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बौद्धदर्शन में निर्विकल्पकता का स्वरूप एवं
उसका जीवन में महत्त्व
डॉ. धर्मचन्द जैन
बौद्धदर्शन में जो निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का स्वरूप दिङ्नाग (470-530. ई.), धर्मकीर्ति (620-690 ई.) आदि दार्शनिकों द्वारा प्रतिपादित किया गया है वह भारतीय दर्शन में नितान्त महत्त्वपूर्ण है। यही नहीं भारतीय दर्शन को उनकी यह विशिष्ट देन है, जिससे मीमांसक एवं नैयायिक भी प्रभावित हैं। बौद्धदार्शनिक प्रत्यक्ष प्रमाण को निर्विकल्पक ही मानते हैं, जबकि अन्य दार्शनिक उसे सविकल्पक भी अंगीकार करते हैं। बौद्धदार्शनिकों द्वारा प्रतिपादित निर्विकल्पक प्रत्यक्ष वस्तु के सप्रकारक ज्ञान में एवं उसकी हेयोपादेयता में भले ही तत्काल उपयोगी प्रतीत न होता हो, किन्तु जीवन में निर्विकल्पता का अनुभव आध्यात्मिक एवं सशक्त व्यक्तित्व विकास की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व रखता है। निर्विकल्पकता का अनुभव अनेक दृष्टियों से जीवन में उपयोगी सिद्ध होता है, यही प्रस्तुत आलेख का प्रतिपाद्य है। सविकल्पकता एवं निर्विकल्पकता का स्वरूप
सामान्यतौर पर सविकल्पकता से आशय ऐसे ज्ञान से है जिसमें गौ, घट, पट, मनुष्य आदि शब्दों की योजना हो अथवा जो ज्ञान सप्रकारक हो, प्रमेय वस्तु को आकार-प्रकार आदि विशेषणों से युक्त जानता हो। भारतीय दर्शन में सविकल्पकता एवं निर्विकल्पकता का विचार करने वाले दर्शनों में बौद्ध, मीमांसा एवं न्याय-वैशेषिक दर्शन प्रमुख हैं। न्याय-वैशषिक दर्शन में नाम, जाति आदि की योजना से युक्त ज्ञान को सविकल्पक माना है जो ज्ञेय वस्तु के विशेषण विशेष्य को ग्रहण करता है; यथा नाम से यह डित्थ है, जाति से ब्राह्मण है, वर्ण से श्याम है आदि।' इसके विपरीत नाम, जाति, 1. सविकल्पकं नामजात्यादियोजनात्मकं डित्थोऽयं, ब्राह्मणोऽयं, श्यामोऽयमिति
विशेषणविशेष्यावगाहि ज्ञानम्। - तर्कभाषा, केशवमिश्र, हिन्दी व्याख्या-आचार्य विश्वेश्वर सिद्धान्त शिरोमणि, चौखम्बा संस्थान, वाराणसी, षष्ठ संस्करण, 1977, पृ. 49
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