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4 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला आजीविका न्याय-नीतिपूर्वक शुद्ध होनी चाहिए, जिससे पर्यावरण एवं समाज का अहित न हो। इसे ही धर्मयुक्त जीविका या सम्यक् आजीव कहते हैं। इस प्रकार श्रमशीलता, सजगता, शुचिकर्मता, विचारशीलता, संयम, सम्यक् आजीविका आदि गुणों से युक्त अप्रमत्त व्यक्ति स्वयं के एवं समाज के लिए उपयोगी तथा आदरणीय होता है, इसलिए कहा गया है कि उसका यश बढ़ता है।
'धम्मपद की गाथा में प्रदत्त संदेश वर्तमान जीवन को तनाव रहित, किन्तु प्रगतिशील, कलहरहित किन्तु सौमनस्य युक्त, प्रदूषण रहित किन्तु समृद्धिमय बनाने हेतु प्रेरित करता है। बौद्ध साहित्य में इस प्रकार के सैकड़ों वचन हैं, जो मानव जीवन को समुन्नत बनाते हैं।
जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर के बौद्ध अध्ययन केन्द्र द्वारा 5-6 . फरवरी, 2011 को एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया था, जिसका विषय था-"आधुनिक परिप्रेक्ष्य एवं बौद्ध धर्म-दर्शन।" इस संगोष्ठी में देश के विभिन्न प्रतिष्ठित विद्वानों ने आधुनिक परिप्रेक्ष्य में बौद्ध धर्म-दर्शन की उपयोगिता को लक्ष्य में रखकर अपने शोधालेख प्रस्तुत किये। यह पुस्तक उन्हीं शोधालेखों का चयनित संग्रह है। यह संग्रह समाज, संस्कृति, दर्शन, अध्यात्म, कला आदि विविध आयामों में बौद्ध धर्म-दर्शन की भूमिका पर व्यापक प्रकाश डालता है।
पालि-त्रिपिटक वाङ्मय विशाल है। उसके अध्ययन की क्या उपयोगिता हो सकती है, इस पर राष्ट्रपति से सम्मानित डॉ. अंगराज चौधरी का आलेख अत्यन्त विशिष्ट है। इसमें पिटक का अर्थ धर्मग्रन्थ किया गया है तथा विनयपिटक, अभिधम्मपिटक के अध्ययन की उपयोगिता पर संक्षेप में एवं सुत्तपिटक की उपयोगिता पर विस्तार से उल्लेख किया गया है। त्रिपिटकों में ऐतिहासिक, भैषज्यपरक, समाजविषयक, मनोवैज्ञानिक, सांस्कृतिक, प्रजातान्त्रिक, आध्यात्मिक, पर्यावरण विषयक आदि विविध विषयों पर पाठ्य सामग्री उपलब्ध होती है। डॉ.चौधरी का कथन है कि पालि-साहित्य भावनामयी प्रज्ञा प्रसूत है, कल्पना प्रसूत नहीं।
दार्शनिक दृष्टि से बौद्ध वाङ्मय अत्यन्त समृद्ध है। उसके कतिपय पहलुओं पर विद्वानों के आलेख इस पुस्तक में सम्मिलित हैं। वाराणसी के वरिष्ठ विद्वान् डॉ. प्रद्युम्न दुबे ने अनात्मवाद विषय पर अपने आलेख में स्पष्ट किया है कि तथागत बुद्ध ने अनात्मभूत तत्त्वों को अपना न समझने का उपदेश दिया था, सर्वथा आत्मा का तिरस्कार नहीं किया। अनत्त या अनात्म को समझने के लिए कहा जा सकता है कि यह रूप अपना नहीं है, ये वेदनाएं अपनी नहीं हैं, संस्कार और विज्ञान भी अपने नहीं हैं। अपना न होने का कारण भी है, क्योंकि ये सभी अनित्य हैं और अनित्य होने के कारण ये सभी दुःखरूप हैं। इस प्रकार अनात्मवाद से ही अहंकार और ममकार का नाश हो सकता है। डॉ. सुषमा सिंघवी ने अपने आलेख में यह सिद्ध करने का सफल प्रयत्न
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