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बौद्ध धर्म-दर्शन में कर्म की अवधारणा
डॉ. हरिसिंह राजपुरोहित
भारतीय दार्शनिक परिप्रेक्ष्य में भगवान् गौतम बुद्ध का आविर्भाव काल अर्थात् छठी शताब्दी ई.पू. एक धार्मिक, सांस्कृतिक एवं दार्शनिक संक्रमण का काल था। वस्तुतः वह एक बौद्धिक और आध्यात्मिक क्रान्ति के सूत्रपात का युग था। अनेक ब्राह्मण एवं श्रमण आचार्य तथा भिक्षु नाना दार्शनिक सिद्धान्तों की उद्भावना और नाना नवीन मार्गों तथा धर्म सम्प्रदायों के प्रतिष्ठापन में निरत थे। सामञफलसुत्त में बुद्धकालीन छह दार्शनिक सिद्धान्तों का उल्लेख भी इसी तथ्य को प्रमाणित करता है।' बुद्धकालीन दार्शनिक सिद्धान्तों में पूरण कस्सप का अक्रियावाद, मक्खलि गोसाल का नियतिवाद (दैववाद), अजित केशकम्बल का उच्छेदवाद कात्यायन का अकृततावाद, निगण्ठनाथपुत्त का चातुर्याम संवर तथा संजय वेलट्ठिपुत्त का अनिश्चितता वाद प्रमुख
था। - पूर्व प्रचलित मतों में जैन दर्शन के अन्तर्गत कर्म का सिद्धान्त विशेष विकसित था। तदनुसार जीवों की सांसारिक गति कर्म के अधीन स्वीकृत है। कर्म के कारण ही उनके जीवन पृथक्-पृथक् नियन्त्रित हैं। संसार एक अनादि दुःख प्रवाह है, जिसमें कर्मबन्धन से विवश, अज्ञान से विचेष्टमान असंख्य जीव बहे जा रहे हैं। संसार से मुक्ति के लिए नवीन कर्म के आस्रव का निरोध और पूर्व कर्म का अपसारण नितान्त आवश्यक है। नवीन कर्म के आस्रव का निरोध 'संवर' कहलाता है। जबकि पूर्वकर्म का अपसारण 'निर्जरा'।
भगवान बुद्ध चैतसिक कर्म को.महत्त्व देते हैं। वे कर्म का सार मानसिक संकल्प अथवा कर्म करने के मानसिक निर्णय को मानते हैं, जिसे चेतना कहा जाता है।
1. दीघनिकाय 1.2
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