 'आरम्भ' (आरम्भवाद) मानता है। इसलिए असत्कार्यवाद के संदर्भ में यदि कारण है तो कार्य उत्पन होगा ही, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। दूसरी ओर सत्कार्यवाद में भी कारण के होने पर कार्य की निश्चित उत्पत्ति अनिवार्य नहीं है, जबकि प्रतीत्यसमुत्पाद में यह अनिवार्य है। इसलिए प्रतीत्यसमुत्पाद स्पष्टतः न तो सत्कार्यवाद है और न असत्कार्यवाद। यद्यपि तुलनात्मक रूप से देखा जाये तो प्रतीत्यसमुत्पाद, असत्कार्यवाद की तुलना में सत्कार्यवाद के अधिक समीप कहा जा सकता है, वस्तुतः तो यह दोनों से ही विलक्षण
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