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64 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला प्रकार क्रिया की योजना करना क्रिया रूप कल्पना है तथा द्रव्य शब्दों में यथा 'यह दण्डी है' अथवा 'विषाणी है' इस प्रकार का प्रयोग करना द्रव्ययोजना रूप कल्पना है।। दिङनाग इन पांचों प्रकार की कल्पनाओं से रहित ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण की संज्ञा देते हैं। कल्पना से रहित होने पर भी वे प्रत्यक्ष को ज्ञानात्मक मानते हैं, क्योंकि ज्ञान ही कल्पना से युक्त होता है।
दिङ्नाग द्वारा प्रत्यक्ष में नामादि योजनारूप कल्पना का निषेध करने के पीछे अभिधर्मकोश व्याख्या ग्रन्थ के दो कथन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यथा - (1) चक्षुर्विज्ञानसमंङ्गी नीलं विजानाति नो तु नीलमिति (2) अर्थेऽर्थसंज्ञी न त्वर्थे धर्मसंज्ञीति। प्रथम वाक्य का तात्पर्य है कि चक्षुर्विज्ञान से जानने वाला पुरुष नील अर्थ को जानता है, किन्तु उसे 'यह नील है' इस रूप में नहीं जानता। नीला अर्थ (पदार्थ) को जानना कल्पना रहित है, 'यह नील है' इस रूप में जानना कल्पना युक्त है। द्वितीय वाक्य का अभिप्राय है - अर्थ में अर्थ का ज्ञान होना निर्विकल्पक है, किन्तु अर्थ में उसके धर्म का अर्थात् नाम, गुण, आदि का ज्ञान होना विकल्पात्मकता है।
बौद्ध मान्यता है कि शब्द एवं अर्थ (पदार्थ/वस्तु) का परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं है। अर्थ में शब्द नहीं होता। अर्थ को शब्द छूते भी नहीं हैं। इसलिए अर्थ का प्रत्यक्ष करते समय शब्द की योजना कल्पना ही है। समस्त कल्पनाएँ शब्द से उत्पन्न होती हैं तथा समस्त शब्द कल्पनाओं से उत्पन्न होते हैं - विकल्पयोनयः शब्दाः, शब्दाः विकल्पयोनयः।
दिङ्नाग के पश्चात् बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति ने कल्पना के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए अधिक सूक्ष्मता का परिचय दिया है। वे कहते हैं कि अभिलाप अर्थात् वाचक शब्द के संसर्ग योग्य प्रतिभास की प्रतीति होना कल्पना है - अभिलापसंसर्गयोग्यप्रतिभासा प्रतीतिः कल्पना। (न्यायबिन्दु, 1.5) प्रमेय अर्थ का प्रत्यक्ष होते समय यदि किसी को उसका वाचक शब्द न आता हो, किन्तु वह यह समझे 4. यदृच्छाशब्देषु नाम्ना विशिष्टोऽर्थ उच्यते डित्थ इति। जातिशब्देषु जात्या गौरिति । गुणशब्देषु गुणेन __शुक्ल इति। क्रियाशब्देषु क्रियया पाचक इति। द्रव्यशब्देषुद्रव्येण दण्डी विषाणीति।- Dignaga, on
perception Massaki Hattori, Harward University Press, 1968, प्रमाणसमुच्चयवृत्ति
एवं प्रमाणसमुच्धयटीका, पृ. 12 5. यत्रैषा कल्पना नास्ति तत्प्रत्यक्षम्। Dignaga on perception प्रमाणसमुच्चयवृत्ति 6. (i) द्रष्टव्य अभिधर्मकोशव्याख्या पृ. 64.22-23
(ii) मुनि जम्बूविजय सम्पादित द्वादशारनयचक्र, आत्मानन्द सभा, भावनगर, गुजरात, 1966 भाग
-1 पृ. 62 पर उद्धृत। 7. नार्थं शब्दाः स्पृशन्त्यपि। - दिङनाग, उद्धृत Buddhist Logic, Stecherbatsky, Dover
Publication, New York, 1962, Vol 2, p.405 F.N. 1 8. वही, पृ. 405
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