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बौद्धदर्शन में निर्विकल्पता का स्वरूप एवं उसका जीवन में महत्त्व * 63 आदि की योजना से हीन वस्तुमात्र को ग्रहण करने वाले 'यह कुछ है' इत्यादि ज्ञान को निर्विकल्पक स्वीकार किया गया है। न्यायदर्शन के न्यायसूत्र में प्रत्यक्ष का जो लक्षण दिया गया है वह निर्विकल्पक एवं सविकल्पक प्रत्यक्ष के भेदों का आधार बना है, यथाइन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षं।- न्यायसूत्र 1.14
प्रत्यक्ष के इस लक्षण में 'अव्यपदेश्य' पद निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का तथा 'व्यवसायात्मक' पद सविकल्पक प्रत्यक्ष का आधार बना, ऐसा न्याय-वैशेषिक दार्शनिक वाचस्पति मिश्र आदि के ग्रन्थों में देखा जा सकता है।
मीमांसादर्शन में भी निर्विकल्पक प्रत्यक्ष की चर्चा है। कुमारिलभट्ट प्रत्यक्ष का लक्षण देते हुए कहते हैं -
अस्ति ह्यालोचनाज्ञानं प्रथम निर्विकल्पकम्। बालमूकादिविज्ञानसदृशं शुद्धवस्तुजम्।
- श्लोकवार्तिक, प्रत्यक्ष सूत्र 112 किसी वस्तु का साक्षात्कार करने पर प्रथम आलोचनमात्र ज्ञान निर्विकल्पक होता है। वह बालक, मूक आदि के ज्ञान के समान वस्तु से उत्पन्न शुद्ध ज्ञान है, जिसमें शब्दादि की योजना नहीं है। मीमांसादर्शन भी प्रत्यक्ष के निर्विकल्पक एवं सविकल्पक भेद अंगीकार करता है। . ____ बौद्धदर्शन ही भारतीय दर्शन में एक ऐसा दर्शन है जो प्रत्यक्ष प्रमाण को मात्र निर्विकल्पक मानता है। दिङ्नाग ने प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण देते हुए कहा है - प्रत्यक्षं कल्पनापोटं नामजात्याद्यसंयुतम् (प्रमाणसमुच्चय 1.3) नाम, जाति आदि की कल्पना से रहित.ज्ञान प्रत्यक्ष होता है। बौद्धों का मानना है कि जिस घट आदि अर्थ का प्रत्यक्ष किया जाता है, उसमें कोई शब्द नहीं होता, शब्द तो हम पूर्व संकेत स्मरण के कारण योजित करते हैं। बौद्ध दार्शनिक दिङ्नाग के अनुसार कल्पना का अर्थ है ज्ञान में नाम, जाति, गुण, क्रिया एवं द्रव्य की योजना करना। यथा यदृच्छ शब्दों में यह डित्थ है, इस प्रकार किसी विशिष्ट अर्थ को डित्थ नाम से युक्त करना नामयोजना रूप कल्पना है। जाति शब्दों में यह गाय है, इस प्रकार गाय शब्द का प्रयोग करना जातियोजना रूप कल्पना है। इसी प्रकार गुण शब्दों में यह शुक्ल है' इस प्रकार शुक्ल गुण का योजन करना गुण योजना रूप कल्पना है, क्रिया शब्दों में यथा 'यह क्रिया से रसोइया है इस
2. निर्विकल्पकं नामजात्यादियोजनाहीनं वस्तुमात्रावगाहि किञ्चिदिदमिति ज्ञानम्। - वही पृ. 48 3. See D.N. Shastri, The Philosopy of Nyaya Vaisesika and its Conflict with the ___Budhhist Dignāga school, Bhartiya Vidya Prakashan, Delhi 1954, Reprint - 1976.p.430-31
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