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उट्ठानवतो सतिमतो सुचिकम्मस्स निसम्मकारिनो। सञतस्स च धम्मजीविनो अप्पमत्तस्स यसोभिवड्ढति।।
- धम्मपद, अप्रमाद वर्ग, 4 (उद्योगी, सजग, शुचिकर्मवान्, सोचकर कार्य करने वाले संयमी तथा पवित्र आजीविका से जीवन यापन करने वाले अप्रमत्त व्यक्ति का यश बढ़ता है।)
बौद्ध ग्रन्थ खुद्दकनिकाय के अन्तर्गत परिगणित 'धम्मपद' की उपर्युक्त गाथा हमारे व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन को एक दृष्टि प्रदान करती है कि हमें सदैव श्रमशील रहना चाहिए, मात्र भाग्य पर भरोसा करके बैठे नहीं रहना चाहिए। दूसरी बात यह है कि व्यक्ति को सदैव सजग रहना चाहिए। आध्यात्मिक साधना में भी सजगता से ही व्यक्ति आगे बढ़ता है, तो व्यावहारिक जीवन में भी सजगता से ही उन्नति सम्भव है। सजगता किसमें हो, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि व्यक्ति मन, वचन एवं शरीर से शुचि कर्म करे। जो व्यक्ति एवं समाज के लिए अकरणीय या अहितकर कार्य है, उसे नहीं करने के प्रति सजगता हो तथा जो इन दोनों के लिए उपयोगी एवं हितकर कार्य हों, उन्हें करने के लिए सजगता हो। क्योंकि किसी भी प्रकार के अपवित्र कार्य को न करना, कुशल या पवित्र कार्य को करना तथा अपने चित्त को शुद्ध करना, बुद्धों की प्रमुख शिक्षा है। कोई भी कार्य करें, उसे विचारपूर्वक करना चाहिए। दूसरों की बात सुनकर स्वयं अपने विवेक का प्रयोग कर कार्य में प्रवृत्त होना चाहिए। हिंसा, झूठ, चोरी, सुरापान, कामाचार आदि पाप-कार्यों से अपने को विरत रखकर संयममय जीवन जीना चाहिए। संयम के साथ धैर्य का घनिष्ठ सम्बन्ध है। धैर्यशाली व्यक्ति वही होता है जो प्रज्ञावान् होता है। इसलिए प्रज्ञा के साथ शील या संयम का योग हो, तो जीवन श्रेयस्कर बन जाता है। धम्मपद की उपर्युक्त गाथा यह भी संकेत कर रही है कि 1. सव्वपापस्स अकरणं, कुसलस्स उपसम्पदा। सचित्तपरियोदपनं, एतं बुद्धानं सासनं।।
- धम्मपद, बुद्धवग्गो,5
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