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बौद्धदर्शन में निर्विकल्पता का स्वरूप एवं उसका जीवन में महत्त्व * 65 कि इस ज्ञात वस्तु को कोई शब्द दिया जा सकता है, तो उसकी यह प्रतीति भी कल्पना ही है। धर्मकीर्ति का यह कल्पनालक्षण मीमांसा दार्शनिक कुमारिलभट्ट के द्वारा निरूपित प्रत्यक्ष लक्षण का खण्डन कर देता है, जिसमें उन्होंने बालक एवं मूक पुरुष के ज्ञान को निर्विकल्पक माना है।' बालक जिस पदार्थ का प्रत्यक्ष करता है, उसका नाम भले ही न जानता हो, किन्तु ऐसी प्रतीति होती है कि इसे कोई नाम दिया जा सकता है। इसी प्रकार मूक व्यक्ति शब्द का प्रयोग नहीं कर पाता, किन्तु उसे यह बोध होता है कि दृष्ट या ज्ञात वस्तु को शब्द दिया जा सकता है। अतः धर्मकीर्ति की दृष्टि में बालक एवं मूक का ज्ञान भी कल्पना की श्रेणि में आता है। ऐसा प्रतीत होता है कि धर्मकीर्ति ने कुमारिल का खण्डन करने के लिए ही कल्पना का अभिलापसंसर्गयोग्यप्रतिभासप्रतीति लक्षण किया है।
__ आज हम अंग्रेजी शब्द Imagination को कल्पना का पर्याय मानते हैं, किन्तु वह कल्पना भी शब्दों के आधार पर ही चिन्तन के रूप में अग्रसर होती है। उसके मूल में भी वाचक शब्द के प्रयोग की अवधारणा रही है। उसी का बृहत्प्रयोग हम Imagination स्वरूप कल्पना के रूप में जानते हैं। शब्दों या आकृतियों के आलम्बन के बिना किसी भी कल्पना का स्वरूप नहीं बनता, इसलिए दार्शनिकों ने शब्दयोजना को कल्पना कहा
'कल्पना' के स्वरूप-प्रतिपादन में दिङ्नाग, धर्मकीर्ति आदि बौद्ध दार्शनिकों की सूक्ष्मदृष्टि मात्र प्रमाणमीमांसा में ही उपयोगी नहीं, अपितु आध्यात्मिक साधना एवं व्यक्तित्व विकास की दृष्टि से भी उपयोगी है। ध्यानसाधना में निर्विकल्पकता का महत्त्व
बौद्ध दर्शन में जो विपश्यना साधना है, उसमें द्रष्टाभाव का विकास किया जाता है तथा नाम, जाति आदि की योजना स्वरूप कल्पना का परिहार किया जाता है। शरीर पर विभिन्न प्रकार की संवेदनाओं का जो अनुभव होता है, उन्हें किसी प्रकार का नाम दिए बिना एवं उनके प्रति राग-द्वेष किए बिना मात्र उन्हें चित्त के द्वारा देखा जाता है। कायानुपश्यना, वेदनानुपश्यना, चित्तानुपश्यना एवं धर्मानुपश्यना में द्रष्टाभाव का ही विकास कर राग-द्वेषादि के संस्कारों से रहित होने का पुरुषार्थ किया जाता है। यह सारी साधना निर्विकल्पकता के अभ्यास की साधना है। कायानुपश्यना में जहाँ चित्त के द्वारा शरीर की प्रेक्षा की जाती है वहाँ वेदनानुपश्यना में वेदनाओं को तटस्थ रहकर जाना जाता है। चित्तानुपश्यना में चित्त का तटस्थ अवलोकन किया जाता है तथा धर्मानुपश्यना में चित्त में उत्पन्न दुःख, सुख आदि चैत्त धर्मों की अनुपश्यना की जाती है। अनुपश्यना
9. अस्ति ह्यालोचनाज्ञानं प्रथमं निर्विकल्पकम्।
बालमूकादिविज्ञानसदृशं शुद्धवस्तुजम्।। - श्लोकवार्तिक, प्रत्यक्ष सूत्र 112
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