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66 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला करने वाले साधक को प्रतिक्षण अपने भीतर स्वतः प्रकट होने वाली सच्चाइयों को साक्षी भाव से देखना होता है। वह काया, वेदना, चित्त अथवा चैतसिक धर्मों के उदय-व्यय को प्रज्ञा या प्रत्यक्ष अनुभूति से जानता है। वह जागरूक होकर जैसा है वैसा जानता रहता है। महासतिपट्ठानसुत्त में कायानुपश्यना; वेदनानुपश्यना, चित्तानुपश्यना एवं धर्मानुपश्यना का विस्तृत एवं विशद निरूपण हुआ है। कायानुपश्यना के सम्बन्ध में कहा गया है - "यावदेव आणमत्ताय पटिस्सतिमत्ताय, अनिसितो च विहरति, न च किञ्च लोके उपादियति। एवम्पि खो, भिक्खवे, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति। अर्थात् काया की अनुपश्यना करते समय जब तक मात्र ज्ञान, मात्र दर्शन बना रहता है तब तक वह अनाश्रित होकर विहरता है और लोक में कुछ भी ग्रहण नहीं . करता। इस प्रकार भी भिक्षु काया में कायानुपश्यी होकर विहार करता है। यह तथ्य तब भी घटित होता है जब वेदनानुपश्यना, चित्तानुपश्यना एवं धर्मानुपश्यना की जाती है।12 . जब साक्षीभाव से अनुपश्यना की जाती है तो किसी कल्पना का अथवा शब्दादि का आरोपण नहीं किया जाता है। यद्यपि अनुपश्यना करने वाला आतापी (श्रमशील), सम्पजानो (सम्यक् प्रकार से ज्ञाता) एवं सतिमा (जागरूक) होता है तथा प्रज्ञा का आलम्बन लेता है, तथापि वह कल्पना से परे रहता है। वह यथाभूत को जानता एवं देखता है अथवा अनुभव करता है। राग-द्वेष किए बिना जानना तभी सम्भव होता है। निर्विकल्पकता के अनुभव से विविध लाभ
अनुपश्यना की यह विधि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष को आधार बनाती है। निर्विकल्पक-साधना का अभ्यास जितना बढ़ता जाता है जीवन में उतने ही अनेकविध लाभ अनुभव होते हैं, यथा -
1.प्रज्ञा का विकास - प्रज्ञा के विकास में निर्विकल्पकता का अनुभव महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है। मनुष्य अधिकतर राग-द्वेषादि के विकल्पों में जीता है। प्रज्ञा का विकास तटस्थदृष्टि में ही सम्भव है। तटस्थदृष्टि निर्विकल्पकता के अभ्यास से विकसित होती है। शमथ एवं विपश्यना भी इसमें सहायक है। मानव जीवन में प्रज्ञा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। प्रज्ञा होने पर ही समस्त क्लेशों का नाश सम्भव है। प्रज्ञा एक प्रकार से अन्तः चक्षु है जो लोभ, मोह, द्वेष आदि अकुशल धर्मों को देखने एवं उनका निरसन करने में सहायक है।
10. द्रष्टव्य, महासितपट्ठानसुत्त,विपश्यना विशोधन विन्यास, इगतपुरी, प्रथम संस्करण 1996, पुनर्मुद्रण
2008 11. महासतिपट्ठानसुत्त, विपश्यना विशोधन विन्यास, इगतपुरी 2008, मूलपाठ पृ. 14 12. द्रष्टव्य, वही, पृ. 16, 18 एवं 22
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