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आधुनिक परिप्रेक्ष्य में बौद्ध धर्म-दर्शन के कतिपय सिद्धान्तों की नवीन व्याख्या * 87 सिद्धान्त है। इसका अन्तर्भाव समुचित रूप से इनमें से किसी में भी नहीं किया जा सकता है एवं न ही ऐसा करना आवश्यक है। अत: यहाँ पर उस मान्यता को जो प्रायः परम्परा से स्वीकृत की जाती रही है कि प्रतीत्यसमुत्पाद, असत्कार्यवाद का ही एक रूप या उसके अधिक समीप है, के स्थान पर एक नवीन व्याख्या का प्रयास है कि या तो इसे सत्कार्यवाद के समीप माना जाये या 'सम्यक्' यह है कि इसे एक स्वतन्त्र, विलक्षण कारणतावाद के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। इस समझ से बौद्ध दर्शन की कई असंगतियों का समाधान भी सम्भव हो सकता है। उन्मेष 'ब' आत्मवादी बौद्ध-दर्शन 'आत्मवाद' के विवेचन के सन्दर्भ में निम्न कुछ आयामों पर दृष्टिपात आवश्यक है :1 जिस प्रकार जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा (Metaphysics) में अनेकांतवाद' एवं
ज्ञानमीमांसा (Epistemology) में स्याद्वाद' आधारशिला हैं, उसी प्रकार बौद्ध दर्शन में यह स्थान प्रतीत्यसमुत्पादवाद रखता है। जब तक इसे न समझा जाए, बौद्ध दर्शन को समझना मुश्किल है। इसीलिए स्वयं बुद्ध ने इसे 'धम्म' कहा है। क्योंकि 'सर्वं दुखं' इसका बुद्ध ने अनुभव किया एवं प्रतीत्यसमुत्पाद के आधार पर उन्होंने चार आर्य-सत्यों का विकास किया। प्रतीत्यसमुत्पादवाद क्या है? - बाहय तथा आंतरिक जितनी भी घटनाएं होती हैं. .सभी का कुछ-न-कुछ कारण अवश्य रहता है। किसी कारण के बिना किसी भी
कार्य या घटना का आविर्भाव नहीं हो सकता है। यह नियम किसी चेतन शक्ति द्वारा परिचालित नहीं होता है, वरन् यह स्वयं-चलित (स्वायत्त Autonomous) होता है। ऐसा होने पर ऐसा होता है। If X then Y, If Y then z, If not x then not y, if not Y then not z इसलिए x के न होने पर Y कभी भी नहीं हो सकता है। अतः कार्य का कारण (1) एक ही है और (2) वह निश्चित भी है।
यह (1) + (2) प्रतीत्यसमुत्पादवाद है। 3 यह निम्नलिखित दो एकांगी मतों के मध्य का मार्ग है -
शाश्वतवाद - सत् नित्य है जिसका न आदि है, न अंत है। अतः जो है उसका सर्वथा नाश असम्भव है।
उच्छेदवाद - नष्ट होने पर सभी वस्तुओं का अन्ततः सर्वथा नाश हो जाता है। 6 चार आर्य सत्य - दुःख है, दुख का कारण है, उनका निदान है एवं उसके
उपाय का निश्चित मार्ग है। इसके निदानस्वरूप अविद्या से जरा-मरण तक
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