SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुरोवाक् *5 किया है कि बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति बाह्य पदार्थ के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। डॉ. सिंघवी ने इसके लिए मूल ग्रन्थों से प्रमाण उपस्थापित किए हैं। डॉ. धर्मचन्द जैन ने बौद्ध दर्शन में प्रतिपादित निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का वैशिष्ट्य निरूपित करते हुए स्पष्ट किया है कि व्यवहार में भले ही निर्विकल्पक प्रत्यक्ष उपयोगी न हो, किन्तु प्रज्ञा के विकास, शान्ति के अनुभव, विकारों पर विजय, कार्यक्षमता में अभिवृद्धि, शारीरिक आरोग्य, व्यक्तित्व-विकास आदि अनेक लाभ निर्विकल्पकता के बोध से सम्भव होते हैं। ध्यान-साधना में निर्विकल्पकता का होना आवश्यक है। डॉ. दिलीप सक्सेना ने कतिपय बौद्ध सिद्धान्तों की नूतन व्याख्या की है। उन्होंने प्रतीत्यसमुत्पादवाद को सांख्य के सत्कार्यवाद तथा नैयायिक के असत्कार्यवाद से भिन्न निरूपित किया है। अनात्मवाद के सम्बन्ध में डॉ. सक्सेना का मन्तव्य है कि बौद्ध दर्शन में आत्मवाद का निषेध नहीं है। निर्वाण की अवस्था में सर्वथा नाश नहीं माना जा सकता। परिवर्तन के लिए कोई स्थिर आधार आवश्यक है, एवम्विध तर्क देकर वे बौद्धदर्शन में आत्मवाद की पुष्टि करते हैं। डॉ. सक्सेना ने यह भी सिद्ध किया है कि बौद्ध दर्शन में क्षणिकता की मान्यता निरपेक्ष नहीं है, यह सापेक्ष है। __ शून्यवाद एवं उसकी प्रासंगिकता को लेकर पुस्तक में दो आलेख हैं। डॉ. मंगलाराम ने शून्यवाद की अवधारणा का व्यापक विवेचन किया है, वहीं डॉ. राजकुमारी जैन ने शून्यता को प्रतीत्यसमुत्पाद के रूप में प्रस्तुत करते हुए वर्तमान जीवन में उसकी प्रासंगिकता सिद्ध की है। उन्होंने लिखा है कि शून्यवाद का सिद्धान्त मूल्यविहीन और भोगपरक दृष्टिकोण का विरोध करता है और सुखी होने के लिए सदाचार पूर्ण जीवन पर बल देता है। यह कार्य-कारणवाद के सिद्धान्त की सुन्दर प्रस्तुति है। शून्यवाद के परिप्रेक्ष्य में डॉ. राजकुमारी ने यह भी स्पष्ट किया है कि नागार्जुन के मत में सभी तत्त्वमीमांसीय मान्यताओं से पृथक् होकर सत्य का ज्ञान करना चाहिए। डॉ. हरिसिंह राजपुरोहित ने बौद्ध धर्म में मान्य कर्म की अवधारणा का निरूपण किया है। बौद्ध धर्म समाज के लिए प्रासंगिक है, इस बिन्दु को लेकर पुस्तक में अनेक लेख हैं। डॉ. विमलकीर्ति ने दलितों के उत्थान के लिए बौद्ध धर्म की प्रासंगिकता को रेखांकित किया है। उनका कथन है कि पालि तिपिटक साहित्य के अध्ययन के बिना हम प्राचीन भारतीय समाज-व्यवस्था के सही स्वरूप को नहीं समझ सकते। भारत के दलितों की समस्या जातिवाद से उत्पन्न समस्या है। जाति-भेद, अछूतपन आदि कोई दैवीय, ईश्वरीय या नैसर्गिक व्यवस्था नहीं है, बल्कि यह व्यवस्था मानव-निर्मित या समाज निर्मित है। दलितों का उत्थान मात्र आर्थिक उत्थान से सम्भव नहीं है, अपितु भारतीय समाज में उन्हें जातिगत भेद के बिना देखे जाने की आवश्यकता है। डॉ. शिवनारायण जोशी के आलेख में अनात्मवाद को ममकार के निवारण में, मानसिक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy