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. . 88 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला
द्वादश-निदान इसी प्रतीत्यसमुत्पाद के आधार पर विकसित किए गए हैं। बौद्ध दर्शन में अंतिम लक्ष्य निर्वाण है। निर्वाण का शाब्दिक अर्थ बुझ जाना है। .
बौद्ध दर्शन में आत्मा विचारों का प्रवाह मात्र है अर्थात् धर्म-धर्मी रूप या एक, नित्य, शाश्वत, स्थिर द्रव्यरूपी आश्रय का आत्मा के रूप में निषेध है, इस मत को 'अनात्मवाद' कहा गया है, परन्तु चिन्तन करने पर बौद्ध दर्शन में 'आत्मवाद' भी है, यह निम्नांकित तथ्यों से सिद्ध होता है :1 निर्वाण का स्वरूप क्या है ? क्या वह सर्वथा विनाश की स्थिति है या मोक्ष की
तरह की कोई शाश्वत अवस्था है ? बौद्ध मत में सौत्रान्तिक सम्प्रदाय का एक छोटा भाग ही इसे सर्वथा विनाश की स्थिति मानता है, अन्य कोई भी बौद्ध
सम्प्रदाय स्पष्टतः ऐसा नहीं मानते हैं। 2 यदि निर्वाण सर्वथा नाश नहीं है तो फिर मोक्ष एवं निर्वाण में कोई अंतर नहीं।
अतः जब मोक्ष, जिसमें आत्मा अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाती है, एवं निर्वाण में भी सभी तृष्णाओं के बुझने पर व्यक्ति स्वयं में अवस्थित हो जाता है तो फिर मोक्ष की अवधारणा वाले दर्शनों को कैसे आत्मवादी कह सकते हैं? अतः या तो शंकर भी अनात्मवादी हैं या बुद्ध भी आत्मवादी है। परिवर्तनशीलता, क्षणिकवादिता एवं अनात्मवादिता का उपदेश देने का प्रयोजन व सन्दर्भ बौद्ध दर्शन में वस्तुतः (यद्यपि दुःख-निरोध मार्ग में निर्वाण प्राप्ति के लिए अष्टांगिक मार्ग देते हैं) द्वादशनिदान की किसी भी कड़ी पर आक्रमण करना है, क्योंकि उनके अनुसार अविद्या या मिथ्याज्ञान दुःख है एवं यह अविद्या हेय विषयों को स्थायी एवं सुखद समझना है। अतः इनमें आसक्ति, तृष्णा, मोह आदि के बुझने या समाप्त होने तथा ज्ञान, प्रज्ञा एवं शांति को उपलब्ध होने (जिसके लिये वे निर्वाण शब्द प्रयुक्त करते हैं) के लिए वे क्षणिकवाद परिवर्तनशीलता एवं अनात्मवादिता आदि का उपदेश देते हैं, क्योंकि यदि ऐसा नहीं करते तो विषयों में आसक्ति एवं मोह पैदा होता है। अतः अनात्मवादिता का उपदेश केवल मोह, राग, आसक्ति आदि भंग करने के लिए अर्थात् अविद्या दूर करने का एक सैद्धान्तिक
मार्ग है एवं इसका क्रियात्मक मार्ग अष्टांगिक-मार्ग' है। __ मुझे लगता है कि बुद्ध, अंहकार या मन को आत्मा के रूप में जब देखते हैं तो इसे
निरन्तर परिवर्तनशील, तदनुरूप क्षणिक पाते हैं। उनका अनात्मवाद इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिये। जहां कि मैं-पन या अंहकार को ही परिवर्तनशील आत्मा के
रूप में देखा गया है। 5 व्यवहार में हम देखते हैं कि परिवर्तन के लिए एक स्थिर आधार आवश्यक है।
अतः जो दर्शन जितनी तेजी एवं बल से परिवर्तनशीलता को स्थापित करता है,
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